माघ मास का माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय | Chapter 5 Magha Puran ki Katha

Chapter 5

Magh mass pachwa adhyay

माघ मास का माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय

Chapter 5

 

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दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ। भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक ब्राह्मणी थी जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी। वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी। वह जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता, सुशील, दानशीलता तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी। वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी। वह वल्कल धारण करती थी और संतोष से अपना जीवन व्यतीत करती थी। उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गई।

माघ(Magh Maas) स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुंद और उपसुंद दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्मा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा के रूप में ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। वह अत्यंत रुपवती, गान विद्या में अति प्रवीण तथा मुकुट कुंडल से शोभायमान थी। उसका रूप, यौवन और सौंदर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गये। वह तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके वन में बैठी थी तब सुंद व उपसुंद के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान उस रुपवती को देखकर अपने राजा सुंद और उपसुंद से उसके रुप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऐसी परम सुंदरी स्त्री हमने कभी नहीं देखी, आप भी चलकर देखें तब वह दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहाँ पर आए जहाँ पर वह सुंदरी बैठी हुई थी और मदिरा के पान विह्वल होकर काम-क्रीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री-रत्न को प्राप्त करने के लिए विवादग्रस्त हुए और फिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त हो गए।

उन दोनों का मरा हुआ देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा कालरात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा के सामने आई तो ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से कहा कि हे चन्द्रवती मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया। जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो। सो हे राजन! वह ब्राह्मणी अब भी सूर्य के रथ पर माघ मास(Magh Maas) स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इसलिए श्रद्धावान पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास(Magh Maas) में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

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माघ मास का माहात्म्य चौथा अध्याय | Chapter 4 Magha Puran ki Katha

Chapter 4

Magh mass chotha adhyay

माघ मास का माहात्म्य चौथा अध्याय

Chapter 4

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श्री वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! अब मैं माघ के उस माहात्म्य को कहता हूँ जो कार्तवीर्य के पूछने पर दत्तात्रेय ने कहा था।

जिस समय साक्षात विष्णु के रुप श्री दत्तात्रेय सत्य पर्वत पर रहते थे तब महिष्मति के राजा सहस्रार्जुन ने उनसे पूछा कि हे योगियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेयजी! मैंने सब धर्म सुने। अब आप कृपा करके मुझे माघ मास का माहात्म्य (Magh Maas Mahatmya) कहिए। तब दत्तात्रेय जी बोले – जो नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा था वही माघ माहात्म्य (Magh Maas Mahatmya) मैं तुमसे कहता हूँ। इस कर्म भूमि भारत में जन्म लेकर जिसने माघ स्नान नहीं किया उसका जन्म निष्फल गया।

भगवान की प्रसन्नता, पापों के नाश और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए माघ स्नान अवश्य करना चाहिए। यदि यह पुष्ट व शुद्ध शरीर माघ स्नान के बिना ही रह जाए तो इसकी रक्षा करने से क्या लाभ! जल में बुलबुले के समान, मक्खी जैसे तुच्छ जंतु के समान यह शरीर माघ स्नान के बिना मरण समान है। विष्णु भगवान की पूजा न करने वाला ब्राह्मण, बिना दक्षिणा के श्राद्ध, ब्राह्मण रहित क्षेत्र, आचार रहित कुल ये सब नाश के बराबर हैं।

गर्व से धर्म का, क्रोध से तप का, गुरुजनों की सेवा न करने से स्त्री तथा ब्रह्मचारी, बिना जली अग्नि से हवन और बिना साक्षी के मुक्ति का नाश हो जाता है। जीविका के लिए कहने वाली कथा, अपने ही लिए बनाए हुए भोजन की क्रिया, शूद्र से भिक्षा लेकर किया हुआ यज्ञ तथा कंजूस का धन, यह सब नाश के कारण हैं। बिना अभ्यास और आलस्य वाली विद्या, असत्य वाणी, विरोध करने वाला राजा, जीविका के लिए तीर्थयात्रा, जीविका के लिए व्रत, संदेहयुक्त मंत्र का जप, व्यग्र चित्त होकर जप करना, वेद न जानने वाले को दान देना, संसार में नास्तिक मत ग्रहण करना, श्रद्धा बिना धार्मिक क्रिया, यह सब व्यर्थ है और जिस तरह दरिद्र का जीना व्यर्थ है उसी तरह माघ स्नान के बिना मनुष्य का जीना व्यर्थ है। ब्रह्मघाती, सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, गुरु-पत्नीगामी और इन चारों की संगति करने वाला माघ स्नान से पवित्र होता है।

जल कहता है कि सूर्योदय से पहले जो मुझसे स्नान करता है मैं उसके बड़े से बड़े पापों को नष्ट करता हूँ। महापातक भी स्नान करने से भस्म हो जाते हैं। माघ मास(Magh Maas) के स्नान का जब समय आ जाता है तो सब पाप अपने नाश के भय से काँप जाते हैं।

जैसे मेघों से मुक्त होकर चंद्रमा प्रकाश करता है वैसे ही श्रेष्ठ मनुष्य माघ मास में स्नान करके प्रकाशमान होते हैं। काया, वाचा, मनसा से किए हुए छोटे या बड़े, नए या पुराने सभी पाप स्नान से नष्ट हो जाते हैं। आलस्य में बिना जाने जो पाप किए हों वह भी नाश को प्राप्त होते हैं। जिस तरह जन्म-जन्मांतर के अभ्यास से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है उसी तरह जन्मान्तर अभ्यास से ही माघ स्नान में मनुष्य की रुचि होती है। यह अपवित्रों को पवित्र करने वाला बड़ा तप और संसार रूपी कीचड़ को धोने की पवित्र वस्तु है।

हे राजन! जो मनवांछित फल देने वाला माघ स्नान नही करते वह सूर्य, चंद्र के समान भोगों को कैसे भोग सकते हैं!

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माघ मास का माहात्म्य तीसरा अध्याय | Chapter 3 Magha Puran ki Katha

Chapter 3

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माघ मास का माहात्म्य तीसरा अध्याय

Chapter 3

 
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तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊँचा और कितना लंबा-चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊँचा ऊपर चोटी में दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है। जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदार और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है। दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस पर्वत को फल और फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और यहाँ पर कंदराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे।

इस प्रकार जब भृगु ऋषि वहाँ पर अपने आश्रम पर रह रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा। वे अत्यंत दुखी थे। उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर! तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है? तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर, स्वर्ग पाकर तथा देवतुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसा है। मेरे दुख और अशांति का यही एक कारण है। न जाने किस पाप का फल है। मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिए।

मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर नारदजी को प्रसन्न किया। नाना स्वरों के नाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया। अनेक प्रकार के नाच ताल से शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए। शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है। कहां ऐसी चंद्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिंता सदैव मेरे हृदय को जलाती है।

विद्याधर के ऐसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फलों को प्राप्त होकर ज्ञानी पुरुष भी मोह को प्राप्त हो जाते हैं। मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यंत दुखदायी हो जाता है। तुमने माघ मास(Magh Maas) की एकादशी का व्रत करके द्वादशी न आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए। एकादशी के दिन उपवास करके द्वादशी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था तब वह अपने कुरुप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमालय पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया।

प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र, शंख, चक्र, गदा, पद्म के धारण करने वाले पीताम्बर पहने, वन माला धारण किए हुए विष्णु का चिंतन करते राजा पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रहकर भगवान का चिंतन किया। इस प्रकार सात जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान, राजा के तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गए और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया। भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुंदर देवताओं का सा रूप दिया जिसको देखकर उर्वशी भी उसको चाहने लगी और राजा कृतकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया।

भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो जहाँ पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूँ। तुम्हारे भाग्य से माघ मास(Magh Maas) आज से पाँचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ल एकादशी से इस व्रत को आरंभ करो। भूमि पर सोना, जितेंद्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर निराहार रहो। सब भोगों को त्यागकर तीनों समय भगवान विष्णु का पूजन करो जब तुम द्वादशी को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख देखकर सभी चकित हो जाएंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे।

माघ मास(Magh Maas) के प्रभाव को जानकर सदा माघ में स्नान करो। पाप दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास(Magh Maas) का स्नान करना चाहिए। स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप! भृगुजी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया और वह मणिग्रीव पर्वत पर आनंद से रहने लगे। भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गए।

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माघ मास का माहात्म्य पहला अध्याय | Chapter 1 Magha Puran ki Katha

