श्रावण माह माहात्म्य तीसवाँ अध्याय | Chapter -30 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 30 Adhyay

Shravan Maas 30 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य तीसवाँ अध्याय

Chapter -30

 

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श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य के पाठ एवं श्रवण का फल

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे श्रावण मास (Sawan Maas) का कुछ-कुछ माहात्म्य कहा है, इसके सम्पूर्ण माहात्म्य का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता है। मेरी इस कल्याणी प्रिया सती ने दक्ष के यज्ञ में अपना शरीर दग्ध करके पुनः हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। श्रावण मास (Sawan Maas) में व्रत करने के कारण यह मुझे पुनः प्राप्त हुई इसीलिए श्रावण मुझे प्रियकर है। यह मास न अधिक शीतल होता है और ना ही अधिक उष्ण (गर्म) होता है। राजा को चाहिए कि श्रावण मास (Sawan Maas) में श्रौताग्नि से निर्मित श्वेत भस्म से अपने संपूर्ण शरीर को उदधूलित करके जल से आर्द्र भस्म के द्वारा मस्तक, वक्षःस्थल, नाभि, दोनों बाहु, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, कंठ, सर और पीठ – इन बारह स्थानों में त्रिपुण्ड धारण करें।

“मानस्तोके।” मन्त्र से अथवा “सद्योजात।” आदि मन्त्र से अथवा षडाक्षर मन्त्र – ॐ नमः शिवाय – से भस्म के द्वारा शरीर को सुशोभित करें और शरीर में एक सौ आठ रुद्राक्ष धारण करें। कण्ठ में बत्तीस रुद्राक्ष, सर पर बाइस, दोनों कानों में बारह, दोनों हाथों में चौबीस, दोनों भुजाओं में आठ-आठ, ललाट पर एक और शिखा के अग्रभाग में एक रुद्राक्ष धारण करें। इस प्रकार से करके मेरा पूजन कर पंचाक्षर मन्त्र का जप करें।

हे विपेन्द्र ! श्रावण मास (Sawan Maas) में जो ऐसा करता है वह मेरा ही स्वरुप है इसमें संदेह नहीं है। इस मास को मेरा अत्यंत प्रिय जानकर केशव की तथा मेरी पूजा करनी चाहिए। इस मास में मेरी अत्यंत प्रिय तिथि “कृष्णाष्टमी” (भारत के पश्चिमी प्रदेशों में युगादि तिथि के अनुसार मास का नामकरण होता है अतः श्रावण कृष्ण अष्टमी को भाद्रपद अष्टमी समझना चाहिए) पड़ती है, उस दिन भगवान् श्रीहरि देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। हे सनत्कुमार ! यह मैंने आपको संक्षेप में बताया है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं !

सनत्कुमार बोले – हे पार्वतीपते ! आपने श्रावण मास (Sawan Maas) का जो-जो कृत्य कहा, उन्हें सुनकर आनन्दसागर में निमग्न रहने के कारण और उनका वर्णन विस्तृत होने के कारण व्यवस्थित रूप से स्मृति नहीं बन पाई, अतः हे नाथ ! आप क्रम से सबको यथार्थ रूप से बताइए, सावधानी से सुनकर मैं भक्तिपूर्वक उन्हें धारण करूँगा। ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Sawan Maas) की शुभ अनुक्रमणिका को आप सावधान होकर सुनिए। सर्वप्रथम शौनक का प्रश्न, तत्पश्चात सूतजी का उत्तर, श्रोता के गुण, आपके प्रश्न, श्रावण की व्युत्पत्ति, उसकी स्तुति, पुनः हे मुने ! आपका विस्तृत प्रश्न, इसके बाद नामकथन सहित आपके द्वारा की गई मेरी स्तुति, फिर क्रम से उद्देश्यपूर्वक मेरा उत्तर, पुनः आपका विशेष प्रश्न, उसके बाद नक्तव्रत की विधि, रुद्राभिषेक कथन, इसके बाद लक्षपूजा विधि, दीपदान, फिर किसी प्रिय वस्तु का परित्याग, पुनः रुद्राभिषेक करने तथा पंचामृत-ग्रहण करने से प्राप्त होने वाला फल, इसके बाद पृथ्वी पर शयन करने तथा मौनव्रत धारण करने का फल, तत्पश्चात मासोपवास में धारणा-पारणा की विधि, इसके बाद सोमाख्यान में लक्षरुद्रवर्ती विधि, पुनः कोटिलिंग-विधान, इसके बाद “अनौदन” नामक व्रत कहा गया है।

इसी व्रत में हविष्यान्न ग्रहण, पत्तल पर भोजन करना, शाकत्याग, भूमि पर शयन, प्रातःस्नान और दम तथा शम का वर्णन, उसके बाद स्फटिक आदि लिंगों में पूजा, जप का फल, उसके बाद प्रदक्षिणा, नमस्कार, वेदपरायण, पुरुषसूक्त की विधि, उसके बाद ग्रह यज्ञ की विधि, रवि-सोम-मंगल के व्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन, पुनः बुध-गुरु का व्रत, इसके बाद शुक्रवार के दिन जीवन्तिका का व्रत, पुनः शनिवार को नृसिंह-शनि-वायुदेव और अश्वत्थ का पूजन – ये सब कहे गए हैं।

उसके बाद रोटक व्रत का माहात्म्य, औदुम्बर व्रत, स्वर्णगौरी व्रत, दूर्वागणपति व्रत, पंचमी तिथि में नाग व्रत, षष्ठी तिथि में सुपौदन व्रत, इसके बाद शीतला सप्तमी नामक व्रत, देवी का पवित्रारोपण, इसके बाद दुर्गाकुमारी की पूजा, आशा व्रत, उसके बाद दोनों एकादशियों का व्रत, पुनः श्रीहरि का पवित्रारोपण, पुनः त्रयोदशी तिथि को कामदेव की पूजा, उसके बाद शिवजी का पवित्रक धारण, पुनः उपाकर्म, उत्सर्जन तथा श्रवणा कर्म – इसका वर्णन किया गया है।

इसके बाद सर्पबलि, हयग्रीव-जन्मोत्सव, सभादीप, रक्षाबंधन, संकटनाशन व्रत, कृष्णजन्माष्टमी व्रत तथा उसकी कथा, पिठोर नामक व्रत, पोला नामक वृषव्रत,कुशग्रहण, नदियों का रजोधर्म, सिंह संक्रमण में गोप्रसव होने पर उसकी शान्ति, कर्क-सिंह-संक्रमणकाल में तथा श्रावण मास (Sawan Maas) में दान-स्नान-माहात्म्य, माहात्म्य-श्रवण, उसके बाद वाचकपूजा, इसके बाद अगस्त्य अर्घ्यविधि, फिर कर्मों तथा व्रतों के काल का निर्णय बताया गया है। जो श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य का पाठ करता है अथवा इसका श्रवण करता है, वह इस मास में किये गए व्रतों का फल प्राप्त करता है।
हे सनत्कुमार ! आप इस शुभ अनुक्रम को अपने ह्रदय में धारण कीजिए। जो इस अध्याय को तथा श्रावण मास (Sawan Maas) के माहात्म्य को सुनता है वह उस फल को प्राप्त करता है, जो फल सभी व्रतों का होता है। हे विप्रर्षे ! अधिक कहने से क्या लाभ है, श्रावण मास (Sawan Maas)में जो विधान किया गया है, उनमें से किसी एक व्रत का भी करने वाला मुझे प्रिय है।

सूतजी बोले – हे शौनक ! शिवजी के अमृतमय इस उत्तम वचन का अपने कर्णपुट से पान करके सनत्कुमार आनंदित हुए और कृतकृत्य हो गए। श्रावण मास (Sawan Maas) की स्तुति करते हुए तथा ह्रदय में शिवजी का स्मरण करते हुए वे देवर्षिश्रेष्ठ सनत्कुमार शंकर जी से आज्ञा लेकर चले गए। जिस किसी के समक्ष इस अत्यंत श्रेष्ठ रहस्य को प्रकाशित नहीं करना चाहिए। हे प्रभो ! आपकी योग्यता देखकर ही मैंने इसे आपसे कहा है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “अनुक्रमणिकाकथन” नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य उनत्तीसवाँ अध्याय | Chapter -29 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 29 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य उनत्तीसवाँ अध्याय

Chapter -29

 

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श्रावण मास (Sawan Maas) में किये जाने वाले व्रतों का कालनिर्णय

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं पूर्व में कहे गए व्रत कर्मों के समय के विषय में बताऊँगा। हे महामुने ! किस समय कौन-सा कृत्य करना चाहिए, उसे सुनिए। श्रावण मास (Sawan Maas) में कौन-सी तिथि किस विहित काल में ग्रहण के योग्य होती है और उस तिथि में पूजा, जागरण आदि से संबंधित मुख्य समय क्या है? उन-उन व्रतों के वर्णन के समय कुछ व्रतों का समय तो पूर्व के अध्यायों में बता दिया गया है। नक्त-व्रत का समय ही विशेष रूप से उन व्रतों तथा कर्मों में उचित बताया गया है। दिन में उपवास करें तथा रात्रि में भोजन करें, यही प्रधान नियम है। सभी व्रतों का उद्यापन उन-उन व्रतों की तिथियों में ही होना चाहिए, यदि किसी कारण से उन तिथि में उद्यापन असंभव हो तो पंचांग शुद्ध दिन में एक दिन पूर्व अधिवासन करके और दूसरे दिन आदरपूर्वक होम आदि कृत्यों को करें।

धारण-पारण व्रत में तिथि का घटना व बढ़ना कारण नहीं है। श्रावण मास (Sawan Maas)के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि में संकल्प करके उपवास करें, पुनः दूसरे दिन पारण करे, इसके बाद दूसरे दिन उपवास करें। इसी क्रम से करते रहें। व्रती को चाहिए कि वह पारण में हविष्यान्न – मूंग, चावल आदि – ग्रहण करे। एकादशी तिथि में पारण का दिन हो जाने पर तीन दिन निरंतर उपवास करें। रविवार व्रत में पूजा का समय प्रातःकाल ही होना चाहिए। सोमवार के व्रत में पूजा का प्रधान समय सायंकाल कहा गया है. मंगल, बुध तथा गुरु के व्रत में पूजन के लिए मुख्य समय प्रातःकाल है। शुक्रवार के व्रत में पूजन उषाकाल से लेकर सूर्योदय के पूर्व तक हो जाना चाहिए तथा रात्रि में जागरण करना चाहिए। शनिवार के दिन व्रत में नृसिंह का पूजन सायंकाल में करें।

शनि के व्रत में शनि के दान के लिए मध्याह्न मुख्य समय कहा गया है। हनुमान जी के पूजन का समय मध्याह्न है। अश्वत्थ का पूजन प्रातःकाल करना चाहिए। हे वत्स ! रोटक नामक व्रत में यदि सोमवार युक्त प्रतिपदा तिथि हो तो वह प्रतिपदा तीन मुहूर्त से कुछ अधिक होनी चाहिए अन्यथा पूर्वयोगिनी प्रतिपदा ग्रहण करनी चाहिए. औदुम्बरी द्वित्तीया सायंकाल व्यापिनी मानी गई है। यदि दोनों तिथियों में पूर्ववेध हो तो तृतीयासंयुक्त द्वित्तीया ग्रहण करनी चाहिए। स्वर्णगौरी नामक व्रत की तृतीया तिथि चतुर्थीयुक्त होनी चाहिए, गणपति व्रत के लिए तृतीयाविद्ध चतुर्थी तिथि प्रशस्त होती है।

