श्रावण माह माहात्म्य दूसरा अध्याय | Chapter -2 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 02 Adhyay

Shravan Mass 02 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य दूसरा अध्याय
Chapter -2

 

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श्रावण मास में विहित कार्य

ईश्वर बोले – हे महाभाग ! आपने उचित बात कही है। हे ब्रह्मपुत्र ! आप विनम्र, गुणी, श्रद्धालु तथा भक्तिसंपन्न श्रोता हैं. हे अनघ ! आपने श्रावण मास (Shravan Mass) के विषय में विनम्रतापूर्वक जो पूछा है, उसे तथा जो नहीं भी पूछा है – वह सब अत्यंत हर्ष तथा प्रेम के साथ मैं आपको बताऊँगा। द्वेष ना करने वाला सबका प्रिय होता है और आप उसी प्रकार के विनम्र हैं क्योंकि मैंने आपके अभिमानी पिता ब्रह्मा (Lord Brahma) का पाँचवाँ मस्तक काट दिया था तो भी आप उस द्वेष भाव का त्याग कर मेरी शरण को प्राप्त हुए हैं। अतः हे तात ! मैं आपको सब कुछ बताऊँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए।

हे योगिन ! मनुष्य को चाहिए कि श्रावण मास (Sawan Mass) में नियमपूर्वक नक्तव्रत करे और पूरे महीने भर प्रतिदिन रुद्राभिषेक करे। अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु का इस मास में त्याग कर देना चाहिए। पुष्पों, फलों, दांतों, तुलसी की मंजरी तथा तुलसी दलों और बिल्वपत्रों से शिव जी की लक्ष पूजा करनी चाहिए, एक करोड़ शिवलिंग बनाना चाहिए और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। महीने भर धारण-पारण व्रत अथवा उपवास करना चाहिए। इस मास में मेरे लिए अत्यंत प्रीतिकर पंचामृताभिषेक करना चाहिए।

इस मास में जो-जो शुभ कर्म किया जाता है वह अनंत फल देने वाला होता है। हे मुने ! इस माह में भूमि पर सोये, ब्रह्मचारी रहें और सत्य वचन बोले। इस मास को बिना व्रत के कभी व्यतीत नहीं करना चाहिए। फलाहार अथवा हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। पत्ते पर भोजन करना चाहिए। व्रत करने वाले को चाहिए कि इस मास में शाक का पूर्ण रूप से परित्याग कर दे। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस मास में भक्तियुक्त होकर मनुष्य को किसी ना किसी व्रत को अवश्य करना चाहिए।

सदाचारपरायण, भूमि पर शयन करने वाला, प्रातः स्नान करने वाला और जितेन्द्रिय होकर मनुष्य को एकाग्र किए गए मन से प्रतिदिन मेरी पूजा करनी चाहिए। इस मास में किया गया पुरश्चरण निश्चित रूप से मन्त्रों की सिद्धि करने वाला होता है। इस मास में शिव (Lord Shiv) के षडाक्षर मन्त्र का जप अथवा गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए और शिवजी की प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा वेदपारायण करना चाहिए।

पुरुषसूक्त का पाठ अधिक फल देने वाला होता है। इस मास में किया गया ग्रह यज्ञ, कोटि होम, लक्ष होम तथा अयुत होम शीघ्र ही फलीभूत होता है और अभीष्ट फल प्रदान करता है। जो मनुष्य इस मास में एक भी दिन व्रतहीन व्यतीत करता है, वह महाप्रलय पर्यन्त घोर नरक में वास करता है। यह मास मुझे जितना प्रिय है, उतना कोई अन्य मास प्रिय नहीं है। यह मास सकाम व्यक्ति को अभीष्ट फल देने वाला तथा निष्काम व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करने वाला है।

हे सत्तम ! इस मास के जो व्रत तथा धर्म हैं, उन्हें मुझ से सुनिए। रविवार को सूर्यव्रत तथा सोमवार को मेरी पूजा व नक्त भोजन करना चाहिए। श्रावण मास (Sawan Mass)  के पहले सोमवार से आरम्भ कर के साढ़े तीन महीने का “रोटक” नामक व्रत किया जाता है. यह व्रत सभी वांछित फल प्रदान करने वाला है। मंगलवार को मंगल गौरी (Mangal Gori) का व्रत, बुधवार व बृहस्पतिवार के दिन इन दोनों वारों का व्रत, शुक्रवार को जीवंतिका व्रत और शनिवार को हनुमान (Lord Hanuman) तथा नृसिंह (Lord Narasimha) का व्रत करना बताया गया है। हे मुने ! अब तिथियों में किये जाने वाले व्रतों का श्रवण करें। श्रावण के शुक्ल पक्ष की द्वित्तीया तिथि को औदुम्बर नामक व्रत होता है। श्रावण के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को गौरी व्रत होता है। इसी प्रकार शुक्ल की चतुर्थी तिथि को दूर्वागणपति नामक व्रत किया जाता है। हे मुने ! उसी चतुर्थी का दूसरा नाम विनायकी चतुर्थी भी है। शुक्ल पक्ष में पंचमी तिथि नागों के पूजन के लिए प्रशस्त होती है।

हे मुनिश्रेष्ठ ! इस पंचमी को ‘रौरवकल्पादि’ नाम से जानिए। षष्ठी तिथि को सुपौदन व्रत और सप्तमी तिथि को शीतला व्रत होता है। अष्टमी अथवा चतुर्दशी तिथि को देवी का पवित्रारोपण व्रत होता है। इस माह के शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की दोनों नवमी तिथियों को नक्तव्रत करना बताया गया है। शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को ‘आशा’ नामक व्रत होता है। इस मास में दोनों पक्षों में दोनों एकादशी तिथियों को इस व्रत की कुछ और विशेषता मानी गई है। श्रावण मास (Sharavan Mass) के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को श्रीविष्णु (Lord Vishnu) का पवित्रारोपण व्रत बताया गया है। इस द्वादशी तिथि में भगवान् श्रीधर की पूजा कर के मनुष्य परम गति प्राप्त करता है।

उत्सर्जन, उपाकर्म, सभादीप, सभा में उपाकर्म, इसके बाद रक्षाबंधन, पुनः श्रवणाकर्म, सर्पबलि और हयग्रीव (Hayagriva) का अवतार – ये सात कर्म पूर्णमासी तिथि को करने हेतु बताए गए हैं। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी तिथि को ‘संकष्टचतुर्थी’ व्रत कहा गया है और श्रावण मास (Sawan Mass) के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि के दिन ‘मानवकल्पादि’ नामक व्रत को जानना चाहिए। हे द्विजोत्तम ! कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रीकृष्ण (Lord Krishana) का पूर्णावतार हुआ, इस दिन उनका अवतार हुआ, अतः महान उत्सव के साथ इस दिन व्रत करना चाहिए। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस अष्टमी को मन्वादि तिथि जानना चाहिए।

श्रावण मास (Shravan Mass) की अमावस्या तिथि को पिठोराव्रत कहा जाता है। इस तिथि में कुशों का ग्रहण और वृषभों का पूजन किया जाता है। इस मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर सब तिथियों के पृथक-पृथक देवता हैं। प्रतिपदा तिथि के देवता अग्नि, द्वितीया तिथि के देवता ब्रह्मा, तृतीया तिथि की गौरी और चतुर्थी के देवता गणपति हैं। पंचमी के देवता नाग हैं और षष्ठी तिथि के देवता कार्तिकेय (Lord Kartikeya) हैं। सप्तमी के देवता सूर्य(Lord Surya) और अष्टमी के देवता शिव (Lord Shiv) हैं।

नवमी की देवी दुर्गा(Lord Durga), दशमी के देवता यम (Lord Yam) और एकादशी (Ekadshi) तिथि के देवता विश्वेदेव कहे गए हैं। द्वादशी के विष्णु (Lord Vishnu) तथा त्रयोदशी के देवता कामदेव हैं। चतुर्दशी के देवता शिव(Lord Shiv), पूर्णिमा के देवता चन्द्रमा और अमावस्या के देवता पितर हैं। ये सब तिथियों के देवता कहे गए हैं। जिस देवता की जो तिथि हो उस देवता की उसी तिथि में पूजा करनी चाहिए। प्रायः इसी मास में ‘अगस्त्य’ का उदय होता है। हे मुने ! मैं उस काल को बता रहा हूँ, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए।

सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने के दिन से जब बारह अंश चालीस घडी व्यतीत हो जाती है तब अगस्त्य का उदय होता है। उसके सात दिन पूर्व से अगस्त्य को अर्ध्य प्रदान करना चाहिए। बारहों मासों में सूर्य पृथक-पृथक नामों से जाने जाते हैं। उनमें से श्रावण मास (Sawan Mass) में सूर्य ‘गभस्ति’ नाम वाला होकर तपता है। इस मास में मनुष्यों को भक्ति संपन्न होकर सूर्य की पूजा करनी चाहिए। हे सत्तम ! चार मासों में जो वस्तुएं वर्जित हैं, उन्हें सुनिए। श्रावण मास में शाक तथा भाद्रपद में दही का त्याग कर देना चाहिए। इसी प्रकार आश्विन में दूध तथा कार्तिक में दाल का परित्याग कर देना चाहिए।