Chapter 1

Chapter 1

माघ मास का माहात्म्य पहला अध्याय

Chapter – 1

 
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एक समय श्री सूतजी ने अपने गुरु श्री व्यासजी से कहा कि गुरुदेव कृपा करके आप मुझे से माघ मास का माहात्म्य (Magh Maas Mahatmya) कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ। व्यासजी कहने लगे कि रघुवंश के राजा दिलीप एक समय यज्ञ के स्नान के पश्चात पैरों में जूते और सुंदर वस्त्र पहनकर शिकार की सामग्री से युक्त, कवच और शोभायमान आभूषण पहने हुए अपने सिपाहियों से घिरे हुए जंगल में शिकार खेलने के लिए अपनी नगरी से बाहर निकले। उनके सिपाही जंगल में शिकार के लिए मृग, व्याघ्र, सिंह आदि जंतुओं की तलाश में इधर-उधर फिरने लगे।

उस वन में वनस्थली अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रही थी, कहीं-2 मृगों के झुंड फिरते थे। कहीं गीदड़ अपना भयंकर शब्द कर रहे थे। कहीं गैंडों का समूह हाथियों के समान फिर रहा था। कहीं वृक्षों के कोटरों में बैठे हुए उल्लू अपना भयानक शब्द कर रहे थे। कहीं सिंहों के पदचिन्हों के साथ घायल मृगों के रक्त से भूमि लाल हो रही थी। कहीं दूध से भरी थनों वाली सुंदर भैंसे फिर रही थी, कहीं पर सुगंधित पुष्प, हरी-भरी लताएँ वन की शोभा को बढ़ा रही थी। कहीं बड़े-बड़े पेड़ खड़े थे तो कहीं पर उन पेड़ों पर बड़े-बड़े अजगर और उनकी केंचुलियाँ भी पड़ी हुई थी।

उसी समय राजा के सिपाहियों के बाजे की आवाज सुनकर एक मृग वन में से निकलकर भागने लगा और बड़ी-बड़ी चौकड़ियाँ भरता हुआ आगे बढ़ा। राजा ने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया परन्तु मृग पूरी शक्ति से भागने लगा। मृग कांटेदार वृक्षों के एक जंगल में घुसा और राजा ने भी उसके पीछे वन में प्रवेश किया परंतु दूर जाकर मृग, राजा की दृष्टि से ओझल होकर निकल गया। राजा निर्जन वन में अपने सैनिकों सहित प्यास के मारे अति दुखी हो गया। दोपहर के समय अधिक मार्ग चलने से सैनिक थक गये और घोड़े रुक गए। कुछ देर बाद राजा ने एक बड़ा भारी सुंदर सरोवर देखा जिसके किनारों पर घने वृक्ष थे। इसका जल सज्जनों के हृदय के समान स्वच्छ और पवित्र था।

सरोवर का जल लहरों से बड़ा सुंदर लगता था। जल में अनेक प्रकार के जल-जंतु मछलियाँ आदि स्वच्छंदता से इधर-उधर फिर रही थी। दुष्टों के समान निर्दयी चित्त वाले मगरमच्छ भी थे। किसी-किसी जगह लोभी के समान सिमाल भी पड़ी हुई थी। जैसे विपत्ति में पड़े हुए लोगों को दुखों को हरने वाले दानी पुरुष के समान यह सरोवर अपने जल से सबको सुखी करता था, जैसे मेघ चातक के दुख को हरता है, इस सरोवर को देखकर राजा की थकावट दूर हो गई। रात्रि को राजा ने वहीं विश्राम किया और सैनिक पहरा देने लगे और चारों तरफ फैल गए। 

रात के अंतिम समय में शूकरों के एक झुंड ने आकर सरोवर में पानी पीया और कमल के झुंड के पास आया तब शिकारियों ने सावधान होकर शूकरों पर आक्रमण किया और उनको मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। उस समय सब शिकारी कोलाहल करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा के पास गए और राजा प्रभात हुआ देखकर उनके साथ ही अपनी नगरी की तरफ चल पड़ा। 

जिसका शरीर तपस्या और नियमों के कारण बिलकुल सूख गया था, जो मृगछाला और वल्कल पहने हुए था और नख रोम तथा केश धारण किए हुए था, राजा ने ऐसे घोर तपस्वी को देखकर बड़े आश्चर्य से उसको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। तपस्वी ने राजा से कहा कि हे राजन! इस पुण्य शुभ माघ में इस सरोवर को छोड़कर तुम यहाँ से क्यों जाने की इच्छा करते हो तब राजा कहने लगा कि महात्मन्! मैं तो माघ मास(Magh Maas) में स्नान के फल को कुछ भी नहीं जानता। कृपा करके आप विस्तारपूर्वक मुझको बताइए।  

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सम्पूर्ण माघ मास पुराण कथा और माहात्म्य | Sampuran Magha Maas Mahatmya

Magh Mass Mahatmaya

Magh Mass Mahatmaya

माघ, कार्तिक और वैशाख महापुनीत महीने माने गए हैं। इसमें तीर्थस्नानादि पर या स्वदेश में रहकर नित्यप्रति स्नान-दानादि करने से अनंत फल होता है। स्नान सूर्योदय के समय श्रेष्ठ है। उसके बाद जितना विलंब हो उतना ही निष्फल होता है। स्नान के लिए काशी, प्रयाग आदि तीर्थ उत्तम माने गए  है। वहां न जा सके तो जहां भी स्नान करें, वही उनका स्मरण करें अथवा  

पुष्करादीनि  तीर्थानि गंगाद्याः  सरितस्तथा । 

आगच्छन्तु पवित्राणि स्नान काले सदा मम ।।

हरिद्वारे कुशावर्ते बिलव के नीलपर्वते । 

स्नात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते ।।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका । 

पुरी द्वारावती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः ।।

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।  

नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरू ।।

का उच्चारण करें। अथवा वेग से बहने वाली किसी भी नदी के जल में स्नान करें अथवा रात भर छत पर रखे हुए जल पूर्ण घट से स्नान करें अथवा दिनभर सूर्य किरणों से तपे हुए जल से स्नान करें। 

स्नान के आरंभ में  

आपस्त्वमसि देवेश  ज्योतिषां पतिरेव च । 

पापं नाशय मे देव वाङ्मनः कर्मभिः कृतम् ।।

से जल की ओर 

दु:खदारिद्रयनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च ।

प्रात: स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम् ।।

से ईश्वर की प्रार्थना करें और स्नान करने के पश्चात  

सवित्रे प्रसवित्रे च परं धाम जले मम ।  

त्वत्तेजसा परिभ्रष्टं पापं यातु सहस्त्रधा ।।

से सूर्य को अर्घ्य  देकर हरि का पूजन या स्मरण करे। 

माघस्नान के लिये ब्रह्मचारी, गृहस्थ, संन्यासी और वनवासी- चारों आश्रमों के; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; चारों वर्णों के; बाल, युवा और वृद्ध- तीनों अवस्थाओं के; स्त्री, पुरुष या नपुंसक जो भी हो, सबको आज्ञा है, सभी यथा नियम नित्यप्रति माघ स्नान कर सकते हैं। 

स्नान की अवधि

स्नान की अवधि या तो पौष शुक्ल एकादशी से माघ शुक्ल एकादशी तक या पौष शुक्ल पूर्णिमा से माघ शुक्ल पूर्णिमा तक अथवा मकरार्क में (मकर राशि पर सूर्य आए, उस दिन से कुंभ राशि पर जाने तक) नित्य स्नान करें और उसके अनन्तर यथावकाश मौन रहें। भगवान का भजन या यजन करें। 

ब्राह्मणों को अवारित (बिना रोक) नित्य भोजन कराएं। कंबल, मृगचर्म, रत्न, कपड़े (कुर्ता, चादर, रुमाल, कमीज, टोपी), उपानह्  (जूते), धोती और पगड़ी आदि दें। एक या एकाधिक ३० द्विजदम्पती  (ब्राह्मण-ब्राह्मणी)- के जोड़े को षट्रस भोजन करवाकर 

‘सूर्यो मे प्रीयतां देवो विष्णुमूर्तिनिरंजन:।‘  

से सूर्य की प्रार्थना करें। 

इसके बाद उनको अच्छे वस्त्र, सप्तधान्य और 30 मोदक दे। स्वयं निराहार, शाकाहार, फलाहार या दुग्धाहार व्रत अथवा एकभुक्त व्रत करें। इस प्रकार काम, क्रोध, मद, मोहादि त्याग कर भक्ति, श्रद्धा, विनय- नम्रता, स्वार्थत्याग और विश्वास- भाव के साथ स्नान करें तो अश्वमेधादि के समान फल होता है और सब प्रकार के पाप-ताप तथा दुख दूर हो जाते हैं।