नागों के पूजन में षष्ठीयुक्त पंचमी प्रशस्त होती है। सुपौदन व्रत में सायंकाल सप्तमीयुक्त षष्ठी श्रेष्ठ होती है। शीतला के व्रत में मध्याह्न व्यापिनी सप्तमी ग्रहण करनी चाहिए। देवी के पवित्रारोपण व्रत में रात्रि व्यापिनी अष्टमी तिथि ग्रहण करनी चाहिए। नक्तव्यापिनी कुमारी नवमी प्रशस्त मानी जाती है। इसी प्रकार आशा नामक जो दशमी तिथि है वह भी नक्त व्यापिनी होनी चाहिए। विद्ध एकादशी का त्याग करना चाहिए।

हे मुने ! उसमे वेध के विषय में सुनिए। एकादशी व्रत के लिए अरुणोदय में दशमी का वेध वैष्णवों के लिए तथा सूर्योदय में दशमी का वेध स्मार्तों के लिए निंद्य होता है। रात्रि के अंतिम प्रहार का आधा भाग अरुणोदय होता है। इसी रीति से जो द्वादशी हो, वह पवित्रारोपण में ग्राह्य है। कामदेव के व्रत में त्रयोदशी तिथि रात्रि व्यापिनी होनी चाहिए। उसमे भी द्वितीय याम व्यापिनी त्रयोदशी हो तो वह अति प्रशस्त होती है। शिवजी के पवित्रारोपण व्रत में रात्रि व्यापिनी चतुर्दशी होनी चाहिए, उसमे भी जो चतुर्दशी अर्धरात्रि व्यापिनी होती है, वह अतिश्रेष्ठ होती है।

उपाकर्म तथा उत्सर्जन कृत्य के लिए पूर्णिमा तिथि अथवा श्रवण नक्षत्र होने चाहिए। यदि दूसरे दिन तीन मुहूर्त तक पूर्णिमा हो तो दूसरा दिन ग्रहण करना चाहिए अन्यथा तैत्तिरीय शाखा वालों को और ऋग्वेदियों को पूर्व दिन ही करना चाहिए। तैत्तिरीय यजुर्वेदियों को तीन मुहूर्त पर्यन्त दूसरे दिन पूर्णिमा में श्रवण नक्षत्र हो तब भी पूर्व दिन दोनों कृत्य करने चाहिए।

यदि पूर्णिमा तथा श्रवण दोनों का पूर्व दिन एक मुहूर्त के अनन्तर योग हो और दूसरे दिन दो मुहूर्त के भीतर दोनों समाप्त हो गए हों तब पूर्व दिन ही दोनों कर्म होना चाहिए। यदि हस्त नक्षत्र दोनों दिन अपराह्नकालव्यापी हो तब भी दोनों कृत्य पूर्व दिन ही संपन्न होने चाहिए। श्रवणाकर्म में उपाकर्म प्रयोग के अंत में दीपक का काल माना गया है और सर्व बलि के लिए भी वही काल बताया गया है। पर्व के दिन में अथवा रात्रि में अपने-अपने गृह्यसूत्र के अनुसार जब भी इच्छा हो, इसे करना चाहिए।

इस दीपदान तथा सर्व बलिदान कर्म में अस्तकालव्यापिनी पूर्णिमा प्रशस्त है. हयग्रीव के उत्सव में मध्याह्नव्यापिनी पूर्णिमा प्रशस्त होती है। रक्षाबंधन कर्म में अपराह्नव्यापिनी पूर्णिमा होनी चाहिए। इसी प्रकार संकष्ट चतुर्थी चंद्रोदयव्यापिनी ग्राह्य होनी चाहिए। यदि चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी दोनों दिनों में हो अथवा दोनों दिनों में न हो तो भी चतुर्थी व्रत पूर्व दिन में करना चाहिए क्योंकि तृतीया में चतुर्थी महान पुण्य फल देने वाली होती है। अतः हे वत्स ! व्रतियों को चाहिए कि गणेश जी को प्रसन्न करने वाले इस व्रत को करें।

गणेश चतुर्थी, गौरी चतुर्थी और बहुला चतुर्थी – इन चतुर्थियों के अतिरिक्त अन्य सभी चतुर्थियों के पूजन के लिए पंचमी विद्या कही गई है. कृष्णजन्माष्टमी तिथि निशीथव्यापिनी ग्रहण करनी चाहिए। निर्णय में सर्वत्र तिथि छह प्रकार की मानी जाती है – 1) दोनों दिन पूर्ण व्याप्ति, 2) दोनों दिन केवल अव्याप्ति, 3) अंश से दोनों दिन सम व्याप्ति, 4) अंश से दोनों दिन विषम व्याप्ति, 5) पूर्व दिन संपूर्ण व्याप्ति और दूसरे दिन केवल आंशिक व्याप्ति, पूर्व दिन आंशिक व्याप्ति और 6) दूसरे दिन अव्याप्ति। इन पक्षों में तीन पक्षों में जिस प्रकार संदेह नहीं है, उसे अब सुनिए।

विषम व्याप्ति में अंशव्याप्ति से अधिक व्याप्ति उत्तम होती है। एक दिन तिथि पूर्णा है, वही तिथि दूसरे दिन अपूर्णा कही जाती है। अव्याप्ति तथा अंश से व्याप्ति – इनमें अंशव्याप्ति उत्तम होती है और जब अंशव्याप्ति पूर्ण हो तथा जब अंश से सम हो, वहां संदेह होता है और उसके निर्णय में भेद होता है। कहीं युग्म वाक्य से वार व नक्षत्र के योग से, कहीं प्रधानद्वय योग से और कहीं पारणा योग से। जन्माष्टमी व्रत में संदेह होने पर तीनों पक्षों में परा ग्राह्य होती है। यदि अष्टमी तीन प्रहर के भीतर ही समाप्त हुई हो तो अष्टमी के अंत में पारण हो जाना चाहिए और उसके बाद यदि अष्टमी उषाकाल में समाप्त होती हो तो पारण उसी समय करना चाहिए।

पिठोर नामक व्रत में मध्याह्नव्यापिनी अमावस्या शुभ होती है और वृषभों के पूजन में सायंकाल व्यापिनी अमावस्या शुभ होती है। कुशों के संचय में संगवकाल(यह दिन के पाँच भागों में से दूसरा भाग होता है) – व्यापिनी अमावस्या शुभ कही गई है। सूर्य के कर्क संक्रमण में तीस घड़ी पूर्व का काल पुण्यमय मानते हैं। अगस्त्य के अर्घ्य का काल तो व्रत वर्णन में ही कह दिया गया है. हे वत्स ! मैंने आपसे यह कर्मों के काल का निर्णय कह दिया। जो मनुष्य इस अध्याय को सुनता है अथवा इसका पाठ करता है वह श्रावण मास (Sawan Maas) में किए गए सभी व्रतों का फल प्राप्त करता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “व्रतनिर्णयकाल निर्णय कथन” नामक उन्नत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य अट्ठाईसवाँ अध्याय | Chapter -28 Sawan Maas ki Katha

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श्रावण माह माहात्म्य अट्ठाईसवाँ अध्याय

Chapter -28

 

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अगस्त्य जी को अर्घ्य प्रदान की विधि

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! अब मैं अगस्त्य जी को अर्घ्य प्रदान करने की उत्तम विधि का वर्णन करूंगा, जिसे करने से मनुष्य सभी वांछित फल प्राप्त कर लेता है। अगस्त्य के उदय के पूर्व काल का नियम जानना चाहिए। जब समरात्रि अर्थात आठ या दस रात्रि उदय होने में शेष रहे तब सात रात्रि पहले से उदयकाल तक प्रतिदिन अर्घ्य प्रदान करें, उसकी विधि मैं आपसे कहता हूँ। जब से अर्घ्य देना प्रारम्भ करे उस दिन प्रातःकाल श्वेत तिलों से स्नान करके गृहाश्रमी मनुष्य श्वेत माला तथा श्वेत वस्त्र धारण करे और सुवर्ण आदि से निर्मित कुम्भ स्थापित करें, जो छिद्र रहित, पंचरत्न से युक्त, घृतपात्र से समन्वित, अनेक प्रकार के मोदक आदि भक्ष्य पदार्थ तथा फलों से संयुक्त, माला-वस्त्र से विभूषित तथा ऊपर स्थित ताम्र के पूर्णपात्र से सुशोभित हो।

उस पात्र के ऊपर अगस्त्य जी की सुवर्ण-प्रतिमा स्थापित करें जो अंगुष्ठमात्र प्रमाण वाले, पुरुषाकर, चार भुजाओं से युक्त, स्थूल तथा दीर्घ भुजदंडों से सुशोभित, दक्ष्णि दिशा की ओर मुख किए हुए, सुन्दर, शांतभाव संपन्न, जटामंडलधारी, कमण्डलु धारण किए हुए, अनेक शिष्यों से आवृत, हाथों में कुश तथा अक्षत लिए हुए हों, ऐसे लोपामुद्रा सहित मुनि अगस्त्य का आवाहन करें और गंध, पुष्प आदि सोलह उपचारों तथा अनेक प्रकार के नैवेद्यों से उनका पूजन करें। इसके बाद भक्तियुक्त चित्त से उन्हें दही तथा भात की बलि प्रदान करें। इसके बाद अर्घ्य दें जिसकी विधि इस प्रकार है –

सुवर्ण, चाँदी, ताम्र अथवा बाँस के पात्र में नारंगी, खजूर, नारिकेल, कुष्मांड, करेला, केला, अनार, बैंगन, बिजौरा नीबू, अखरोट, पिस्तक, नीलकमल, पद्म, कुश, दूर्वांकुर, अन्य प्रकार के भी उपलब्ध फल तथा पुष्प, नानाविध भक्ष्य पदार्थ, सप्तधान्य, सप्त अंकुर, पंचपल्लव और वस्त्र – इन पदार्थों को रखकर पात्र की विधिवत पूजा करें। पुनः घुटने के बल, सिर झुकाकर उस पात्र को मस्तक से लगाकर नीचे की ओर मुख करके अगस्त्य मुनि का इस प्रकार से ध्यान करें और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सावधान होकर अर्घ्य प्रदान करें – काशपुष्प के समान स्वरुप वाले, अग्नि तथा वायु से प्रादुर्भूत तथा मित्रावरुण के पुत्र हे अगस्त्य ! आपको नमस्कार है। विंध्य की वृद्धि को रोक देने वाले, मेघ के जल का विष हरने वाले, रत्नों के स्वामी तथा लंका में वास करने वाले हे देवर्षे ! आपको नमस्कार है।

जिन्होंने आतापी तथा वातापी का भक्षण किया, लोपामुद्रा के पति, महाबली तथा श्रीमान जो ये अगस्त्य जी हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है। जिनके उदित होने से समस्त पाप, मानसिक तथा शारीरिक रोग और तीनों प्रकार के ताप – आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक – नष्ट हो जाते हैं, उन्हें बार-बार नित्य नमस्कार है। जिन्होंने जल-जंतुओं से परिपूर्ण समुद्र को पूर्वकाल में सूखा दिया था, उन पुत्रसहित, शिष्यसहित तथा भार्या सहित अगस्त्य जी को नमस्कार है. बुद्धिमान द्विजाति “अगस्त्यस्य नद्भयः” (ऋक. १०|६०|६) – इस वेदमंत्र से तथा शूद्र पौराणिक मन्त्र से अगस्त्य जी को अर्घ्य देकर उन्हें प्रणाम करें. इसके बाद लोपामुद्रा को अर्घ्य दें। हे राजपुत्रि ! हे महाभागे ! हे ऋषिपत्नि ! हे सुमुखि ! हे लोपामुद्रे ! आपको नमस्कार है, मेरे अर्घ्य को स्वीकार कीजिए।

