Sunday Fast – जानिए रविवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Surya Dev

Surya Dev

रविवार व्रत (Sunday Fast)  का माहत्म्य एवं विधि-विधान, व्रत कथा

सूर्य देव (Surya Dev) भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) के स्थूल रूप तथा तथा पांच प्रमुख देवों में से एक हैं। भगवान भास्कर सभी ग्रहों के केंद्र बिंदु और अपरमित ज्योति के पुंज भी हैं। सूर्य देव हमारी पृथ्वी सहित सभी ग्रहों के केंद्र, संचालक और नियंत्रणकर्त्ता हैं। यही कारण है कि जब सूर्य देव हमसे प्रसन्न एवं संतुष्ट होते हैं तब हमें संसार के सभी ऐश्वर्य तो प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत भगवान भास्कर के कुपित हो जाने पर हमारा जीवन अनेक परेशानियों, रोग-शोक तथा अपयश के जाल में घिर जाता है।

परम शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी इतने दयालु हैं कि नित्य प्रातः सामान्य जल के अर्ध्य एवं रविवार के व्रत से ही परम प्रसन्न होकर भक्त की सभी मनोकामनाओं की आपूर्ति कर देते हैं।

यदि जातक की जन्म कुंडली में सूर्य ग्रह पीड़ित अवस्था में हो अथवा नीच, वक्री या शत्रु ग्रह के साथ योग बनाए हुए हो तो, जब जब सूर्य ग्रह की महादशा, दशा अथवा अंतर्दशा आती है, तो वह जातक को सूर्य ग्रह से संबंधित अशुभ फल प्रधान करती है। सूर्य पिता का कारक भी होता है। जिससे पिता तथा तथा पैतृक धन परिवार से भी जातक को अशुभ फल मिलता है। सूर्य देव (Surya Dev) को प्रसन्न करने के लिए तथा सूर्य ग्रह के अशुभ प्रभाव को शुभ बनाने के लिए रविवार (Ravivar) की व्रत करना शुभ फलदाई रहता है।

सूर्य शांति का सरल उपचारः– लाल वस्तुओं का विशेष उपयोग करें- जैसे- लाल चादर, परना तथा तांबे की अंगूठी का पहनना।

रविवार व्रत विधि | Ravivar Vrat Vidhi

सूर्य (Surya) का व्रत रविवार (Ravivar) को करें। यह व्रत शुक्ल पक्ष के पहले (जेठे) रविवार से आरंभ करके तीस या कम से कम 12 व्रत करें। उस रोज केवल गेहूं की रोटी, घी और लालखाण्ड के साथ या गेहूं का गुड़ से बना दलिया या हलवा इलायची डाल कर दान करें। इसमें सूर्यास्त के पूर्व केवल एक बार भोजन किया जाता है। नमक, खटाई, सभी प्रकार के क्षार और खट्टे फल आप इस व्रत में वर्जित हैं, परंतु दही का प्रयोग कर सकते हैं।

रविवार (Ravivar Vrat)के व्रत के दिन अपने मस्तक में लालचन्दन का तिलक करें। सूर्य को गन्धाक्षत, रक्त पुष्प, दूर्वायुक्त अर्घ्य प्रदान करें तथा अष्टदल कमल बना कर उस पर सूर्य देव की प्रतिमा रखकर अथवा सूर्य ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पात्र रजत पात्र ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति सूर्य देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।

स्कन्दपुराण के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के अंतिम रविवार (Ravivar) से व्रत प्रारम्भ करनाअधिक फलप्रद रहता है। माघ मास की सप्तमी तिथि को उसे रथ सप्तमी भी कहते हैं इस व्रत का उद्यापन करना श्रेष्ठ रहता है।

रविवार व्रत उद्यापन विधि | Ravivar Vrat Udyaapan  Vidhi

रविवार (Ravivar Vrat) के व्रत के उद्यापन के लिए यथा संभव सूर्य ग्रह का दान जैसे माणिक, सुवर्ण, ताम्र, गेहूं, गुड़, घी, रक्तवस्त्र, केसर, रक्तपुष्प, मूंग, रक्तगाय, रक्तचन्दन आदि करना चाहिए। सूर्य ग्रह से संबंधित दान के लिए सूर्य उदय का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। सूर्य ग्रह के मंत्र ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः’ का कम से कम सात हजार की संख्या में जाप तथा सूर्य ग्रह की लकड़ी अर्क से सूर्य ग्रह के बीच मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए।

हवन पूर्णाहुति के बाद ब्राह्मण को भोजन कराएं। ऐसा करने से सूर्य का अशुभ फल शुभ फल के परिणत हो जाएगा। तेजस्विता बढ़ेगी। नेत्र रोग, चर्म रोग एवं अन्य शारीरिक रोग भी शांत होंगे।

देवता भाव के भूखे होते हैं अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

रविवार (इतवार) व्रत कथा | Ravivar Vrat Katha

एक बुढ़िया थी। उसका नियम था कि प्रत्येक रविवार को सवेरे ही स्नान आदि करके और घर को गोबर से लीपकर फिर भोजन तैयार कर, भगवान को भोग लगाकर स्वयं भोजन करती थी। ऐसा व्रत करने से उसका घर अनेक प्रकार के धन-धान्य से पूर्ण था। भगवान भास्कर की कृपा से घर में किसी प्रकार का विध्न या दुःख नहीं था, सब प्रकार से घर में आनंद रहता था। इस तरह कुछ दिन बीत जाने पर उसकी एक पड़ोसन जिसकी गौ का गोबर वह लाया करती थी विचार करने लगी, यह वृद्धा सर्वदा मेरी गौ का गोबर ले जाती है इसलिए अपने गौ को अपने घर के भीतर बांधने लग गई। इस कारण बुढ़िया गोबर न मिलने के कारण रविवार के दिन अपने घर को न लीप सकी। तब उसने न तो भोजन बनाया और न ही भगवान को भोग लगाया तथा स्वयं भी उसने भोजन नहीं किया। इस प्रकार उसे निराहार व्रत किये रात्रि हो गयी और वह भूखी-प्यासी ही सो गई।

रात्रि में सूर्यदेव ने उसे स्वपन दिया और भोजन न बनाने और भोग न लगाने का कारण पूछा। वृद्धा ने गोबर न मिलने का कारण सुनाया। तब भगवान ने कहा कि माता, हम तुमको ऐसी गौ देते हैं जिससे सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। क्योंकि तुम हमेशा रविवार को गौ के गोबर से लीपकर भोजन बनाकर मेरा भोग लगाकर खुद भोजन करती हो, इससे मैं खुश होकर तुमको यह वरदान देता हूं। ऐसा करने से मैं अत्यंत संतुष्ट होता हूं और निर्धन को धन और बांझ स्त्रियों को पुत्र देकर उनके दुःखों को दूर करता हूं तथा अंत समय में मोक्ष देता हूं।

स्वपन में ऐसा वरदान देकर भगवान को अन्तर्ध्यान हो गए, जब वृद्धा की आंख खुली तो वह क्या देखती है कि आंगन में एक अति सुंदर गाय और बछड़ा बंधे हुए हैं। वह गौ और बछड़े को देखकर अति प्रसन्न हुई और उनको घर के बाहर बांध दिया और वही खाने को चारा डाल दिया।

सुबह बुढ़िया की पड़ोसिन ने देखा की बुढ़िया की गाय ने सोने का गोबर किया है, तब वह उस गोबर को तो ले गई और अपनी गौ का गोबर उसकी जगह रख गई। वह प्रतिदिन ऐसा ही करती रही और सीधी-सादी बुढ़िया को इसकी खबर नहीं होने दी। तब सर्वव्यापी ईश्वर ने सोचा कि चालाक पड़ोसिन के कर्म से बुढ़िया ठगी जा रही है तो भगवान ने संध्या के समय अपनी माया से बड़े जोर से आंधी चला दी। इससे बुढ़िया ने अंधेरे के भय से अपने गौ और बछड़े को घर के भीतर बांध लिया। प्रातःकाल उठकर जब वृद्धा ने देखा कि गाय ने सोने का गोबर दिया है तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही और वह प्रतिदिन गौ को घर के भीतर ही बांधने लगी।

उधर पड़ोसिन ने देखा कि गौ घर के भीतर बंधने लगी है और उसका सोने का गोबर उठाने का दांव नहीं चलता। वह ईर्ष्या और डाह से जल उठी। कुछ और उपाय न देख पड़ोसिन ने उस देश के राजा की सभा में जाकर कहा-महाराज! मेरे पड़ोस में वृद्धा के पास ऐसी गऊ है जो आप जैसे राजाओं के योग्य है। वह नित्य सोने का गोबर देती है। आप उस सोने से प्रजा का पालन करिए। राजा ने यह बात सुन अपने दूतों को वृद्धा के घर में गऊ लाने की आज्ञा दी। वृद्धा प्रातः ईश्वर को भोग लगा भोजन करने ही जा रही थी कि राजा के कर्मचारी गऊ खोल कर ले गए। वृद्धा काफी रोई चिल्लाई किंतु राज्य कर्मचारियों के समक्ष वह क्या कर सकती थी? उस दिन वृद्धा गऊ के वियोग में भोजन न खा सकी। रात को रो-रो कर ईश्वर से गऊ को पुनः पाने के लिए प्रार्थना करती रही। उधर राजा गऊ को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन सुबह जैसे ही सो कर उठा तो सारा महल गोबर से भरा दिखाई देने लगा। राजा यह देखकर घबरा गया। रात्रि में राजा को स्वप्न में भगवान ने कहा-हे राजन! यह गाय वृद्धा को लौटाने में ही तेरा भला है। उसके रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने उसे गाय दी हैं। प्रातः होते ही राजा ने वृद्धा को बुला बहुत से धन के साथ सम्मान सहित गऊ-बछड़ा लौटा दिये। उसकी पड़ोसिन दुष्ट बुढ़िया को बुलाकर उचित दंड दिया। तब जाकर राजा के महल से गंदगी दूर हुई। उसी राजा ने नगर निवासियों को आदेश-दिया कि राज्य में सभी स्त्री-पुरुष अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए रविवार का व्रत किया करें। व्रत करने से सारी प्रजा सुखी जीवन व्यतीत करने लगी।

सूर्य देव की मधुर आरती | Surya Dev Aarti

ॐ जय सूर्य देवा, स्वामी जय सूर्य देवा।
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव, संत करे सेवा।।

दुःख हरता सुख करता, जय आनन्द कारी।
वेद पुराण बखानत, भय पातक हारी।।

स्वर्ण सिंहासन बिस्तर, ज्योति तेरी सारी।
प्रेम भाव से पूजें, सब जग के नर नारी।।

दीनदयाल दयानिधि, भव बंधन हारी।
शरणागत प्रतिपालक, भक्तन हितकारी।।

जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे।
धन-संपत्ति और लक्ष्मी, सहजे सो पावे।।