यदि इन मासों में इन वस्तुओं का त्याग नहीं कर सके तो केवल श्रावण मास (Shravan Mass) में ही उक्त वस्तुओं का त्याग करने से मानव उसी फल को प्राप्त कर लेता है। हे मानद ! यह बात मैंने आपसे संक्षेप में कही है, हे मुनिश्रेष्ठ! इस मास के व्रतों और धर्मों के विस्तार को सैकड़ों वर्षों में भी कोई नहीं कह सकता। मेरी अथवा विष्णु की प्रसन्नता के लिए सम्पूर्ण रूप से व्रत करना चाहिए। परमार्थ की दृष्टि से हम दोनों में भेद नहीं है। जो लोग भेद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। अतः हे सनत्कुमार ! आप श्रावण मास में धर्म का आचरण कीजिए।

||इस प्रकार ईश्वरसनत्कुमार संवाद के अंतर्गत “श्रावणव्रतोंद्देशकथन” नामक दुसरा अध्याय पूर्ण हुआ||

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श्रावण माह माहात्म्य पहला अध्याय | Chapter -1 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 01 Adhyay

Shravan Mass 01 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य पहला अध्याय
Chapter -1

 

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शौनक बोले – हे सूत ! हे सूत ! हे महाभाग ! हे व्यासशिष्य ! हे अकल्मष ! आपके मुख कमल से अनेक आख्यानों को सुनते हुए हम लोगों की तृप्ति नहीं होती है, अपितु बार-बारे सुनाने की इच्छा बढ़ती जा रही है। तुला राशि में स्थित सूर्य में कार्तिक मास (Kartik Mass) का माहात्म्य, मकर राशि में माघ मास का माहात्म्य और मेष राशि में स्थित सूर्य में वैशाख मास (Veshakh Mass) का माहात्म्य और इसके साथ उन-उन मासों के जो भी धर्म हैं, उन्हें आपने भली-भाँति कह दिया, यदि आप के मत में इनसे भी अधिक महिमामय कोई मास हो तथा भगवत्प्रिय कोई धर्म हो तो आप उसे अवश्य कहिये, जिसे सुनकर कुछ अन्य सुन ने की हमारी इच्छा न हो। वक्ता को श्रद्धालु श्रोता के समक्ष कुछ भी छिपाना नहीं चाहिए।

सूत जी बोले – हे मुनियों ! आप सभी लोग सुनें, मैं आप लोगों के वाक्य गौरव से अत्यंत संतुष्ट हूँ, आप लोगों के समक्ष मेरे लिए कुछ भी गोपनीय नहीं है। दम्भ रहित होना, आस्तिकता, शठता का परित्याग, उत्तम भक्ति, सुनने की इच्छा, विनम्रता, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति परायणता, सुशीलता, मन की स्थिरता, पवित्रता, तपस्विता और अनसूया – ये श्रोता के बारह गुण बताये गए हैं। ये सभी आप लोगों में विद्यमान हैं, अतः मैं आप लोगों पर प्रसन्न होकर उस तत्त्व का वर्णन करता हूँ।

एक समय प्रतिभाशाली सनत्कुमार ने धर्म को जानने की इच्छा से परम भक्ति से युक्त होकर विनम्रतापूर्वक ईश्वर – भगवान शिव (Lord Shiv) – से पूछा।

सनत्कुमार बोले – योगियों के द्वारा आराधनीय चरणकमल वाले हे देवदेव ! हे महाभाग ! हमने आप से अनेक व्रतों तथा बहुत प्रकार के धर्मों का श्रवण किया फिर भी हम लोगों के मन में सुनने की अभिलाषा है। बारहों मासों में जो मास सबसे श्रेष्ठ, आपकी अत्यंत प्रीति कराने वाला, सभी कर्मों की सिद्धि देने वाला हो और अन्य मास में किया गया कर्म यदि इस मास में किया जाए तो वह अनंत फल प्रदान कराने वाला हो – हे देव ! उस मास को बताने की कृपा कीजिए, साथ ही लोकानुग्रह की कामना से उस मास के सभी धर्मों का भी वर्णन कीजिए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! मैं अत्यंत गोपनीय भी आपको बताऊंगा ! हे सुव्रत ! हे विधिनन्दन ! मैं आपकी श्रवणेच्छा तथा भक्ति से प्रसन्न हूँ। बारहों मासों में श्रावण मास (Shravan Mass)  मुझे अत्यंत प्रिय है। इसका माहात्म्य सुनने योग्य है, अतः इसे श्रावण (Sawan Mass) कहा गया है। इस मास में श्रवण-नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होती है, इस कारण से भी इसे श्रावण (Sharavan) कहा गया है। इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से यह सिद्धि प्रदान करने वाला है इसलिए भी यह श्रावण संज्ञा वाला है। निर्मलता गुण के कारण यह आकाश के सदृश है इसलिए ‘नभा’ कहा गया है।

इस श्रावण मास (Sawan Mass) के धर्मों की गणना करने में इस पृथ्वीलोक में कौन समर्थ हो सकता है, जिसके फल का सम्पूर्ण रूप से वर्णन करने के लिए ब्रह्माजी चार मुख वाले हुए, जिसके फल की महिमा को देखने के लिए इंद्र हजार नेत्रों से युक्त हुए और जिसके फल को कहने के लिए शेषनाग दो हजार जिह्वाओं से सम्पन्न हुए। अधिक कहने से क्या प्रयोजन, इसके माहात्म्य को देखने और कहने में कोई भी समर्थ नहीं है। हे मुने ! अन्य मास इसकी एक कला को भी नहीं प्राप्त होते हैं। यह सभी व्रतों तथा धर्मों से युक्त है। इस महीने में एक भी दिन ऐसा नहीं है जो व्रत से रहित दिखाई देता हो। इस माह में प्रायः सभी तिथियां व्रतयुक्त हैं।

इसके माहात्म्य के सन्दर्भ में मैंने जो कहा है, वह केवल प्रशंसा मात्र नहीं है। आर्तों, जिज्ञासुओं, भक्तों, अर्थ की कामना करने वाले, मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले और अपने-अपने अभीष्ट की आकांक्षा रखने वाले चारों प्रकार के लोगों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आश्रम वाले – को इस श्रावण मास (Shravan Mass) में व्रतानुष्ठान करना चाहिए।

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! हे सत्तम ! आपने जो कहा कि इस मास में सभी दिन एवं तिथियां व्रत रहित नहीं हैं तो आप उन्हें मुझे बताएं किस तिथि में और किस दिन में कौन-सा व्रत होता है, उस व्रत का अधिकारी कौन है, उस व्रत का फल क्या है, किस-किस ने उस व्रत को किया, उसके उद्यापन की विधि क्या है, प्रधान पूजन कहाँ हो और जागरण करने की क्या विधि है, उसका देवता कौन है, उस देवता की पूजा कहाँ होनी चाहिए, पूजन सामग्री क्या-क्या होनी चाहिए और किस व्रत का कौन-सा समय होना चाहिए, हे प्रभो ! वह सब आप मुझे बताएं।

यह मास आपको प्रिय क्यों है, किस कारण यह पवित्र है, इस मास में भगवान का कौन-सा अवतार हुआ, यह सभी मासों से श्रेष्ठ कैसे हुआ और इस मास में कौन-कौन धर्म अनुष्ठान के योग्य हैं, हे प्रभो ! यह सब बताएं। आपके समक्ष मुझ अज्ञानी का प्रश्न करने में कितना ज्ञान हो सकता है, अतः आप सम्पूर्ण रूप से बताएं. हे कृपालों ! मेरे पूछने के अतिरिक्त भी जो जो शेष रह गया हो उसे भी लोगों के उद्धार के लिए कृपा कर के बताएं।

रविवार, सोमवार, भौमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार और शनिवार के दिन जो करना चाहिए, हे विभो ! वह सब मुझे बताइए। आप सबके आदि में आविर्भूत हुए हैं, अतः आपको आदि देव कहा गया है। जैसे एक की विधि बाधा से अन्य की विधि-बाधा होती है, वैसे ही अन्य देवताओं के अल्प देवत्व के कारण आपको महादेव माना गया है। तीनों देवताओं के निवास स्थान पीपल वृक्ष में सबसे ऊपर आपकी स्थिति है।

कल्याण रूप होने के कारण आप शिव (Shiv) हैं और पापसमूह को हरने के कारण आप हर हैं. आपके आदि देव होने में आपका शुक्ल वर्ण प्रमाण है क्योंकि प्रकृति में शुक्ल वर्ण ही प्रधान है, अन्य वर्ण विकृत है। आप कर्पूर के समान गौर वर्ण के है, अतः आप आदि देव हैं। गणपति के अधिष्ठान रूप चार दल वाले मूलाधार नामक चक्र से, ब्रह्माजी के अधिष्ठान रूप छ: दल वाले स्वाधिष्ठान नामक चक्र से और विष्णु के अधिष्ठान रूप दस दल वाले मणिपुर नामक चक्र से भी ऊपर आप के अधिष्ठित होने के कारण आप ब्रह्मा (Lord Brahma) तथा विष्णु (Lord Vishnu) के ऊपर स्थित हैं – यह आपकी प्रधानता को व्यक्त करता है। हे देव ! एकमात्र आपकी ही पूजा से पंचायतन पूजा हो जाती है जो की दूसरे देवता की पूजा से किसी भी तरह संभव नहीं है।