इसके बाद अर्घ्य मन्त्र से घृत की आठ हजार अथवा एक सौ आठ आहुति प्रदान करें। इस प्रकार करके अगस्त्य जी को प्रणाम करने के बाद यह कहकर विसर्जन करे – बुद्धि से परे चरित्र वाले हे अगस्त्य ! मैंने सम्यक रूप से आपका पूजन किया है, अतः मेरी इहलौकिक तथा पारलौकिक कार्यसिद्धि को करके आप प्रस्थान कीजिए। इस प्रकार उन अगस्त्य जी को विसर्जित करके वेद-वेदांग के विद्वान्, निर्धन तथा गृहस्थ ब्राह्मण को समस्त पदार्थ अर्पण कर दे और मुख से यह कहें – “सत्कार किए गए अगस्त्य जी ब्राह्मण रूप से स्वीकार करें। अगस्त्य ही ग्रहण करते हैं, अगस्त्य ही देते हैं और दोनों का उद्धार करने वाले भी अगस्त्य ही हैं, अगस्त्य जी को बार-बार नमस्कार है।”

दोनों मन्त्रों का उच्चारण करके दान करें, ब्राह्मण आदि पूर्व विहित वैदिक मन्त्र का उच्चारण करें और शूद्र पौराणिक मन्त्र का उच्चारण करे। उसके बाद सुवर्णमयी सींगवाली, दूध देने वाली, बछड़े सहित, चाँदी के खुरवाली, ताम्र के पीठवाली, अत्यंत सुन्दर, काँसे की दोहनी से युक्त और घंटा तथा वस्त्र से विभूषित श्वेत वर्ण की धेनु प्रदान करें। अगस्त्य मुनि के उदय के सात दिन पूर्व से इस प्रकार अर्घ्य देकर ही सातवें दिन दक्षिणा सहित गौ प्रदान करें।

इस प्रकार इस व्रत को सात वर्ष तक करके निष्काम व्यक्ति पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता और सकाम व्यक्ति चक्रवर्ती राजा होता है तथा रूप व आरोग्य से युक्त रहता है, ब्राह्मण चार वेदों तथा सभी शास्त्रों का विद्वान् हो जाता है क्षत्रिय समुद्रपर्यन्त समस्त पृथ्वी को प्राप्त कर लेता है, वैश्य धान्यसंपदा और गोधन प्राप्त कर लेता है। शूद्रों को अत्यधिक धन, आरोग्य तथा सत्य की प्राप्ति होती है, स्त्रियों को पुत्र उत्पन्न होते हैं, उनका सौभाग्य बढ़ता है तथा घर समृद्धिमय हो जाता है। हे ब्रह्मपुत्र ! विधवाओं का महापुण्य बढ़ता है, कन्या रूपगुणसंपन्न पति प्राप्त करती है और दुःखी मनुष्य रोग से मुक्त हो जाता है।

जिन देशों में मनुष्यों के द्वारा अगस्त्य की पूजा की जाती है, उन देशों में मेघ लोगों की इच्छा के अनुसार वृष्टि करता है, वहाँ प्राकृतिक आपदाएं निर्मूल हो जाती हैं और व्याधियां नष्ट हो जाती हैं। जो कोई भी अगस्त्य जी के इस अर्घ्यदान का पाठ करते हैं अथवा इसे सुनते हैं, वे सर्वश्रेष्ठ मनुष्य पापों से छूट जाते हैं और पृथ्वीलोक में दीर्घकाल तक निवास करके हंसयुक्त विमान से स्वर्ग जाते हैं। जो लोग जीवनपर्यन्त निष्काम भाव से इसे करते हैं वे मुक्ति के भागी होते हैं।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “अगस्त्य अर्घ्यविधि” नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य सत्ताईसवाँ अध्याय | Chapter -27 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 27 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य सत्ताईसवाँ अध्याय

Chapter -27

 

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कर्क संक्रांति और सिंह संक्रांति में किए जाने वाले कार्य

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Sawan Maas)में कर्क संक्रांति तथा सिंह संक्रांति आने पर उस समय जो कृत्य किए जाते हैं उन्हें भी मैं आपसे कहता हूँ। कर्क संक्रांति तथा सिंह संक्रांति के बीच की अवधि में सभी नदियाँ रजस्वला रहती हैं अतः समुद्रगामिनी नदियों को छोड़कर उन सभी में स्नान नहीं करना चाहिए। कुछ ऋषियों ने यह कहा है कि अगस्त्य के उदयपर्यन्त ही वे रजस्वला रहती हैं। जब तक दक्षिण दिशा के आभूषण स्वरुप अगस्त्य उदित नहीं होते तभी तक वे नदियाँ रजस्वला रहती हैं और अल्प जलवाली कही जाती हैं। जो नदियाँ पृथ्वी पर ग्रीष्म-ऋतू में सूख जाती हैं, वर्षाकाल में जब तक दस दिन न बीत जाएं तब तक उनमे स्नान नहीं करना चाहिए। जिन नदियों की गति स्वतः आठ हजार धनुष तक नहीं हो जाती तब तक वे ‘नदी’ शब्द की संज्ञावली नहीं होती अपितु वे गर्त कही जाती हैं।

कर्क संक्रांति के प्रारम्भ में तीन दिन तक महानदियां रजस्वला रहती हैं, वे स्त्रियों की भाँति चौथे दिन शुद्ध हो जाती हैं। हे मुने ! अब मैं महानदियों को बताऊँगा, आप सावधान होकर सुनिए। गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेनिका, तापी, पयोष्णी – ये छह नदियाँ विंध्य के दक्षिण में कही गई हैं। भागीरथी, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशोका, वितस्ता – ये छह नदियाँ विंध्य के उत्तर में कही गई हैं। ये बारह महानदियां देवर्षिक्षेत्र से उत्पन्न हुई हैं। हे मुने ! देविका, कावेरी, वंजरा, कृष्णा – ये महानदियां कर्क संक्रमण के प्रारम्भ में एक दिन तक रजस्वला रहती हैं, गौतमी नामक नदी कर्क संक्रमण होने पर तीन दिनों तक रजस्वला रहती है।

चंद्रभागा, सती, सिंधु, सरयू, नर्मदा, गंगा, यमुना, प्लक्षजाला, सरस्वती – ये जो नादसंज्ञावाली नदियाँ हैं, वे रजोदोष से युक्त नहीं होती हैं। शोण, सिंधु, हिरण्य, कोकिल, आहित, घर्घर और शतद्रु – ये सात नाद पवित्र कहे गए हैं। धर्मद्रव्यमयी गंगा, पवित्र यमुना तथा सरस्वती – ये नदियाँ गुप्त रजोदोषवाली होती हैं, अतः ये सभी अवस्थाओं में निर्मल रहती हैं. जल का यह रजोदोष नदी तट पर रहने वालों को नहीं होता है। रजोधर्म से दूषित जल भी गंगा जल से पवित्र हो जाता है। प्रसवावस्था वाली बकरियां, गायें, भैंसे व स्त्रियाँ और भूमि पर वृष्टि के प्रारम्भ का जल – ये दस रात व्यतीत होने पर शुद्ध हो जाते हैं. कुएँ तथा बावली के अभाव में अन्य नदियों का जल अमृत होता है। रजोधर्म से दूषित काल में भी ग्रामभोग नदी दोषमय नहीं होती है। दूसरे के द्वारा भरवाए गए जल में रजो दोष नहीं होता है।

उपाकर्म में, उत्सर्ग कृत्य में, प्रातःकाल के स्नान में, विपत्तियों में, सूर्यग्रहणकाल में तथा चंद्रग्रहणकल में रजोदोष नहीं होता है। हे सनत्कुमार ! अब मैं सिंह संक्रांति में गोप्रसव के विषय में कहूँगा। सिंह राशि में सूर्य के सक्रमण होने पर यदि गोप्रसव होता है तब जिसकी गाय प्रसव करती है, उसकी मृत्यु छह महीनों में हो जाती है। मैं इसकी शांति भी बताऊँगा, जिससे सुख प्राप्त होता है। प्रसव करने वाली उस गाय को उसी क्षण ब्राह्मण को दे देना चाहिए। उसके बाद घृत मिश्रित काली सरसों से होम करना चाहिए। इसके बाद व्याहृतियों से घृत में सिक्त तिलों की एक हजार आठ आहुतियां डालनी चाहिए। उपवास रखकर विप्र को प्रयत्नपूर्वक दक्षिणा देनी चाहिए।

सिंह राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर जब गोष्ठ में गौ प्रसव होता है तब कोई अनिष्ट अवश्य होता है अतः उसकी शान्ति के लिए शांतिकर्म अनुष्ठान करना चाहिए। “अस्य वाम” इस सूक्त से तथा “तद्विष्णो:” इस मन्त्र से तिल तथा घृत से एक सौ आठ आहुतियां देनी चाहिए और मृत्युंजय मन्त्र से दस हजार आहुतियां डालनी चाहिए। उसके बाद श्रीसूक्त से अथवा शांतिसूक्त से स्नान करना चाहिए। इस प्रकार किए गए विधान से कभी भी भय नहीं होता है. इसी प्रकार यदि श्रावण मास (Sawan Maas) में घोड़ी दिन में प्रसव करे तो इसके लिए भी शान्ति कर्म करना चाहिए, उसके बाद दोष नष्ट हो जाता है।

हे सनत्कुमार ! अब मैं कर्क संक्रांति में, सिंह संक्रांति में तथा श्रावण मास (Sawan Maas) में किए जाने वाले शुभप्रद दान का वर्णन करूँगा। सूर्य के कर्क राशि में स्थित होने पर घृतधेनु का दान तथा सिंह राशि में स्थित होने पर सुवर्ण सहित छत्र का दान श्रेष्ठ कहा जाता है तथा श्रावण मास (Sawan Maas) में दान अति श्रेष्ठ फल देने वाला कहा गया है। भगवान् श्रीधर की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास (Sawan Maas) में घृत, घृतकुम्भ, घृतधेनु तथा फल विद्वान् ब्राह्मण को प्रदान करने चाहिए। मेरी प्रसन्नता के लिए श्रावण मास (Sawan Maas) में किए गए दान अन्य मासों के दानों की अपेक्षा अधिक अक्षय फल देने वाले होते हैं। बारहों महीनों में इसके समान अन्य मास मुझको प्रिय नहीं है। जब श्रावण मास (Sawan Maas) आने को होता है तब मैं उसकी प्रतीक्षा करता हूँ।

जो मनुष्य इस मास में व्रत करता है वह मुझे परम प्रिय होता है क्योंकि चन्द्रमा ब्राह्मणों के राजा हैं, सूर्य सभी के प्रत्यक्ष देवता हैं – ये दोनों मेरे नेत्र हैं, कर्क तथा सिंह की दोनों संक्रांतियां जिस मास में पड़े उससे बढ़कर किसका माहात्म्य होगा. जो मनुष्य इस श्रावण मास (Sawan Maas) में पूरे महीने प्रातःकाल स्नान करता है, वह बारहों महीने के प्रातः स्नान का फल प्राप्त करता है। यदि मनुष्य श्रावण मास (Sawan Maas) में प्रातः स्नान नहीं करता है तो बारहों महीनो में किये गए उसके स्नान का फल निष्फल हो जाता है।

हे महादेव ! हे दयासिन्धो ! मैं श्रावण मास (Sawan Maas) में उषाकाल में प्रातःस्नान करूँगा, हे प्रभो ! मुझे विघ्न रहित कीजिए। प्रातः स्नान करके शिवजी की पूजा करके श्रावण मास (Sawan Maas) की सत्कथा का प्रतिदिन भक्तिपूर्वक श्रवण करना चाहिए. बुद्धिमान व्यक्ति इस प्रकार से ही मास व्यतीत करता है। अन्य मासों की प्रवृत्ति पूर्णमासी प्रतिपदा से होती है किन्तु इस मास की प्रवृत्ति अमावस्या की प्रतिपदा से होती है. श्रावण मास (Sawan Maas) की कथा के माहात्म्य का वर्णन भला कौन कर सकता है। इस मास में व्रत, स्नान, कथा-श्रवण आदि से जो सात प्रकार की वन्ध्या स्त्री होती है, वह भी सुन्दर पुत्र प्राप्त करती है। विद्या चाहने वाला विद्या प्राप्त करता है, बल की कामना करने वाले को बल मिल जाता है, रोगी आरोग्य प्राप्त कर लेता है, बंधन में पड़ा हुआ व्यक्ति बंधन से छूट जाता है, धन का अभिलाषी धन को पा लेता है, धर्म के प्रति मनुष्य का अनुराग हो जाता है तथा पत्नी की कामना करने वाला उत्तम पत्नी पाता है। 