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सम्पूर्ण माघ मास माहात्म्य - माघ पुराण

19 नवंबर, 2021 खण्डग्रास चंद्रग्रहण | Chandra Grahan | Moon ( Lunar Eclipse )

Chandra Grahan

Chandra Grahan

खण्डग्रास चंद्रग्रहण

19 नवंबर, 2021

कार्तिक पूर्णिमा, शुक्रवार

भारत में दृश्य ग्रहण का विस्तृत विवरण

यह ग्रहण 19 नवंबर, 2021 , शुक्रवार (कार्तिक पूर्णिमा) को सायंकाल चंद्रोदय के समय भारत के सुदूर पूर्वी राज्यों-अरुणांचल प्रदेश तथा आसाम राज्य के  केवल पूर्वी क्षेत्रों में ही स्वल्पग्रास ग्रस्तोदय के रूप में बहुत ही कम समय के लिए दिखाई देगा। शेष भारत में यह ग्रहण बिल्कुल दिखाई नहीं देगा। जिन सुदूर पूर्वी नगरों में यह ग्रहण दिखाई देगा, वहाँ चंद्रमा ग्रस्त ही उदय होगा तथा उदय के कुछ ही मिनटों के बाद ग्रहण समाप्त हो जाएगा।

भारत के अतिरिक्त यह ग्रहण अधिकतर यूरोप, एशिया(पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान तथा उत्तर- पश्चिमी भारत को छोड़कर), ऑस्ट्रेलिया, उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका, उत्तरी तथा दक्षिणी अमरीका (कैनेडा सहित) में खण्डग्रास रूप में दृश्य होगा।

भा.स्टै.टा. (IST) अनुसार इस ग्रस्तोदय खण्डग्रास चंद्र ग्रहण (Chandra Grahan) का स्पर्श तथा मोक्ष इस किस प्रकार होगा-

ग्रहण प्रारंभ 12:48 दोपहर     —- भा.स्टै.टा. (IST)
ग्रहण मध्य 2:33 दोपहर         —-भा.स्टै.टा. (IST)
ग्रहण समाप्त 4:17 सायंकाल   —-भा.स्टै.टा. (IST)

चंद्र ग्रहण (Chandra Grahan)  भारत में अरुणाचल प्रदेश और आसाम के कुछ भागों में ही लगेगा। यह अधिकतर 10 मिनट तक होगा। जिन राज्यों में यह ग्रहण लगेगा वहां सूतक की पालना जरूरी है। सूतक प्रातः 3:49 भा.स्टै.टा. (IST)  से आरंभ हो जाएगा। भारत के कुछ क्षेत्रों में चंद्रोदय का समय शाम 4:07 भा.स्टै.टा. (IST)  से आरंभ होता है। चंद्र ग्रहण (Chandra Grahan) का समाप्ति काल शाम 4:17 भा.स्टै.टा. (IST)  तक है। जिन क्षेत्रों में चंद्रोदय 4:17 भा.स्टै.टा. (IST)  से पहले होगा। वहाँ ग्रहण का दान, स्नान, जप-ध्यान एवं सूतक मान्य होगा।

ग्रहण का सूतक:-

भारत के दो पूर्वी राज्यों (अरुणांचल, आसाम ) के पूर्वी भागों में जहां यह अल्पकालिक ग्रस्तोदय चंद्रग्रहण (Chandra Grahan)  दिखाई देगा, केवल वही इस ग्रहण के सूतक का विचार होगा तथा यह 19 नवंबर, 2021, की प्रातः 3:49 से प्रारंभ होगा ।

ध्यान रखें, शेष भारत के सभी राज्यों/नगरों में जहाँ यह ग्रहण दिखाई नहीं देगा, वहाँ ग्रहण संबंधी दान, सूतक आदि का माहात्म्य/ विचार नहीं होगा ।

क्या ग्रहण वाले दिन व्रत- पर्वों का अनुष्ठान करना चाहिए ?

श्रावणी उपाकर्म को छोड़कर शेष व्रत- पर्वों (श्री सत्यनारायण व्रत, अमावस्या-पूर्णिमा का स्नान-दान, वटसावित्री व्रत, गुरु पूर्णिमा, रक्षाबंधन ,नवरात्रा प्रारंभ(घटस्थापन), होलिका दहन आदि) से संबंधित अनुष्ठान,पारणा आदि पर सूर्य या चंद्र ग्रहण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन पूर्णिमा-अमावस्या को घटित होने वाले व्रत- पर्वों से संबंध पूजा आदि का अनुष्ठान इनके ठीक अपने-अपने विहित निर्धारित काल में ग्रहण का सूतक और ग्रहण के समय में भी करने चाहिए- इस प्रकार के शास्त्र वाक्य मिलते हैं। यहां पर शास्त्र निर्देश है कि व्रत- पर्व से संबंधित पूजादि के अनुष्ठान/पारणा/ संकल्पकाल में ग्रहण लगा हुआ हो तो तीर्थ जल सहित स्नान करके ही पूजादि करनी चाहिए-

सर्वेषामेव वर्णनां सूतकं राहु दर्शने ।

स्नात्वा कर्माणि कुर्वीत शृतमन्नं विवर्जयेत् ।।

ग्रहण वाले दिन पड़ने वाले व्रत की पारणा (व्रत के अंत के किए जाने वाले भोजन) के संबंध में शास्त्र के अनुसार-ग्रहण के सूतक में और ग्रहण काल में पारणा नहीं करनी चाहिए l ग्रहण समाप्त होने पर ही पारणा करनी चाहिए ।

Chandra Grahan 2021 | Lunar Eclipse 2021 | Moon Eclipse 2021 

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा – गोवर्धन पूजा शुभ मुहूर्त – Govardhan Puja Shubh Muhurat

गोवर्धन पूजा –13 नवंबर 2023

गोवर्धन पूजा प्रातःकाल मुहूर्त – प्रातः 06ः43 से प्रातः 08ः52 तक।

अवधि – अवधि 02 घंटे 09 मिनट।

Govardhan Puja | गोवर्धन पूजन विशेष:-

हमारे वेदों में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन वरुण, इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं की पूजा का विधान है। इसी दिन बलि पूजा, गोवर्धन पूजा, मार्गपाली आदि होते हैं। इस दिन गाय-बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर, फूल माला, धूप, चंदन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है। यह ब्रजवासियों का मुख्य त्योहार है। अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई। उस समय लोग इन्द्र भगवान की पूजा करते थे तथा छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाया जाता था। ये पकवान तथा मिठाइयां इतनी मात्रा में होती थीं कि उनका पूरा पहाड़ ही बन जाता था।

अन्न कूट परिचय:-

अन्न कूट एक प्रकार से सामूहिक भोज का आयोजन है जिसमें पूरा परिवार और वंश एक जगह बनाई गई रसोई से भोजन करता है। इस दिन चावल, बाजरा, कढ़ी, साबुत मूंग, चौड़ा तथा सभी सब्जियां एक जगह मिलाकर बनाई जाती हैं। मंदिरों में भी अन्नकूट बनाकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।