सफल मनोरथ दायक, निर्गुण सुख राशि।
विश्व चराचर पालक, ईश्वर अविनाशी।।

योगीजन हृदय में, तेरा ध्यान धरें।
सब जग के नर नारी, पूजा पाठ करें।।

सूर्य देव वंदना | Prayer To God Surya

जय कश्यप-नंदन, ॐ जय अदिति-नंदन।
त्रिभुवन-तिमिर-निकन्दन, भक्त-हृदय-चंदन।। जय।।

सप्त-अश्वरथ राजित, एक चक्र धारी।
दुःख हारी, सुख कारी मानस-मल हारी।। जय।।

सुर-मुनि-भूसर वन्दित विमल विभवसाली।
अघ-दल-दलन दिवाकर दिव्य किरण माली।। जय।।

सकल सुकर्म प्रसविता सविता शुभकारी।
विश्व विलोचन मोचन भव बंधन हारी।। जय।।

कमल समूह विकाशक, नाशक त्रय तापा।
सेवत सहज हरत मनसिज सन्तापा।। जय।।

नेत्र व्याधिहर सुखर भू पीड़ा हारी।
सृष्टि विलोचन स्वामी परहित व्रतधारी।। जय।।

सूर्यदेव करूणाकर अब करूणा कीजै।
हर अज्ञान मोह सब तत्व ज्ञान दीजै।। जय।।

सूर्य नमस्कार | Prayer To Surya

नमो भास्करम् विश्व पालं दयालम्।
नमो मार्तण्डम्, नमामी कृपालम्।।

नमो अर्क पूषा तपन चित्र भानु।
नमो हे दिनेशं तिमिर हर प्रकाशम्।।

नमो विघ्नहर्ता, नमो विश्व तारण।
नमो रक्त चंदन दिपै नाथ भालम्।।

नमो द्युतिमणि स्वामी प्रभाकर दिवाकर।
नमो रवि विरोचन विकर्तन विशालम्।।

नमो सूर्य सविता अहस का पतंगा।
नमो मित्र गृहपति अरूण दैत्य द्यालम्।।

नमो हंस हरि दृश्य भास्वान तापन।
नमो अर्हपति विभावसु त्रिकालम्।।

नमो सहस्त्रासु मिहिर उष्ण रस्मिन्।
नमो तरणि तप्ताश्व करिये निहालम्।

नमो नाभ विवस्वान बन्दौ त्विषापति।
नमो नाथ अस्तुति करति भक्त आपम्।।

रवि देव की आरती | Aarti  To God Ravi Dev

जय जय श्रीरविदेव, जय जय श्री रवि देव।।

रजनी पति मदहारी शतदल जीवनदाता।

षटपद मन मुदकारी हे दिमणि ताता।

जग के हे पालन कर्ता जय जय श्री रवि देव।

नम मंडल के वासी, ज्योति प्रकाशक देवा।

निज जनहित सुख रासी, हम करें तिहारी सेवा।

करते हैं आपकी सेवा, जय जय श्री रवि देव।

कनक बदन मन मोहित, रुचिर प्रभा प्यारी।

निज मंडल में मंडित, रुचिर, प्रभा प्यारी।

हे सुरवर श्री रवि देव, जय जय श्री रवि देव।

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Tuesday Fast – जानिए मंगलवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Mangalvar Vrat

Mangalvar Vrat

 

मंगलवार व्रत (Tuesday fast) का माहत्मय एवं विधि-विधान, व्रत कथा

यदि जातक की जन्म कुंडली में मंगल ग्रह अशुभ स्थिति में हो और मंगल ग्रह की अशुभ दशा चल रही हो उस समय मंगल ग्रह के व्रत करके मंगल ग्रह के अशुभ प्रभाव को शांत किया जा सकता है। मंगल देव (Mangal Dev) की शांति के लिए लगातार 21 मंगलवार तक रखना चाहिए। हनुमान (Hanuman) जी के भक्त मंगलवार (Mangalvar) का यह व्रत जीवन भर करते रहते हैं।

मंगलवार व्रत विधि | Mangalvar Vrat Vidhi

यह व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) मंगलवार (Mangalvar) से प्रारम्भ करके 21 या 45 व्रत करने चाहिए। हो सके तो यह व्रत आजीवन रखें। बिना सिला हुआ लाल वस्त्र धारण करके बीज मंत्र ‘ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः’ की 1, 5, या 7 माला जप करें। इस व्रत में नमक का सेवन वर्जित है। उस दिन गुड़ से बने हलवे का या लड्डूओं का दान करें और स्वयं भी खाएं। गुड़ से बना कुछ हलवा आदि बैल को भी खिलाएं।

मंगलवार (Tuesday) के व्रत के दिन अपने मस्तक में लालचन्दन का तिलक करें। मंगल देव (Mangal Dev) की प्रतिमा अथवा मंगल ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पात्र रजत पात्र ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति मंगल देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।

मंगल शान्ति का सरल उपचारः- लालरंग की वस्तुओं का उपयोग, रात को लाल वस्त्र पहनें, तांबे के बर्तनों का प्रयोग, तांबे की अंगूठी पहनना।

मंगलवार व्रत उद्यापन विधि | Mangalvar Vrat udyaapan Vidhi

मंगलवार (Mangalvar) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव मंगल ग्रह का दान जैसे मूंगा, सुवर्ण, ताम्र, मसूर, गुड़, घी, रक्तवस्त्र, केसर, रक्तकनेर, कस्तूरी, रक्तबैल, रक्तचन्दनआदि करना चाहिए मंगल ग्रह से संबंधित दान के लिए घटी 2 शेषदिन का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा।

मंगल ग्रह के मंत्र ‘ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः’ का कम से कम 10000 की संख्या में जाप तथा मंगल ग्रह की लकड़ी खदिर से मंगल ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए।

हवन पूर्णाहुति करके लाल वस्त्र, तांबा, मसूर, गुड़, गेहूं तथा नारियल का दान करें। ब्राह्मणों तथा बच्चों को मीठा भोजन कराएं। मंगलवार (Mangalvar) का व्रत ऋणहर्ता तथा सन्तति-सुख प्रद है।

देवता भाव के भूखे होते हैं अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

मंगलवार व्रत कथा | Mangalvar Vrat Vidhi

एक गांव में एक बुढ़िया रहती थी। वह मंगल देवता (Mangal Devta) को अपना इष्ट देवता मानकर सदैव मंगलवार (Mangalvar) को व्रत रखती और मंगल देव (Mangal Dev) का पूजन किया करती थी। उसका एक पुत्र था जो मंगलवार (Mangalvar) को उत्पन्न हुआ था। इस कारण उसको मंगलिया के नाम से पुकारा करती थी। मंगलवार (Mangalvar) के दिन वह न तो घर को लीपती और न ही पृथ्वी ही खोदती थी। एक दिवस मंगल देवता उसकी श्रद्धा को देखने के लिए उसके घर में साधु का रूप बनाकर आए और द्वार पर आवाज दी। बुढ़िया ने कहा-महाराज क्या आज्ञा है। साधु कहने लगा, बहुत भूख लगी है भोजन बनाना हैं। इसके लिए तू थोड़ी सी पृथ्वी लीप दे तो तेरा पुण्य होगा। यह सुनकर बुढ़िया ने कहा-महाराज, आज मंगलवार (Mangalvar) की व्रती हूँ इसलिए मैं चौका नहीं लगा सकती। कहो तो जल का छिड़काव कर दूं। उस जगह भोजन बना लेना, या फिर मैं आपके लिए भोजन बना देती हूं।

साधु कहने लगा-मैं गोबर से लीपे चौके पर ही खाना बनाता हूं। बुढ़िया ने कहा-पृथ्वी लीपने के सिवाय और कोई सेवा हो तो मैं सब-कुछ करने के लिए तैयार हूं परंतु गोबर से लीपुंगी नहीं। तब साधु ने कहा कि सोच-समझकर उत्तर दो, जो कुछ भी मैं कहूंगा, वह तुमको करना होगा। बुढ़िया कहने लगी-महाराज ! पृथ्वी लीपने के अलावा जो भी आज्ञा करेंगे उसका पालन अवश्य करूंगी। बुढ़िया ने ऐसा तीन बार वचन दे दिया। तब साधु कहने लगा-तू अपने लड़के को बुलाकर औंधा लिटा दे मैं उसकी पीठ पर भोजन बनाऊंगा। साधु की बात सुनकर बुढ़िया चुप हो गई। तब साधु ने कहा- बुलाले लड़के को, अब सोच-विचार क्या करती है? बुढ़िया मंगलिया, मंगलिया कहकर पुकारने लगी। थोड़ी देर बाद लड़का आ गया। बुढ़िया ने कहा जा-बेटे तुझको बाबाजी बुलाते हैं। लड़के ने बाबाजी से जाकर पूछा कि क्या आज्ञा है महाराज? बाबा जी ने कहा-जाओ और अपनी माताजी को बुला लाओ। जब माता आ गई तो साधु ने कहा-तू ही इसको लिटा दे। बुढ़िया ने मंगल देवता (Mangal Dev) का स्मरण करते हुए अपने लड़के को औंधा लिटा दिया और उसकी पीठ पर अंगीठी रख दी।

बुढ़िया कहने लगी-हे महाराज ! अब जो कुछ आपको करना है कीजिए। मैं जाकर अपना काम करती हूं। साधु ने लड़के की पीठ पर रखी हुई अंगीठी में आग जलाई और उस पर भोजन बनाया। जब भोजन बन चुका तो साधु ने बुढ़िया से कहा-अब अपने लड़के को बुलाओ वह भी आकर ले जाए। बुढ़िया कहने लगी-यह कैसे आश्चर्य की बात है कि उसकी पीठ पर आपने आग जलाई और उसे ही प्रसाद के लिए बुलाते हैं। क्या यह संभव है। क्या अब भी आप उसको जीवित समझते हैं। आप कृपा करके उसका स्मरण भी मुझको न कराइये और भोग लगाकर जहां जाना हो जाइये। साधु के अत्यंत आग्रह करने पर बुढ़िया ने ज्यों ही मंगलिया कहकर आवाज लगाई त्यों ही लड़का एक ओर से दौड़ता हुआ आ गया। साधु ने लड़के को प्रसाद दिया और कहा कि माई, तेरा व्रत सफल हो गया। तेरे हृदय में दया है और अपने इष्ट-देव में अटल श्रद्धा हैं। इसके कारण तुमको कोई भी कष्ट नहीं पहुंचेगा।

मंगलवार व्रत की दूसरी कथा | Mangalvar Vrat Katha

एक ब्राह्मण दम्पत्ति के कोई संतान न थी। इसके कारण पति-पत्नी दुःखी रहते थे। वह ब्राह्मण हनुमान (Hanuman) जी की पूजा के हेतु वन में चला गया। वह पूजा के साथ महावीर जी के 1 पुत्र की कामना किया करता था। घर पर उसकी पत्नी मंगलवार (Mangalvar) का व्रत पुत्र की प्राप्ति के लिए किया करती थी। मंगल के दिन व्रत के अंत में भोजन बनाकर हनुमान जी (Hanuman) का भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण करती थी। एक बार कुटुंब में विवाह के कारण ब्रह्मणी भोजन न बना सकी, अतः हनुमान जी का भोग भी नहीं लगा। वह अपने मन में ऐसा प्रण करके सो गई कि अब अगले मंगलवार (Mangalvar) को हनुमान जी (Hanuman) का भोग लगाकर ही अन्न-पानी ग्रहण करूंगी। वह भूखी-प्यासी 6 दिन रही। मंगलवार के दिन तो उसे मूर्छा ही आ गई। तब हनुमान जी (Hanuman) उसकी लगन और निष्ठा को देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे दर्शन दे सचेत किया और कहा-मैं तेरे से अति प्रसन्न हूं, मैं तुझको एक सुंदर बालक देता हूं जो तेरी बहुत सेवा करेगा।

हनुमान जी (Hanuman) द्वारा दिया गया सुंदर बालक पाकर ब्राह्मणी अति प्रसन्न हुई। ब्राह्मणी ने बालक का नाम मंगल रखा। कुछ समय पश्चात ब्राह्मण वन से लौटकर आया। प्रसन्नचित्त सुंदर बालक को घर में क्रीड़ा करते देखकर वह ब्राह्मण पत्नी से बोला-यह बालक कौन है पत्नी ने कहा-मंगलवार (Mangalvar) के व्रत से प्रसन्न हो हनुमान जी (Hanuman) ने दर्शन देकर मुझे यह बालक दिया है। पत्नी की बात छल से भरी जान उसने सोचा, यह कुलटा, व्यभिचारिणी अपनी कलुषता छुपाने के लिए बात बना रही है। एक दिन उसका पति कुएं पर पानी भरने चला तो पत्नी ने कहा कि मंगल को भी साथ ले जाओ। वह मंगल को साथ ले गया। बालक को कुएं में डाल कर वापस पानी भरकर घर आया तो पत्नी ने पूछा कि मंगल कहां है? तभी मंगल मुस्कुराता हुआ घर आ गया। उसको देख ब्राहमण आश्चर्यचकित रह गया। रात्रि में उस ब्राह्मण से हनुमान जी (Hanuman) ने स्वप्न में कहा-यह बालक मैंने दिया है। पति यह जानकर हर्षित हुआ। वे पत्नी-पति मंगलवार (Mangalvar) का व्रत करते हुए और अपने जीवन को आनन्दपूर्वक व्यतीत करते हुए अंत में मोक्ष को प्रप्त हुए।