हे मानद ! अधिक कहने से क्या प्रयोजन, मनुष्य जो-जो चाहता है उस-उस को पा लेता है और मृत्यु के बाद मेरे लोक को पाकर मेरे सान्निध्य में आनंद प्राप्त करता है। कथा सुनाने के बाद वस्त्र, आभूषण आदि से कथा वाचक की विधिवत पूजा करनी चाहिए। जिसने वाचक को संतुष्ट कर दिया उसने मानो मुझ शिव (Lord Shiv) को प्रसन्न कर दिया। श्रावण मास (Sawan Maas) का माहात्म्य सुनकर जो वाचक की पूजा नहीं करता, यमराज उसके कानों को छेदते हैं और वह दूसरे जन्म में बहरा होता है। अतः सामर्थ्यानुसार वाचक की पूजा करनी चाहिए। जो मनुष्य उत्तम भक्ति के साथ इस श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य का पाठ करता है अथवा सुनता है अथवा दूसरों को सुनाता है उसको अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “नदी-रजोदोष-सिंह-गौप्रसव-सिंहकर्कट-श्रावणस्तुति वाचकपूजाकथन” नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य छब्बीसवाँ अध्याय | Chapter -26 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 26 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य छब्बीसवाँ अध्याय

Chapter -26

 

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श्रावण अमावस्या को किये जाने वाले वृष पूजन और कुश ग्रहण का विधान

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas) में अमावस्या के दिन जो करणीय है, उसको तथा प्रसंगवश जो कुछ अन्य बात मुझे याद आ गई है, उसको भी मैं आपसे कहता हूँ। पूर्वकाल में अनेक प्रकार के महान बल तथा पराक्रम वाले, जगत का विध्वंस करने वाले तथा देवताओं का उत्पीड़न करने वाले दुष्ट दैत्यों के साथ मेरे अनेक युद्ध हुए। मैंने शुभ वृषभ अर्थात नन्दी पर आरूढ़ होकर संग्राम किए, किन्तु महाशक्तिशाली तथा महापराक्रमी उस वृषभ ने मुझको नहीं छोड़ा। अंधकासुर के साथ युद्ध में तो नन्दी का शरीर विदीर्ण हो गया था, उसकी त्वचा कट गई, शरीर से रक्त बहने लगा और उसके प्राण मात्र बचे रह गए थे फिर भी जब तक मैंने उस दुष्ट का संहार नहीं किया तब तक वह नन्दी धैर्य धारण कर मेरा वहन करता रहा।

उसकी इस दशा को मैंने जान लिया था। उसके बाद उस अंधक का वध करके मैंने प्रसन्न होकर नन्दी से कहा – हे सुव्रत ! मैं तुम्हारे इस कृत्य से प्रसन्न हूँ, वर माँगो. तुम्हारे घाव ठीक हो जाएँ। तुम बलवान हो जाओ और तुम्हारा पराक्रम तथा रूप पहले से भी बढ़ जाए। इसके अतिरिक्त तुम जो-जो वर माँगोगे, उसे मैं तुम्हें अवश्य दूँगा।

नंदिकेश्वर बोले – हे देवदेव ! हे महेश्वर ! मेरी कोई याचना नहीं है. आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो फिर इससे बढ़कर क्या वैभव हो सकता है। तथापि हे भगवन ! लोकोपकार के लिए मैं मांग रहा हूँ। हे शिव (Lord Shiv) ! आज श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या है, जिसमें आप मुझ पर प्रसन्न हुए हैं। इस तिथि में गायों सहित उत्तम मिटटी से निर्मित वृषभों की पूजा करनी चाहिए। आज अमावस्या के दिन जन्म लेना कामधेनु तुल्य होता है। अतः इस तिथि में वर प्रदान करें की यह अमावस्या वांछित फल देने वाली हो।

आज के दिन भक्तिपूर्वक प्रत्यक्ष वृषभों तथा गायों की पूजा करनी चाहिए। गेरू आदि धातुओं से प्रयत्नपूर्वक उन्हें भूषित करना चाहिए। उनकी सींगों पर सोना, चाँदी आदि के पत्तर मढ़े और रेशम के बड़े-बड़े गुच्छों को भी सींगों पर बांधे। अनेक प्रकार के वर्णों से चित्रित सुन्दर वस्त्र से उनकी पीठ को ढक दें और गले में मनोहर शब्द करने वाला घण्टा बाँध दे। सूर्योदय से लगभग चार घड़ी बीतने पर गायों को ग्राम से बाहर ले जाकर पुनः सांयवेला में ग्राम में प्रवेश कराएं।

आहार के रूप में सरसों, तिल की खली आदि अनेक प्रकार का अन्न इस दिन अर्पित करें। जो इस दिन ऐसा करता है, उसका गोधन सदा बढ़ता रहता है। जिस घर में गाय ना हों वह श्मशान के समान होता है। पंचामृत तथा पंचगव्य दूध के बिना नहीं बनते है। गोबर से लेप किए बिना घर पवित्र नहीं होता। हे सुरोत्तम ! जहाँ गोमूत्र से छिड़काव नहीं होता वहाँ चींटी आदि जंतुओं का उपद्रव विद्यमान रहता है। हे महादेव ! दूध के बिना भोजन का रस ही क्या है? हे प्रभो ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न है तो इन वरों को तथा अन्य वरों को भी मुझे प्रदान कीजिए।

हे सनत्कुमार ! तब नन्दी का यह वचन सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. मैंने कहा – हे वृषश्रेष्ठ ! जो तुमने माँगा है सब हो जाए। हे नन्दिन ! इस दिन का जो अन्य नाम है, उसे भी सुनो। जो वृषभ किसी के द्वारा कहीं भी किसी कार्य में प्रयुक्त नहीं किया जाता और तृण खाता हुआ तथा जल पीता हुआ जो शांतिपूर्वक विचरण करता है तथा महान वीर व बलशाली होता है उसे “पोल” कहा जाता है। अतः हे नन्दिन ! उसी के नाम से यह दिन “पोला” नामवाला होगा। इस दिन अपने इष्ट बंधुओं के साथ महान उत्सव करना चाहिए।

हे वत्स ! मैंने उस दिन ये श्रेष्ठ वर प्रदान किए थे अतः लोगों के द्वारा इस श्रेष्ठ दिन को “पोला” नामवाला कहा गया है। इस दिन सभी कामनाओ को पूर्ण करने वाला वृषभों का महान उत्सव करना चाहिए। इसके साथ ही अब मैं इसी तिथि में किए जाने वाले कुशग्रहण का वर्णन करूँगा। श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या के दिन पवित्र होकर कुशों को उखाड़ लाएं। वे कुश सदा ताजे होते हैं, उन्हें बार-बार प्रयोग में लाना चाहिए।

कुश, काश, यव, दूर्वा, उशीर, सकूदक, गेहूँ, व्रीहि, मूंज और बल्वज – ये दस दर्भ होते हैं। “ब्रह्माजी के साथ उत्पन्न होने वाले तथा ब्रह्माजी की इच्छा से प्रकट होने वाले हे दर्भ ! मेरे सभी पापों का नाश कीजिए और कल्याणकारक होइए” – इस मन्त्र का उच्चारण करने के साथ ईशान दिशा में मुख करके “हुं फट” – मन्त्र के द्वारा एक ही बार में कुश को उखाड़ लें। जिनके अग्र भाग टूटे हुए ना हों तथा शुष्क न हों, वे हरित वर्ण के कुश श्राद्धकर्म के योग्य कहे गए हैं और जडऱहित कुश देवकार्यों तथा जप आदि में प्रयोग के योग्य होते हैं। सात पत्तों वाले कुश देवकार्य तथा पितृकार्य के लिए श्रेष्ठ होते हैं। मूलरहित तथा गर्भयुक्त, अग्रभागवाले तथा दस अंगुल प्रमाण वाले दो दर्भ पवित्रक के लिए उपयुक्त होते हैं।

ब्राह्मण के लिए चार कुश पत्रों का पवित्रक बताया गया है और अन्य वर्णों के लिए क्रमशः तीन, दो और एक दर्भ का पवित्रक कहा गया है अथवा सभी वर्णों के लिए दो दर्भों का ग्रंथियुक्त पवित्रक होता है। यह पवित्रक धारण करने के लिए होता है, इसे मैंने आपको बता दिया है। उत्पवन हेतु सभी के लिए दो दर्भ उपयुक्त होते हैं। पचास दर्भों से ब्रह्मा और पच्चीस दर्भों से विष्टर बनाना चाहिए। आचमन के समय हाथ से पवित्रक को नहीं निकालना चाहिए. विकिर के लिए पिंड देने तथा अग्नौकरण करने के साथ और पाद्य देने के पश्चात पवित्रक का त्याग कर देना चाहिए। दर्भ के समान पुण्यप्रद, पवित्र और पापनाशक कुछ भी नहीं है।

देवकर्म तथा पितृकर्म – ये सब दर्भ के अधीन हैं। उस प्रकार के दर्भों को श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या के दिन उखाड़ना चाहिए, इससे इनकी पवित्रता बनी रहती है. श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या का वर्णन क्या किया जाए। हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas)की अमावस्या के दिन जो कृत्य होता है, उसे मैंने कह दिया। श्रावण मास (Sawan Maas) में और भी जो करणीय है, उसे भी मैं आपसे कहता हूँ।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “अमावस्या के दिन वृषभ पूजन-कुशग्रहण” नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य पच्चीसवाँ अध्याय | Chapter -25 Sawan Maas ki Katha

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श्रावण माह माहात्म्य पच्चीसवाँ अध्याय

Chapter -25

 

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श्रावण अमावस्या को किए जाने वाले पिठोरी व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं उत्तम पिठोरी व्रत का वर्णन करूँगा। सभी संपदाओं को प्रदान करने वाला यह व्रत श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या को होता है। जो यह घर है वह सभी वस्तु मात्र का अधिष्ठान है इसलिए इसे पीठ कहा गया है और पूजन में वस्तु मात्र के समूह को “आर” कहते हैं, अतः हे मुनीश्वर ! इस व्रत का नाम इसलिए “पिठोर” है। अब मैं उसकी विधि कहूँगा, सावधान होकर सुनिए। दीवार को ताम्रवर्ण, कृष्णवर्ण अथवा श्वेतवर्ण धातु से पोतना चाहिए। अगर ताम्रवर्ण से पोता गया हो तो पीले रंग से, कृष्ण वर्ण से पोता गया तो श्वेत रंग से और श्वेत वर्ण से पोता गया हो तो कृष्ण वर्ण से चित्र बनाना चाहिए। अथवा श्वेत पीत से, लाल से, काले या हरे वर्ण से चित्र बनाएं।