आप स्वयं शिव (Lord Shiv) हैं। आपकी बाईं जाँघ पर शक्ति स्वरूपा दुर्गा(Lord Durga), दाहिनी जाँघ पर गणपति(Lord Ganpati), आपके नेत्र में सूर्य तथा ह्रदय में भक्तराज भगवान् श्रीहरि (Lord Shri Hari) विराजमान हैं। अन्न के ब्रह्मारूप होने तथा रास के विष्णु (Lord Vishnu) रूप होने और आपके उसका भोक्ता होने के कारण हे ईशान ! आपके श्रेष्ठत्व में किसे संदेह हो सकता है। सबको विरक्ति की शिक्षा देने हेतु आप श्मशान में तथा पर्वत पर निवास करते हैं।

पुरुषसूक्त में “उतामृतत्वस्येशानो०” इस मन्त्र के द्वारा प्रतिपादन के योग्य हैं – ऐसा महर्षियों ने कहा है। जगत का संहार करने वाले हालाहल को गले में किसने धारण किया ! महाप्रलय की कालाग्नि को अपने मस्तक पर धारण करने में कौन समर्थ था ! संसार रूप अंधकूप में पतन के हेतु कामदेव को किसने भस्म किया ! आप ऐसे हैं कि आपकी महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ है ! एक तुच्छ प्राणी मैं करोड़ों जन्मों में भी आपके प्रभाव का वर्णन नहीं कर सकता। अतः आप मेरे ऊपर कृपा कर के मेरे प्रश्नों को बताएं।

|| इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में पहला अध्याय पूर्ण हुआ ||

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Monday Fast – जानिए 16 सोमवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Solah Somvar

Solah Somvar

सोलह सोमवार (Monday Fast) व्रत का महात्मय एवं विधि-विधान, व्रत कथा

भगवान शिव और मातेश्वरी पार्वती जी की विशेष कृपाओं की प्राप्ति और सभी मनोकामनाओं की आपूर्ति के लिए सोलह सोमवार व्रत पूजन किया जाता है। सोलह सोमवार व्रत करते समय तो भगवान शिव और मातेश्वरी पार्वती जी की विशेष रूप से पूजा-आराधना की जाती है। सभी सोमवारों को एक ही शिवलिंग की पूजा की जाती है। यही कारण है कि व्रत को करते समय आप घर पर ही शिवलिंग अथवा शिवजी जी की मूर्ति रख कर पूजा करें जिससे कहीं बाहर जाते समय आप उसे अपने साथ ले जा सकें। इच्छानुकूल जीवन साथी और सुयोग्य संतान की प्राप्ति के लिए तो यह व्रत किया जाता है, वैसे सभी प्रकार के कष्टों से छुटकारा दिलाकर सभी प्रकार के सुख और अंत में मोक्ष तक दिलाने में यह व्रत पूर्ण समर्थ है। अधिकांश व्यक्ति तो सोलह सोमवारों तक लगा कर यह व्रत करने के बाद उद्यापन कर लेते हैं, और इतने से ही उनकी अभिलाषा की आपूर्ति भी हो जाती है। जहां तक जीवन में सभी सुखों और अंत में मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न है नौं अथवा चौदह वर्ष तक लगातार यह व्रत किया जाना चाहिए। शिवजी की पूजा में गंगाजल, बिल्वपत्र, आक और धतूरे के फूलों, भस्म, सफेद चंदन आदि का विशेष महत्व है। पूजा में तुलसी का प्रयोग न करें। शिव चालीसा का पाठ तथा रुद्राक्ष की माला का धारण, इस व्रत के पुण्य फलों में अत्यंत वृद्धि कर देता है, वैसे भोले शंकर भगवान शिव सच्चे हृदय से मात्र एक लोटा जल चढ़ाने वाले भक्त की भी सभी मनोकामनाओं की आपूर्ति कर देते हैं।

सोलह सोमवार व्रत कथा | Solah Somvar Vrat Katha

मृत्यु लोक में भ्रमण करने की इच्छा से एक समय महादेव जी माता पार्वती जी के साथ पृथ्वी पर पधारे। यहां पर भ्रमण करते-करते विदर्भ देशांतगर्त अमरावती नाम की अति रमणीक नगरी में पहुंचे। अमरावती नगरी अमरापुरी के सदृश्य सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी। उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मंदिर बना हुआ था। उसमें कैलाश पति अपनी धर्म पत्नी के साथ निवास करने लगे। एक दिन माता पार्वती अपने प्राण प्रिय को प्रसन्न देख कहने लगीं-हे महाराज! आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलें। शिवजी जी ने प्राण प्रिय की बात को मान लिया और वे चौसर खेलने लगे। उसी समय मंदिर का पुजारी मंदिर में पूजा करने आया। माताजी ने ब्राह्मण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ, इस बाजी में दोनों में से किसकी जीत होगी। ब्राह्मण बिना विचारे ही बोल उठा कि महादेव जी की जीत होगी। थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई। अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने से उद्यत हो गई। तब महादेव जी पार्वती जी को बहुत समझाने लगे, परंतु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया।

कुछ समय में पार्वती जी के श्राप वश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया। इस कारण पुजारी अनेक प्रकार से दुःखी रहने लगा। इस तरह से कष्ट पाते-पाते जब बहुत दिन हो गए तो देवलोक की अप्सराये शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में पधारीं। पुजारी के कोढ़ के कष्ट को देखकर वे बड़े दयाभाव से रोगी होने का कारण पूछने लगीं। पुजारी ने निःसंकोच सब बात उनसे कह दी। तब वे अप्सरायें बोली-हे पुजारी, अब तुम अधिक दुःखी मत होना, भगवान शिव जी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे। तुम सब व्रतों में श्रेष्ठ सोलह सोमवार व्रत भक्ति के साथ करो। तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनय भाव से सोलह सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा। अप्सराये बोलीं कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें। स्वच्छ वस्त्र पहनें। आधा सेर अच्छे बिने स्वच्छ गेहूं का आटा लें। उसके तीन अंगा बनावें। घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा, चंदन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करें।

तत्पश्चात अंगाओं में से एक शिवजी को अर्पण करें, बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थित जनों में बांट दें और आप भी प्रसाद पावें। इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें। तत्पश्चात सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनावें। उसमें घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें और शिवजी जी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांट दें। पीछे आप सकुटुंब प्रसाद लेवें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जावें। ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गई। ब्राह्मण ने यथा विधि सोलह सोमवार व्रत किया और भगवान शिव की कृपा से रोगमुक्त होकर आनंद से रहने लगा।

कुछ दिन बाद शिवजी और पार्वती फिर उस मंदिर में पधारे। पुजारी को निरोग देख पार्वती जी ने ब्राह्मण से रोग मुक्ति के कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत करने की बात बतलाई। अब तो पार्वती जी ने ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछ कर स्वयं यह व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके रूठे हुए पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय को अपने यह विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले- हे माता जी आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिससे मेरा मन आप की ओर आकर्षित हुआ। तब पार्वती जी ने सोलह सोमवार कथा उनको कह सुनाई। तब वह बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा क्योंकि मेरा प्रिय मित्र ब्राह्मण बहुत दुःखी दिल से परदेस गया है। हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है। तब कार्तिकेय ने इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र वापस आ गया। मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेय जी से पूछा तो वे बोले-हे मित्र हमने तुम्हारे मिलन की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था।

ब्राह्मण पुत्र को अपने विवाह की बड़ी इच्छा थी। उसने कार्तिकेय से व्रत की विधि पूछी और यथा विधि व्रत किया। व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रृंगारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ अपनी प्यारी पुत्री का विवाह करूंगा। शिवजी जी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया। नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी। राजा ने प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूम-धाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया और ब्राह्मण को बहुत-सा धन और सम्मान दिया।

ब्राह्मण सुंदर राज कन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा। एक दिन राज कन्या ने अपने पति से प्रश्न किया-हे प्राणनाथ! आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आप का वरण किया? ब्राह्मण बोला-हे प्राणप्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेय के कथानानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था, उसी से प्रभाव से मुझे तुम जैसा स्वरूपवान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई।

व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी। शिवजी जी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुंदर, सुशील, धर्मात्मा और विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ। दोनों उस पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए। जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन उसने माता से प्रश्न किया-तुमने कौन-सा तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ। माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जानकर अपने किए हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि के सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया। पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को सब तरह के मनोरथों का पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकारी पाने की इच्छा से करने लगा। वह हर सोमवार को यथा विधि व्रत करने लगा। उसी समय एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसका एक राजकन्या के लिए वरण किया। राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण संपन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया।