मंगल वार की पावन आरती | Mangalvar Aarti

मंगल मूरति जय जय हनुमंता, मंगल-मंगल देव अनंता।
हाथ वज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेऊ साजे।

शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जगवंदन।
लाल लंगोट लाल दोऊ नयना, पर्वत सम फारत है सेना।

काल अकाल जुद्ध किलकारी, देश उजारत क्रुद्ध अपारी।
रामदूत अतुलित बलधामा, अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।

महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।
भूमि पुत्र कंचन बरसावे, राजपाट पुर देश दिवावे।

शत्रुन काट-काट महिं डारे, बंधन व्याधि विपत्ति निवारे।
आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हांक ते कांपै।

सब सुख लहैं तुम्हारी शरणा, तुम रक्षक काहू को डरना।
तुम्हरे भजन सकल संसारा, दया करो सुख दृष्टि अपारा।

रामदण्ड कालहु को दण्डा, तुम्हरे परसि होत जब खण्डा।
पवन पुत्र धरती के पूता, दोऊ मिल काज करो अवधूता।

हर प्राणी शरणागत आए, चरण कमल में शीश नवाए।
रोग शोक बहु विपत्ति घराने, दुख दरिद्र बंधन प्रकटाने।

तुम तज और न मेटनहारा, दोऊ तुम हो महावीर अपारा।
दारिद्र दहन ऋण त्रासा, करो रोग दुख स्वप्न विनाशा।

शत्रुन करो चरन के चेरे, तुम स्वामी हम सेवक तेरे।
विपति हरन मंगल देवा, अंगीकार करो यह सेवा।

मुद्रित भक्त विनती यह मोरी, देऊ महाधन लाख करोरी।

श्रीमंगलजी की आरती हनुमत सहितासु गाई।
होई मनोरथ सिद्ध जब अंत विष्णुपुर जाई।

मंगल देव की सुगम आरती | Mangal Dev Aarti

ॐ जय मंगल देवा, स्वामी जय मंगल देवा।
भक्त आरती गावें, करें विविध भांती सेवा।।

हठी मेष है वाहन आपका, पृथ्वी है माता।
सुख समृद्धि के नायक, अतुल शांति दाता।।

जब होता है कोप आपका, सब कुछ छीन जाता।
जिस पर कृपा करो तुम स्वामी, सब कुछ है पाता।

मंगल देव की आरती, जो सच्चे मन से गावे।
रोग-शोक मिट जावे, अति सुख-वैभव पावे।।

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Saturday Fast – जानिए शनिवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Shani dev

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शनिवार व्रत (Saturday Fast) का महात्म्य एवं विधि-विधान, व्रत कथा

शनिदेव (Saturday) में न्याय के देवता हैं। शनिवार (Shanivar) का दिन शनिदेव (Shani Dev) को प्रसन्न करने के लिए विशेष महत्व का दिन है। शनिदेव (Shani Dev) की टीन की चादर की बनी मूर्ति की पूजा की जाती है। घर अथवा मंदिर की अपेक्षा पीपल तथा शमी वृक्ष के नीचे मूर्ति रखकर पूजा करना अधिक लाभदायक रहता है।

कोणस्थ, पिंगल, वभ्रु, कृष्ण, रौद्रान्तक, यम, सौर, शनिश्चर, मन्द और पिप्पला शनिदेव के दस नाम हैं। पूजा के बाद इनके साथ नमः लगाकर दस बार शनिदेव को नमन करने और उनके मंत्र ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’ का यथाशक्ति जाप करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं।

शनिवार व्रत की विधि | Shanivar Vrat Vidhi

इस व्रत को शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) शनिवार (Shanivar) से आरंभ करें। व्रत 51 या 31 करने चाहिए। व्रत के दिन काला वस्त्र धारण करके बीज मंत्र ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’ की 19 या 3 माला का जाप करें। फिर एक बर्तन में शुद्ध जल, काले तिल, काले फूल या लवंग (लौंग), गंगाजल तथा शक्कर, थोड़ा दूध डालकर पश्चिम की ओर मुंह करके पीपल वृक्ष की जड़ में डाल दें। भोजन में उड़द के आटे का बना पदार्थ, पंजीरी, कुछ तेल से पका हुआ पदार्थ कुत्ते व गरीब को दें तथा तेलपक्व वस्तु के साथ केला व अन्य फल स्वयं प्रयोग में लाना चाहिए। यही पदार्थ दान भी करें।

शनिवार (Shanivar) के व्रत के दिन अपने मस्तक पर काला तिलक करें। शनि देव (Shani Dev) की प्रतिमा अथवा शनि ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पत्र, रजत पत्र, ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति शनि देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।

शनिवार व्रत उद्यापन विधि | Shanivar Vrat Udyaapan Vidhi

शनिवार (Shanivar) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव शनि ग्रह का दान जैसे नीलम, सुवर्ण, लोहा, उड़द, कुल्थी, तेल, कृष्णवस्त्र, कस्तूरी, कृष्णपुष्प, कृष्णांग भैंस, उपानह आदि करना चाहिए। शनि ग्रह से संबंधित दान के लिए मध्याह्न का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। यह दान ब्राह्मण के स्थान पर भड्डरी को मध्यान्ह के बाहर बजे दिया जाता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। शनि ग्रह के मंत्र ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’ का कम से कम 23000 की संख्या में जाप तथा शनि ग्रह की लकड़ी शमी से शनि ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए।

हवन पूर्णाहुति के बाद तेल में पकी हुई वस्तुओं को देने के बाद काला वस्त्र, केवल उड़द तथा देसी (चमड़े का) जूता तेल लगाकर दान करें। इस व्रत से सब प्रकार की सांसारिक परेशानियां दूर हो जाती हैं। झगड़े में विजय होती है। लोह-मशीनरी, कारखाने वालों के व्यापार में उन्नति होती है।

देवता भाव के भूखे होते हैं। अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

शनि शांति का सरल उपचारः- घर के पर्दे, जूते, जुराब, घड़ी का पट्टा, रुमाल आदि काले रंग के धारण करें।

शनिवार व्रत कथा | Shanivar Vrat Vidhi

एक बार सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नौ ग्रहों में आपस में विवाद हो गया कि हम सब में सबसे बड़ा कौन है? सब अपने आप को बड़ा कहते थे। जब आपस में कोई निश्चय में न हो सका तो सब आपस में झगड़ते हुए इंद्र के पास गए और कहने लगे-आप सब देवताओं के राजा हो, इसलिए आप हमारा न्याय करके बतलाओ कि हम नव ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? राजा इंद्र इनका यह प्रश्न सुनकर घबरा गये और कहने लगे कि मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है, जो किसी को बड़ा या छोटा बतलाऊं। मैं अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता। हां, एक उपाय है, इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य सबसे अच्छा और सटीक न्याय करने वाला है। इसलिए तुम सब उन्ही के पास जाओ, वह सही निर्णय कर देंगे। इन्द्र के ये वचन सुनकर सब ग्रह-देवता भूलोक में राजा विक्रमादित्य की सभा में आकर उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा।

राजा विक्रमादित्य उनकी बात सुनकर बड़ी चिंता में पड़ गये कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसको छोटा बतलाऊं। जिसको छोटा बतलाऊं वही क्रोध करेगा। उनका झगड़ा निपटाने के लिए राजा ने एक उपाय सोचा। उन्होंने सोने, चांदी, कांसा, पीतल, शीश, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा नौ धातुओं के आसन बनवाये। सब आसनों के क्रम से जैसे सोना सबसे आगे और लोहा सबसे पीछे बिछाये गए। इसके पश्चात् राजा ने सब ग्रहों से कहा कि आप सब अपने-अपने आसनों पर बैठिए, जिसका आसन सबसे आगे, वह सबसे बड़ा और जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानिए। क्योंकि लोहा सबसे पीछे था। वह शनिदेव (Shani Dev) का आसन था। इसलिए शनिदेव (Shani Dev) ने समझ लिया। कि राजा ने मुझ को सबसे छोटा बताया है। इस पर शनिदेव (Shani Dev) को बड़ा क्रोध आया और कहा-हे राजा! तू मेरे परक्रम को नहीं जानता। सूर्य एक राशि पर 1 महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति 13 महीने, बुध और शुक्र एक-एक महीने, राहु और केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल 28 महीने एक राशि पर रहते हैं। परंतु मैं एक राशि ढाई अथवा साढे़ 7 साल तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुःख दिया है। राजन सुनो! रामजी को साढ़ेसाती आई और वनवास हो गया। रावण पर आई तो राम और लक्ष्मण ने लंका पर चढ़ाई कर दी। रावण के कुल का नाश कर दिया। हे राजा! तुम अब सावधान रहना। राजा ने कहा, जो कुछ भाग्य में है देखा जाएगा। उसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ चले गए परंतु शनिदेव तो वहां से बड़े ही क्रोध से सिधारे।

कुछ काल व्यतीत होने पर राजा को साढ़े-साती की दिशा आई। शनिदेव घोड़ों के सौदागर बनकर अनेक सुंदर घोड़ों के सहित राजा की राजधानी में आये। जब राजा ने सौदागर के आने की खबर सुनी तो अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल ऐसी अच्छी नस्ल के घोड़े देखकर और उनका मूल्य सुनकर चकित रह गया तुरन्त ही राजा को खबर दी। राजा उन घोड़ों को देखकर एक अच्छा-सा घोड़ा चुनकर उस पर सवारी के लिए चढ़ा। राजा के घोड़े की पीठ पर चढ़ते ही थोड़ा जोर से भागा। घोड़ा बहुत दूर एक बड़े जंगल में जाकर और राजा को छोड़कर अदृश्य हो गया। इसके बाद राजा अकेला जंगल में भटकता फिरता रहा। बहुत देर के पश्चात राजा ने भूख और प्यास से दुःखी होकर भटकते-भटकते एक ग्वाले को देखा। ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया। राजा की उंगली में एक अंगूठी थी। वह उसने निकालकर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और शहर की ओर चल दिया।

राजा शहर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया। राजा ने अपने आप को उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम वीका बतलाया। सेठ ने उसको एक कुलीन मनुष्य समझ कर जल आदि पिलाया। भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बिक्री बहुत अधिक हुई, तब सेठ उसको भाग्यवान पुरुष मानकर भोजन कराने के लिए अपने घर ले गया। भोजन करते समय राजा ने एक आश्चर्य की बात देखी कि एक खूंटी पर हार लटकर रहा है और वह खूंटी उस को निगल रही हैं। भोजन के पश्चात कमरे में आने पर जब सेठ को कमरे में हार न मिला तो सब ने ही निश्चय किया कि सिवाय वीका के और कोई इस कमरे में नहीं आया, अतः अवश्य ही उसी से हार चोरी किया है। परंतु वीका ने हार लेने से मनाहि की। इस पर 5-7 आदमी इकट्ठे हो कर उसको फौजदार के पास ले गए। फौजदार ने उसको राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा-यह आदमी तो भला प्रतीत होता है, चोर नहीं मालूम होता, परंतु सेठ का कहना है कि इसके सिवाय और कोई घर में आया ही नहीं, अवश्य ही इसी ने चोरी की हैं। तब राजा ने आज्ञा दी कि इसको हाथ-पैर काट कर चौरंगिया किया जाए। राजा की आज्ञा का तुरन्त पालन किया गया और वीका के हाथ-पैर काट दिए गए।