मध्य में पार्वती सहित शिव (Lord Shiv) की मूर्त्ति अथवा शिवलिंग को बनाकर विस्तीर्ण दीवार पर संसार की अनेक चीजों का चित्र बनाएं। चतुःशाला सहित रसोईघर, देवालय, शयनघर, सात खजाने, स्त्रियों का अंतःपुर जो महलों तथा अट्टालिकाओं से सुशोभित तथा शाल के वृक्षों से मण्डित हो, चूने आदि से दृढ़ता से बंधे पाषाणों तथा ईंटों से सुशोभित हो और जिसमें विचित्र दरवाजे-छत तथा क्रीड़ास्थान हों, इन सभी को चित्रित करें। बकरियां, गायें, भैंस, घोड़े, ऊँट, हाथी, चलने वाला रथ, अनेक प्रकार की सवारी गाड़ियाँ, स्त्रियां, बच्चे, वृद्ध, जवान, पुरुष, पालकी, झूला और अनेक प्रकार के मंच – इन सबका अंकन करें. सुवर्ण, चाँदी, ताम्र, सीसा, लोहा, मिटटी तथा पीतल के और अन्य प्रकार के विभिन्न रंगों वाले पात्रों को लिखें।

शयन संबंधी जितने भी साधन हैं – चारपाई, पलंग, बिस्तर, तकिया आदि, बिल्ली, मैना अन्य और भी शुभ पक्षी, पुरुषों तथा स्त्रियों के अनेक प्रकार के आभूषण, बिछाने तथा ओढ़ने के जो वस्त्र हैं, यज्ञ के जितने भी पात्र होते है, मंथन के लिए दो स्तम्भ व तीन रस्सियां, दूध, मक्खन, दही, तकर, छाछ, घी, तेल, तिल – इन सभी को दीवार पर लिखें। गेहूं, चावल, अरहर, जौ, मक्का, वार्तानल (एक प्रकार का अन्न होता है), चना, मसूर, कुलथी, मूंग, कांगनी, तिल, कोदों, कातसी नामक अन्न, साँवाँ, चावल, उड़द – ये सभी धान्यवर्ग भी अंकित करें। सील, लोढ़ा, चूल्हा, झाड़ू, पुरुषों व स्त्रियों के सभी वस्त्र, बाँस तथा तृण के बने हुए सूप आदि, ओखली, मूसल, (गेहूं आदि पीसने तथा अरहर आदि दलने के लिए) दो यन्त्र – चाकी तथा दरैता, पंखा, चंवर, छत्र, जूता, दो खड़ाऊं, दासी, दास, नौकर, पोष्यवर्ग, तृण आदि पशुओं का आहार, धनुष, बाण, शतघ्नी (एक प्रकार का अस्त्र), खडग, भाला, बरछी, ढाल, पाश, अंकुश, गदा, त्रिशूल, भिन्दिपाल, तोमर, मुद्गर, फरसा, पट्टिश, भुशुण्डि, परिघ, चक्रयन्त्र आदि, जलयन्त्र, दवात, लेखनी, पुस्तक, सभी प्रकार के फल, छुरी, कैंची, अनेक प्रकार के पुष्प, विल्वपत्र, तुलसीदल, मशाल-दीपक तथा दीवट आदि उनके साधन, अनेक विध खाने योग्य शाक तथा पकवानों के जितने भी प्रकार हैं – उन सभी को लिखना है। जो वस्तुएं यहां नहीं बताई गई है उस सबको भी दीवार पर लिखना है क्योंकि यहां पर सभी कुछ लिखना संभव नहीं है क्योंकि एक-एक पदार्थ के सैकड़ो तथा हजारों भेद हैं और मैं कितना कह सका हूँ।

सोलहों उपचारों से इन सभी का पूजन होना चाहिए। पूजन में अनेक प्रकार के गंध-द्रव्य, पुष्प, धूप तथा चन्दन अर्पित करें। ब्राह्मणों, बालकों तथा सौभाग्यवती स्त्रियों को भोजन कराएं। उसके बाद पार्वती सहित शिव (Lord Shiv) से प्रार्थना करें – “मेरा व्रत संपूर्ण हो। हे साम्ब शिव (Lord Shiv)! हे दयासागर ! हे गिरीश ! हे चंद्रशेखर ! इस व्रत से प्रसन्न होकर आप हमारे मनोरथ पूर्ण करें।” इस प्रकार पाँच वर्ष तक व्रत करके बाद में उद्यापन कर देना चाहिए। इसमें घृत तथा बिल्वपत्रों से शिव-मन्त्र के द्वारा होम होता है। एक दिन अधिवासन करके सर्वप्रथम ग्रह होम करना चाहिए। आहुति की संख्या एक हजार आठ अथवा एक सौ आठ होनी चाहिए।

हे वत्स ! उसके बाद आचार्य की पूजा करें और भूयसी दक्षिणा दें। इसके बाद व्यक्ति इष्ट बंधुजनों तथा कुटुंब के साथ स्वयं भोजन करे। ऐसा विधान किए जाने पर मनुष्य सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इस लोक में जो-जो वस्तुएं उसे परम अभीष्ट होती है, उन सभी को वह पा लेता है। हे वत्स ! मैंने आपसे इस उत्तम पिठोरी व्रत का वर्णन कर दिया। इस व्रत के समान सभी मनोरथों तथा समृद्धियों को प्रदान करने वाला और शिवजी की प्रसन्नता करने वाला न कोई व्रत हुआ है और न तो होगा। मनुष्य इस व्रत में दीवार पर जो-जो वस्तु बनाता है उसको निश्चित रूप से पा लेता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “अमावस्या में पिठोरी व्रत कथन” नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य चौबीसवाँ अध्याय | Chapter -24 Sawan Maas ki Katha

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श्रावण माह माहात्म्य चौबीसवाँ अध्याय

Chapter -24

 

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श्रीकृष्णजन्माष्टमी व्रत के माहात्म्य में राजा मितजित का आख्यान

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! पूर्वकल्प में दैत्यों के भार से अत्यंत पीड़ित हुई पृथ्वी बहुत व्याकुल तथा दीन होकर ब्रह्माजी की शरण में गई। उसके मुख से वृत्तांत सुनकर ब्रह्माजी ने देवताओं के साथ क्षीरसागर में विष्णु के पास जाकर स्तुतियों के द्वारा उनको प्रसन्न किया तब नारायण श्रीहरि सभी दिशाओं में प्रकट हुए और ब्रह्माजी के मुख से संपूर्ण वृत्तांत सुनकर बोले – हे देवताओं ! आप लोग डरें मत, मैं वसुदेव के द्वारा देवकी के गर्भ से अवतार लूँगा और पृथ्वी का संताप दूर करूँगा। सभी देवता लोग यादवों का रूप धारण करें – ऐसा कहकर भगवान् अंतर्ध्यान हो गए।

समय आने पर वह देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए। वसुदेव ने कंस के भय से उन्हें गोकुल पहुंचा दिया और कंस का विनाश करने वाले उन कृष्ण का वहीँ पर पालन-पोषण हुआ। बाद में मथुरा में आकर उन्होंने अनुचरों सहित कंस का वध किया तब पुरवासियों ने आदरपूर्वक यह प्रार्थना की – हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे महायोगिन ! हे भक्तों को अभय देने वाले ! हे देव ! हे शरणागत वत्सल ! हम शरणागतों की रक्षा कीजिए। हे देव ! हम आपसे कुछ निवेदन करते हैं, इसे आप कृपा करके हम लोगों को बताएं। आपके जन्मदिन के कृत्य कोई कहीं भी नहीं जानता। वह सब आपसे जानकर हम सभी लोग उस जन्मदिन पर वर्धापन नामक उत्सव मनाएंगे। अपने प्रति उनकी भक्ति, श्रद्धा तथा सौहार्द को देखकर श्रीकृष्ण ने अपने जन्मदिन के संपूर्ण कृत्य को उनसे कह दिया। उसे सुनकर उन पुरवासियों ने भी विधानपूर्वक उस व्रत को किया तब भगवान् ने प्रत्येक व्रतकर्ता को अनेक वर प्रदान किए।

इस प्रसंग में एक प्राचीन इतिहास भी कहा जाता है – अंगदेश में उत्पन्न एक मितजित नामक राजा था। उसका पुत्र महासेन सत्यवादी था तथा सन्मार्ग पर चलने वाला था। सब कुछ जानने वाला वह राजा अपनी प्रजा को आनंदित करता हुआ उनका विधिवत पालन करता था। इस प्रकार रहते हुए उस राजा का अकस्मात दैवयोग से पाखंडियों के साथ बहुत कालपर्यंत साहचर्य हो गया और उनके संसर्ग से वह राजा अधर्मपरायण हो गया। वह राजा वेद, शास्त्र तथा पुराणों की बहुत निंदा करने लगा और वर्णाश्रम के धर्म के प्रति अत्यधिक द्वेष भाव से युक्त हो गया।

हे मुनिश्रेष्ठ ! बहुत दिन व्यतीत होने के पश्चात काल की प्रेरणा से वह राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ और यमदूतों के अधीन हो गया। यमदूतों के द्वारा पाश में बांधकर पीटते हुए यमराज के पास ले जाते हुए वह बहुत पीड़ित हुआ। दुष्टों की संगति के कारण उसे नरक में गिरा दिया गया और वहां बहुत समय तक उसने यातनाएँ प्राप्त की। यातनाओं को भोगकर अपने पाप के शेष भाग से वह पिशाच योनि को प्राप्त हुआ। भूख व प्यास से व्याकुल वह भ्रमण करता हुआ मारवाड़ देश में आकर किसी वैश्य के शरीर में प्रवेश करके रहने लगा। वह उसी के साथ पुण्यदायिनी मथुरापुरी चला गया। वहां पास के ही रक्षकों ने उस पिशाच को उसके गृह से निकाल दिया तब वह पिशाच वन में तथा ऋषियों के आश्रम में भ्रमण करने लगा।

किसी समय दैवयोग से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन व्रत करने वाले मुनियों तथा द्विजों के द्वारा महापूजा तथा नामसंकीर्तन आदि के साथ रात्रि-जागरण किया जा रहा था, वहाँ पहुँचकर उसने विधिवत सब कुछ देखा और श्रीहरि की कथा का श्रवण किया। इससे वह उसी क्षण पापरहित, पवित्र तथा निर्मल मनवाला हो गया। वह यमदूतों से मुक्त हो गया और प्रेत योनि छोड़कर विमान में बैठ दिव्य भोगों से युक्त हो विष्णुलोक पहुँच गया। इस प्रकार इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि को प्राप्त उस राजा को विष्णु का सान्निध्य प्राप्त हुआ।

तत्त्वदर्शी मुनियों ने पुराणों में इस शाश्वत तथा सार्वलौकिक व्रत का पूर्ण रूप से वर्णन किया है। सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस व्रत को करके मनुष्य सभी वांछित फल प्राप्त करता है। इस प्रकार जो कृष्णजन्माष्टमी के दिन इस शुभ व्रत को करता है, वह इस लोक में अनेक प्रकार के सुखों को भोगकर शुभ कामनाओं को प्राप्त करता है।

हे ब्रह्मपुत्र ! वहाँ वैकुण्ठ में एक लाख वर्ष तक देव विमान में आसीन होकर नानाविध सुखों का उपभोग करके अवशिष्ट पुण्य के कारण इस लोक में आकर सभी ऐश्वर्यों से समृद्ध तथा सभी अशुभों से रहित होकर महाराजाओं के कुल में उत्पन्न होता है, वह कामदेव के सामान स्वरुप वाला होता है। जिस स्थान पर कृष्ण जन्मोत्सव की उत्सव विधि लिखी हो अथवा सभी सौंदर्य से युक्त श्रीकृष्ण जन्मसामग्री किसी दूसरे को अर्पित की गई हो अथवा उत्सवपूर्वक अनुष्ठित व्रतों से विश्वसृष्टा श्रीकृष्ण की पूजा की जाती हो वहाँ शत्रुओं का भय कभी नहीं होता है। उस स्थान पर मेघ व्यक्ति की इच्छा करने मात्र से वृष्टि करता है और प्राकृतिक आपदाओं से भी कोई भय नहीं होता। जिस घर में कोई देवकी पुत्र श्रीकृष्ण के चरित्र की पूजा करता है, वह घर सब प्रकार से समृद्ध रहता है और वहाँ भूत-प्रेत आदि बाधाओं का भय नहीं होता है। जो मनुष्य किसी के साथ में भी शांत होकर इस व्रतोत्सव का दर्शन कर लेता है वह भी पाप से मुक्त होकर श्रीहरि के धाम जाता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “जन्माष्टमीव्रत कथन” नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य तेइसवाँ अध्याय | Chapter -23 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 23 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य तेइसवाँ अध्याय