वृद्ध राजा के देवलोक होने पर यही ब्राह्मण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था। राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण पुत्र अपने सोलह सोमवार व्रत को करता रहा। जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र-पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिए कहा। परंतु राजकन्या ने उसकी आज्ञा की परवाह नहीं की। दास-दासियों द्वारा सब सामग्रियां शिवालय भिजवा दीं और आप नहीं गई। जब राजा ने शिवजी का पूजन समाप्त किया तब आकाशवाणी हुई-हे राजा ! अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दो नहीं तो यह तुम्हारा सर्वनाश कर देगी। आकाशवाणी सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही दरबार में आकर अपने सभासदों से पूछने लगा-हे मंत्रियों ! मुझे आज शिवजी की आकाशवाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो यह तेरा सर्वनाश कर देंगी। मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये। वे सोचने लगे कि जिस कन्या के कारण इसे राज मिला है, राजा उसे ही निकालने का जाल रच रहा है।

राजा ने रानी को अपने यहां से निकाल दिया। रानी दुःखी हृदय से भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर हुई। फटे वस्त्र पहने,भूख से दुःखी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में पहुंची। वहां एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जा रही थी। वह रानी की करूणा दशा देखकर बोली-चल, तू मेरा सूत बिकवा दे। मैं वृद्धा हूं, भाव करना नहीं जानती। बुढ़िया की यह बात सुनकर रानी ने बुढ़िया के सिर से सूत की गठरी उतारकर अपने सिर पर रख ली। थोड़ी देर में ऐसी आंधी आई कि बुढ़िया का सूत पोटली सहित उड़ गया। बेचारी बुढि़या पछताती रह गई और रानी को अपने से दूर कर दिया। अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण उसी समय चटक गए। ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया। इसी प्रकार रानी अत्यंत दुःख पाती हुई नदी के तट पर गई तो उस नदी का समस्त जल सूख गया।

उस नगर से निकालकर भूखी-प्यासी रानी एक वन में गई। वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी उतर पानी पीने को गई। उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ों-मय गंदला हो गया। रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पीकर पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा। वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिर जाते। अपने वन, सरोवर और जल की ऐसी दशा देखकर उस वन में गउएँ चराने वाले वाले ग्वाले बड़ी दुःखी हुए। उन्होंने ये बातें उस जंगल में स्थित मंदिर के पुजारी से कहीं। ग्वाले रानी को पकड़कर पुजारी के पास ले गए। रानी की मुख-कांति और शरीर की शोभा देखकर पुजारी जी जान गए, यह अवश्य ही विधि-गति की मारी कोई कुलीन अबला है। ऐसा सोच पुजारी ने रानी से कहा-हे पुत्री! मैं तुमको पुत्री के सम्मान रखूंगा तुम मेरे आश्रम में ही रहो।

पुजारी के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी परंतु आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े, जल भर के लावे उसमें कीड़े पड़ जावें। अब तो पुजारी जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले-हे पुत्री! तुम सब मनोरथों को पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो। उसके प्रभाव से अपने कष्टों से मुक्त हो जाओगी। पुजारी की यह बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत सम्पन्न किया। सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गये बहुत समय व्यतीत हो गया न जाने कहां-कहां भटकती होगी, ढुंढवाना चाहिए। राजा ने यह सोचकर रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में दूत भेजे। वे तलाश करते हुए पुजारी के आश्रम में रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया। दूत चुपचाप लौट गये और आकर महाराज के सम्मुख रानी का पता बताया।

रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी की आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज जो बाई जी आपके आश्रम में रहती है वह मेरी पत्नी है। शिवजी के कोप से मैंने उसको त्याग दिया था। अब इस पर से शिव-प्रकोप शांत हो गया है इसलिए मैं इसे लिवाने आया हूं, आप मेरे साथ जाने की आज्ञा दे दीजिए। पुजारी जी ने रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी। रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ महल में आई, नगर में अनेक प्रकार के बधावे बजने लगे। नगर वासियों ने नगर के दरवाजे तोरण बांधे और बन्दनवारों और विविध-विधि से नगर सजाया। घर-घर में मंगल गान होने लगे। धूम-धाम से रानी ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया।

महाराज ने अनेक तरह से ब्राह्मणों को दानादि देकर संतुष्ट किया और याचकों को धन-धान्य दिया। नगर में स्थान-स्थान पर थासदाव्रत खुलवाए, जहां भूखों को खाना मिलता था। इस प्रकार से राजा शिवजी का कृपा पात्र होकर राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग करते हुए आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा। अब तो राजा और रानी प्रत्येक सोमवार को यह व्रत करने लगे। विधिवत शिव पूजन करते भू-लोक में अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात वे दोनों अंत में शिवपुरी को प्राप्त हुए। ऐसे ही जो मनुष्य मनसा-वाचा-कर्मणा करके भक्ति सहित सोलह सोमवार का व्रत, पूजन इत्यादि विधिवत करता है वह इस लोक में समस्त सुखों को भोग अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है। यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है।

भगवान शिव की आरती | Aarti to god shiv

ॐ जय शिव ओंकारा , प्रभु हर ॐ शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव, अर्द्धांङ्गी धारा ॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

एकानन, चतुरानन, पंचानन राजै ।
हंसानन , गरुड़ासन, वृषवाहन साजै॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

दो भुज चार चतुर्भज, दस भुज ते सोहै ।
तीनों रुप निरखता, त्रिभुवन जन मोहे॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

अक्षमाला, वनमाला, मुण्डमाला धारी ।
चंदन-मृगमद लोचन सोहै, त्रिपुरारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघाम्बर अंगे।
सनकादिक, ब्रह्मादिक, भूतादिक संगे॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

कर मध्ये कमण्डलू, चक्र त्रिशूलधारी ।
सुखकारी दुखहारी जगपालनकारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रवणाक्षर के मध्य ये तीनों एका ॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

त्रिगुण शिव जी की आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ जय शिव ओंकारा……

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मासिक कालाष्टमी व्रत विधि | Masik Kala Ashtami Vrat Katha, Puja Vidhi

Kalashtami

Kalashtami

मासिक कालाष्टमी व्रत विधि | Masik Kala Ashtami Vrat Katha, Puja Vidhi

कालाष्टमी का अर्थ है :
कालाष्टमी = काल + अष्टमी

यह उपवास हर माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रखा जाता है। कालभैरव (Kalbhairav) के भक्त साल की सभी मासिक कालाष्टमी (Masik Kalashtami) पर उनकी उनकी पूजा और उपवास करते हैं। काल भैरव की सवारी काले कुत्ते को इस दिन विशेष रूप से भोजन कराना चाहिए। भगवान शिव (Bhagwan Shiv) के 2 स्वरूप हैं। पहला बटुक भैरव, जिन्हें सौम्य माना जाता है और दूसरा स्वरूप है काल भैरव (Kaal Bhairav) का जो भगवान शिव का रौद्र रूप होता है।

कालभैरव (Kalbhairav) जयन्ती पर सबसे मुख्य कालाष्टमी (Kalashtami) मानी जाती है। इस दिन भगवान शिव भैरव के रूप में प्रकट हुए थे। जिसे उत्तरी भारतीय पूर्णिमान्त पञ्चाङ्ग के अनुसार मार्गशीर्ष के महीने में तथा दक्षिणी भारतीय अमान्त पञ्चाङ्ग के अनुसार कार्तिक के महीने में मनाते हैं। हालाँकि दोनों पञ्चाङ्ग में कालभैरव जयन्ती एक ही दिन देखी जाती है।

कालभैरव (Kalbhairav) जयन्ती को भैरव अष्टमी (Bhairav Ashtami) के नाम से भी जाना जाता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि कालाष्टमी (Kalashtami) का व्रत सप्तमी तिथि के दिन भी हो सकता है। जिस दिन अष्टमी तिथि रात्रि के दौरान प्रबल होती है उस दिन व्रतराज कालाष्टमी (Kalashtami) का व्रत किया जाना चाहिए। अन्यथा कालाष्टमी (Kalashtami) पिछले दिन चली जाती है।

मासिक कालाष्टमी की पौराणिक कथा |  Masik Kalashtami Pauraanik Katha

कालाष्टमी (Kalashtami) की एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार की बात है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों में श्रेष्ठता की लड़ाई चली। इस बात पर बहस बढ़ गई, तो सभी देवताओं को बुलाकर बैठक की गई। सबसे यही पूछा गया कि श्रेष्ठ कौन है? सभी ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए और उत्तर खोजा लेकिन उस बात का समर्थन शिवजी और विष्णु ने तो किया, परंतु ब्रह्माजी ने शिवजी को अपशब्द कह दिए। इस बात पर शिवजी को क्रोध आ गया और शिवजी ने अपना अपमान समझा।

शिवजी ने उस क्रोध में अपने रूप से भैरव को जन्म दिया। इस भैरव अवतार का वाहन काला कुत्ता है। इनके एक हाथ में छड़ी है। इस अवतार को ‘महाकालेश्वर’ के नाम से भी जाना जाता है इसलिए ही इन्हें दंडाधिपति कहा गया है। शिवजी के इस रूप को देखकर सभी देवता घबरा गए।