अन्नकूट पूजन विधि:-

  1. इस दिन प्रात:गाय के गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है। अनेक स्थानों पर इसके मनुष्याकार बनाकर पुष्पों, लताओं आदि से सजाया जाता है। शाम को गोवर्धन की पूजा की जाती है। पूजा में धूप, दीप, नैवेद्य, जल, फल, फूल, खील, बताशे आदि का प्रयोग किया जाता है।
  2. गोवर्धन में ओंगा (अपामार्ग) अनिवार्य रूप से रखा जाता है।
  3. पूजा के बाद गोवर्धनजी के सात परिक्रमाएं उनकी जय बोलते हुए लगाई जाती हैं। परिक्रमा के समय एक व्यक्ति हाथ में जल का लोटा व अन्य खील (जौ) लेकर चलते हैं। जल के लोटे वाला व्यक्ति पानी की धारा गिराता हुआ तथा अन्य जौ बोते हुए परिक्रमा पूरी करते हैं।
  4. गोवर्धनजी गोबर से लेटे हुए पुरुष के रूप में बनाए जाते हैं। इनकी नाभि के स्थान पर एक कटोरी या मिट्टी का दीपक रख दिया जाता है। फिर इसमें दूध, दही, गंगाजल, शहद, बताशे आदि पूजा करते समय डाल दिए जाते हैं और बाद में इसे प्रसाद के रूप में बांट देते हैं।
  5. अन्नकूट में चंद्र-दर्शन अशुभ माना जाता है। यदि प्रतिपदा में द्वितीया हो तो अन्नकूट अमावस्या को मनाया जाता है।
  6. इस दिन प्रात:तेल मलकर स्नान करना चाहिए।
  7. इस दिन पूजा का समय कहीं प्रात:काल है तो कहीं दोपहर और कहीं पर सन्ध्या समय गोवर्धन पूजा की जाती है।
  8. इस दिन सन्ध्या के समय दैत्यराज बलि का पूजन भी किया जाता है। वामन जो कि भगवान विष्णु के एक अवतार है, उनकी राजा बालि पर विजय और बाद में बालि को पाताल लोक भेजने के कारण इस दिन उनका पुण्यस्मरण किया जाता है। यह माना जाता है कि भगवान वामन द्वारा दिए गए वरदान के कारण असुर राजा बालि इस दिन पातल लोक से पृथ्वी लोक आता है।
  9. गोवर्धन गिरि भगवान के रूप में माने जाते हैं और इस दिन उनकी पूजा अपने घर में करने से धन, धान्य, संतान और गोरस की वृद्धि होती है। आज का दिन तीन उत्सवों का संगम होता है।
  10. इस दिन दस्तकार और कल-कारखानों में कार्य करने वाले कारीगर भगवान विश्वकर्मा की पूजा भी करते हैं। इस दिन सभी कल-कारखाने तो पूर्णत: बंद रहते ही हैं, घर पर कुटीर उद्योग चलाने वाले कारीगर भी काम नहीं करते। भगवान विश्वकर्मा और मशीनों एवं उपकरणों का दोपहर के समय पूजन किया जाता है।

Govardhan Puja | गोवर्धन पूजा की पौराणिक कथा:-

एक बार एक महर्षि ने ऋषियों से कहा कि कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को गोवर्धन व अन्नकूट की पूजा करनी चाहिए। तब ऋषियों ने महर्षि से पूछा-‘ अन्नकूट क्या है? गोवर्धन कौन हैं? इनकी पूजा क्यों तथा कैसे करनी चाहिए? इसका क्या फल होता है? इस सबका विधान विस्तार से कहकर कृतार्थ करें।’

महर्षि बोले- ‘एक समय की बात है- भगवान श्रीकृष्ण अपने सखा और गोप-ग्वालों के साथ गाय चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि हज़ारों गोपियां 56 (छप्पन) प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही थीं। पूरे ब्रज में भी तरह-तरह के मिष्ठान्न तथा पकवान बनाए जा रहे थे।

श्रीकृष्ण ने इस उत्सव का प्रयोजन पूछा तो गोपियां बोली-‘आज तो घर-घर में यह उत्सव हो रहा होगा, क्योंकि आज वृत्रासुर को मारने वाले मेघदेवता, देवराज इन्द्र का पूजन होगा। यदि वे प्रसन्न हो जाएं तो ब्रज में वर्षा होती है, अन्न पैदा होता है, ब्रजवासियों का भरण-पोषण होता है, गायों का चारा मिलता है तथा जीविकोपार्जन की समस्या हल होती है।

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा- ‘यदि देवता प्रत्यक्ष आकर भोग लगाएं, तब तो तुम्हें यह उत्सव व पूजा ज़रूर करनी चाहिए।’ गोपियों ने यह सुनकर कहा- ‘कोटि-कोटि देवताओं के राजा देवराज इन्द्र की इस प्रकार निंदा नहीं करनी चाहिए। यह तो इन्द्रोज नामक यज्ञ है। इसी के प्रभाव से अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि नहीं होती।’

श्रीकृष्ण बोले- ‘इन्द्र में क्या शक्ति है, जो पानी बरसा कर हमारी सहायता करेगा? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा यह गोवर्धन पर्वत है। इसी के कारण वर्षा होती है। अत: हमें इन्द्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।’ इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के वाक-जाल में फंसकर ब्रज में इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियां शुरू हो गईं। सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से सुमधुर, मिष्ठान्न पकवान लाकर गोवर्धन की तलहटी में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से गोवर्धन पूजा करने लगे।

उधर श्रीकृष्ण ने अपने आधिदैविक रूप से पर्वत में प्रवेश करके ब्रजवासियों द्वारा लाए गए सभी पदार्थों को खा लिया तथा उन सबको आशीर्वाद दिया। सभी ब्रजवासी अपने यज्ञ को सफल जानकर बड़े प्रसन्न हुए। नारद मुनि इन्द्रोज यज्ञ देखने की इच्छा से वहां आए। गोवर्धन की पूजा देखकर उन्होंने ब्रजवासियों से पूछा तो उन्होंने बताया- ‘श्रीकृष्ण के आदेश से इस वर्ष इन्द्र महोत्सव के स्थान पर गोवर्धन पूजा की जा रही है।’

यह सुनते ही नारद उल्टे पांव इन्द्रलोक पहुंचे तथा उदास तथा खिन्न होकर बोले-‘हे राजन! तुम महलों में सुख की नींद सो रहे हो, उधर गोकुल के निवासी गोपों ने इद्रोज बंद करके आप से बलवान गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी है। आज से यज्ञों आदि में उसका भाग तो हो ही गया। यह भी हो सकता है कि किसी दिन श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वे तुम्हारे राज्य पर आक्रमण करके इन्द्रासन पर भी अधिकार कर लें।’

नारद तो अपना काम करके चले गए। अब इन्द्र क्रोध में लाल-पीले हो गए। ऐसा लगता था, जैसे उनके तन-बदन में अग्नि ने प्रवेश कर लिया हो। इन्द्र ने इसमें अपनी मानहानि समझकर, अधीर होकर मेघों को आज्ञा दी- ‘गोकुल में जाकर प्रलयकालिक मूसलाधार वर्षा से पूरा गोकुल तहस-नहस कर दें, वहां प्रलय का सा दृश्य उत्पन्न कर दें।’

पर्वताकार प्रलयंकारी मेघ ब्रजभूमि पर जाकर मूसलाधार बरसने लगे। कुछ ही पलों में ऐसा दृश्य उत्पन्न हो गया कि सभी बाल-ग्वाल भयभीत हो उठे। भयानक वर्षा देखकर ब्रजमंडल घबरा गया। सभी ब्रजवासी श्रीकृष्ण की शरण में जाकर बोले- ‘भगवन! इन्द्र हमारी नगरी को डुबाना चाहता है, आप हमारी रक्षा कीजिए।’

गोप-गोपियों की करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण बोले- ‘तुम सब गऊओं सहित गोवर्धन पर्वत की शरण में चलो। वही सब की रक्षा करेंगे।’ कुछ ही देर में सभी गोप-ग्वाल पशुधन सहित गोवर्धन की तलहटी में पहुंच गए। तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता सा तान दिया और सभी गोप-ग्वाल अपने पशुओं सहित उसके नीचे आ गए। सात दिन तक गोप-गोपिकाओं ने उसी की छाया में रहकर अतिवृष्टि से अपना बचाव किया। सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूंद भी जल नहीं पड़ा। इससे इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह चमत्कार देखकर और ब्रह्माजी द्वारा श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्र को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। वह स्वयं ब्रज गए और भगवान कृष्ण के चरणों में गिरकर अपनी मूर्खता पर क्षमायाचना करने लगे। सातवें दिन श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा- ‘अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो।’ तभी से यह उत्सव (पर्व) अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।

श्री गोवर्धन महाराज जी की आरती:-

श्री गोवर्धन महाराज, ओ महाराज,
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।।

तोपे पान चढ़े तोपे फूल चढ़े, तोपे चढ़े दूध की धार।
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।।

तेरी सात कोस की परिकम्मा, और चकलेश्वर विश्राम।
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।।

तेरे गले में कण्ठा साज रहेओ, ठोड़ी पे हीरा लाल।
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।।

तेरे कानन कुण्डल चमक रहेओ, तेरी झाँकी बनी विशाल।
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।।

गिरिराज धरण प्रभु तेरी शरण।
करो भक्त का बेड़ा पार, तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।