Chapter -23

 

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कृष्ण जन्माष्टमी व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार – श्रावण मास (Shravan Maas) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वृष के चन्द्रमा में अर्धरात्रि में इस प्रकार के शुभ योग में देवकी ने वसुदेव से श्रीकृष्ण को जन्म दिया (भारत के पश्चिमी प्रदेशों में युगादि तिथि के अनुसार मास का नामकरण होता है अतः श्रावण कृष्ण अष्टमी को भाद्रपद अष्टमी समझना चाहिए) सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर इस श्रेष्ठ महोत्सव को करना चाहिए। सप्तमी के दिन अल्प आहार करें। इस दिन दंतधावन करके उपवास के नियम का पालन करे और जितेन्द्रिय होकर रात में शयन करे।

जो मनुष्य केवल उपवास के द्वारा कृष्णजन्माष्टमी का दिन व्यतीत करता है, वह सात जन्मों में किए गए पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। पापों से मुक्त होकर गुणों के साथ जो वास होता है उसी को सभी भोगों से रहित उपवास जानना चाहिए। अष्टमी के दिन नदी आदि के निर्मल जल में तिलों से स्नान करके किसी उत्तम स्थान में देवकी का सुन्दर सूतिकागृह बनाना चाहिए। जो अनेक वर्ण के वस्त्रों, कलशों, फलों, पुष्पों तथा दीपों से सुशोभित हो और चन्दन तथा अगरु से सुवासित हो। उसमे हरिवंशपुराण के अनुसार गोकुल लीला की रचना करें और उसे बाजों की ध्वनियों तथा नृत्य, गीत आदि मंगलों से सदा युक्त रखे।

उस गृह के मध्य में षष्ठी देवी की प्रतिमा सहित सुवर्ण, चाँदी, ताम्र, पीतल, मिटटी, काष्ठ अथवा मणि की अनेक रंगों से लिखी हुई श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करें। वहाँ आठ शल्य वाले पर्यंक (पलंग) के ऊपर सभी शुभ लक्षणों से संपन्न प्रसूतावस्था वाली देवी की मूर्त्ति रखकर उन सबको एक मंच पर स्थापित करे और उस पर्यंक में स्तनपान करते हुए सुप्त बालरूप श्रीकृष्ण को भी स्थापित करें।

उस सूतिकागृह में एक स्थान पर कन्या को जन्म दी हुई यशोदा को भी कृष्ण के समीप लिखे। साथ ही साथ हाथ जोड़े हुए देवताओं, यक्षों, विद्याधरों तथा अन्य देवयोनियों को भी लिखे और वहीँ पर खड्ग तथा ढाल धारण करके खड़े हुए वासुदेव को भी लिखे। इस प्रकार कश्यप के रूप में अवतीर्ण वसुदेव जी, अदितिस्वरूपा देवकी, शेषनाग के अवतार बलराम, अदिति के ही अंश से प्रादुर्भूत यशोदा, दक्ष प्रजापति के अवतार नन्द, ब्रह्मा के अवतार गर्गाचार्य, सभी अप्सराओं के रूप में प्रकट गोपिकावृन्द, देवताओं के रूप में जन्म लेने वाले गोपगण, कालनेमिस्वरूप कंस, उस कंस के द्वारा व्रज में भेजे गए वृषासुर – वत्सासुर – कुवलयापीड – केशी आदि असुर, हाथों में शास्त्र लिए हुए दानव तथा यमुनादह में स्थित कालिय नाग – इन सबको वहाँ चित्रित करना चाहिए।

इस प्रकार पहले इन्हे बनाकर श्रीकृष्ण ने जो कुछ भी लीलाएँ की हैं, उन्हें भी अंकित करके भक्तिपरायण होकर प्रयत्नपूर्वक सोलहों उपचारों से “देवकी.” – इस मन्त्र के द्वारा उनकी पूजा करनी चाहिए। वेणु तथा वीणा की ध्वनि के द्वारा गान करते हुए प्रधान किन्नरों से निरंतर जिनकी स्तुति की जाती है, हाथों में भृंगारि, दर्पण, दूर्वा, दधि-कलश लिए हुए किन्नर जिनकी सेवा कर रहे हैं, जो शय्या के ऊपर सुन्दर आसन पर भली-भाँति विराजमान हैं, जो अत्यंत प्रसन्न मुखमण्डल वाली हैं तथा पुत्र से शोभायमान हैं, वे देवताओं की माता तथा विजयसुतसुता देवी देवकी अपने पति वासुदेव सहित सुशोभित हो रही हैं।

उसके बाद विधि जानने वाले मनुष्य को चाहिए कि आदि में प्रणव तथा अंत में नमः से युक्त करके अलग-अलग सभी के नामो का उच्चारण करके सभी पापों से मुक्ति के लिए देवकी, वसुदेव,वासुदेव, बलदेव, नन्द तथा यशोदा की पृथक-पृथक पूजा करनी चाहिए। उसके बाद चन्द्रमा के उदय होने पर श्रीहरि का स्मरण करते हुए चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें। इस प्रकार कहना चाहिए – हे क्षीरसागर से प्रादुर्भूत, हे अत्रिगोत्र में उत्पन्न आपको नमस्कार है। हे रोहिणीकांत ! मेरे इस अर्घ्य को आप स्वीकार कीजिए। देवकी के साथ वासुदेव, नन्द के साथ यशोदा, रोहिणी के साथ चन्द्रमा और श्रीकृष्ण के साथ बलराम की विधिवत पूजा करके मनुष्य कौन-सी परम दुर्लभ वस्तु को नहीं प्राप्त कर सकता है। कृष्णाष्टमी का व्रत एक करोड़ एकादशी व्रत के समान होता है।

इस प्रकार से उस रात पूजन करके प्रातः नवमी तिथि को भगवती का जन्म महोत्सव वैसे ही मानना चाहिए जैसे श्रीकृष्ण का हुआ था। उसके बाद भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें जो-जो अभीष्ट हो गौ, धन आदि प्रदान करना चाहिए, उस समय यह कहना चाहिए – श्रीकृष्ण मेरे ऊपर प्रसन्न हों। गौ तथा ब्राह्मण का हित करने वाले आप वासुदेव को नमस्कार है, शान्ति हो, कल्याण हो – ऐसा कहकर उनका विसर्जन कर देना चाहिए। उसके बाद मौन होकर बंधु-बांधवों के साथ भोजन करना चाहिए। इस प्रकार जो प्रत्येक वर्ष विधानपूर्वक कृष्ण तथा भगवती का जन्म-महोत्सव मनाता है वह यथोक्त फल प्राप्त करता है। उसे पुत्र, संतान, आरोग्य तथा अतुल सौभाग्य प्राप्त होता है। वह इस लोक में धार्मिक बुद्धिवाला होकर मृत्यु के बाद वैकुण्ठलोक को जाता है।

हे सनत्कुमार ! अब इसके उद्यापन का वर्णन करूंगा। इसे किसी पुण्य दिन में विधिपूर्वक करें। एक दिन पूर्व एक बार भोजन करें और रात में ह्रदय में विष्णु का स्मरण करते हुए शयन करें। इसके बाद प्रातःकाल संध्या आदि कृत्य संपन्न करके ब्राह्मणों स्वस्तिवाचन कराएं और आचार्य का वरण करके ऋत्विजों की पूजा करें। इसके बाद वित्त शाठ्य से रहित होकर एक पल अथवा उसके आधे अथवा उसके भी आधे पल सुवर्ण की प्रतिमा बनवानी चाहिए और इसके बाद रचित मंडप में मंडल के भीतर ब्रह्मा आदि देवताओं की स्थापना करें।

इसके बाद वहाँ तांबे अथवा मिटटी का एक घट स्थापित करें और उसके ऊपर चाँदी या बाँस का एक पात्र रखे। उसमे गोविन्द की प्रतिमा रखकर वस्त्र से आच्छादित करके व्यक्ति सोलहों उपचारों से वैदिक तथा तांत्रिक मन्त्रों के द्वारा विधिवत पूजन करे। इसके बाद शंख में पुष्प, फल, चन्दन तथा नारिकेल फल सहित शुद्ध जल लेकर पृथ्वी पर घुटने टेककर यह कहते हुए देवकी सहित भगवान् श्रीकृष्ण को अर्घ्य प्रदान करे – कंस के वध के लिए, पृथ्वी का भार उतारने के लिए, कौरवों के विनाश के लिए तथा दैत्यों के संहार के लिए आपने अवतार लिया है, हे हरे ! मेरे द्वारा प्रदत्त इस अर्घ्य को आप देवकी सहित ग्रहण करें।

इसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि चन्द्रमा को पूर्वोक्त विधि से अर्घ्य प्रदान करें। पुनः भगवान् से प्रार्थना करें – हे जगन्नाथ ! हे देवकीपुत्र ! हे प्रभो ! हे वसुदेवपुत्र ! हे अनंत ! आपको नमस्कार है, भवसागर से मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार देवेश्वर से प्रार्थना करके रात्रि में जागरण करना चाहिए। पुनः प्रातःकाल शुद्ध जल में स्नान करके जनार्दन का पूजन खीर, तिल और घृत से मूल मन्त्र के द्वारा भक्तिपूर्वक एक सौ आठ आहुति देकर पुरुषसूक्त से हवन करें और पुनः “इदं विष्णुर्वी चक्रमे।” इस मन्त्र से केवल घृत(घी) की आहुतियाँ देनी चाहिए। पुनः पूर्णाहुति देकर तथा होमशेष संपन्न करने के अनन्तर आभूषण तथा वस्त्र आदि से आचार्य की पूजा करनी चाहिए।

उसके बाद व्रत की संपूर्णता के लिए दूध देने वाली, सरल स्वभाव वाली, बछड़े से युक्त, उत्तम लक्षणों से संपन्न, सोने की सींग, चाँदी के खुर, कांस्य की दोहनी, मोती की पूंछ, ताम्र की पीठ तथा सोने के घंटे से अलंकृत की हुई एक कपिला गौ को वस्त्र से आच्छादित करके दक्षिणा सहित दान करना चाहिए। इस प्रकार दान करने से व्रत संपूर्णता को प्राप्त होता है। कपिला गौ के अभाव में अन्य गौ भी दी जा सकती है।

इसके बाद ऋत्विजों को यथायोग्य दक्षिणा प्रदान करें। इसके बाद आठ ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और उन्हें भी दक्षिणा दे, पुनः सावधान होकर जल से परिपूर्ण कलश ब्राह्मणों को प्रदान करें और उनसे आज्ञा लेकर अपने बंधुओं के साथ भोजन करें। हे ब्रह्मपुत्र ! इस प्रकार व्रत का उद्यापन – कृत्य करने पर वह बुद्धिमान मनुष्य उसी क्षण पाप रहित हो जाता है और पुत्र-पौत्र से युक्त तथा धन-धान्य से संपन्न होकर बहुत समय तक सुखों का उपभोग कर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “कृष्णजन्माष्टमी व्रत कथन” नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य बाइसवाँ अध्याय | Chapter -22 Sawan Maas ki Katha

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श्रावण माह माहात्म्य बाइसवाँ अध्याय

Chapter -22

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) में किए जाने वाले संकष्ट हरण व्रत का विधान

ईश्वर बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! श्रावण मास (Shravan Maas) में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन सभी वांछित फल प्रदान करने वाला संकष्टहरण नामक व्रत करना चाहिए।