अब राजा विक्रमादित्य अपाहिज होकर दर-दर की ठोकरें खाने लगा। कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया और कोल्हू पर बिठा दिया। वीका उस पर बैठा हुआ। अपनी आवाज से बैल हांकता रहता। कुछ वर्षों में शनि की दशा समाप्त हो गई और एक रात को वर्षा ऋतु में 1 दिन वीका मल्हार राग गाने लगा। उसका गाना सुनकर उस शहर के राजा की कन्या उस राग पर मोहित हो गई और दासी को खबर लाने के लिए भेजा कि शहर में कौन गा रहा है। दासी ने देखा कि तेली के घर में चौरंगिया मल्हार राग गा रहा है। दासी ने महल में आकर राजकुमारी को सब वृत्तांत सुनाया। उसी क्षण राजकुमारी ने अपने मन में यह प्रण कर लिया, चाहे कुछ भी हो मुझे चौरंगिया के साथ विवाह करना है। प्रातःकाल होते ही जब दासी ने राजकुमारी को जगाया तो राजकुमारी अनशन व्रत लेकर पड़ी रही। तब दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के न उठने का वृत्तांत कहा। रानी ने तुरन्त ही वहां आकर राजकुमारी को जगाया और उसके दुःख का कारण पूछा। तब राजकुमारी ने कहा कि माता जी, मैंने यह प्रण कर लिया है कि तेली के घर में जो चौरंगिया है।उसी के साथ विवाह करूंगी। माता ने कहा पगली यह क्या बात कह रही है। तुझको किसी देश के बड़े राजा के साथ परणाया जाएगा। कन्या कहने लगी कि माता जी, मैं अपने प्रण कभी नहीं तोडूंगी। माता ने चिंतित होकर यह बात राजा को बताई। जब महाराज ने भी आकर यही समझाया कि मैं अभी देश-देशांतर में अपने दूत भेजकर सुयोग्य, रूपवान एवं बड़े-से-बड़े गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा। ऐसी बात तुमको कभी नहीं विचारनी चाहिए। कन्या ने कहा, पिता जी! मैं अपने प्राण त्याग दूंगी परंतु दूसरे से विवाह नहीं करूंगी। इतना सुनकर राजा ने क्रोध में भरकर कहा-यदि तेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर।

राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो जो चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूं। तेली ने कहा कि यह कैसे हो सकता है, कहां आप हमारे राजा और कहां मैं नीच तेली। राजा ने कहा-भाग्य के लिखे को कोई टाल नहीं सकता, अपने घर जाकर विवाह चौरंगिया विक्रमादित्य के साथ कर दिया। रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोये हुए थे। तब आधी रात के समय शनि देव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया। कि राजा से कहो मुझको छोटा बतला कर तुमने कितने दुःख उठाये? राजा ने क्षमा मांगी। शनिदेव ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ पैर दिये। तब राजा ने कहा-महाराज, मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें। जैसा दुःख आपने मुझे दिया है, ऐसा और किसी को न देना। शनिदेव ने कहा-तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है। जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा। उसको मेरी दशा में कभी किसी प्रकार का दुःख नहीं होगा और जो नित्य यही मेरा ध्यान करेगा या चीटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। इतना कहकर शनिदेव अपने धाम को चले गये। जब राजकुमारी की आंख खुली और उसने राजा की हाथ-पांव देखे तो आश्चर्यचकित रह गई। राजा ने अपनी पत्नी से अपना समस्त हाल कहा कि मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूं। यह बात सुनकर राजकुमारी अत्यंत प्रसन्न हुई। प्रातःकाल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृत्तांत कह सुनाया। तब सब ने प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर ने आपकी मनोकामना पूर्ण कर दी।

जब उस सेठ से यह बात सुनी तो वह सेठ विक्रमादित्य के पास आया और उसके पैरों से गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर घर पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया था, अतः आप मुझको जो चाहे दंड दें। राजा ने कहा-मुझ पर शनि देव का कोप था। इसी कारण यह सब दुःख मुझ को प्राप्त हुआ। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, तुम अपने घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेगें। राजा ने कहा-जैसी आपकी मर्जी हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुंदर भोजन बनवाये और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया। जिस समय राजा भोजन कर रहे थे, एक अत्यंत आश्चर्य की बात सबको दिखाई दी। जो खूंटी पहले हार निगल गई थी, वह अब हार उगल रही है। जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत-सी मोहरे राजा को भेंट की और कहा-मेरे श्रीकंवरी नामक एक कन्या है। उसका पाणिग्रहण आप करें। इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया और बहुत-सा दान-दहेज आदि दिया। इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां निवास करने के पश्चात विक्रमादित्य ने शहर के राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। फिर कुछ दिन बाद विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की कन्या श्रीकंवरी तथा दोनों जगह से दहेज में प्राप्त अनेक दासों, दासियों, रथों और पालकियों सहित विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले। जब शहर के निकट पहुंचे और पुरवासियों ने राजा के आने का संवाद सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा अगवानी के लिए आई। बड़ी प्रसन्नता से राजा अपने महले में पधारे। सारे शहर में बड़ा भारी महोत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई। दूसरे दिन राजा ने शहर में यह मुनादी करा दी कि शनिश्चर देवता सब ग्रहों के सर्वोपरि है। मैंने इनको छोटा बतलाया, इसी से मुझको भीषण दुःख प्राप्त हुआ। इस कारण सारे शहर में सदा शनिश्चर की पूजा और कथा होने लगी और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही। जो कोई शनिश्चरा की इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है, शनि देव की कृपा से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं। शनिदेव की कथा को व्रत के दिन अवश्य पढ़ना चाहिए। ओम शांति! ओम शांति!! ओम शांति!!!

शनिदेव की आरती | Shani Dev Aarti

जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूर्य पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय जय श्री शनि देव….

श्याम अंग वक्र-दृ‍ष्टि चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय जय श्री शनि देव….

क्रीट मुकुट शीश राजित दिपत है लिलारी। 
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥जय जय श्री शनि देव….

मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥जय जय श्री शनि देव….

देव दनुज ऋषि मुनि सुमिरत नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी॥

जय जय श्री शनि देव भक्तन हितकारी।।

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Friday Fast – जानिए शुक्रवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Shukra Dev

Shukra Dev

शुक्रवार व्रत (Friday Fast) का महात्म्य एवं विधान, व्रत कथा

शुक्रवार (Friday) का यह व्रत संतोषी माता की निमित्त किए जाने वाले व्रत से पृथक है ।

शुक्रवार (Friday) को शुक्र ग्रह की शांति हेतु यह व्रत किया जाता है। शुक्र ग्रह सौंदर्य, काम शक्ति, तेजस्विता, सौभाग्य और समृद्धि को नियन्त्रि करते हैं, अतः इसकी अनुकूलता व्यक्ति को कुशल वक्ता, विद्धान, राजनेता और सफल उद्योगपति बनाती है। शुक्रवार (Shukravar Vrat) का यह व्रत यौन रोगों के निदान, बुद्धिवर्द्धन और सत्ता तथा राज सुख की प्राप्ति के लिए अमोघ अस्त्र है ।

शुक्रवार व्रत विधि | Shukravar Vrat Vidhi

इस व्रत को शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) शुक्रवार में जब शुक्र उदित हो अर्थात् शुक्र डूबा हुआ न हो से प्रारंभ कर, 31 या 21 व्रत करें। श्वेत वस्त्र धारण करके बीज मंत्र ‘ॐ द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः’ की 3 या 21 माला जपें। भोजन में चावल, खाण्ड या दूध से बने पदार्थ ही सेवन करें। यही पदार्थ यथाशक्ति संभव हो तो एक ही एकाक्षी (एक आंख वाले) भिक्षुक या ब्राह्मण को श्वेत गाय दें।

शुक्रवार (Shukravar Vrat) के व्रत के दिन अपने मस्तक में श्वेतचन्दन का तिलक करें। शुक्र देव की प्रतिमा अथवा शुक्र ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पत्र, रजतपत्र, ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति शुक्र देव (Shukra Dev) के मंत्र का जाप करना चाहिए।

शुक्र ग्रह शांति का सरल उपचारः- सफेद वस्त्र, सफेद रुमाल, सफेद फूल धारण करना आदि, गाय को हरा घास या पेड़ा देना, शिवपूजन।

शुक्रवार व्रत उद्यापन विधि | Shukravar Vrat Udyaapan Vidhi

शुक्रवार (Friday Fast) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव बृहस्पति ग्रह का दान जैसे हीरा, सुवर्ण, रजत, चावल, मिसरी, दूध, श्वेतवस्त्र, सुगंध, श्वेतपुष्प, दधि, श्वेतघोड़ा, श्वेतचन्दन आदि करना चाहिए। शुक्र ग्रह से संबंधित दान के लिए सूर्योदय का समय सर्वश्रेष्ठ होता है क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। शुक्र ग्रह के मंत्र ‘‘ॐ द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः” का कम से कम 16000 की संख्या में जाप तथा शुक्र ग्रह की लकड़ी उदुम्बर से शुक्र ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए।

हवन-पूर्णाहुति के बाद खीर-खाण्ड से बने पदार्थ ब्राह्मणों को खिलाएं। चांदी, श्वेत वस्त्र, खाण्ड, चावल का दान करें। इस व्रत से स्त्री सुख एवं ऐश्वर्या की वृद्धि होती है।

देवता भाव के भूखे होते हैं अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

शुक्रवार व्रत कथा | Shukravar Vrat Katha

एक समय कायस्थ, ब्राह्मण और वैश्य इन तीनों लड़को में परस्पर गहरी मित्रता थी। उन तीनों का विवाह हो गया। ब्राह्मण और कायस्थ के लड़कों को गौना भी हो गया था, परंतु सेठ के लड़के का नहीं हुआ था। एक दिन कायस्थ के लड़के ने कहा-हे मित्र! तुम विदा कराके अपनी स्त्री को घर क्यों नहीं लाते? स्त्री के बिना घर कैसा बुरा लगता है। यह बात सेठ के लड़के को जंच गई। वह कहने लगा-मैं अभी जाकर उसे विदा करा ले आता हूं। ब्राह्मण के लड़के ने कहा-अभी मत जाओ क्योंकि शुक्र का अस्त्र हो रहा है, जब उदय हो जाए तब जाकर ले आना। परंतु सेठ के लड़के को ऐसी जिद्द हो गई कि किसी प्रकार से नहीं माना। जब उसके घर वालों ने सुना तो उन्होंने भी बहुत समझाया परंतु वह किसी प्रकार से नहीं माना और अपनी ससुराल चला गया।

उसको आया हुआ देखकर ससुराल वाले भी चकराये। पूछा-आपका कैसा आना हुआ वह कहने लगा-मैं विदा के लिए आया हूं। ससुराल वालों ने भी बहुत समझाया कि इन दिनों शुक्र का अस्त है, उदय होने पर ले जाना। परंतु उसने एक न सुनी और स्त्री को ले जाने का आग्रह करता रहा। जब वह किसी प्रकार माना तो उन्होंने लाचार होने दोनों को विदा कर दिया। थोड़ी देर जाने के बाद मार्ग में उसके रथ का पहिया टूट कर गिरा पड़ा। रथ के बैल का पैर टूट गया। उसकी स्त्री भी घायल हो गई। जैसे-तैसे आगे चला तो रास्ते में डाकू मिल गए। उसके पास जो धन, वस्त्र तथा आभूषण थे वे सब डाकुओं ने छीन लिए। इस प्रकार अनेक कष्टों का सामना करते हुए जब वे अपने घर पहुंचे तो आते ही सेठ के लड़के को सर्प ने काट लिया और वह मूर्छा खाकर गिर पड़ा। तब उसकी स्त्री अत्यंत विलाप कर रोने लगी। उसे वैद्यों को दिखलाया तो वैद्य कहने लगे-यह 3 दिन में मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा।

जब उसके मित्र ब्राह्मण के लड़के को पता लगा तो उसने कहा-सनातन धर्म की प्रथा है कि जिस समय शुक्र का अस्त हो तो कोई अपनी स्त्री को नहीं लाता। परंतु यह शुक्र के अस्त में स्थिति को विदा करा कर ले आया है इस कारण सारे विघ्न उपस्थित हुए हैं। यदि यह दोनों ससुराल में वापिस चले जाये, शुक्र के उदय होने पर पुनः आवें तो निश्चय ही विघ्न टल सकता है। इतना सुनते ही सेठ ने अपने पुत्र और उसकी स्त्री को शीघ्र ही उसकी ससुराल में वापिस पहुंचा दिया। पहुंचते ही सेठ के लड़के की मूर्छा दूर हो गई और फिर साधारण उपचार से वह सर्प-विष से मुक्त हो गया। अपने दामाद की स्वस्थ देखकर ससुराल वाले अत्यंत प्रसन्न हुए और जब शुक्र का उदय हुआ तब बड़े हर्ष पूर्वक उन्होंने अपनी पुत्री सहित विदा किया। इसके पश्चात वह दोनों पति-पत्नी घर आकर आनंद से रहने लगे। इस व्रत को करने से अनेक विघ्न दूर होते हैं।

