श्रावण माह माहात्म्य सत्रहवाँ अध्याय | Chapter -17 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 17 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य सत्रहवाँ अध्याय

Chapter -17

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) की अष्टमी को देवी पवित्रारोपण, पवित्रनिर्माण विधि तथा नवमी का कृत्य

ईश्वर बोले – हे देवेश ! अब मैं शुभ पवित्रारोपण का वर्णन करूँगा। सप्तमी तिथि को अधिवासन करके अष्टमी तिथि को पवित्रकों को अर्पण करना चाहिए। जो पवित्रक बनवाता है उसके पुण्यफल को सुनिए – सभी प्रकार के यज्ञ, व्रत तथा दान करने और सभी तीर्थों में स्नान करने का फल मनुष्य को केवल पवित्र धारण करने से प्राप्त हो जाता है क्योंकि भगवती शिवा सर्वव्यापिनी है। इस व्रत से मनुष्य धनहीन नहीं होता, उसे दुःख, पीड़ा तथा व्याधियां नहीं होती, उसे शत्रुओं से होने वाला भय नहीं होता और वह कभी भी ग्रहों से पीड़ित नहीं रहता। इससे छोटे-बड़े सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।

हे वत्स ! मनुष्यों तथा राजाओं के विशेष करके स्त्रियों के पुण्य की वृद्धि के लिए इससे श्रेष्ठ कोई अन्य व्रत नहीं है। हे तात ! सौभाग्य प्रदान करने वाले इस व्रत को मैंने आपके प्रति स्नेह के कारण बताया है। हे ब्रह्मपुत्र ! श्रावण मास (Shravan Maas) के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को अधिवासन करके देवी के प्रति उत्तम भक्ति से संपन्न वह मनुष्य सभी सामग्रियों से युक्त होकर सभी पूजाद्रव्यों – गंध, पुष्प, फल आदि अनेक प्रकार के नैवेद्य तथा वस्त्राभरण आदि संपादित करके इनकी शुद्धि करे।

इसके बाद पंचगव्य का प्राशन कराए, चरु से दिग्बली प्रदान करे तथा अधिवासन करे। उसके बाद सदृश वस्त्रों तथा पत्रों से इस पवित्रक को आच्छादित करे, पुनः देवी के उस मूल मन्त्र से उसे सौ बार अभिमंत्रित करके सर्वशोभासमन्वित उस पवित्रक को देवी के समक्ष स्थापित करे। इसके बाद देवी का मंडप बनाकर रात्रि में जागरण करे और नट, नर्तक तथा वारांगनाओं के अनेक विध कुशल समूहों और गाने-बजाने तथा नाचने की कला में प्रवीण लोगों को देवी के समक्ष स्थापित करें।

उसके बाद प्रातःकाल विधिवत स्नान करके पुनः बलि प्रदान करें। इसके बाद विधिवत देवी की पूजा करके स्त्रियों तथा द्विजों को भोजन कराएँ। पहले देवी को पवित्रक अर्पण करें और अंत में दक्षिणा प्रदान करें. हे वत्स ! अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्यसिद्धि करने वाले उस नियम को धारण करें। राजा को प्रयत्नपूर्वक स्त्री के प्रति आसक्ति, जुआ, आखेट तथा मांस आदि का परित्याग कर देना चाहिए। ब्राह्मणों तथा आचार्यों को स्वाध्याय का और वैश्यों को खेती का कार्य तथा व्यवसाय नहीं करना चाहिए। सात, पाँच, तीन, एक अथवा आधा दिन ही त्यागपूर्वक रहना चाहिए और देवी के कार्यों में निरंतर अपने मन में आसक्ति बनाए रखनी चाहिए।

हे मुनिसत्तम ! जो बुद्धिमान व्यक्ति विधानपूर्वक पवित्रारोपण नहीं करता है, उसकी वर्ष भर की पूजा व्यर्थ हो जाती है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि देवीपरायण तथा भक्ति से संपन्न होकर प्रत्येक वर्ष शुभ पवित्रारोपण अवश्य करें। कर्क अथवा सिंह राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को देवी को पवित्रक अर्पित करना चाहिए। हे सनत्कुमार ! इसके ना करने में दोष होता है, इसे नित्य करना बताया गया है।

सनत्कुमार बोले – हे देवदेव ! हे महादेव ! हे स्वामिन ! आपने जिस पवित्रक का कथन किया, वह कैसे बनाया जाना चाहिए, उसकी संपूर्ण विधि बताएँ।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! सुवर्ण, ताम्र, चांदी, रेशमी वस्त्र से निकाले गए कुश, काश के अथवा ब्राह्मणी के द्वारा काटे गए कपास के सूत्र को तिगुना करके फिर उसका तिगुना करके पवित्रक बनाना चाहिए। उनमें तीन सौ आठ तारों का पवित्रक उत्तम और दो सौ सत्तर तारों का पवित्रक माध्यम माना गया है। एक सौ अस्सी तारों वाले पवित्रक को कनिष्ठ जानना चाहिए।