सनत्कुमार बोले – किस विधि से यह व्रत किया जाता है, इस व्रत में क्या करना चाहिए, किस देवता का पूजन करना चाहिए और इसका उद्यापन कब करना चाहिए? उसके विषय में मुझे विस्तारपूर्वक बताइए।

ईश्वर बोले – चतुर्थी के दिन प्रातः उठकर दंतधावन करके इस संकष्टहरण नामक शुभ व्रत को करने के लिए यह संकल्प ग्रहण करना चाहिए – हे देवेश ! आज मैं चन्द्रमा के उदय होने तक निराहार रहूँगा और रात्रि में आपकी पूजा करके भोजन करूँगा, संकट से मेरा उद्धार कीजिए। हे ब्रह्मपुत्र ! इस प्रकार संकल्प करके शुभ काले तिलों से युक्त जल से स्नान करके समस्त आह्निक कृत्य संपन्न करने के बाद गणपति की पूजा करनी चाहिए। बुद्धिमान को चाहिए की तीन माशे अथवा उसके आधे परिमाण अथवा एक माशे सुवर्ण से अथवा अपनी शक्ति के अनुसार सुवर्ण की प्रतिमा बनाए। सुवर्ण के अभाव में चांदी अथवा तांबे की ही प्रतिमा सुखपूर्वक बनाए। यदि निर्धन हो तो वह मिटटी की ही शुभ प्रतिमा बना ले किन्तु इसमें वित्त शाठ्य ना करें क्योंकि ऐसा करने पर कार्य नष्ट हो जाता है। रम्य अष्टदल कमल पर जल से पूर्ण तथा वस्त्रयुक्त कलश स्थापित करें और उसके ऊपर पूर्णपात्र रखकर उसमें वैदिक तथा तांत्रिक मन्त्रों द्वारा सोलहों उपचारों से देवता की पूजा करें।

हे विप्र ! तिलयुक्त दस उत्तम मोदक बनाएं, उनमें से पाँच मोदक देवता को अर्पित करें और पाँच मोदक ब्राह्मण को प्रदान करें। भक्ति भाव से उस विप्र की देवता की भाँति पूजा करें और यथाशक्ति दक्षिणा देकर यह प्रार्थना करे – हे विप्रवरी ! आपको नमस्कार है। हे देव ! मैं आपको फल तथा दक्षिणा से युक्त पाँच मोदक प्रदान करता हूँ। हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरी विपत्ति को दूर करने के लिए इसे ग्रहण कीजिए। हे विप्ररूप गणेश्वर ! मेरे द्वारा जो भी न्यून, अधिक अथवा द्रव्यहीन कृत्य किया गया हो, वह सब पूर्णता को प्राप्त हो। इसके बाद स्वादिष्ट अन्न से ब्राह्मणों को प्रसन्नतापूर्वक भोजन कराएं।

उसके बाद चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे, उसका मन्त्र प्रारम्भ से सुनिए – हे क्षीरसागर से प्रादुर्भूत ! हे सुधारूप ! हे निशाकर ! हे गणेश की प्रीति को बढ़ाने वाले ! मेरे द्वारा दिए गए अर्घ्य को ग्रहण कीजिए। इस विधान के करने पर गणेश्वर प्रसन्न होते हैं और वांछित फल प्रदान करते हैं, अतः इस व्रत को अवश्य करना चाहिए। इस व्रत का अनुष्ठान करने से विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता है, धन चाहने वाला धन पा जाता है, पुत्र की अभिलाषा रखने वाला पुत्र प्राप्त करता है, मोक्ष चाहने वाला उत्तम गति प्राप्त करता है, कार्य की सिद्धि चाहने वाले का कार्य सिद्ध हो जाता है और रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। विपत्तियों में पड़े हुए, व्याकुल चित्तवाले, चिंता से ग्रस्त मनवाले तथा जिन्हे अपने सुहृज्जनों का वियोग हो गया हो – उन मनुष्यों का दुःख दूर हो जाता है। यह व्रत मनुष्यों के सभी कष्टों का निवारण करने वाला, उन्हें सभी अभीष्ट फल प्रदान करने वाला, पुत्र-पौत्र आदि देने वाला तथा सभी प्रकार की संपत्ति प्रदान कराने वाला है।

ॐ नमो हेरम्बाय मदमोदिताय संकष्टस्य निवारणाय स्वाहा को बोलना चाहिए। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इंद्र आदि लोकपालों की सभी दिशाओं में पूजा करें। अब मैं मोदकों की दूसरी विधि आपको बताता हूँ – पके हुए मूँग तथा तिलों से युक्त घी में पकाए गए तथा गरी के छोटे-छोटे टुकड़ों से मिश्रित मोदक गणेश जी को अर्पित करें। उसके बाद दूर्वा के अंकुर लेकर इन नाम पदों से पृथक-पृथक गणेश जी की पूजा करें।

उन नामों को मुझसे सुनिए – हे गणाधिप ! हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! हे एकदन्त ! हे इभवक्त्र ! हे मूषकवाहन ! हे विनायक ! हे ईशपुत्र ! हे सर्वसिद्धिप्रदायक ! हे विघ्नराज ! हे स्कन्द्गुरो ! हे सर्वसंकष्टनाशन ! हे लम्बोदर ! हे गणाध्यक्ष ! हे गौर्यांगमलसम्भव ! हे धूमकेतो ! हे भालचंद्र ! हे सिन्दूरासुरमर्दन ! हे विद्यानिधान ! हे विकत ! हे शूर्पकर्ण ! आपको नमस्कार है। इस प्रकार इन इक्कीस नामों से गणेश जी की पूजा करें।

उसके बाद भक्ति से नम्र होकर प्रसन्नबुद्धि से गणेश देवता से इस प्रकार प्रार्थना करें – हे विघ्नराज ! आपको नमस्कार है। हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! जिस उद्देश्य से मैंने यथाशक्ति आज आपका पूजन किया है, उससे प्रसन्न होकर शीघ्र ही मेरे हृदयस्थित मनोरथों को पूर्ण कीजिए। हे प्रभो ! मेरे समक्ष उपस्थित विविध प्रकार के समस्त विघ्नों का नाश कीजिए, मैं यहां सभी कार्य आपकी ही कृपा से करता हूँ, मेरे शत्रुओं की बुद्धि का नाश कीजिए तथा मित्रों की उन्नति कीजिए।

इसके बाद एक सौ आठ आहुति देकर होम करें। उसके बाद व्रत की संपूर्णता के लिए मोदकों का वायन प्रदान करें। उस समय यह कहें – गणेश जी की प्रसन्नता के लिए मैं सात लड्डुओं तथा सात मोदकों का वायन फल सहित ब्राह्मण को प्रदान करता हूँ। तदनन्तर हे सत्तम ! पुण्यदायिनी कथा सुनकर इस मन्त्र के द्वारा पाँच बार प्रयत्नपूर्वक चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें –क्षीरोदार्णवसम्भूत अत्रिगोत्रसमुद्भव | गृहाणारघ्यं मया दत्तं रोहिण्या सहितः शशिन ॥

क्षीरसागर से उत्पन्न तथा अत्रिगोत्र में उत्पन्न हे चंद्र ! रोहिणी सहित आप मेरे द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को स्वीकार कीजिए। उसके बाद अपने अपराध के लिए देवता से क्षमा प्रार्थना करें और अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा ब्राह्मणों को जो अर्पित किया हो उसके अवशिष्ट भोजन को स्वयं ग्रहण करें। मौन होकर सात ग्रास ग्रहण करें और अशक्त हो तो इच्छानुसार भोजन करें। इसी प्रकार तीन मास अथवा चार मास तक विधानपूर्वक इस व्रत को करें। उसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि पाँचवें महीने में उद्यापन करे।

उद्यापन के लिए बुद्धिमान को अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वर्णमयी गणेश-प्रतिमा बनानी चाहिए। उसके बाद उस भक्ति संपन्न मनुष्य को पूर्वोक्त विधान से चन्दन, सुगन्धित द्रव्य तथा अनेक प्रकार के सुन्दर पुष्पों से पूजा करनी चाहिए और एकाग्रचित्त होकर नारिकेल फल से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए। पायस से युक्त सूप में फल रखकर और उसे लाल वस्त्र से लपेटकर यह वायन भक्त ब्राह्मण को प्रदान करें। साथ ही स्वर्ण की गणपति की प्रतिमा भी दक्षिणा सहित उन्हें दें। व्रत की पूर्णता के लिए एक आढ़क टिल का दान करें, उसके बाद “विघ्नेश प्रसन्न हों” ऐसा कहकर देवता से क्षमा प्रार्थना करें।

इस प्रकार उद्यापन करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है और मनोवांछित सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। हे सत्तम ! पूर्व कल्प में स्कंदकुमार के चले जाने पर पार्वती ने मेरी आज्ञा से चार महीने तक इस व्रत को किया था तब पाँचवें महीने में पार्वती ने कार्तिकेय को प्राप्त किया था। समुद्र पान के समय अगस्त्य जी ने इस व्रत को किया था और तीन माह में विघ्नेश्वर की कृपा से उन्होंने सिद्धि प्राप्त कर ली। हे विपेन्द्र ! राजा नल के लिए दमयंती ने छह महीने तक इस व्रत को किया था तब नल को खोजती हुई दमयंती को वे मिल गए थे। जब चित्रलेखा अनिरुद्ध को बाणासुर के नगर में ले गई थी तब “वह कहाँ गया और उसे कौन ले गया” – यह सोचकर प्रदुम्न व्याकुल हो गए। उस समय प्रदुम्न को पुत्र शोक से पीड़ित देखकर रुक्मिणी ने प्रेम पूर्वक उससे कहा – हे पुत्र ! मैंने जो व्रत अपने घर में किया था उसे मैं बताती हूँ इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

बहुत समय पहले जब राक्षस तुम्हे उठा ले गया था तब तुम्हारे वियोगजन्य दुःख के कारण मेरा ह्रदय विदीर्ण हो गया था। मैं सोचती थी कि मैं अपने पुत्र का अति सुन्दर मुख कब देखूंगी। उस समय अन्य स्त्रियों के पुत्रों को देखकर मेरा ह्रदय विदीर्ण हो जाता था कि कहीं अवस्था साम्य से यह मेरा ही पुत्र तो नहीं। इसी चिंता में व्याकुल हुए मेरे अनेक वर्ष व्यतीत हो गए। तब दैवयोग से लोमश मुनि मेरे घर आ गए। उन्होंने सभी चिंताओं को दूर करने वाला संकष्टचतुर्थी का व्रत मुझे विधिपूर्वक बताया और मैंने चार महीने तक इसे किया । उसी के प्रभाव से तुम शंबरासुर को युद्ध में मारकर आ गए थे। अतः हे पुत्र ! इस व्रत की विधि जानकर तुम भी इसे करो, उससे तुम्हे अपने पुत्र का पता चल जाएगा।

हे विप्र ! प्रदुम्न ने यह व्रत करके गणेश जी को प्रसन्न किया तब नारद जी से उन्होंने सूना कि अनिरुद्ध बाणासुर के नगर में है। इसके बाद बाणासुर के नगर में जाकर उससे अत्यंत भीषण युद्ध करके और संग्राम में शिव (Lord Shiv) सहित बाणासुर को जीत कर पुत्रवधू सहित अनिरुद्ध को प्रदुम्न घर लाये थे। हे मुने ! इसी प्रकार अन्य देवताओं तथा असुरों ने भी विघ्नेश की प्रसन्नता के लिए यह व्रत किया था। हे सनत्कुमार ! इस व्रत के समान सभी सिद्धियाँ देने वाला इस लोक में कोई भी व्रत, तप, दान और तीर्थ नहीं है। बहुत कहने से क्या लाभ? इसके तुल्य कार्यसिद्धि करने वाला दूसरा कुछ भी नहीं है। अभक्त, नास्तिक तथा शठ को इस व्रत का उपदेश नहीं करना चाहिए अपितु पुत्र, शिष्य, श्रद्धालु तथा सज्जन को इसका उपदेश करना चाहिए।