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Deepawali – Sampuran Puja Vidhi at Home : दीपावली सम्पूर्ण पूजा विधि मुहूर्त

अमावस्या तिथि प्रारम्भ – 12 नवंबर 2023 दोपहर 2:45 से।

अमावस्या तिथि समाप्त – 13 नवंबर 2023 दोपहर 2:57 तक।

क्योंकि दीपावली तथा महालक्ष्मी पूजन सांय और रात्रि काल में किया जाता है इस कारण से 12 नवंबर 2023 को ही दीपावली मनाई जाएगी।

लक्ष्मी पूजा मुहूर्त – 12 नवम्बर 2023, को शाम 05:37 से रात्रि 07:32 बजे तक।

प्रदोष काल – 12 नवम्बर 2023, को जालन्धर एवं निकटवर्त्ती नगरों में सूर्यास्त 05:27 से लेकर अर्धरात्रि 02:42 पर्यन्त रात्रि 08:09 तक प्रदोषकाल व्याप्त रहेगा।

सायं 05:39 से स्थिर लग्न ‘वृष’ विशेषतया शुभ रहेगा। प्रदोषकाल आरम्भ (सायं 05:27) से ही शुभ की चौघड़ियां भी रात्रि 07:08 तक रहेगी। तदुपरान्त ‘अमृत’ चौघड़िया शुभ हैं। अतएव शाम 05:39 से श्रीगणेश-लक्ष्मी पूजन प्रारम्भ कर लेना चाहिए। इसी काल में दीपदान,श्रीमहालक्ष्मी-पूजन, कुबेर-पूजन, बही-खाता पूजन, धर्म एवं गृह-स्थलों पर दीप प्रज्वलित करना, ब्राह्मणों तथा अपने आश्रितों को भेंट, मिष्ठान्नादि बांटना शुभ होगा।

वृषभ काल – शाम 05:37 से रात्रि 07:32 तक।

कर्क काल – रात्रि 09:46 से रात्रि 00:07 तक।

सिंह काल – रात्रि 00:07 से रात्रि 02:25 तक।

निशीथ काल:-

12 नवम्बर 2023 को जालन्धर व समीपस्थ नगरों में निशीथकाल रात्रि 08:09 से रात्रि 10:51 तक रहेगा। निशीथकाल में ‘मिथुन’ लग्न रात्रि 09:48 तक, फिर रात्रि 09:48 से रात्रि 12:11 तक ‘कर्क’ लग्न भी प्रशस्त हैं। ‘निशीथकाल‘ में भी ‘अमृत’ तथा ‘चर’ की चौघड़ियों का समावेश रात्रि 10:30 तक रहेगा।

अतएव इस बार प्रदोष काल से प्रारम्भ होकर रात्रि 10:30 तक का समय अत्यन्त शुभ एवं सिद्धिकारक रहेगा। धर्मनिष्ठ लोगों को इस समय तक अपने पूजन कार्य समाप्ति की ओर बढ़ाने चाहिए। इस अवधि में श्रीसूक्त, कनकधारा स्तोत्र तथा लक्ष्मी-स्तोत्रादि मन्त्रों का पाठ करना चाहिए। ध्यान रहें, रात्रि 10:30 (लगभग) रोग की चौघड़ियां प्रारम्भ हो जाएंगी।

महानिशीथ काल:-

रात्रि 10:51 से अर्द्धरात्रि 01:33 तक महानिशीथ काल रहेगा। इस समयावधि में ‘रोग’ तथा ‘काल’ की चौघड़ियां इतनी शुभ नहीं हैं। अतएव कोई भी स्तोत्र, पाठ आदि प्रदोष निशीथकाल में ही प्रारम्भ कर लेने चाहिए। इस अवधि में काली-उपासना, तन्त्रादि क्रियाएं, विशेष काम्य-प्रयोग, तन्त्र-अनुष्ठान, साधनाएं एवं यज्ञादि किए जाते हैं। अतएव इनका प्रारम्भ प्रदोष निशीथकाल में पहिले ही कर लें।

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हर वर्ष भारतवर्ष में दिवाली (Diwali) का त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। प्रतिवर्ष यह कार्तिक माह की अमावस्या को मनाई जाती है। रावण से दस दिन के युद्ध के बाद श्रीराम जी जब अयोध्या वापिस आते हैं तब उस दिन कार्तिक माह की अमावस्या थी, उस दिन घर-घर में दिए जलाए गए थे तब से इस त्योहार को दीवाली के रुप में मनाया जाने लगा और समय के साथ और भी बहुत सी बातें इस त्यौहार के साथ जुड़ती चली गई।

“ब्रह्मपुराण” के अनुसार आधी रात तक रहने वाली अमावस्या तिथि ही महालक्ष्मी पूजन के लिए श्रेष्ठ होती है। यदि अमावस्या आधी रात तक नहीं होती है तब प्रदोष व्यापिनी तिथि लेनी चाहिए। लक्ष्मी पूजा व दीप दानादि के लिए प्रदोषकाल ही विशेष शुभ माने गए हैं।

दीपावली (Deepawali) पूजन के लिए पूजा स्थल एक दिन पहले से सजाना चाहिए पूजन सामग्री भी दिपावली (Deepawali) की पूजा शुरू करने से पहले ही एकत्रित कर लें। इसमें अगर माँ के पसंद को ध्यान में रख कर पूजा की जाए तो शुभत्व की वृद्धि होती है। माँ के पसंदीदा रंग लाल, व गुलाबी है। इसके बाद फूलों की बात करें तो कमल और गुलाब मां लक्ष्मी के प्रिय फूल हैं। पूजा में फलों का भी खास महत्व होता है। फलों में उन्हें श्रीफल, सीताफल, बेर, अनार व सिंघाड़े पसंद आते हैं। आप इनमें से कोई भी फल पूजा के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। अनाज रखना हो तो चावल रखें वहीं मिठाई में मां लक्ष्मी की पसंद शुद्ध केसर से बनी मिठाई या हलवा, शीरा और नैवेद्य है। माता के स्थान को सुगंधित करने के लिए केवड़ा, गुलाब और चंदन के इत्र का इस्तेमाल करें।

दीये के लिए आप गाय के घी, मूंगफली या तिल्ली के तेल का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह मां लक्ष्मी को शीघ्र प्रसन्न करते हैं। पूजा के लिए अहम दूसरी चीजों में गन्ना, कमल गट्टा, खड़ी हल्दी, बिल्वपत्र, पंचामृत, गंगाजल, ऊन का आसन, रत्न आभूषण, गाय का गोबर, सिंदूर, भोजपत्र शामिल हैं।

चौकी सजाना:-

(1) लक्ष्मी, (2) गणेश, (3-4) मिट्टी के दो बड़े दीपक, (5) कलश, जिस पर नारियल रखें, वरुण (6) नवग्रह, (7) षोडशमातृकाएं, (8) कोई प्रतीक, (9) बहीखाता, (10) कलम और दवात, (11) नकदी की संदूक, (12) थालियां, 1, 2, 3, (13) जल का पात्र

सबसे पहले चौकी पर लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियां इस प्रकार रखें कि उनका मुख पूर्व या पश्चिम में रहे। लक्ष्मीजी, गणेशजी की दाहिनी ओर रहें। पूजा करने वाले मूर्तियों के सामने की तरफ बैठे। कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है। दो बड़े दीपक रखें। एक में घी भरें व दूसरे में तेल। एक दीपक चौकी के दाईं ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। इसके अलावा एक दीपक गणेशजी के पास रखें।

मूर्तियों वाली चौकी के सामने छोटी चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएं। कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से लाल वस्त्र पर नवग्रह की प्रतीक नौ ढेरियां बनाएं। गणेशजी की ओर चावल की सोलह ढेरियां बनाएं। ये सोलह मातृका की प्रतीक हैं। नवग्रह व षोडश मातृका के बीच स्वस्तिक का चिह्न बनाएं।

इसके बीच में सुपारी रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचों बीच ॐ लिखें। छोटी चौकी के सामने तीन थाली व जल भरकर कलश रखें। थालियों की निम्नानुसार व्यवस्था करें- 1. ग्यारह दीपक, 2. खील, बताशे, मिठाई, वस्त्र, आभूषण, चन्दन का लेप, सिन्दूर, कुंकुम, सुपारी, पान, 3. फूल, दुर्वा, चावल, लौंग, इलायची, केसर-कपूर, हल्दी-चूने का लेप, सुगंधित पदार्थ, धूप, अगरबत्ती, एक दीपक।