शुक्रदेव से विनय | Prayer To God Shukra Dev

हे शुक्रदेव बलशाली, मैं दुःखिया शरण तिहारी।
कर जोर करूं मैं विनती, प्रभु राखो लाज हमारी।।

दिनों के फेर ने प्रभु है बहुत सताया।
काम क्रोध मद लोभ ने है भरभाया।

बुद्धि रही चकराय, सुध-बुध है बिसारी।
हे शुक्र देव बलशाली, मैं दुःखिया शरण तिहारी।

मुशिकल है इन भीषण दुःखों में जीना।
फटा जा रहा है गमों से यह सीना।

टूट चुका हूं मेरे प्रभु, यह जीवन बाजी हारी।
हे शुक्रदेव बलशाली, मैं दुःखिया शरण तिहारी।

स्वामी शुक्र देव अपना दसम दिखा दो।
कृपा करो प्रभु मेरे कष्ट मिटा दो।

आया हूं मैं शरण आपकी, चरणों में बलहारी।
हे शुक्र देव बलशाली, मैं दुःखिया शरण तिहारी।

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Thursday Fast – जानिए बृहस्पति व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Brihaspati Dev

Brihaspati Dev

बृहस्पति व्रत (Thursday Fast) का महात्म्य एवं विधि-विधान, व्रत कथा

देव गुरु बृहस्पति देव (Brihaspati Dev) जी विद्या, बुद्धि, धन-वैभव, मान सम्मान, यश-पद और पुत्र-पोत्र प्रदाता, अत्यंत दयालु देवता है। नव ग्रहों में सबसे बड़े और शक्तिशाली तथा देवताओं के गुरु होने के नाते बृहस्पति देव (Brihaspati Dev) के निमित्त व्रत और पूजा करने पर अन्य सभी ग्रह और देवता भी हम पर कृपालु बने रहते हैं। इनका वाहन हाथी है और हाथों में शंख एवं पुस्तक के साथ-साथ त्रिशूल भी धारण करते हैं। देव गुरु बृहस्पति जी के शरीर का रंग सोने जैसा पीला है और पीले वस्त्र एवं भरपूर स्वर्ण आभूषण धारण करते हैं। इनके पूजन में पीले फूलों, हल्दी में रंगे हुए चावल, रोली के स्थान पर पीसी हुई हल्दी और प्रसाद के रूप में पानी में भीगी हुई चने की दाल अथवा बेसन के लड्डूओं का प्रयोग किया जाता है। व्रत करने वाले साधक को भी पीले वस्त्र तथा पीली वस्तुओं का प्रयोग तथा पीला भोजन ही करना चाहिए।

बृहस्पति व्रत विधि | Brihaspati Vrat Vidhi

यह व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) गुरुवार (Guruvar)  से आरंभ करें। तीन वर्षपर्यन्त या 16 व्रत करें। उस दिन पीतवस्त्र धारण करके बीज मंत्र की 11 या 3 माला जप करें। पीतपुष्पों से पूजन अर्घ्य दानादि के बाद भोजन में चने के बेसन की घी-खाण्ड से बनी मिठाई, लड्डू या हल्दी से पीले या केसरी चावल आदि ही खाएं और इन्हीं का दान करें।

बृहस्पतिवार (Brihaspativar | Guruvar Vrat) के व्रत के दिन अपने मस्तक में हल्दी का तिलक करें। हल्दी में रंगे चावलों अथवा चने की दाल की वेदी बनाकर और उस पर रेशमी पीला वस्त्र बिछाकर बृहस्पति देव की प्रतिमा अथवा बृहस्पति ग्रह के यंत्र को स्वर्णपत्र, रजतपत्र, ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति बुध देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।

बृहस्पतिवार व्रत उद्यापन विधि | Brihaspativar  Vrat Udyaapan Vidhi

बृहस्पतिवार (Brihaspativar | Guruvar Vrat) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव बृहस्पति ग्रह का दान जैसे पुखराज, सुवर्ण, कांसी, दालचने, खांड, घी, पीतवस्त्र, हल्दी, पीतपुष्प, पुस्तक, घोड़ा, पीतफल आदि करना चाहिए बृहस्पति ग्रह से संबंधित दान के लिए सन्धया का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा।

बृहस्पति ग्रह के मंत्र ‘ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः’ का कम से कम 19000 की संख्या में जाप तथा बृहस्पति ग्रह की लकड़ी अश्वत्थ से बृहस्पति ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए

देवता भाव के भूखे होते हैं अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

हवन पूर्णाहुति के बाद ब्राह्मण व बटुको को लड्डू भोजन कराएं। स्वर्ण, पीत वस्त्र, चने की दाल आदि का दान करें। यह व्रत विद्यार्थियों के लिए बुद्धि तथा विद्याप्रद है। धन की स्थिरता तथा यश वृद्धि करता है। अविवाहितों के लिए स्त्री प्राप्तिप्रद सिद्ध होता है।

बृहस्पति ग्रह शांति का सरल उपचारः- पीले वस्त्र, रुमाल आदि, पीले फूल धारण करना, सोने की अंगूठी पहनना।

बृहस्पति व्रत कथा | Brihaspati Vrat Katha

अत्यंत प्राचीन काल की बात है। एक गांव में एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी रहते थे। वे अत्यंत निर्धन तो थे ही, उनके कोई संतान भी नहीं थी। वह ब्राह्मणी बहुत मलीनता से रहती थी। वह न तो स्नान करती और न ही किसी देवता का पूजन। प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम भोजन करती, बाद में कोई अन्य कार्य करती थी। इससे ब्राह्मण देवता बड़े दुखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किंतु उसका कोई परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री के कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ और वह कन्या अपने पिता के घर में बड़ी होने लगी। वह बालिका प्रतिदिन पूजा और प्रत्येक बृहस्पति (Brihaspati) को व्रत करने लगी। अपने पूजा-पाठ को समाप्त करके स्कूल जाती तो मुट्ठी में जौं भरकर ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। बाद में ये जौं स्वर्ण के हो जाते और वह लौटते समय उनको बीनकर घर ले आती। एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौंओं को फटक रही थी। उसके पिता ने देखा और कहा-बेटी! सोने की जौंओं को फटकने के लिए तो सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन गुरुवार था। उस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पति देव से प्रार्थना करके कहा-हे प्रभो! मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। बृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौं फैलाती हुई जाने लगी। जब लौटकर जौं बीन रही थी तो बृहस्पति (Brihaspati) की कृपा से उसे सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उससे जौं साफ करने लगी। परंतु उसकी मां का वही ढंग रहा।

एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में सोने के जौं साफ कर रही थी। उस समय शहर का राजपूत्र वहां होकर निकला। इस कन्या के रूप और रंग को देखकर वह मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास हो लेट गया। राजा को इस बात का पता लगा तो मंत्रियों के साथ उसके पास आये और बोले-हे बेटा! तुम्हें किस बात का कष्ट है। किसी ने अपमान किया हो अथवा कोई और कारण हो सो कहो। मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। राजकुमार अपने पिता की बातें सुनकर बोला-मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है। किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है। परंतु मैं उस लड़की के साथ विवाह करना चाहता हूं जो सोने के सूप में सोने के जौ साफ कर रही थी।

यह सुनकर राजा आश्चर्य में पड़ गया और बोला-हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ, मैं उसके साथ विवाह अवश्य करवा दूंगा। राजकुमार ने उस लड़की के घर का पता बतला दिया। तब राजा का प्रधानमंत्री उस लड़की के घर गया और ब्राह्मण की उस कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।

कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्मण देवता के घर में गरीबी आ गई। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गये। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा। तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत- सा धन देकर पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुख पूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल बताया। तब लड़की बोली-हे पिताजी! आप माताजी को यहां लिवा लाओ, मैं उन्हें विधि बता दूंगी। जिसे गरीबी दूर हो जाएगी। वह ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को लेकर पुत्री के घर पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी-हे मां! तुम प्रातःकाल उठकर प्रथम स्नानादि करके भगवान् का पूजन करो तो सब् दरिद्रता दूर हो जाएगी। लेकिन उसकी मां ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठते ही अपनी पुत्री के बच्चों का झूठन खा लिया। एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया। उसमें उस रात कोठरी से सभी सामान निकाला और अपनी मां को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसमें से निकाला तथा स्नानादि कराके पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई। फिर तो वह प्रत्येक बृहस्पति को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसकी मां भी बहुत धनवान तथा पुत्रवती हो गई और बृहस्पति देव जी के प्रभाव से वे दोनों इस लोक में सभी सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए।

बृहस्पतिवार व्रत की दूसरी कथा | Brihaspati Vrat Katha

किसी गांव में एक साहूकार रहता था, जिसके घर में अन्न, वस्त्र और धन किसी की कोई कमी नहीं थी। परंतु उसकी स्त्री बहुत ही कृपण थी। किसी भिक्षार्थी को कुछ नहीं देती थी, सारे दिन घर में कामकाज में लगी रहती। एक समय एक साधु-महात्मा बृहस्पतिवार (Brihaspativar) के दिन उसके द्वार पर आये और भिक्षा की याचना की। स्त्री उस समय घर का आंगन लीप रही थी, इस कारण साधु महाराज से कहने लगी कि महाराज इस समय तो मैं लीप रही हूं आपको कुछ नहीं दे सकती, फिर किसी दिन का अवकाश के समय आना। साधु महात्मा खाली हाथ चले गये। कुछ दिन के पश्चात वही साधु महाराज आये और उसी तरह भिक्षा मांगी। साहूकारनी उस समय लड़के को खिला रही थी। कहने लगी-महाराज, मैं क्या करूं? अवकाश नहीं है, इसलिए आपको भिक्षा नहीं दे सकती। तीसरी बार महात्मा आए तो उसने उन्हें उसी तरह टालना चाहा, परंतु महात्मा जी कहने लगे कि यदि तुम को बिल्कुल ही अवकाश हो जाए तो मुझको भिक्षा दोगी? साहूकारनी कहने लगी-हां महाराज ! यदि ऐसा हो जाये तो आपकी बहुत कृपा होगी। साधु-महात्मा जी कहने लगे कि अच्छा मैं एक उपाय बताता हूं। तुम बृहस्पतिवार (Brihaspativar) को दिन चढ़ने पर उठना और सारे घर के झाड़ू लगाकर कूड़ा एक कोने में जमा कर रख देना। घर में चौक इत्यादी मत लगाना। घर वालों से कह दो, उस दिन सब हजामत अवश्य बनवाएं। रसोई बनाकर चूल्हे के पीछे रखा करो, सामने कभी न रखो। सायंकाल को अंधेरा होने के बाद दीपक जलाया करो तथा बृहस्पतिवार (Brihaspativar) को पीले वस्त्र मत धारण करो, न पीले रंग की चीजों का भोजन करो। यदि ऐसा करोगी तो तुम को घर का कोई काम नहीं करना पड़ेगा।

साहूकारनी ने ऐसा ही किया। बृहस्पतिवार (Brihaspativar) को दिन चढ़े उठी, झाड़ू लगाकर कूड़े को घर में जमा कर दिया। पुरुषों ने हजामत बनवाई। भोजन बनाकर चूल्हे के पीछे रखा। वह कई बृहस्पतिवारों तक ऐसा ही करती रही। इससे कुछ काल बाद उसके घर में खाने को दाना न रहा। थोड़े दिनों बाद वही महात्मा फिर आये और भिक्षा मांगी। सेठानी ने कहा-महाराज, मेरे घर में खाने को अन्न ही नहीं, आपको क्या दे सकती हूं। तब महात्मा ने कहा कि जब तुम्हारे घर में सब कुछ था तब भी तुम कुछ नहीं देती थी।