हे विप्रर्षे ! हे धर्मिष्ठ ! हे विधिनंदन ! तुम मेरे प्रिय हो तथा लोकोपकार करने वाले हो, अतः मैंने तुम्हारे लिए इस व्रत का उपदेश किया है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “चतुर्थीव्रत कथन” नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय | Chapter -21 Sawan Maas ki Katha

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श्रावण माह माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय

Chapter -21

 

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श्रावण पूर्णिमा पर किये जाने वाले कृत्यों का संक्षिप्त वर्णन तथा रक्षा बंधन की कथा

सनत्कुमार बोले – हे दयानिधे ! कृपा करके अब आप पौर्णमासी व्रत की विधि कहिए क्योंकि हे स्वामिन ! इसका माहात्म्य सुनने वालों की श्रवणेच्छा बढ़ती है।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! इस श्रावण मास (Shravan Maas) में पूर्णिमा तिथि को उत्सर्जन तथा उपाकर्म संपन्न होते हैं। पौष के पूर्णिमा तथा माघ की पूर्णिमा तिथि उत्सर्जन कृत्य के लिए होती है अथवा उत्सर्जनकृत्य हेतु पौष की प्रतिपदा अथवा माघ की प्रतिपदा तिथि विहित है अथवा रोहिणी नामक नक्षत्र उत्सर्जन कृत्य के लिए प्रशस्त होता है अथवा अन्य कालों में भी अपनी-अपनी शाखा के अनुसार उत्सर्जन तथा उपाकर्म – दोनों का साथ-साथ करना उचित माना गया है। अतः श्रावण मास (Shravan Maas) की पूर्णिमा को उत्सर्जन कृत्य प्रशस्त होता है। साथ ही ऋग्वेदियों के लिए उपाकर्म हेतु श्रवण नक्षत्र होना चाहिए।

चतुर्दशी, पूर्णिमा अथवा प्रतिपदा तिथि में जिस दिन श्रवण नक्षत्र हो उसी दिन ऋग्वेदियों को उपाकर्म करना चाहिए। यजुर्वेदियों का उपाकर्म पूर्णिमा में और सामवेदियों का उपाकर्म हस्त नक्षत्र में होना चाहिए। शुक्र तथा गुरु के अस्तकाल में भी सुखपूर्वक उपाकर्म करना चाहिए किन्तु इस काल में इसका प्रारम्भ पहले नहीं होना चाहिए ऐसा शास्त्रविदों का मानना है। ग्रहण तथा संक्रांति के दूषित काल के अनन्तर ही इसे करना चाहिए। हस्त नक्षत्र युक्त पंचमी तिथि में अथवा भाद्रपद पूर्णिमा तिथि में उपाकर्म करें। अपने-अपने गुह्यसूत्र के अनुसार उत्सर्जन तथा उपाकर्म करें। अधिकमास आने पर इसे शुद्धमास में करना चाहिए। ये दोनों कर्म आवश्यक हैं। अतः प्रत्येक वर्ष इन्हे नियमपूर्वक करना चाहिए।

उपाकर्म की समाप्ति पर द्विजातियों के विद्यमान रहने पर स्त्रियों को सभा में सभादीप निवेदन करना चाहिए। उस दीपक को आचार्य ग्रहण करे या किसी अन्य ब्राह्मण को प्रदान कर दें। दीप की विधि इस प्रकार है – सुवर्ण, चाँदी अथवा ताँबे के पात्र में सेर भर गेहूँ भर कर गेहूँ के आटे का दीपक बनाकर उसमें उस दीपक को जलाएं। वह दीपक घी से अथवा तेल से भरा हो और तीन बत्तियों से युक्त हो। दक्षिणा तथा ताम्बूल सहित उस दीपक को ब्राह्मण को अर्पण कर दें। दीपक की तथा विप्र की विधिवत पूजा करके निम्न मन्त्र बोले –

सदक्षिणः सताम्बूलः सभादीपोयमुत्तमः | अर्पितो देवदेवस्य मम सन्तु मनोरथाः ॥

दक्षिणा तथा ताम्बूल से युक्त यह उत्तम सभादीप मैंने देवदेव को निवेदित किया है, मेरे मनोरथ अब पूर्ण हो। सभादीप प्रदान करने से पुत्र-पौत्र आदि से युक्त कुल उज्जवलता को प्राप्त होता है और यश के साथ निरंतर बढ़ता है। इसे करने वाली स्त्री दूसरे जन्म में देवांगनाओं के समान रूप प्राप्त करती है। वह स्त्री सौभाग्यवती हो जाती है और अपने पति की अत्यधिक प्रिय पात्र होती है। इस प्रकार पांच वर्ष तक इसे करने के पश्चात उद्यापन करना चाहिए और अपने सामर्थ्य के अनुसार भक्तिपूर्वक दक्षिणा देनी चाहिए। हे सनत्कुमार यह मैंने आपसे सभादीप का शुभ माहात्म्य कह दिया। उसी रात्रि में श्रवणा कर्म का करना बताया गया है। उसके बाद वहीँ पर सर्पबलि की जाती हैv अपना-अपना गृह्यसूत्र देखकर ये दोनों ही कृत्य करने चाहिए।

हयग्रीव का अवतार उसी तिथि में कहा गया है अतः इस तिथि पर हयग्रीव जयंती का महोत्सव मनाना चाहिए। उनकी उपासना करने वालों के लिए यह उत्सव नित्य करना बताया गया है। श्रावण पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में भगवान् श्रीहरि हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए और सर्वप्रथम उन्होंने सभी पापों का नाश करने वाले सामवेद का गान किया। इन्होने सिंधु और वितस्ता नदियों के संगम स्थान में श्रवण नक्षत्र में जन्म लिया था। अतः श्रावणी के दिन वहाँ स्नान करना सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है। उस दिन वहाँ श्राङ्गधनुष, चक्र तथा गदा धारण करने वाले विष्णु की विधिवत पूजा करें। इसके बाद सामगान का श्रवण करें। ब्राह्मणों की हर प्रकार से पूजा करें और अपने बंधु-बांधवों के साथ वहाँ क्रीड़ा करे तथा भोजन करें।

स्त्रियों को चाहिए कि उत्तम पति प्राप्त करने के उद्देश्य से जलक्रीड़ा करें। उस दिन अपने-अपने देश में तथा घर में इस महोत्सव को मनाना चाहिए तथा हयग्रीव की पूजा करनी चाहिए और उनके मन्त्र का जप करना चाहिए। यह मन्त्र इस प्रकार से है – आदि में “प्रणव” तथा उसके बाद “नमः” शब्द लगाकर बाद में “भगवते धर्माय” जोड़कर उसके भी बाद “आत्मविशोधन” शब्द की चतुर्थी विभक्ति – आत्मविशोधनाय – लगानी चाहिए। पुनः अंत में “नमः” शब्द प्रयुक्त करने से अठारह अक्षरों वाला – ॐ नमो भगवते धर्माय आत्मविशोधनाय नमः – मन्त्र बनता है। यह मन्त्र सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाला और छह प्रयोगों को सिद्ध करने वाला है। इस मन्त्र का पुरश्चरण अठारह लाख अथवा अठारह हजार जप का है। कलियुग में इसका पुरश्चरण इससे भी चार गुना जप से होना चाहिए।

इस प्रकार करने पर हयग्रीव प्रसन्न होकर उत्तम वांछित फल प्रदान करते हैं। इसी पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन मनाया जाता है। जो सभी रोगों को दूर करने वाला तथा सभी अशुभों का नाश करने वाला है। हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी प्रसंग में एक प्राचीन इतिहास सुनिए – इंद्र की विजय प्राप्ति के लिए इंद्राणी ने जो किया था उसे मैं बता रहा हूँ। पूर्वकाल में बारह वर्षों तक देवासुर संग्राम होता रहा तब इंद्र को थका हुआ देखकर देवी इंद्राणी ने उन सुरेंद्र से कहा – हे देव ! आज चतुर्दशी का दिन है, प्रातः होने पर सब ठीक हो जाएगा। मैं रक्षा बंधन अनुष्ठान करुँगी उससे आप अजेय हो जाएंगे और तब ऐसा कहकर इंद्राणी ने पूर्णमासी के दिन मंगल कार्य संपन्न करके इंद्र के दाहिने हाथ में आनंददायक रक्षा बाँध दी। उसके बाद ब्राह्मणों के द्वारा स्वस्त्ययन किए गए तथा रक्षा बंधन से युक्त इंद्र ने दानव सेना पर आक्रमण किया और क्षण भर में उसे जीत लिया। इस प्रकार विजयी होकर इंद्र तीनों लोकों में पुनः प्रतापवान हो गए।

हे मुनीश्वर ! मैंने आपसे रक्षा बंधन के इस प्रभाव का वर्णन कर दिया जो कि विजय प्रदान करने वाला, सुख देने वाला और पुत्र, आरोग्य तथा धन प्रदान करने वाला है।

सनत्कुमार बोले – हे देवश्रेष्ठ ! यह रक्षाबंधन किस विधि से, किस तिथि में तथा कब किया जाता है? हे देव ! कृपा करके इसे बताये। हे भगवन ! जैसे-जैसे आप अद्भुत बातें बताते जा रहे है वैसे-वैसे अनेक अर्थों से युक्त कथाओं को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।

ईश्वर बोले – बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि श्रावण का महीना आने पर पूर्णिमा तिथि को सूर्योदय के समय श्रुति-स्मृति के विधान से स्नान करें। इसके बाद संध्या, जप आदि करके देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करने के बाद सुवर्णमय पात्र में बनाई गई, सुवर्ण सूत्रों से बंधी हुई, मुक्ता आदि से विभूषित, विचित्र तथा स्वच्छ रेशमी तंतुओं से निर्मित, विचित्र ग्रंथियों से सुशोभित, पदगुच्छों से अलंकृत और सर्षप तथा अक्षतों से गर्भित एक अत्यंत मनोहर रक्षा अथवा राखी बनाये। इसके बाद कलश स्थापन करके उसके ऊपर पूर्ण पात्र रखे और पुनः उस पर रक्षा को स्थापित कर दे। उसके बाद रम्य आसान पर बैठकर सुहृज्जनों के साथ वारांगनाओं के नृत्यगान आदि तथा क्रीड़ा-मंगल कृत्य में संलग्न रहे।

इसके बाद यह मन्त्र पढ़कर पुरोहित रक्षाबंधन करे – “येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः | तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥” जिस बंधन से महान बल से संपन्न दानवों के पति राजा बलि बांधे गए थे, उसी से मैं आपको बांधता हूँ, हे रक्षे ! चलायमान मत होओ, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों तथा अन्य मनुष्यों को चाहिए कि यत्नपूर्वक ब्राह्मणों की पूजा करके रक्षाबंधन करें। जो इस विधि से रक्षाबंधन करता है, वह सभी दोषों से रहित होकर वर्ष पर्यन्त सुखी रहता है। विधान को जानने वाला जो मनुष्य शुद्ध श्रावण मास (Shravan Maas) में इस रक्षाबंधन अनुष्ठान को करता है वह पुत्रों, पुत्रों तथा सुहृज्जनों के सहित एक वर्ष भर अत्यंत सुख से रहता है। उत्तम व्रत करने वालों को चाहिए कि भद्रा में रक्षाबंधन न करें क्योंकि भद्रा में बाँधी गई रक्षा विपरीत फल देने वाली होती है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “उपाकर्मोत्सर्जनश्रवणाकर्म-सर्पबलिसभादीप हयग्रीव जयंती रक्षा बंधन विधि कथन” नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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