इन थालियों के सामने पूजा करने वाला बैठे। आपके परिवार के सदस्य आपकी बाईं ओर बैठें। कोई आगंतुक हो तो वह आपके या आपके परिवार के सदस्यों के पीछे बैठे।

हर साल दिवाली पूजन में नया सिक्का ले और पुराने सिक्को के साथ इख्ठा रख कर दीपावली पर पूजन करे और पूजन के बाद सभी सिक्को को तिजोरी में रख दे।

पूजा की संक्षिप्त विधि स्वयं करने के लिए

 

पवित्रीकरण:-

हाथ में पूजा के जलपात्र से थोड़ा सा जल ले लें और अब उसे मूर्तियों के ऊपर छिड़कें। साथ में नीचे दिया गया पवित्रीकरण मंत्र पढ़ें। इस मंत्र और पानी को छिड़ककर आप अपने आपको पूजा की सामग्री को और अपने आसन को भी पवित्र कर लें।

शरीर एवं पूजा सामग्री पवित्रीकरण मन्त्र:-

ॐ पवित्रः अपवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यन्तर शुचिः॥

पृथ्वी पवित्रीकरण विनियोग:-

पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग षिः सुतलं छन्दः।

कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥

अब पृथ्वी पर जिस जगह आपने आसन बिछाया है, उस जगह को पवित्र कर लें और मां पृथ्वी को प्रणाम करके मंत्र बोलें-

पृथ्वी पवित्रीकरण मन्त्र:-

ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥

पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः

अब आचमन करें:-

पुष्प, चम्मच या अंजुलि से एक बूंद पानी अपने मुंह में छोड़िए और बोलिए-

ॐ केशवाय नमः

और फिर एक बूंद पानी अपने मुंह में छोड़िए और बोलिए-

ॐ नारायणाय नमः

फिर एक तीसरी बूंद पानी की मुंह में छोड़िए और बोलिए-

ॐ वासुदेवाय नमः

इसके बाद संभव हो तो किसी किसी ब्राह्मण द्वारा विधि विधान से पूजन करवाना अति लाभदायक रहेगा। ऐसा संभव ना हो तो सर्वप्रथम दीप प्रज्वलन कर गणेश जी का ध्यान कर अक्षत पुष्प अर्पित करने के पश्चात दीपक का गंधाक्षत से तिलक कर निम्न मंत्र से पुष्प अर्पण करें।

शुभम करोति कल्याणम, अरोग्यम धन संपदाम,
शत्रु-बुद्धि विनाशायः, दीपःज्योति नमोस्तुते !

गणेश पूजन:-

किसी भी पूजन की शुरुआत में सर्वप्रथम श्री गणेश को पूजा जाता है। इसलिए सबसे पहले श्री गणेश जी की पूजा करें।

इसके लिए हाथ में पुष्प लेकर गणेश जी का ध्यान करें।

मंत्र पढ़े :–

गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।।

गणपति आवाहन:-

ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।।

इतना कहने के बाद पात्र में अक्षत छोड़ दे।

इसके पश्चात गणेश जी को पंचामृत से स्नान करवाये पंचामृत स्नान के बाद शुद्ध जल से स्नान कराए अर्घा में जल लेकर बोलें- एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:।

रक्त चंदन लगाएं:-

इदम रक्त चंदनम् लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:, इसी प्रकार श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं। इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ाएं “इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:। दूर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को अर्पित करें। उन्हें वस्त्र पहनाएं और कहें – इदं रक्त वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि।

पूजन के बाद श्री गणेश को प्रसाद अर्पित करें और बोले –

इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। मिष्ठान अर्पित करने के लिए मंत्र: इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम:

इसी प्रकार अन्य देवताओं का भी पूजन करें बस जिस देवता की पूजा करनी हो गणेश जी के स्थान पर उस देवता का नाम लें।

कलश पूजन इसके लिए लोटे या घड़े पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम के पत्ते रखें। कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत व् मुद्रा रखें। कलश के गले में मोली लपेटे। नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें। अब हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरुण देव का कलश में आह्वान करें।

ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांगं सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥)

इसके बाद इस प्रकार श्री गणेश जी की पूजन की है उसी प्रकार वरुण देव की भी पूजा करें। इसके बाद इंद्र और फिर कुबेर जी की पूजा करें। एवं वस्त्र सुगंध अर्पण कर भोग लगाये इसके बाद इसी प्रकार क्रम से कलश का पूजन कर लक्ष्मी पूजन आरम्भ करे

लक्ष्मी पूजन:-

सर्वप्रथम निम्न मंत्र कहते हुए माँ लक्ष्मी का ध्यान करें।

ॐ या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी।
गम्भीरावर्त-नाभिः, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।।

लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। मणि-गज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः।
नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।।

अब माँ लक्ष्मी की प्रतिष्ठा करें हाथ में अक्षत लेकर मंत्र कहें:-

“ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।”

प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं और मंत्र बोलें –

ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ‘ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नमः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’

इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं। इसके बाद मा लक्ष्मी के क्रम से अंगों की पूजा करें।

माँ लक्ष्मी की अंग पूजा:-

बाएं हाथ में अक्षत लेकर दाएं हाथ से थोड़े थोड़े छोड़ते जाए और मंत्र कहें –

ऊं चपलायै नम: पादौ पूजयामि ऊं चंचलायै नम: जानूं पूजयामि, ऊं कमलायै नम: कटि पूजयामि, ऊं कात्यायिन्यै नम: नाभि पूजयामि, ऊं जगन्मातरे नम: जठरं पूजयामि, ऊं विश्ववल्लभायै नम: वक्षस्थल पूजयामि, ऊं कमलवासिन्यै नम: भुजौ पूजयामि, ऊं कमल पत्राक्ष्य नम: नेत्रत्रयं पूजयामि, ऊं श्रियै नम: शिरं: पूजयामि।

अष्टसिद्धि पूजा:-

अंग पूजन की ही तरह हाथ में अक्षत लेकर मंतोच्चारण करते रहे। मंत्र इस प्रकर है:-

ऊं अणिम्ने नम:, ओं महिम्ने नम:, ऊं गरिम्णे नम:, ओं लघिम्ने नम:, ऊं प्राप्त्यै नम: ऊं प्राकाम्यै नम:, ऊं ईशितायै नम: ओं वशितायै नम:।

अष्टलक्ष्मी पूजन:-

अंग पूजन एवं अष्टसिद्धि पूजा की ही तरह हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें।

ऊं आद्ये लक्ष्म्यै नम:, ओं विद्यालक्ष्म्यै नम:, ऊं सौभाग्य लक्ष्म्यै नम:, ओं अमृत लक्ष्म्यै नम:, ऊं लक्ष्म्यै नम:, ऊं सत्य लक्ष्म्यै नम:, ऊं भोगलक्ष्म्यै नम:, ऊं योग लक्ष्म्यै नम:

नैवैद्य अर्पण:-

पूजन के बाद देवी को “इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि” मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: “इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि” बालें। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। “इदं आचमनयं ऊं महालक्ष्मियै नम:।” इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि। अब एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:।

माँ को यथा सामर्थ वस्त्र, आभूषण, नैवेद्य अर्पण कर दक्षिणा चढ़ाए दूध, दही, शहद, देसी घी और गंगाजल मिलकर चरणामृत बनाये और गणेश लक्ष्मी जी के सामने रख दे। इसके बाद 5 तरह के फल, मिठाई खील-पताशे, चीनी के खिलोने लक्ष्मी माता और गणेश जी को चढ़ाये और प्राथना करे की वो हमेशा हमारे घरो में विराजमान रहे। इनके बाद एक थाली में विषम संख्या में दीपक 11,21 अथवा यथा सामर्थ दीप रख कर इनको भी कुंकुम अक्षत से पूजन करे इसके बाद माँ को श्री सूक्त अथवा ललिता सहस्त्रनाम का पाठ सुनाये पाठ के बाद माँ से क्षमा याचना कर माँ लक्ष्मी जी की आरती कर बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेने के बाद थाली के दीपो को घर में सब जगह रखे। लक्ष्मी-गणेश जी का पूजन करने के बाद, सभी को जो पूजा में शामिल हो, उन्हें खील, पताशे, चावल दे।