अब पूरा-पूरा अवकाश है तब भी कुछ नहीं दे रही हो, तुम क्या चाहती हो वह कहो तब सेठानी ने कहा हाथ जोड़कर प्रार्थना की-हे महाराज! अब कोई ऐसा उपाय बताओ कि मेरे पहले जैसा धन-धान्य हो जाये। अब मैं प्रतिज्ञा करती हूं कि अवश्यमेव जैसा आप कहोगे वैसा ही करूंगी। तब महाराज जी ने कहा-बृहस्पतिवार को प्रातःकाल उठकर स्नानादि से निवृत्त हो घर को गौ के गोबर से लीपो तथा घर के पुरुष हजामत न बनवायें। भूखों को अन्न-वस्त्र देती रहा करो। ठीक सायंकाल दीपक जलाओ। यदि ऐसा करोगी तो तुम्हारी सब मनोकामनाएं भगवान बृहस्पति जी की कृपा से पूर्ण होगीं, सेठानी ने ऐसा ही किया और उसके घर में धन-धान्य वैसा ही हो गया जैसे कि पहले था। इस प्रकार भगवान बृहस्पति देव (Brihaspati Dev) की कृपा से अनेक प्रकार के सुख भोगती हुई है त्रिकाल तक वह दीर्घकाल तक जीवित रही और अंत में मोक्ष प्राप्त हुई।

बृहस्पति देव की आरती | Brihaspati Dev Aarti

ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा।
छिन-छिन भोग लगाऊं, कदली फल मेवा।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

तुम पूर्ण परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

सकल मनोरथ दायक, सब संशय तारो।
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

जो कोई आरती तेरी प्रेम सहित गावे।
जेष्टानंद बंद सो-सो निश्चय पावे।। ॐ जय बृहस्पति देवा।।

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Wednesday Fast – जानिए बुधवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Budhvar

Budhvar

बुधवार व्रत (Wednesday Fast) का माहत्म्य एवं विधि-विधान, व्रत कथा

ग्रहों में बुध ग्रह को राजकुमार कहा जाता है। स्थाई आरोग्यता, अच्छे स्वास्थ्य और बुद्धि की वृद्धि के लिए प्रत्येक विद्यार्थी को यह व्रत अवश्य करना चाहिये। यह व्रत सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला और रोगों तथा शोक से छुटकारा दिलाने वाला है।

बुधवार व्रत विधि | Budhvar Vrat Vidhi

इस व्रत को शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) बुधवार (Wednesday) अथवा बुधवार (Budhvar) के नक्षत्र युक्त बुधवार (Budhvar) प्रारम्भ कर 21 या 45 व्रत करें। हरा वस्त्र धारण करके बीज मंत्र “ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।” की 17 या 3 माला जप करना चाहिए। उस दिन भोजन में नमक रहित, खाण्ड-घी से बने पदार्थ, जैसे- मूंगी का बना हुआ हलवा, मूंगी की बनी मीठी पंजीरी या मूंगी के लड्डूओं का दान करें। फिर तीन तुलसी पत्र, गंगाजल या चरणामृत के साथ लेकर स्वयं भी उपरोक्त पदार्थ खाए।

बुधवार (Wednesday) के व्रत के दिन अपने मस्तक में चन्दन का तिलक करें। बुध देव की प्रतिमा अथवा बुध ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पात्र रजत पात्र ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति बुध देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।

बुध ग्रह शांति का सरल उपचारः- हरा रंग, हरे वस्त्र तथा शृंगार की अन्य वस्तुएं, हरा रुमाल आदि रखना, कांसी के बर्तन में भोजन, बुधाष्टमी का व्रत।

बुधवार व्रत उद्यापन विधि | Budhvar Vrat Udyaapan Vidhi

बुधवार (Wednesday) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव बुध ग्रह का दान जैसे पन्ना, सुवर्ण, कांसी, मूंग, खांड, घी, हरावस्त्र, हाथीदांत, सर्वपुष्प, कर्पूर, शस्त्र, फल आदि करना चाहिए। बुध ग्रह से संबंधित दान के लिए घटी 5 शेषदिन का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। बुध ग्रह के मंत्र ‘ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः’ का कम से कम 19000 की संख्या में जाप तथा बुध ग्रह की लकड़ी अपामार्ग से बुध ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए

व्रत के अंतिम बुधवार (Wednesday) को हवन पूर्णाहुति करके छोटे बच्चों या अङ्गहीन भिक्षुक को मुंगी युक्त भोजन कराकर हरा वस्त्र, मूंगी आदि का दान भी करें। इस व्रत से विद्या, धन-लाभ, व्यापार में तरक्की तथा स्वास्थ्य लाभ होता है। अमावस का व्रत करने से भी बुध ग्रह जन्य नेष्ट फल से मुक्ति मिलती है।

देवता भाव के भूखे होते हैं अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

बुधवार व्रत कथा | Budhvar Vrat Katha

एक समय एक व्यक्ति अपनी पत्नी को विदा करवाने के लिए अपनी ससुराल गया। वहां पर कुछ दिवस रहने के पश्चात सास-ससुर से विदा करने के लिए कहा। सब ने कहा कि आज बुधवार (Budhvar) का दिन है, आज के दिन गमन नहीं करते हैं। परंतु वह व्यक्ति किसी प्रकार का प्रकार न माना और हठधर्मी करके बुधवार (Budhvar) के दिन ही पत्नी को विदा कराकर अपने नगर को चल पड़ा। राह में उसकी पत्नी को प्यास लगी तो उसने अपने पति से कहा कि मुझे बहुत जोर से प्यास लगी है। तब वह व्यक्ति लोटा लेकर रथ से उतरकर जल लेने चला गया। जैसे ही वह व्यक्ति पानी लेकर अपनी पत्नी के निकट आया तो वह यह देखकर आश्चर्य से चकित रह गया कि ठीक अपनी ही जैसी सूरत तथा वैसी ही वेश-भूषा में एक व्यक्ति उसकी पत्नी के साथ रथ में बैठा हुआ है। उसने क्रोध में भरकर कहा-तू कौन है, जो मेरी पत्नी के निकट बैठा हुआ है। दूसरा व्यक्ति बोला-यह मेरी पत्नी है मैं अभी-अभी ससुराल से विदा कराकर ला रहा हूं। वे दोनों ही उस स्त्री को अपनी पत्नी और उस रथ को अपना रथ कह रहे थे। बात ही बात में वे दोनों परस्पर झगड़ने लगे। तभी राज्य के सिपाहियों ने आकर लोटेने वाले व्यक्ति को पकड़ लिया। उन्होंने स्त्री से पूछा-तुम्हारा पति इसमें कौन-सा है ?

तब पत्नी चुप ही रही, क्योंकि दोनों एक जैसे थे। वह किसे अपना असली पति कहती। वह व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ बोला-हे परमेश्वर! यह क्या लीला है कि सच्चा झूठा बन रहा है। तभी आकाशवाणी हुई-हे मूर्ख ! आज बुधवार (Budhvar) के दिन तुझे गमन नहीं करना था। तूने किसी की बात नहीं मानी। यह सब लीला बुध देव भगवान की है। उस व्यक्ति ने बुधदेव से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। तब बुध देव जी अन्तर्ध्यान हो गए। वह अपनी स्त्री को लेकर घर आया तथा बुधवार (Wednesday) का व्रत वे दोनों पति-पत्नी नियम पूर्वक करने लगे। जो व्यक्ति इस कथा को पढता अथवा श्रवण करता है, उसको बुधवार (Budhvar) के दिन यात्रा करने का दोष नहीं लगता है और उसको सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है।

बुध देव की आरती | Budh Dev Aarti

जय श्री बुधदेवा, स्वामी जय श्री बुधदेवा।
छोटे बड़े सभी नर-नारी, करे तेरी सेवा।।

सुख करता दुःख हरता, जय-जय आनंद दाता।
जो प्रेम भाव से पूजे, वह सब कुछ है पाता।।

सिंह आपका वाहन है, है ज्योति सबसे न्यारी।
शरणागत प्रतिपालक, हो भक्त के हितकारी।।

तुम्हें हो दीनदयाल दयानिधि, भव बंधन हारी।
वेद पुराण बखानत, तुम ही भय-पातक हारी।।

सद् ग्रहस्थ हृदय में, बुधराजा तेरा ध्यान धरें।
जग के सब नर-नारी, व्रत और पूजा-पाठ करें।।

विश्व चराचर पालक, कृपासिन्धु शुभ कर्ता।
सकल मनोरथ पूर्णकर्ता, भव बंधन हर्ता।।

श्री बुधदेव की आरती, जो प्रेम सहित गावे।
सब संकट मिट जाएं, अतुलित धन वैभव पावे।।

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Monday Fast – जानिए सोमवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि

Monday fast

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सोमवार व्रत (Monday Fast) का माहत्मय एवं विधि-विधान, व्रत कथा

सोमवार (Somvar) के अधिपति देव चंद्रदेव हैं तथा इस व्रत को सोमेश्वर व्रत भी कहते हैं। चंद्र देव ने भगवान शिव की पूजा-आराधना की थी और भगवान शिव की द्वितीय के चन्द्रमा को अपनी जटाओं में धारण करते है। इसलिए सोमश्वर व्रत करते समय आप चंद्र देव के साथ-साथ भगवान शिव की पूजा आराधना भी करते हैं ।

यदि जातक के जीवन में चंद्रमा अशुभ स्थिति में हो, नेत्रौं में पीड़ा, मानसिक अशांति तथा मन की चंचलता आदि विकार परेशान करते हैं तो ऐसे जातक को चंद्रदेव की प्रसन्नता के निमित्त तथा जीवन में चंद्र ग्रह के अशुभ प्रभाव को शुभता में बदलने के लिए सोमवार (Somvar) के व्रत करनी चाहिए। चंद्रदेव को स्वेत वस्तुएं परम प्रिय हैं। अत: पूजा करते समय श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए और पूजा में सफेद फूलों, बिना रंगे चावलों, घी के दीपक का प्रयोग करना चाहिए।

सोमवार व्रत विधि | Somvar Vrat Vidhi

चंद्रमा का व्रत शुक्ल-पक्ष के प्रथम (जेठे) सोमवार को प्रारंभ करके 54 या 10 व्रत करें। व्रत के दिन श्वेत वस्त्र धारण करके ऊपर चक्रलिखित बीज मंत्र की 11या 3 माला जप करें। सफेद फूलों से पूजन करके सफेद चंदन का तिलक करें। मध्याह्न के समय नमक के बिना दही-चावल, घी, खाण्ड का यथाशक्ति दान करके स्वयं भोजन करें।

सोमवार (Somvar) के व्रत के दिन अपने मस्तक में श्वेतचन्दन का तिलक करें। चंद्र देव की प्रतिमा अथवा चंद्र ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पात्र रजत पात्र ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति चंद्र देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।

चन्द्रशांति का सरल उपचारः- सफेद जुराब, रुमाल, सफेद वस्त्र, दूध, दही का उपयोग, चांदी की अंगूठी पहनना।

सोमवार व्रत उद्यापन विधि  | Somvar Vrat Udyaapan Vidhi

सोमवार (Somvar) के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव चंद्र ग्रह का दान जैसे मोती, सुवर्ण, रजत, चावल, मिसरी, दही, श्वेतवस्त्र, शंख, श्वेतपुष्प, कर्पूर, श्वेतबैल, श्वेतचन्दन आदि करना चाहिए चंद्र ग्रह से संबंधित दान के लिए सन्धया का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा।

चंद्र ग्रह के मंत्र ‘ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्राय नमः’ का कम से कम 11000 की संख्या में जाप तथा चंद्र ग्रह की लकड़ी पलाश से चंद्र ग्रह के बीच मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए।

हवन पूर्णाहुति करके खीर-खाण्ड से ब्राह्मण व बटुको को भोजन कराएं। इस व्रत के करने से व्यापार में लाभ, मानसिक कष्टों से शांति होती है। विशेष कार्यसिद्धार्थ भी यह पूर्ण फलदायक होता है।

देवता भाव के भूखे होते हैं अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।

सोमवार (Somvar) के व्रत का उद्यापन श्रावन मास के प्रथम अथवा तृतीय सोमवार (Somvar) को करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

सोमवार व्रत कथा | Somvar Vrat Katha

एक बहुत धनवान साहूकार था, जिसके घर धन आदि किसी प्रकार की कमी नहीं थी। परंतु उसको एक दुःख था। उसके कोई पुत्र नहीं था। वह इसी चिंता में दिन-रात रहता था। वह पुत्र की कामना के लिए प्रति सोमवार को चंद्रदेव का सोमेश्वर व्रत तथा चंद्र देव और शिवजी का पूजन किया करता था तथा प्रतिदिन मंदिर में जाकर शिवजी पर दीपक जलाया करता था। उसके भक्ति भाव को देखकर एक दिन पार्वती जी ने शिवजी से कहा-हे महाराज यह साहूकार आपका अत्यंत भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है, इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।