भैरव ने क्रोध में ब्रह्माजी के 5 मुखों में से 1 मुख को काट दिया, तब से ब्रह्माजी के पास 4 मुख ही हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी के सिर को काटने के कारण भैरवजी पर ब्रह्महत्या का पाप आ गया। ब्रह्माजी ने भैरव बाबा से माफी मांगी तब जाकर शिवजी अपने असली रूप में आए।
भैरव बाबा (Bhairav Baba) को उनके पापों के कारण दंड मिला इसीलिए भैरव को कई दिनों तक भिखारी की तरह रहना पड़ा। इस प्रकार कई वर्षों बाद वाराणसी में इनका दंड समाप्त होता है। इसका एक नाम ‘दंडपाणी’ पड़ा था।

मासिक कालाष्टमी का महत्व | Masik Kalashtami Mahatv

धार्मिक मान्यता के अनुसार, जो भगवान भैरव के भक्तों का अनिष्ट करता है, उसे तीनों लोकों में कहीं भी शरण प्राप्त नहीं होती है। कालाष्टमी (Kalashtami) के दिन विधिपूर्वक व्रत और पूजन करने से जातक को भय और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति प्राप्त होती है। भगवान भैरव अपने भक्तों की हर संकट से रक्षा करते हैं। इनकी पूजा से शत्रु बाधा और रोगों से भी मुक्ति मिलती है। जो लोग आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं उनके लिए भगवान भैरव दंडनायक हैं और अपने भक्तों के लिए वे सौम्य और रक्षा करने वाले हैं।

श्री भैरव आरती | Bhairavji ki Aarti

सुनो जी भैरव लाड़िले,कर जोड़ कर विनती करूँ।
कृपा तुम्हारी चाहिए,मैं ध्यान तुम्हारा ही धरूँ।
मैं चरण छुता आपके,अर्जी मेरी सुन लीजिये॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

मैं हूँ मति का मन्द,मेरी कुछ मदद तो कीजिये।
महिमा तुम्हारी बहुत,कुछ थोड़ी सी मैं वर्णन करूँ॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

करते सवारी स्वान की,चारों दिशा में राज्य है।
जितने भूत और प्रेत,सबके आप ही सरताज हैं॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

हथियार हैं जो आपके,उसका क्या वर्णन करूँ।
माता जी के सामने तुम,नृत्य भी करते सदा॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

गा गा के गुण अनुवाद से,उनको रिझाते हो सदा।
एक सांकली है आपकी,तारीफ उसकी क्या करूँ॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

बहुत सी महिमा तुम्हारी,मेंहदीपुर सरनाम है।
आते जगत के यात्री,बजरंग का स्थान है॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

श्री प्रेतराज सरकार के,मैं शीश चरणों में धरूँ।
निशदिन तुम्हारे खेल से,माताजी खुश रहें॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

सिर पर तुम्हारे हाथ रख कर,आशीर्वाद देती रहें।
कर जोड़ कर विनती करूँ,अरु शीश चरणों में धरूँ॥
सुनो जी भैरव लाड़िले॥

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मासिक शिवरात्रि व्रत विधि | Masik Shivratri Vrat Katha, Puja Vidhi

Shiva

Shiva

मासिक शिवरात्रि  व्रत विधि | Masik Shivratri Vrat Katha, Puja Vidhi

शिवरात्रि (Masik Shivratri) शिव और शक्ति के अभिसरण का विशेष पर्व है। हर माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) के नाम से जाना जाता है।

अमान्त पञ्चाङ्ग के अनुसार माघ माह की मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) को महा शिवरात्रि कहते हैं। परन्तु पूर्णिमान्त पञ्चाङ्ग के अनुसार फाल्गुन माह की मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) को महा शिवरात्रि (Shivratri) कहते हैं। हालाँकि दोनों, पूर्णिमान्त और अमान्त पञ्चाङ्ग एक ही दिन महा शिवरात्रि (Shivratri) के साथ सभी शिवरात्रियों को मानते हैं।

महा शिवरात्रि (Maha Shivratri) के दिन मध्य रात्रि में भगवान शिव (Bhagwan Shiv) लिङ्ग के रूप में प्रकट हुए थे। पहली बार शिव लिङ्ग की पूजा भगवान विष्णु और ब्रह्माजी द्वारा की गयी थी। इसीलिए महा शिवरात्रि (Maha Shivratri) को भगवान शिव के जन्मदिन के रूप में जाना जाता है और श्रद्धालु लोग शिवरात्रि के दिन शिव लिङ्ग की पूजा करते हैं। शिवरात्रि (Shivratri) व्रत प्राचीन काल से प्रचलित है।

जो श्रद्धालु मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) का व्रत करना चाहते है, वह इसे महा शिवरात्रि (Maha Shivratri) से आरम्भ कर सकते हैं और एक साल तक कायम रख सकते हैं। मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) के व्रत को करने से भगवान शिव (Bhagwan Shiv) की कृपा द्वारा कोई भी मुश्किल और असम्भव कार्य पूरे किये जा सकते हैं। शिवरात्रि (Shivratri) मे रात्रि के दौरान भगवान शिव की पूजा करना चाहिए। अविवाहित महिलाएँ इस व्रत को विवाहित होने हेतु एवं विवाहित महिलाएँ अपने विवाहित जीवन में सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए इस व्रत को करती है।

मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) अगर मंगलवार के दिन पड़ती है तो वह बहुत ही शुभ होती है। शिवरात्रि (Shivratri) पूजन मध्य रात्रि के दौरान किया जाता है। मध्य रात्रि को निशिता काल के नाम से जाना जाता है और यह दो घटी के लिए प्रबल होती है।

शिव पुराण (Shiv Puran) के अनुसार मासिक शिवरात्रि (Masik Shivratri) का व्रत रखने वाले स्‍त्री व पुरूष को मनचाहा वरदान मिलता है। कहा जाता है मासिक शिवरात्रि का व्रत भगवान भोलेनाथ को अति प्रिय है।

मासिक शिवरात्रि व्रत कथा | Masik Shivratri Vrat Katha Hindi

पूर्व काल में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। जानवरों की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था। वह एक साहूकार का कर्जदार था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। शाम होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया। जब अंधकार हो गया तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी। वह वन एक तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा।

बिल्व वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढंका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरती चली गई। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली- ‘मैं गर्भिणी हूं. शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।’’

शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए। इस प्रकार उससे अनजाने में ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया। कुछ ही देर बाद एक और हिरणी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया- ‘हे शिकारी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’ शिकारी ने उसे भी जाने दिया।

दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। इस बार भी धनुष से लग कर कुछ बेलपत्र शिवलिंग पर जा गिरे तथा दूसरे प्रहर की पूजन भी सम्पन्न हो गई। तभी एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली- ‘हे शिकारी! मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।’

शिकारी हंसा और बोला- ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से व्यग्र हो रहे होंगे।’

उत्तर में हिरणी ने फिर कहा- जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। हे शिकारी! मेरा विश्वास करो, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं। हिरणी का दुखभरा स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई. उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में तथा भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला- ‘ हे शिकारी! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।’

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी. तब मृग ने कहा- ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार सुबह हो आई। उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से अनजाने में ही पर शिवरात्रि की पूजा पूर्ण हो गई। पर अनजाने में ही की हुई पूजन का परिणाम उसे तत्काल मिला। शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया। उसमें भगवद्शक्ति का वास हो गया। थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मृग परिवार को जीवनदान दे दिया। अनजाने में शिवरात्रि के व्रत का पालन करने पर भी शिकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई। जब मृत्यु काल में यमदूत उसके जीव को ले जाने आए तो शिवगणों ने उन्हें वापस भेज दिया तथा शिकारी को शिवलोक ले गए। शिवजी की कृपा से ही अपने इस जन्म में राजा चित्रभानु अपने पिछले जन्म को याद रख पाए तथा महाशिवरात्रि के महत्व को जानकर उसका अगले जन्म में भी पालन कर पाए।

शिवजी की आरती | Shiv Aarti

जय शिव ओंकारा ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ जय शिव…॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ जय शिव…॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ जय शिव…॥

अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी ।
चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ जय शिव…॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ जय शिव…॥

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता ।
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥ ॐ जय शिव…॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ जय शिव…॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी ।
नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ जय शिव…॥

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ जय शिव…॥

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विनायक चतुर्थी व्रत विधि | Siddhi Vinayak Chaturthi Vrat Katha, Puja Vidhi

Vinayka

Vinayka

चतुर्थी व्रत विधि | Vinayak Chaturthi Vrat Katha, Puja Vidhi

चतुर्थी तिथि भगवान गणेश (Bhagwan Ganesh) की तिथि है। अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) कहते हैं और पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहते हैं।

भाद्रपद के दौरान पड़ने वाली विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) को गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण विश्व में गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) को भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) को वरद विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) के नाम से भी जाना जाता है। भगवान से अपनी किसी भी मनोकामना की पूर्ति के आशीर्वाद को वरद कहते हैं। जो श्रद्धालु विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) का उपवास करते हैं भगवान गणेश उसे ज्ञान और धैर्य का आशीर्वाद देते हैं। ज्ञान और धैर्य दो ऐसे नैतिक गुण है जिसका महत्व सदियों से मनुष्य को ज्ञात है। जिस मनुष्य के पास यह गुण हैं वह जीवन में काफी उन्नति करता है और मनवान्छित फल प्राप्त करता है।

विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi)के दिन गणेश पूजा दोपहर को मध्याह्न काल के दौरान की जाती है।विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) के लिए उपवास का दिन सूर्योदय और सूर्यास्त पर निर्भर करता है और जिस दिन मध्याह्न काल के दौरान चतुर्थी तिथि प्रबल होती है उस दिन विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) का व्रत किया जाता है। इसीलिए कभी कभी विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) का व्रत, चतुर्थी (Chaturthi) तिथि से एक दिन पूर्व, तृतीया तिथि के दिन पड़ जाता है।

श्री विनायक चतुर्थी की पौराणिक व्रत कथा  | Vinayak Chaturthi Pauraanik Vrat Katha

एक बार भगवान शिव (Bhagwan Shiv) तथा माता पार्वती (Maa Parvati) नर्मदा नदी के किनारे बैठे थे। वहां माता पार्वती ने भगवान शिव से समय व्यतीत करने के लिये चौपड़ खेलने को कहा।

शिव चौपड़ खेलने के लिए तैयार हो गए, परंतु इस खेल में हार-जीत का फैसला कौन करेगा, यह प्रश्न उनके समक्ष उठा तो भगवान शिव ने कुछ तिनके एकत्रित कर उसका एक पुतला बनाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर दी और पुतले से कहा- ‘बेटा, हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, परंतु हमारी हार-जीत का फैसला करने वाला कोई नहीं है इसीलिए तुम बताना कि हम दोनों में से कौन हारा और कौन जीता?’

उसके बाद भगवान शिव और माता पार्वती का चौपड़ खेल शुरू हो गया। यह खेल 3 बार खेला गया और संयोग से तीनों बार माता पार्वती ही जीत गईं। खेल समाप्त होने के बाद बालक से हार-जीत का फैसला करने के लिए कहा गया, तो उस बालक ने महादेव को विजयी बताया।
बालक द्वारा क्षमा मांगने पर माता ने कहा- ‘यहां गणेश पूजन के लिए नागकन्याएं आएंगी, उनके कहे अनुसार तुम गणेश व्रत करो, ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे।’ यह कहकर माता पार्वती शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं।

एक वर्ष के बाद उस स्थान पर नागकन्याएं आईं, तब नागकन्याओं से श्री गणेश के व्रत की विधि मालूम करने पर उस बालक ने 21 दिन लगातार गणेशजी का व्रत किया। उसकी श्रद्धा से गणेशजी प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक को मनोवांछित फल मांगने के लिए कहा।

उस पर उस बालक ने कहा- ‘हे विनायक! मुझमें इतनी शक्ति दीजिए कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं और वे यह देख प्रसन्न हों।’

तब बालक को वरदान देकर श्री गणेश अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद वह बालक कैलाश पर्वत पर पहुंच गया और कैलाश पर्वत पर पहुंचने की अपनी कथा उसने भगवान शिव को सुनाई।

चौपड़ वाले दिन से माता पार्वती शिवजी से विमुख हो गई थीं अत: देवी के रुष्ट होने पर भगवान शिव ने भी बालक के बताए अनुसार 21 दिनों तक श्री गणेश का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से माता पार्वती के मन से भगवान शिव के लिए जो नाराजगी थी, वह समाप्त हो गई।

तब यह व्रत विधि भगवान शंकर ने माता पार्वती को बताई। यह सुनकर माता पार्वती के मन में भी अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा जागृत हुई। तब माता पार्वती ने भी 21 दिन तक श्री गणेश का व्रत किया तथा दूर्वा, फूल और लड्डूओं से गणेशजी का पूजन-अर्चन किया। व्रत के 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं माता पार्वतीजी से आ मिले। उस दिन से श्री गणेश चतुर्थी का यह व्रत समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला व्रत माना जाता है। इस व्रत को करने से मनुष्‍य के सारे कष्ट दूर होकर मनुष्य को समस्त सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं।

श्री गणेशजी की आरती  | Ganesh Aarti

जय गणेश, जय गणेश,जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

एकदन्त दयावन्त,चार भुजाधारी।
माथे पर तिलक सोहे,मूसे की सवारी॥
(माथे पर सिन्दूर सोहे,मूसे की सवारी॥)

पान चढ़े फूल चढ़े,और चढ़े मेवा।
(हार चढ़े, फूल चढ़े,और चढ़े मेवा।)
लड्डुअन का भोग लगे,सन्त करें सेवा॥

जय गणेश, जय गणेश,जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

अँधे को आँख देत,कोढ़िन को काया।
बाँझन को पुत्र देत,निर्धन को माया॥

‘सूर’ श्याम शरण आए,सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

दीनन की लाज राखो,शम्भु सुतवारी।
कामना को पूर्ण करो,जग बलिहारी॥

जय गणेश, जय गणेश,जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

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मासिक दुर्गा अष्टमी व्रत विधि | Masik Shri Durga Ashtami Vrat Katha, Puja Vidhi

durga maa

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मासिक दुर्गा अष्टमी व्रत विधि | Masik Shri Durga Ashtami Vrat Katha, Puja Vidhi

हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दौरान दुर्गाष्टमी (Durga Ashtami) का उपवास किया जाता है। इस दिन श्रद्धालु दुर्गा माता की पूजा करते हैं और उनके लिए पूरे दिन का व्रत करते हैं।

मुख्य दुर्गाष्टमी (Durga Ashtami) जिसे महाष्टमी कहते हैं, अश्विन माह में नौ दिन के शारदीय नवरात्रि उत्सव के दौरान पड़ती है।

संस्कृत की भाषा में दुर्गा शब्द का अर्थ होता है अपराजित अर्थात जो किसी से भी कभी पराजित नहीं हो, और अष्टमी का अर्थ होता है आठवा दिन। इस अष्टमी के दिन महिषासुर नामक राक्षस पर देवी दुर्गा ने जीत हासिल की थी। इस दिन देवी ने अपने भयानक और रौद्र रूप को धारण किया था, इसलिए इस दिन को देवी भद्रकाली के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योकि इस दिन दुष्ट और क्रूर राक्षस को उन्होंने मार कर सारे ब्रह्माण्ड को भय मुक्त किया था।

इस दिन जो भी पूरी भक्ति और श्रधा से पूर्ण समर्पण के साथ दुर्गा अष्टमी (Durga Ashtami) का व्रत करता है उसके जीवन में खुशी और अच्छे भाग्य का आगमन होता है।

मासिक दुर्गा अष्टमी कथा | Masik Durga Ashtami Katha (Story) in Hindi

प्राचीन समय में दुर्गम नामक एक दुष्ट और क्रूर दानव रहता था। वह बहुत ही शक्तिशाली था। अपनी क्रूरता से उसने तीनों लोकों में अत्याचार कर रखा था। उसकी दुष्टता से पृथ्वी, आकाश और ब्रह्माण्ड तीनों जगह लोग पीड़ित थे। उसने ऐसा आतंक फैलाया था, कि आतंक के डर से सभी देवता कैलाश में चले गए, क्योंकि देवता उसे मार नहीं सकते थे, और न ही उसे सजा दे सकते थे। सभी देवता ने भगवान शिव जी से इस बारे में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया।

अंत में विष्णु, ब्रह्मा और सभी देवता के साथ मिलकर भगवान शंकर ने एक मार्ग निकाला और सबने अपनी ऊर्जाअर्थात अपनी शक्तियों को साझा करके संयुकत रूप से शुक्ल पक्ष अष्टमी को देवी दुर्गा को जन्म दिया। उसके बाद उन्होंने उन्हें सबसे शक्तिशाली हथियार को देकर दानव के साथ एक कठोर युद्ध को छेड़ दिया, फिर देवी दुर्गा ने उसको बिना किसी समय को लगाये तुरंत दानव का संहार कर दिया। वह दानव दुर्ग सेन के नाम से भी जाना जाता था। उसके बाद तीनों लोकों में खुशियों के साथ ही जयकारे लगने लगे, और इस दिन को ही दुर्गाष्टमी की उत्पति हुई। इस दिन बुराई पर अच्छाई की जीत हुई।

मासिक दुर्गा अष्टमी पूजा विधि | Masik Durga Ashtami Puja Vidhi

देवी दुर्गा जी के नौ रूप है हर एक विशेष दिन देवी के एक विशेष रूप का पूजन किया जाता है जिनके नाम शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री है। मासिक दुर्गा अष्टमी (Masik Durga Ashtami) के दिन विशेष रूप से माँ दुर्गा (Maa Durga) के महागौरी रूप का पूजन किया जाता है।

दुर्गा अष्टमी के दिन देवी दुर्गा के हथियारों की पूजा की जाती है और हथियारों के प्रदर्शन के कारण इस दिन को लोकप्रिय रूप से विराष्ट्मी के रूप में भी जाना जाता है।