सब फिर मिल कर प्राथना करे की माँ लक्ष्मी हमने भोले भाव से आपका पूजन किया है ! उसे स्वीकार करे और गणेशा, माँ सरस्वती और सभी देवताओं सहित हमारे घरो में निवास करे। प्रार्थना करने के बाद जो सामान अपने हाथ में लिया था वो मिटटी के लक्ष्मी गणेश, हटड़ी और जो लक्ष्मी गणेश जी की फोटो लगायी थी उस पर चढ़ा दे।

लक्ष्मी पूजन के बाद आप अपनी तिजोरी की पूजा भी करे रोली को देसी घी में घोल कर स्वस्तिक बनाये और धुप दीप दिखा करे मिठाई का भोग लगाए।

लक्ष्मी माता और सभी भगवानो को आपने अपने घर में आमंत्रित किया है अगर हो सके तो पूजन के बाद शुद्ध बिना लहसुन-प्याज़ का भोजन बना कर गणेश-लक्ष्मी जी सहित सबको भोग लगाए। दीपावली पूजन के बाद आप मंदिर, गुरद्वारे और चौराहे में भी दीपक और मोमबतियां जलाएं।

रात को सोने से पहले पूजा स्थल पर मिटटी का चार मुह वाला दिया सरसो के तेल से भर कर जगा दे और उसमे इतना तेल हो की वो सुबह तक जग सके।

माँ लक्ष्मी जी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुम को निस दिन सेवत, मैयाजी को निस दिन सेवत हर विष्णु विधाता ।।
ॐ जय लक्ष्मी माता …

उमा रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता।
ओ मैया तुम ही जग माता, सूर्य चन्द्र माँ ध्यावत, नारद ऋषि गाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

दुर्गा रूप निरन्जनि, सुख सम्पति दाता।
ओ मैया सुख सम्पति दाता, जो कोई तुम को ध्यावत, ऋद्धि सिद्धि धन पाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

तुम पाताल निवासिनि, तुम ही शुभ दाता।
ओ मैया तुम ही शुभ दाता, कर्म प्रभाव प्रकाशिनि, भव निधि की दाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

जिस घर तुम रहती तहँ सब सद्गुण आता।
ओ मैया सब सद्गुण आता, सब संभव हो जाता, मन नहीं घबराता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।
ओ मैया वस्त्र न कोई पाता, ख़ान पान का वैभव, सब तुम से आता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

शुभ गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता।
ओ मैया क्षीरोदधि जाता, रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

महा लक्ष्मीजी की आरती, जो कोई जन गाता।
ओ मैया जो कोई जन गाता , उर आनंद समाता, पाप उतर जाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता ..

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Narak Chaturdashi | नरक चतुर्दशी अकाल मृत्यु से मुक्ति तथा स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए

kali choudas

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नरक चतुर्दशी – 12 नवंबर 2023

अभ्यंग स्नान मुहूर्त – प्रात 05ः28 से प्रातः 06ः41 तक।

अवधि – 01 घण्टा 03 मिनट्स ।

चंद्रोदय का समय- प्रातः 05ः28 ।

कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी (Narak Chaturdashi) कहा जाता है। नरक चतुर्दशी को ‘छोटी दीपावली’ भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त इस चतुर्दशी को ‘नरक चौदस (Narak Choudas)’, ‘रूप चौदस (Roop Choudas)’, ‘रूप चतुर्दशी (Roop Chaturdashi)’, ‘नर्क चतुर्दशी (Narak Chaturdashi)’ या ‘नरका पूजा’ के नाम से भी जाना जाता है। कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी के दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा का विधान है। दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी के दिन संध्या के पश्चात दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं। इस चतुर्दशी का पूजन कर अकाल मृत्यु से मुक्ति तथा स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए यमराज जी की पूजा व उपासना की जाती है।

पौराणिक कथा:-

रन्तिदेव नामक एक राजा हुए थे। वह बहुत ही पुण्यात्मा और धर्मात्मा पुरुष थे। सदैव धर्म, कर्म के कार्यों में लगे रहते थे। जब उनका अंतिम समय आया तो यमराज के दूत उन्हें लेने के लिए आये। वे दूत राजा को नरक में ले जाने के लिए आगे बढ़े। यमदूतों को देख कर राजा आश्चर्य चकित हो गये और उन्होंने पूछा- “मैंने तो कभी कोई अधर्म या पाप नहीं किया है तो फिर आप लोग मुझे नर्क में क्यों भेज रहे हैं। कृपा कर मुझे मेरा अपराध बताइये, कि किस कारण मुझे नरक का भागी होना पड़ रहा है।”. राजा की करूणा भरी वाणी सुनकर

यमदूतों ने कहा- “हे राजन एक बार तुम्हारे द्वार से एक ब्राह्मण भूखा ही लौट गया था, जिस कारण तुम्हें नरक जाना पड़ रहा है।

राजा ने यमदूतों से विनती करते हुए कहा कि वह उसे एक वर्ष का और समय देने की कृपा करें। राजा का कथन सुनकर यमदूत विचार करने लगे और राजा को एक वर्ष की आयु प्रदान कर वे चले गये। यमदूतों के जाने के बाद राजा इस समस्या के निदान के लिए ऋषियों के पास गया और उन्हें समस्त वृत्तांत बताया। ऋषि राजा से कहते हैं कि यदि राजन कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करे और ब्राह्मणों को भोजन कराये और उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करे तो वह पाप से मुक्त हो सकता है। ऋषियों के कथन के अनुसार राजा कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्दशी का व्रत करता है। इस प्रकार वह पाप से मुक्त होकर भगवान विष्णु के वैकुण्ठ धाम को पाता है।

अन्य कथा:-

आज के ही दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। नरकासुर ने देवताओं की माता अदिति के आभूषण छीन लिए थे। वरुण को छत्र से वंचित कर दिया था ।मंदराचल के मणिपर्वत शिखर को कब्ज़ा लिया था देवताओं, सिद्ध पुरुषों और राजाओं को 16100 कन्याओं का अपहरण करके उन्हें बंदी बना लिया था कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध करके उन कन्याओं को बंदीगृह से छुड़ाया, उसके बाद स्वयं भगवान ने उन्हें सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए सभी अपनी पत्नी स्वरुप वरण किया इस प्रकार सभी को नरकासुर के आतंक से मुक्ति दिलाई, इस महत्वपूर्ण घटना के रूप में नरकचतुर्दशी के रूप में छोटी दीपावली मनाई जाती है।

रूप चतुर्दशी के दिन उबटन लगाना और अपामार्ग का प्रोक्षण करना चाहिए ।

आज के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए सूर्योदय से पूर्व तिल्ली के तेल से शरीर की मालिश करनी चाहिए उसके बाद अपामार्ग का प्रोक्षण करना चाहिए तथा लौकी के टुकडे और अपामार्ग दोनों को अपने सिर के चारों ओर सात बार घुमाएं ऐसा करने से नरक का भय दूर होता है साथ ही पद्म-पुराण के मंत्र का पाठ करें।

सितालोष्ठसमायुक्तं संकटकदलान्वितम।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाण: पुन: पुन:||

“हे तुम्बी(लौकी) हे अपामार्ग तुम बार बार फिराए जाते हुए मेरे पापों को दूर करो और मेरी कुबुद्धि का नाश कर दो”

फिर स्नान करें और स्नान के उपरांत साफ कपड़े पहनकर, तिलक लगाकर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके निम्न मंत्रों से प्रत्येक नाम से तिलयुक्त तीन-तीन जलांजलि देनी चाहिए। यह यम-तर्पण कहलाता है। इससे वर्ष भर के पाप नष्ट हो जाते हैं-

ऊं यमाय नम: । ऊं धर्मराजाय नम: । ऊं मृत्यवे नम: । ऊं अन्तकाय नम: । ऊं वैवस्वताय नम: । ऊं कालाय नम: । ऊं सर्वभूतक्षयाय नम: । ऊं औदुम्बराय नम: । ऊं दध्राय नम: । ऊं नीलाय नम: । ऊं परमेष्ठिने नम: । ऊं वृकोदराय नम: । ऊं चित्राय नम: । ऊं चित्रगुप्ताय नम:।

इसके बाद लौकी और अपामार्ग को घर के दक्षिण दिशा में विसर्जित कर देना चाहिए इस से रूप बढ़ता है और शरीर स्वस्थ्य रहता है।

आज के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से मनुष्य नरक के भय से मुक्त हो जाता है।

पद्मपुराण में लिखा है जो मनुष्य सूर्योदय से पूर्व स्नान करता है, वह यमलोक नहीं जाता है अर्थात नरक का भागी नहीं होता है।