शिवजी ने कहा -हे पार्वती ! यह संसार कर्म क्षेत्र है। जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है, उसी तरह इस संसार में जो जैसा करता है वैसा ही फल भोगता है। पार्वती जी ने अत्यंत आग्रह से कहा कि महाराज, जब यह आपका ऐसा भक्त है और यदि इसको किसी प्रकार का कोई दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए, क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु हैं, उनके दुःखों को दूर करते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य क्यों आपकी सेवा-पूजा करेंगे।

पार्वती जी का यह आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे-हे पार्वती ! इसके कोई पुत्र नहीं है, इसी चिंता से यह अति दुःखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र देता हूं, परंतु वह केवल बारह वर्ष तक जीवित रहेगा, इसके पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। यह सब बातें वह साहूकार सुन रहा था। इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ कष्ट हुआ। वह पहले जैसा ही शिवजी का व्रत और पूजन करता रहा। कुछ काल व्यतीत होने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने उसके गर्भ से अति सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। साहूकार के घर में बहुत खुशियां मनाई गई, परंतु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष तक की आयु जान कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी को यह भेद बतलाया।

जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हो गया तो उसकी माता ने उसके पिता से लड़के के विवाह आदि के लिए कहा। परंतु साहूकार कहने लगा, मैं अभी इसका विवाह नहीं करूंगा और काशीजी पढ़ने के लिए भेजूंगा। फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् उस बालक के मामा को बुला उसको बहुत-सा धन देकर कहा-तुम इस बालक को काशी जी पढ़ने के लिए ले जाओ। रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ, यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जाना। वह दोनों मामा-भांजे सब जगह सब प्रकार यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे।

रास्ते में उनको एक शहर पड़ा। उस शहर के राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह करने के लिए बरात लेकर आया वह एक आंख से काना था। उसके पिता को इस बात की बड़ी चिंता थी कि कहीं वर को देखकर कन्या के माता-पिता विवाह से मना न कर दें। इस कारण जब उसने सेठ के अति सुंदर लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों न इस लड़के से वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढ़ा ले जाए। यह कार्य बड़ी सुंदरता से हो गया। फेरों का समय आया तो वर के पिता ने सोचा, यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा दिया जाए तो क्या बुराई है? ऐसा विचार कर राजा ने लड़के और उसके मामा से कहा यदि आप फेरों और तिलक आदि का काम भी करा दें, तो आपकी बड़ी कृपा होगी और हम इसके बदले में बहुत-सा धन देंगे। उन्होंने भी स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से हो गया।

परंतु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परंतु जिस राजकुमार के साथ तुम को भेजेंगे वह एक आंख से काना है। मैं तो काशी जी पढ़ने जा रहा हूं। उस राजकुमारी ने जब चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया कहा कि यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ, जिसके साथ विवाह हुआ है वह तो काशी जी पढ़ने गया है। राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापिस चली गई।

उधर वह सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुंच गये। वहां जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ाना शुरू कर दिया। जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई और उस दिन भी उन्होंने यज्ञ रचा रखा था। लड़के ने अपने मामा जी से कहा-मामा जी, आज तो मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। मामा ने कहा-अंदर जाकर सो जाओ। लड़का अंदर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गये। जब उसके मामा ने आकर देखा कि वह तो मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि मैं अभी रोना और विलाप करना शुरू कर दूंगा तो यज्ञ कार्य अधूरा रह जाएगा। उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरंभ कर दिया। संयोगवश उसी समय शिव-पार्वती जी उधर से जा रहे थे। जब उन्होंने जोर-जोर से रोने-पीटने की आवाज सुनी तो पार्वती जी से कहने लगीं-महाराज! कोई दुखिया रो रहा है। इसके कष्ट दूर करो। तब शिवजी जी बोले इसकी आयु इतनी ही थी, सो भोग चुका। पार्वती जी ने कहा कि महाराज कृपा करके इस बालक को और आयु दो, नहीं तो उसके माता-पिता तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। पार्वती जी के इस प्रकार बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उस को वरदान दिया और शिव जी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया। शिव-पार्वती जी कैलाश चले गए।

तब लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते हुए अपने घर की ओर चल पड़े। रास्ते में उसी शहर में आए जहां विवाह हुआ था। वहां पर आकर उन्होंने यज्ञ आरंभ किया तो लड़के को ससुर ने पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर बड़ी खातिर की। राजा ने कुछ दिन उन्हें अपने यहां रखने के बाद बहुत से दास-दासियों के सहित आदर पूर्वक लड़की और जंवाई को विदा किया। जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि मैं पहले तुम्हारे घर जाकर सबको खबर कर आता हूं। उस समय लड़के के माता-पिता अपने घर की छत पर बैठे हुए थे उन्होंने यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल घर पर आ जाएगा तब तो राजी-खुशी नीचे उतरकर आ जाएंगे, नहीं तो छत से गिर कर अपने प्राण खो देंगे। इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है। परंतु उनको विश्वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ में लेकर आया हुआ है तो सेठ ने आनंद के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे। इसी प्रकार जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है, उसके सब दुःख दूर होकर उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होते हैं।

भगवान सोमेश्वर से विनय | Prayer To God Shiva

हे सोमदेव अविनाशी, प्रभु राखो लाज हमारी।
मैं दुखिया शरण तिहारी, हे चंद्रदेव बलधारी।।

यह जालिम जगत मुझे बहुत सताये।
कदम-कदम पर बहुत नाच नचाये।

क्या करूं कुछ समझ न आए, ऐसी है लाचारी।
हे सोमदेव अविनाशी, मैं दुखिया शरण तिहारी।।

मुश्किल है इस भीषण दुःखों में जीना।
फटा जा रहा है गमों से यह सीना।

बुद्धि सही चकराय, है सुध बुध सभी बिसारी।
हे सोमदेव अविनाशी, मैं दुखिया शरण तिहारी।।

काम क्रोध मद लोभ ने भरमाया।
दिनों के फेर ने मुझे बहुत सताया।

टूट चुका हूं मैं मेरे प्रभु, है जीवन बाजी हारी।
हे सोमदेव अविनाशी, मैं दुखिया शरण तिहारी।।

प्रभु सोमेश्वर अपना दरश दिखा दो।
कृपा करो प्रभु सारे कष्ट मिटा दो।

आया हूं प्रभु तेरी शरण में, राखो लाज हमारी।
हे सोमदेव अविनाशी, मैं दुखिया शरण तिहारी।।

भगवान शिव की आरती | Aarti To God Shiva

जय जय हे शिव परम पराक्रम, ओंकारेश्वर तुम शरणम्।
नमामि शंकर भवानि शंकर, दीनजन रक्षक त्वं शरणम्।। टेक।।

दशभुज मंडप पंचवदन शिव, त्रिनयन शोभित शिव सुखदा।
जटाजूट सिर मुकुट बिराजै, श्रवण कुण्डल अति रमणा।।

ललाट चमकत रजनी नायक, पन्नग भूषण गौरीशा।
त्रिशूल अंकुश गणपति शोभा, डमरू बाजत ध्वनि मधुरा।।

भस्म विलेपन सर्वांगे शिव, नन्दी वाहन अति रमणा।
वामांगे गिरिजा हैं विराजित, घटां नाद की धुनि मधुरा।।

गज चर्माम्बर बाघाम्बर हर, कपाल माला गंगेशा।
पंचबदन पर गणपति शोभा, पृष्ठे गिरिपति कोटीशा।

कपिला संग में निर्मल जल है, कोटि तीरथे भय हरणम्।
नर्मदा कावेरी केल से, गंगमध्य शोभित गिरशिखरा।

इन्द्रादिक सुरपति सेवत, रम्भादिक ध्वनि अति मधुरा।।
मंगल मूर्ति प्रणवाष्टक शिव, अद्भुत् शोभा त्रिय भवनं।

सनकादिक मुनि करत स्तोत्र, मनवांछित फल भय हरणम।।

प्रणवाष्टक पद ध्याय जनेश्वर, रचयति विमल पदवाष्टम्।
तुमरि कृपा त्रिगुणात्मा शिवजी, पतित पावन भयहरणम्।।

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माघ मास का माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय | Chapter 21 Magha Puran ki Katha

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माघ मास का माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय

Chapter 21

 

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लोमश जी कहने लगे कि पूर्व काल में अवंती देश में वीरसैन नाम का राजा था। उसने नर्मदा के किनारे राजसूय यज्ञ किया और अश्वमेघ यज्ञ भी किए जिनके खम्भे सोने के बनाए गए। ब्राह्मणों को अन्न का बहुत-सा दान किया और बहुत-सी गाय, सुंदर वस्त्र और सोने के आभूषण दान में दिए। वह देवताओं का भक्त और दान करने वाला था। भद्रक नाम का एक ब्राह्मण जो अत्यंत मूर्ख, कुलहीन, कृषि कार्य करने वाला, दुराचारी तथा अधर्मी था, वह भाई-बंधुओं का त्यागा हुआ इधर-उधर घूमता हुआ देव यात्रियों के साथ प्रयाग में आया और माघ में उनके साथ तीन दिन तक स्नान किया। वह तीन दिन में ही निष्पाप हो गया फिर वह अपने घर चला गया।

वह ब्राह्मण और राजा दोनों एक ही दिन मृत्यु को प्राप्त हुए। मैंने इन दोनों को बराबर इंद्रलोक में देखा। तेज, रूप, बल, स्त्री, वस्त्र और आभूषणों में दोनों समान थे। ऐसा देखकर उसके माहात्म्य को क्या कहा जाए। राजसूय यज्ञ करने वाला स्वर्ग का सुख भोगकर फिर भी जन्म लेता है परंतु संगम में स्नान करने वाला जन्म-मरण से रहित हो जाता है। गंगा और यमुना के संगम की हवा के स्पर्श से ही बहुत-से दुख नष्ट हो जाते हैं।

अधिक क्या कहें और किसी भी तीर्थ में किए गए पाप माघ मास (Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करने से नष्ट हो जाते हैं। मैं पिशाच मोचन नाम का एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ। इस इतिहास को यह कन्याएँ और तुम्हारा पुत्र भी सुने, उससे इनको स्मृति प्राप्त होगी।

पुराने समय में देवद्युति नाम का बड़ा गंभीर और वेदों का पारंगत एक वैष्णव ब्राह्मण था। उसने पिशाच को निर्मुक्त किया था। वेदनिधि कहने लगे कि वह कहाँ का रहने वाला, किसका पुत्र, किस पिशाच को उसने निर्मुक्त किया। आप विस्तारपूर्वक यह सब कथा सुनाइए। लोमश ऋषि ने कहा – किल्पज्ञ से निकली हुई सुंदर सरस्वती के किनारे पर उसका स्थान था। जंगल के बीच में पुण्य जल वाली सरस्वती बहती थी। वन में अनेक प्रकार के पशु भी विचरते थे। उस ब्राह्मण के श्राप के भय से पवन भी बहुत सुंदर चलती थी और वन चैत्र रथ के समान था। उस जगह धर्मात्मा देवद्युति रहता था। उसके पिता का नाम सुमित्र था और वह लक्ष्मी के वरदान से उत्पन्न हुआ था।

वह सदैव आत्मा को स्थिर रखता, गर्मी में अपने नेत्र सूर्य की तरफ रखता, वर्षा में खुली जगह पर तपस्या करता। हेमंत ऋतु में सारस्वत सरोवर में बैठता और त्रिकाल संध्या करता। जितेन्द्रिय और सत्यवादी भी था। अपने आप गिरे हुए फल और पत्तियों का भोजन करता था। उसका शरीर सूखकर हड्डियाँ मात्र रह गई थीं। इस प्रकार उसको तप करते हुए वहाँ पर हजार वर्ष बीत गए। तप के प्रभाव से उसका शरीर अग्नि के समान प्रज्ज्वलित था। विष्णु की प्रसन्नता से ही वह सब कर्म करता। दधीचि ऋषि के वरदान से ही वह श्रेष्ठ वैष्णव हुआ था। एक समय उस ब्राह्मण ने वैशाख महीने की एकादशी को हरि की पूजा कर उनकी सुंदर स्तुति तथा विनती करी। उसकी विनती सुनकर भगवान उसी समय गरुड़ पर चढ़कर उसके पास आए।