इसी प्रकार एक सौ ग्रंथि का पवित्रक उत्तम, पचास ग्रंथि का पवित्रक माध्यम तथा छब्बीस ग्रंथि का सुन्दर पवित्रक कनिष्ठ होता है अथवा छः, तीन, चार, दो, बारह, चौबीस, दस अथवा आठ ग्रंथियों वाला पवित्रक बनाना चाहिए अथवा एक सौ आठ ग्रंथि का पवित्रक उत्तम, चव्वन ग्रंथि का माध्यम तथा सत्ताईस ग्रंथि का कनिष्ठ होता है। प्रतिमा के घुटने तक का लंबा पवित्रक उत्तम, जंघा तक लंबा पवित्रक माध्यम तथा नाभि पर्यन्त पवित्रक अधम कहा जाता है।

पवित्रक की सभी शुभ ग्रंथियों को कुमकुम से रंग देना चाहिए, इसके बाद अपने समक्ष शुभ सर्वतोभद्रमण्डल पर देवी का पूजन करके कलश के ऊपर बांस के पात्र में पवित्रकों को रखें। तीन तार वाले पवित्रक में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव (Lord Shiv) का आवाहन करके स्थापित करें. इसके बाद का सुनिए – नौ तार के पवित्रक में ओंकार, सोम, अग्नि, ब्रह्मा, समस्त नागों, चन्द्रमा, सूर्य, शिव (Lord Shiv) तथा विश्वेदेवों की स्थापना करें।
हे सनत्कुमार – अब मैं ग्रंथियों में स्थापित किये जाने वाले देवताओं का वर्णन करूँगा। क्रिया, पौरुषी, वीरा, विजया, अपराजिता, मनोन्मनी, जाया, भद्रा, मुक्ति और ईशा – ये देवियाँ हैं। इनके नामों के पूर्व में प्रणव तथा अंत में “नमः” लगाकर ग्रंथि संख्या के अनुसार क्रमशः आवाहन करके चन्दन आदि से इनकी पूजा करनी चाहिए। इसके बाद प्रणव से अभिमंत्रित करके देवी को धूप अर्पण करना चाहिए।

हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे देवी के इस शुभ पवित्रारोपण का वर्णन कर दिया। इसी प्रकार अन्य देवताओं का भी पवित्रारोपण प्रतिपदा आदि तिथियों में करना चाहिए। मैं उन देवताओं को आपको बताता हूँ। कुबेर, लक्ष्मी, गौरी, गणेश, चन्द्रमा, बृहस्पति, सूर्य, चंडिका, अम्बा, वासुकि, ऋषिगण, चक्रपाणि, अनंत, शिवजी, ब्रह्मा और पितर – इन देवताओं की पूजा प्रतिपदा आदि तिथियों में करनी चाहिए। यह मुख्य देवता का पवित्रारोपण है, उनके अंगदेवता का पवित्रक तीन सूत्रों का होना चाहिए।

ईश्वर बोले – हे विपेन्द्र ! अब मैं श्रावण मास (Shravan Maas) के दोनों पक्षों की नवमी तिथियों के करणीय कृत्य को बताऊँगा। इस दिन कुमारी नामक दुर्गा की यथाविधि पूजा करनी चाहिए। दोनों पक्षों की नवमी के दिन नक्तव्रत करें और उसमें दुग्ध तथा मधु का आहार ग्रहण करें अथवा उपवास करें। उस दिन कुमारी नामक उन पापनाशिनी दुर्गा चंडिका की चाँदी की मूर्त्ति बनाकर भक्तिपूर्वक सदा उनका अर्चन करें। गंध, चन्दन, कनेर के पुष्पों, दशांग धुप और मोदकों से उनका पूजन करें। उसके बाद कुमारी कन्या, स्त्रियों तथा विप्रों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराएँ फिर मौन धारण करके स्वयं बिल्वपत्र का आहार ग्रहण करें। इस प्रकार जो मनुष्य अत्यंत श्रद्धा के साथ दुर्गा जी की पूजा करता है वह उस परम स्थान को जाता है जहां देव बृहस्पति विद्यमान हैं।

हे विधिनन्दन ! यह मैंने आपसे नवमी तिथि का कृत्य कह दिया। यह मनुष्यों के सभी पापों का नाश करने वाला, सभी संपदाएँ प्रदान करने वाला, पुत्र-पौत्र आदि उत्पन्न करने वाला और अंत में उन्हें उत्तम गति प्रदान करने वाला है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “अष्टमी तिथि को देवीपवित्रारोपण” नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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