दुर्गा अष्टमी (Durga Ashtami) के दिन भक्त सुबह जल्दी से स्नान करके देवी दुर्गा से प्रार्थना करते है और पूजन के लिए लाल फूल, लाल चन्दन, दीया, धूप इत्यादि इन सामग्रियों से पूजा करते है, और देवी को अर्पण करने के लिए विशेष रूप से नैवेध को तैयार किया जाता है।

दुर्गा अष्टमी (Durga Ashtami) के दिन विशेष कर जो 6 वर्ष से 12 वर्ष के आयु वर्ग की कन्याओं के 5, 7, 9 और 11 के समूह को भोजन के लिए आमन्त्रित कर, उनके स्वागत में उनके पांव को पहले धोया जाता है, फिर उनका पूजन किया जाता है तत्पश्चात उन्हें भोजन में खीर, हलवा, पुड़ी, मिठाई इत्यादि खाद्य पदार्थ दिए जाते है और उसके बाद कुछ उपहार देकर उन्हें सम्मानित किया जाता है।

इन सारे विधि कार्यों को करने के बाद पूजा समाप्त हो जाती है और अंत में माता का आशीर्वाद आपको प्राप्त हो जाता है।

माँ दुर्गा आरती | Maa Durga Aarti

जय अम्बे गौरी,मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत,हरि ब्रह्मा शिवरी॥
जय अम्बे गौरी॥

माँग सिन्दूर विराजत,टीको मृगमद को।
उज्जवल से दो‌उ नैना,चन्द्रवदन नीको॥
जय अम्बे गौरी॥

कनक समान कलेवर,रक्ताम्बर राजै।
रक्तपुष्प गल माला,कण्ठन पर साजै॥
जय अम्बे गौरी॥

केहरि वाहन राजत,खड्ग खप्परधारी।
सुर-नर-मुनि-जन सेवत,तिनके दुखहारी॥
जय अम्बे गौरी॥

कानन कुण्डल शोभित,नासाग्रे मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर,सम राजत ज्योति॥
जय अम्बे गौरी॥

शुम्भ-निशुम्भ बिदारे,महिषासुर घाती।
धूम्र विलोचन नैना,निशिदिन मदमाती॥
जय अम्बे गौरी॥

चण्ड-मुण्ड संहारे,शोणित बीज हरे।
मधु-कैटभ दो‌उ मारे,सुर भयहीन करे॥
जय अम्बे गौरी॥

ब्रहमाणी रुद्राणीतुम कमला रानी।
आगम-निगम-बखानी,तुम शिव पटरानी॥
जय अम्बे गौरी॥

चौंसठ योगिनी मंगल गावत,नृत्य करत भैरूँ।
बाजत ताल मृदंगा,अरु बाजत डमरु॥
जय अम्बे गौरी॥

तुम ही जग की माता,तुम ही हो भरता।
भक्‍तन की दु:ख हरता,सुख सम्पत्ति करता॥
जय अम्बे गौरी॥

भुजा चार अति शोभित,वर-मुद्रा धारी।
मनवान्छित फल पावत,सेवत नर-नारी॥
जय अम्बे गौरी॥

कन्चन थाल विराजत,अगर कपूर बाती।
श्रीमालकेतु में राजत,कोटि रतन ज्योति॥
जय अम्बे गौरी॥

श्री अम्बेजी की आरती,जो को‌ई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी,सुख सम्पत्ति पावै॥
जय अम्बे गौरी॥

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स्कन्द षष्ठी व्रत विधि | Skand shishathi Vrat Katha, Puja Vidhi

Skand Shashthi

Skand Shashthi

स्कन्द षष्ठी व्रत विधि | Skand shishathi Vrat Katha, Puja Vidhi

षष्ठी तिथि भगवान स्कन्द (Skand) को समर्पित हैं। शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन श्रद्धालु लोग उपवास करते हैं। षष्ठी तिथि जिस दिन पञ्चमी तिथि के साथ मिल जाती है उस दिन स्कन्द षष्ठी (Skand Shishathi) के व्रत को करने के लिए प्राथमिकता दी गयी है। इसीलिए स्कन्द षष्ठी (Skand Shishathi) का व्रत पञ्चमी तिथि के दिन भी हो सकता है।

स्कन्द षष्ठी (Skand Shishathi) को कन्द षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है।

स्कन्द देव (Skand Dev)भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र और भगवान गणेश के छोटे भाई हैं। भगवान स्कन्द को मुरुगन, कार्तिकेय और सुब्रहमन्य के नाम से भी जाना जाता है।

भगवान कार्तिकेय को मुरुगन के नाम से जाना जाता है क्योंकि इनका वाहन मोर है।

मां दुर्गा के 5वें स्वरूप स्कंदमाता को भगवान कार्तिकेय की माता के रूप में जाना जाता है। नवरात्रि के 5 वें दिन स्कंदमाता (Skand Mata) का पूजन करने का विधान है। इसके अलावा इस षष्ठी को चम्पा षष्ठी भी कहते हैं, क्योंकि भगवान कार्तिकेय को सुब्रह्मण्यम के नाम भी पुकारते हैं और उनका प्रिय पुष्प चम्पा है। भगवान स्कंद शक्ति के अधिदेव हैं। भगवान कार्तिकेय के पराक्रम को देखकर उन्हें देवताओं का सेनापति बना दिया गया। इस पर्व पर भगवान मुरुगन की आराधना से मान-सम्मान, शौर्य-यश और विजय की प्राप्ति होती है। इस शुभ अवसर पर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का भी विधान है। 

स्कंद षष्ठी की पहली कथा | Skand Shishathi Katha

जब पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव की पत्नी ‘सती’ कूदकर भस्म हो गईं, तब शिवजी विलाप करते हुए गहरी तपस्या में लीन हो गए। उनके ऐसा करने से सृष्टि शक्तिहीन हो जाती है। इस मौके का फायदा दैत्य उठाते हैं और धरती पर तारकासुर नामक दैत्य का चारों ओर आतंक फैल जाता है। देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ता है। चारों तरफ हाहाकार मच जाता है तब सभी देवता ब्रह्माजी से प्रार्थना करते हैं। तब ब्रह्माजी कहते हैं कि तारक का अंत शिव पुत्र करेगा।

इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शंकर ‘पार्वती’ के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिवजी और पार्वती का विवाह हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है। कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं। पुराणों के अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष महत्व है।

स्कंद षष्ठी की दूसरी कथा | Story of Skand Shishathi Vrat

स्कंद पुराण के अनुसार, सुरपद्मा, सिंहमुख और तारकासुर के नेतृत्व में राक्षसों ने देवताओं को हराया और पृथ्वी पर कब्जा कर लिया। उन्हें देवताओं और मनुष्यों पर अत्याचार करना अच्छा लगता था। उन्होंने वह सब कुछ नष्ट कर दिया जो देवों और मनुष्यों का था। सुरपद्मा को वरदान मिला था कि केवल भगवान शिव का एक पुत्र ही उसे मार सकता है। दानव का मानना ​​​​था कि देवी सती की मृत्यु के बाद गहरे ध्यान में चले गए भगवान शिव कभी भी सांसारिक जीवन में वापस नहीं आएंगे। देवों ने अपनी दुर्दशा भगवान शिव को बताई, लेकिन वे गहरे ध्यान में थे। भगवान ब्रह्मा ने देवताओं को कामदेव की मदद लेने की सलाह दी। उन्होंने भगवान शिव में यौन इच्छा को उकसाया। लेकिन क्रोधित भगवान शिव ने उसे जलाकर भस्म कर दिया।

भगवान शिव से निकला वीर्य छह भागों में बंट गया और गंगा में जमा हो गया। देवी गंगा ने छह भागों को एक जंगल में छिपा दिया। इसने छह बच्चों का रूप धारण किया। छह कार्तिकाई सितारों द्वारा बच्चों की देखभाल की गई। बाद में, देवी पार्वती ने छह बच्चों को एक में मिला दिया।

स्कंद षष्ठी पूजा विधि | Skand Shishathi Puja Vidhi

इस तिथि पर विधिपूर्वक व्रत करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है और रोग, दुख, दरिद्रता से भी मुक्ति मिलती है। विधिपूर्वक व्रत करने के लिए सबसे पहले प्रातकाल उठकर स्नानादि के बाद नए वस्त्र धारण करें। तत्पश्चात् भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा की स्थापना करें और दक्षिण दिशा की ओर मुख करके पूजन करें। पूजा सामग्री में घी और दही को अवश्य शामिल करें। इसके बाद भगवान मुरुगन की आराधना के लिए निम्नलिखित मंत्र का जाप करें।

“ॐ तत्पुरुषाय विधमहे: महा सैन्या धीमहि तन्नो स्कंदा प्रचोदयात”।।
या
“ॐ शारवाना-भावाया नम: ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा, देवसेना मन: कांता कार्तिकेया नामोस्तुते” ।।

व्रती को मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन का परित्याग कर देना चाहिए। ब्राह्मी का रस और घी का सेवन कर सकते हैं और रात्रि को जमीन पर सोना चाहिए।

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संकष्टी चतुर्थी व्रत विधि | Sankashti Chaturthi Vrat Katha, Puja Vidhi

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संकष्टी चतुर्थी व्रत विधि | Sankashti Chaturthi Vrat Katha, Puja Vidhi

पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहते हैं और अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहते हैं।

संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) का व्रत हर महीने में होता है लेकिन सबसे मुख्य संकष्टी चतुर्थी पूर्णिमान्त पञ्चाङ्ग के अनुसार माघ के महीने में पड़ती है और अमान्त पञ्चाङ्ग के अनुसार पौष के महीने में पड़ती है।

संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) अगर मंगलवार के दिन पड़ती है तो उसे अंगारकी चतुर्थी कहते हैं और इसे बहुत ही शुभ माना जाता है।

संकष्टी चतुर्थी व्रत | Sankashti Chaturthi Vrat

संकट से मुक्ति मिलने को संकष्टी (Sankashti)कहते हैं। भगवान गणेश जो ज्ञान के क्षेत्र में सर्वोच्च हैं, सभी तरह के विघ्न हरने के लिए पूजे जाते हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi Vrat) का व्रत करने से सभी तरह के विघ्नों से मुक्ति मिल जाती है।

संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi Vrat) का उपवास कठोर होता है जिसमे केवल फलों, जड़ों (जमीन के अन्दर पौधों का भाग) और वनस्पति उत्पादों का ही सेवन किया जाता है। संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) व्रत के दौरान साबूदाना खिचड़ी, आलू और मूँगफली का मुख्य आहार होता है। श्रद्धालु लोग चन्द्रमा के दर्शन करने के बाद उपवास को तोड़ते हैं।

उत्तरी भारत में माघ माह के दौरान पड़ने वाली संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) को सकट चौथ (Sakat Chouth) के नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही भाद्रपद माह के दौरान पड़ने वाली विनायक चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण विश्व में गणेश चतुर्थी को भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) के लिए उपवास का दिन चन्द्रोदय पर निर्धारित होता है। जिस दिन चतुर्थी तिथि के दौरान चन्द्र उदय होता है उस दिन ही संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) का व्रत रखा जाता है। इसीलिए कभी कभी संकष्टी चतुर्थी (Sankashti Chaturthi) का व्रत, चतुर्थी तिथि से एक दिन पूर्व, तृतीया तिथि के दिन पड़ जाता है।

गणेश संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा (Sankashti Chaturthi Story)

एक बार माता पार्वती स्नान के लिए जाती हैं। तब वे अपने शरीर के मेल को इक्कट्ठा कर एक पुतला बनाती हैं और उसमे जान डालकर एक बालक को जन्म देती हैं। स्नान के लिए जाने से पूर्व माता पार्वती बालक को कार्य सौंपती हैं कि वे कुंड के भीतर नहाने जा रही हैं। अतः वे किसी को भी भीतर ना आने दे। उनके जाते ही बालक पहरेदारी के लिए खड़ा हो जाता हैं। कुछ देर बार भगवान शिव वहाँ आते हैं और अंदर जाने लगते हैं। तब वह बालक उन्हें रोक देता हैं। जिससे भगवान शिव क्रोधित हो उठते हैं और अपने त्रिशूल से बालक का सिर काट देते हैं। जैसे ही माता पार्वती कुंड से बाहर निकलती हैं। अपने पुत्र के कटे सिर को देख विलाप करने लगती हैं। क्रोधित होकर पुरे ब्रह्मांड को हिला देती हैं। सभी देवता एवम नारायण सहित ब्रह्मा जी वहाँ आकर माता पार्वती को समझाने का प्रयास करते हैं पर वे एक नहीं सुनती।

तब ब्रह्मा जी शिव वाहक को आदेश देते हैं कि पृथ्वी लोक में जाकर एक सबसे पहले दिखने वाले किसी भी जीव बच्चे का मस्तक काट कर लाओं जिसकी माता उसकी तरफ पीठ करके सोई हो। नंदी खोज में निकलते हैं तब उन्हें एक हाथी दिखाई देता हैं जिसकी माता उसकी तरफ पीठ करके सोई होती हैं। नंदी उसका सिर काटकर लाते हैं और वही सिर बालक पर जोड़कर उसे पुन: जीवित किया जाता हैं. इसके बाद भगवान शिव उन्हें अपने सभी गणों के स्वामी होने का आशीर्वाद देकर उनका नाम गणपति रखते हैं। अन्य सभी भगवान एवम देवता गणेश जी को अग्रणी देवता अर्थात देवताओं में श्रेष्ठ होने का आशीर्वाद देते हैं। तब से ही किसी भी पूजा के पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती हैं।

श्री गणेशजी की आरती | Shri Ganesh Ji Ki Aarti

जय गणेश, जय गणेश,जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

एकदन्त दयावन्त,चार भुजाधारी।
माथे पर तिलक सोहे,मूसे की सवारी॥
(माथे पर सिन्दूर सोहे,मूसे की सवारी॥)

पान चढ़े फूल चढ़े,और चढ़े मेवा।
(हार चढ़े, फूल चढ़े,और चढ़े मेवा।)
लड्डुअन का भोग लगे,सन्त करें सेवा॥

जय गणेश, जय गणेश,जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

अँधे को आँख देत,कोढ़िन को काया।
बाँझन को पुत्र देत,निर्धन को माया॥

‘सूर’ श्याम शरण आए,सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

दीनन की लाज राखो,शम्भु सुतवारी।
कामना को पूर्ण करो,जग बलिहारी॥

जय गणेश, जय गणेश,जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा॥

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राहु केतु ग्रह शान्ति व्रत | Rahu-Ketu Grah Vrat Vidhi aur udyapan Vidhi

Rahu Ketu

Rahu Ketu

राहु केतु ग्रह शान्ति व्रत | Rahu-Ketu Grah Vrat Vidhi aur udyapan Vidhi

राहु-केतु (Rahu-Ketu) छाया ग्रह है, जिसका अपना कोई वास्तविक रूप नहीं है। कुंडली में यदि राहु अशुभ स्थिति में है तो  व्यक्ति को आसानी से सफलता नहीं मिलती है। यदि कुंडली में केतु की स्थिति कमजोर होती है तो यह जिंदगी को बदतर बना देता है। जीवन में कलह बना रहता है।

राहु-केतु के व्रत की विधि | Rahu-Ketu Vrat Vidhi

शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) शनिवार से ही यह व्रत शुरू करना चाहिए। यह व्रत 18 की संख्या में करने चाहिए। राहु केतु के व्रत के लिए काला वस्त्र धारण करके 18 या 3 माला बीज मंत्र की जपनी चाहिए। तदनन्तर एक बर्तन में जल, दूर्वा और कुशा लेकर, पीपल की जड़ में डालें। भोजन में मीठा चूरमा, मीठी रोटी, समयानुसार रेवड़ी, भूग्गा, तिल के बने मीठे पदार्थ सेवन करें और यही दान में भी दें। रात को घी का दीपक जलाकर पीपल की जड़ में रख दें। इस व्रत से शत्रुभय दूर होता है तथा राज पक्ष से विजय मिलती है।

राहु-केतु (Rahu-Ketu) के व्रत के दिन अपने मस्तक पर काला तिलक करें। राहु-केतु (Rahu-Ketu) की प्रतिमा अथवा राहु-केतु (Rahu-Ketu) ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पत्र, रजतपत्र, ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति राहु-केतु (Rahu-Ketu) के मंत्र का जाप करना चाहिए।

राहु ग्रह का मंत्र ‘ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः ।’

केतु ग्रह का मंत्र ‘ॐ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः ।’

राहु के व्रत उद्यापन की विधि | Rahu Vrat Udyaapan Vidhi

राहु (Rahu) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव राहु ग्रह (Rahu Grah) का दान जैसे गोमेद, सुवर्ण, सीसा, तिल, सरसों, तिल, नीलवस्त्र, खड्ग, कृष्णपुष्प, कंबल, घोड़ा, शूर्प आदि करना चाहिए। राहु ग्रह (Rahu Grah) से संबंधित दान के लिए रात्रि का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। यह दान ब्राह्मण के स्थान पर भड्डरी को दिया जाता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। राहु ग्रह के मंत्र ‘ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः’ का कम से कम 18000 की संख्या में जाप तथा राहु ग्रह (Rahu Grah) की हवनसमिधा दूर्वा से राहु ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए

केतु के व्रत उद्यापन की विधि | Ketu Vrat Udyaapan Vidhi

केतु (Ketu) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव केतु ग्रह का दान जैसे लहसुनिया, सुवर्ण, लोहा, तिल, सप्तधान्य, तेल, धूम्रवस्त्र, नारियल, धूम्रपुष्प, कंबल, बकरा, शस्त्र आदि करना चाहिए। केतु ग्रह (Ketu Grah) से संबंधित दान के लिए रात्रि का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। यह दान ब्राह्मण के स्थान पर भड्डरी को दिया जाता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। केतु ग्रह के मंत्र ‘ॐ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः’ का कम से कम 17000 की संख्या में जाप तथा केतु ग्रह (Ketu Grah) की हवनसमिधा कुशा से केतु ग्रह (Ketu Grah) के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए

राहु-केतु ग्रह शांति का सरल उपचारः- नीला रुमाल, नीला घड़ी का पट्टा, नीला पैन, लोहे की अंगूठी पहनें।

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