भविष्य पुराण के अनुसार जो कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को जो व्यक्ति सूर्योदय के बाद स्नान करता है, उसके पिछले एक वर्ष के समस्त पुण्य कार्य समाप्त हो जाते हैं। इस दिन स्नान से पूर्व तिल्ली के तेल की मालिश करनी चाहिए यद्यपि कार्तिक मास में तेल की मालिश वर्जित होती है, किन्तु नरक चतुर्दशी के दिन इसका विधान है। नरक चतुर्दशी को तिल्ली के तेल में लक्ष्मी जी तथा जल में गंगाजी का निवास होता है।

नरक चतुर्दशी को सूर्यास्त के पश्चात अपने घर व व्यावसायिक स्थल पर तेल के दीपक जलाने चाहिए तेल की दीपमाला जलाने से लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है ऐसा स्वयं भगवान विष्णु ने राजा बलि से कहा था। भगवान विष्णु ने राजा बलि को धन-त्रियोदशी से दीपावली तक तीन दिनों में दीप जलाने वाले घर में लक्ष्मी के स्थायी निवास का वरदान दिया था।

नरक चतुर्दशी पर किये जाने वाले आवश्यक कार्य:-

  1. स्नान के बाद दक्षिण दिशा की ओर हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करें। ऐसा करने से मनुष्य द्वारा वर्ष भर किए गए पापों का नाश हो जाता है।
  2. इस दिन यमराज के निमित्त तेल का दीया घर के मुख्य द्वार से बाहर की ओर लगाएं।
  3. नरक चतुर्दशी के दिन शाम के समय सभी देवताओं की पूजन के बाद तेल के दीपक जलाकर घर की चौखट के दोनों ओर, घर के बाहर व कार्य स्थल के प्रवेश द्वार पर रख दें। मान्यता है कि ऐसा करने से लक्ष्मी जी सदैव घर में निवास करती हैं।
  4. नरक चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी या रूप चौदस भी कहते हैं इसलिए रूप चतुर्दशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए ऐसा करने से सौंदर्य की प्राप्ति होती है।
  5. इस दिन निशीथ काल (अर्धरात्रि का समय) में घर से बेकार के सामान फेंक देना चाहिए। इस परंपरा को दारिद्रय नि: सारण कहा जाता है। मान्यता है कि नरक चतुर्दशी के अगले दिन दीपावली पर लक्ष्मी जी घर में प्रवेश करती है, इसलिए दरिद्रय यानि गंदगी को घर से निकाल देना चाहिए।

प्रदोषकाल में  घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी-सी खील अथवा गेहूँ से ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना है । दीपक को रखने से पहले प्रज्वलित कर लें और दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए चारमुँह के दीपक को खील (लाजा) आदि की ढेरी के ऊपर रख दें –

मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतामिति ।।

अर्थात् त्रयोदशी को दीपदान करने से मृत्यु, पाश, दण्ड, काल और लक्ष्मी के साथ सूर्यनन्दन यम प्रसन्न हों ।

उक्त मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् हाथ में पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए यमदेव को दक्षिण दिशा में नमस्कार करें ।

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Dhanteras Importance, Puja Vidhi, Muhurat | धनतेरस यमदीपदान पूजा विधि

Dhanteras or Yum Deepdan

Dhanteras , Yam Deep  | धनतेरस पूजा , यम दीपम | धनत्रयोदशी तिथि और मुहूर्त 

10 नवंबर 2023 दिन शुक्रवार को शाम 5:47 से रात्रि 7:43 तक लक्ष्मी-गणेश और धनवंतरी जी की पूजा और सामान खरीदना जैसे- बर्तन, सोना(गोल्ड), चाँदी आदि, दीपदान करने का शुभ समय बताया गया।

दीपदान का महत्व 10 नवंबर 2023 से 12 नवंबर 2023 तक बताया गया है प्रदोष काल (संध्या के समय) अपने घर के बाहर दीपक जरूर प्रज्वलित करें।

Importance of Dhanteras | धनतेरस विशेष :-

कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान धनवन्तरि (Dhanwantri) अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए इस तिथि को धनतेरस (Dhanteras) के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरी (Dhanwantri) जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

दीपावली की रात भी लक्ष्मी माता के सामने साबुत धनिया रखकर पूजा करें। अगले दिन प्रातः साबुत धनिया को गमले में या बाग में बिखेर दें। माना जाता है कि साबुत धनिया से हरा भरा स्वस्थ पौधा निकल आता है तो आर्थिक स्थिति उत्तम होती है।

धनिया का पौधा हरा भरा लेकिन पतला है तो सामान्य आय का संकेत होता है। पीला और बीमार पौधा निकलता है या पौधा नहीं निकलता है तो आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

धनतेरस (Dhanteras) के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरीदें। इसके पीछे यह कारण है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि (Dhanwantri) जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें।

Dhanteras | धनतेरस पौराणिक कथा:-


कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनिश्यति ।।

धनतेरस (Dhanteras) की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में रंगोली बना कर दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, एक समय एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।

धनतेरस पूजा विधि | Dhanteras Puja Vidhi :-

इस दिन लक्ष्मी-गणेश और धनवंतरी पूजन का भी विशेष महत्व है।

धनतरेस पर धनवंतरी और लक्ष्मी गणेश की पूजा करने के लिए-

  1. सबसे पहले एक लकड़ी का पट्टा लें और उस पर स्वास्तिक का निशान बना लें।
  2. इसके बाद इस पर एक तेल का दिया जला कर रख दें।
    दिये को किसी चीज से ढक दें।
  3. दिये के आस पास तीन बार गंगा जल छिड़कें।
  4. इसके बाद दीपक पर रोली का तिलक लगाएं और साथ चावल का भी तिलक लगाएं।
  5. इसके बाद दीपक में थोड़ी सी मिठाई डालकर मीठे का भोग लगाएं।
  6. फिर दीपक में १ रुपया रखें। रुपए चढ़ाकर देवी लक्ष्मी और गणेश जी को अर्पण करें।
  7. इसके बाद दीपक को प्रणाम करें और आशीर्वाद लें और परिवार के लोगों से भी आशीर्वाद लेने को कहें।
  8. इसके बाद यह दिया अपने घर के मुख्य द्वार पर रख दें, ध्यान रखे कि दिया दक्षिण दिशा की ओर रखा हो।

यमदीपदान विधि (Yum Deepdaan Vidhi) :-

यमदीपदान विधिमें नित्य पूजा की थालीमें घिसा हुआ चंदन, पुष्प, हल्दी, कुमकुम, अक्षत अर्थात अखंड चावल इत्यादि पूजासामग्री होनी चाहिए । साथ ही आचमन के लिए ताम्रपात्र, पंच-पात्र, आचमनी ये वस्तुएं भी आवश्यक होती हैं । यमदीपदान करनेके लिए हल्दी मिलाकर गुंथे हुए गेहूं के आटे से बने विशेष दीपका उपयोग करते हैं ।

यमदीपदान (Yum Deepdaan) प्रदोषकाल में करना चाहिए । इसके लिए मिट्टी का एक बड़ा दीपक लें और उसे स्वच्छ जल से धो लें । तदुपरान्त स्वच्छ रुई लेकर दो लम्बी बत्तियाँ बना लें । उन्हें दीपक में एक-दूसरे पर आड़ी इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियोँ के चार मुँह दिखाई दें । अब उसे तिल के तेल से भर दें और साथ ही उसमें कुछ काले तिल भी डाल दें ।

प्रदोषकाल में इस प्रकार तैयार किए गए दीपक का रोली, अक्षत एवं पुष्प से पुजन करें । उसके पश्चात् घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी-सी खील अथवा गेहूँ से ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना है । दीपक को रखने से पहले प्रज्वलित कर लें और दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए चारमुँह के दीपक को खील (लाजा) आदि की ढेरी के ऊपर रख दें –

मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह ।

त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतामिति ।।

अर्थात् त्रयोदशी को दीपदान करने से मृत्यु, पाश, दण्ड, काल और लक्ष्मी के साथ सूर्यनन्दन यम प्रसन्न हों ।

उक्त मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् हाथ में पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए यमदेव को दक्षिण दिशा में नमस्कार करें ।

धन्वंतरि स्तोत्र:-

ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम॥

कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम॥

ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:।
अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय॥

त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप।
श्री धन्वंतरि स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥

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