चतुर्भुज विशाल नेत्र, मेघ जैसा स्वरुप। भगवान को स्पष्ट देखकर प्रसन्नता के मारे उसकी आँखों में आँसू भर आए और कृतकृत्य होकर उसने भगवान को प्रणाम किया।

उसने अपने शरीर को भी याद न रखा और भगवान के ध्यान में लीन हो गया तब भगवान ने कहा कि हे देवद्युति मैं जानता हूँ कि तुम मेरे परम भक्त हो। मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो। इस प्रकार भगवान के वचन सुनकर प्रेम के मारे लड़खड़ाती हुई वाणी में कहने लगा कि हे देवाधिदेव! अपनी माया से शरीर धारण करने वाले आपका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है। अब आपका दर्शन भी हो गया मुझको और क्या चाहिए। मैं सदैव आपकी भक्ति में लगा रहूँ। भगवान उसके वचन सुनकर कहने लगे कि ऐसा ही होगा। तुम्हारे तप में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। जो मनुष्य तुम्हारे कहे गए स्तोत्र को पढ़ेगा उसकी मुझमें अचल भक्ति होगी, उसके धर्म कार्य सांगोपांग होगें और उसकी ज्ञान में परम निष्ठा होगी।

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माघ मास का माहात्म्य दूसरा अध्याय | Chapter 2 Magha Puran ki Katha

Chapter 2

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माघ मास का माहात्म्य दूसरा अध्याय

Chapter 2

 
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राजा के ऐसे वचन सुनकर तपस्वी कहने लगा कि हे राजन्! भगवान सूर्य बहुत शीघ्र उदय होने वाले हैं इसलिए यह समय हमारे लिए स्नान का है, कथा का नहीं, सो आप स्नान करके अपने घर को जाओ और अपने गुरु श्री वशिष्ठ जी से इस माहात्म्य को सुनो। इतना कहकर तपस्वी सरोवर में स्नान के लिए चले गए और राजा भी विधिपूर्वक सरोवर में स्नान करके अपने राज्य को लौटा और रानिवास में जाकर तपस्वी की सब कथा रानी को सुनाई। तब सूतजी कहने लगे कि महाराज राजा ने अपने गुरु वशिष्ठजी से क्या प्रश्न किया और उन्होंने क्या उत्तर दिया सो कहिए।

व्यासजी कहने लगे – हे सूतजी! राजा दिलीप ने रात्रि को सुख से सोकर प्रात: समय ही अपने गुरु वशिष्ठजी के पास जाकर उनके चरणों को छूकर, प्रणाम करके तपस्वी के बताए हुए प्रश्नों को अति नम्रता से पूछा कि गुरुजी आपने आचार, दंड, नीति, राज्य धर्म तथा चारों वर्णों के चारों आश्रमों की क्रियाओं, दान और उनके विधान, यज्ञ और उनकी विधियाँ, व्रत, उनकी प्रतिष्ठा तथा भगवान विष्णु की आराधना अनेक प्रकार से तथा विस्तारपूर्वक मुझको बतलाई। अब मैं आपसे माघ मास(Magh Maas) के स्नान के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ। सो हे तपोधन! नियमपूर्वक इसकी विधि समझाइए।

गुरु वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! तुमने दोनों लोकों के कल्याणकारी, वनवासी तथा गृहस्थियों के अंत:करण को पवित्र करने वाले माघ मास(Magh Maas) के स्नान का बहुत सुंदर प्रश्न पूछा है। मकर राशि में सूर्य के आने पर माघ मास(Magh Maas) में स्नान का फल, गौ, भूमि, तिल, वस्त्र, स्वर्ण, अन्न, घोड़ा आदि दानों तथा चंद्रायण और ब्रह्मा कूर्च व्रत आदि से भी अधिक होता है। वैशाख तथा कार्तिक में जप, दान, तप और यज्ञ बहुत फल देने वाले हैं परन्तु माघ मास(Magh Maas) में इनका फल बहुत ही अधिक होता है। माघ में स्नान करने वाला पुरुष राजा और मुक्ति के मार्ग को जानने वाला होता है।

दिव्य दृष्टि वाले महात्माओं ने कहा है कि जो मनुष्य माघ मास(Magh Maas) में सकाम या भगवान के निमित्त नियमपूर्वक माघ मास में स्नान करता है वह अनंत फल वाला होता है। उसको शरीर की शुद्धि, प्रीति, ऐश्वर्य तथा चारों प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है। अदिति ने बारह वर्ष तक मकर संक्रांति में अन्न त्यागकर स्नान किया इससे तीनों लोकों को उज्जवल करने वाले बारह पुत्र उत्पन्न हुए। माघ में स्नान करने से ही रोहिणी, सुभगा, अरुन्धती दानशीलता हुई और इन्द्राणी के समान रूपवती होकर प्रसिद्ध हुई। जो माघ मास(Magh Maas) में स्नान करते हैं तथा देवताओं के पूजन में तत्पर रहते हैं उनको सुंदर स्थान, हाथी और घोड़ो की सवारी तथा दान को द्रव्य प्राप्त होता है। अतिथियों से उनका घर भरा रहता है और उनके घर में सदा वेद ध्वनि होती रहती है।

वह मनुष्य धन्य है जो माघ मास(Magh Maas) में स्नान करते हैं, दान देते हैं तथा व्रत और नियमों का पालन करते हैं और दूसरों के पुण्यों के क्षीण होने से मनुष्य स्वर्ग से वापिस आ जाता है परन्तु जो मनुष्य माघ मास(Magh Maas) में स्नान करता है वह कभी स्वर्ग से वापिस नहीं आता। इससे बढ़कर कोई नियम, तप, दान, पवित्र और पाप नाशक नही है। भृगुजी ने मणि पर्वत पर विद्याधरों को यह सुनाया था। तब राजा ने कहा कि ब्रह्मन भृगु ऋषि ने कब मणि पर्वत पर विद्याधरों को उपदेश दिया था सो बताइए तब ऋषिजी कहने लगे कि राजन्! एक समय बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण सब प्रजा क्षीण होने के कारण संसार में बड़ी उद्विग्नता फैल गई। हिमाचल और विंध्याचल पर्वत के मध्य का देश निर्जन होने के कारण, श्राद्ध, तप तथा स्वाध्याय सब कुछ छूट गए। सारा लोक विपत्तियों में फंसकर प्रजाहीन हो गया।

सारा भूमंडल फल और अन्न से रहित हो गया तब विंध्याचल से नीचे बहती हुई नदी के सुंदर वृक्षों से आच्छादित अपने आश्रम से निकलकर श्री भृगु ऋषि अपने शिष्यों सहित हिमालय पर्वत पर गए। इस पर्वत की चोटी नीली और नीचे का हिस्सा सुनहरी होने से सारा पर्वत पीताम्बरधारी श्री भगवान के सदृश लगता था। पर्वत के बीच का भाग नीला और बीच-बीच में कहीं-कहीं सफेद स्फटिक होने से तारों से युक्त आकाश जैसी शोभा को प्राप्त होता था। रात्रि के समय वह पर्वत दीपकों की तरह चमकती हुई दिव्य औषधियों से पूरित किसी महल की शोभा को प्राप्त होता था। वह पर्वत शिखाओं पर बांसुरी बजाती और सुंदर गीत गाती हुई किन्नरियों तथा केले के पत्तों की पताकाओं से अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रहा था। यह पर्वत नीलम, पन्ना, पुखराज तथा इसकी चोटी से निकलती हुई रंग-बिरंगी किरणों से इंद्रधनुष के समान प्रतीत होता था। स्वर्ण आदि सब धातुओं से तथा चमकते हुए रत्नों से चारों ओर फैली हुई अग्नि ज्वाला के समान शोभायमान था। इसकी कंदराओं में काम पीड़ित विद्याधरी अपने पतियों के साथ आकर रमण करती हैं और गुफाओं में ऐसे ऋषि-मुनि जिन्होंने संसार के सब क्लेशों को जीत लिया है रात-दिन ब्रह्म का ध्यान करते हैं और कई एक हाथ में रुद्राक्ष की माला लिए हुए शिव की आराधना में लगे हुए हैं। पर्वत के नीचे भागों में जंगली हाथी अपने बच्चों के साथ खेल रहे हैं तथा कस्तूरी वाले रंग-बिरंगे मृगों के झुंड इधर-उधर भाग रहे हैं। यह पर्वत सदा राजहंस तथा मोरों से भरा रहता है, इसी कारण इसको हेमकुंड कहते हैं। यहाँ पर सदैव ही देवता, गुह्यक और अप्सरा निवास करते हैं।

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माघ मास का माहात्म्य अठ्ठाईसवाँ अध्याय | Chapter 28 Magha Puran ki Katha

Chapter 28

Chapter 28

माघ मास का माहात्म्य अठ्ठाईसवाँ अध्याय

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वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजा दिलीप! बहुत से जन-समूह सहित अच्छोद सरोवर में स्नान करके सुखपूर्वक मोक्ष को प्राप्त हो गए तब लोमशजी कहने लगे संसार रूपी इस तीर्थ राजा को सब श्रद्धापूर्वक देखो। यहाँ पर तैंतीस करोड़ देवता आकर आनंदपूर्वक रहते हैं। यह अक्षय वट है जिनकी जड़े पाताल तक गई हैं और मार्कण्डेय ऋषि प्रलय के समय भगवान इसी अक्षय वट का आश्रय लेते हैं। यही शिवजी की प्रिय भगवती भागीरथी है, जिसकी सिद्ध लोग सेवा करते हैं। यह गंगा स्वर्ग के हेतु पताका है, इसका जल पीकर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं। हे मुनि! सभी प्राणी इस नदी को यमुना से मिली हुई पाते हैं इसका संगम बड़े पुण्य से प्राप्त होता है। इसके स्नान से जन्म मृत्यु रूपी दावानल से कोई नहीं तपता परंतु ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है। यहां पर स्नान करने से सभी प्राणी बिना ज्ञान के भी मुक्त हो जाते हैं। इसलिए ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ करने की इच्छा की थी।

इसी संगम में भगवान विष्णु ने स्त्री प्राप्ति की इच्छा से स्नान करके लक्ष्मीजी को प्राप्त किया। यहां पर त्रिशूलधारी शिवजी ने त्रिपर दैत्य को मारा था और प्राचीन काल में उर्वशी स्वर्ग से गिरी थी तथा स्वर्ग पाने की इच्छा से यहां पर ही उसके स्नान करने से नहुष कुल के राजा ययाति ने वंशधर पुत्र प्राप्त किया। यहां पर इंद्र ने प्राचीन काल में धन की इच्छा से स्नान किया था और माया से कुबेर के सब धन को प्राप्त किया था। प्राचीन काल में नारायण तथा नर ने हजारों वर्ष तक प्रयाग में निराहार रहकर उत्तम धर्म किया था। यहाँ से जैगाषव्य सन्यासी ने महादेव जी जैसी शक्ति वाले से विजय पाई थी तथा अणिमा आदि योग के अति दुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त किए थे। इसी क्षेत्र में तपस्या करके श्री भारद्वाज सप्त ऋषियों में सम्मिलित हुए। जिन्होंने भी यहां स्नान किया सबको स्वर्ग की प्राप्ति हुई। इसलिए हमारे विचार से तुम त्रिवेणी में स्नान करो। इस स्नान से पहले किए हुए। तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जाएंगे और सम्पूर्ण वैभवों को प्राप्त हो जाओगे।

ऋषि के इस प्रकार के सत्य वचन सुनकर सब ही त्रिवेणी में स्नान करने लग गए और उसी स्नान करने से सबकी पिशाचता नष्ट हो गई। शाप से विमुक्त होकर उन्होंने अपना शरीर धारण कर लिया। वेदनिधि ने अपनी संतान को देखकर प्रसन्नचित्त होकर लोमशजी को संतुष्ट किया और कहा कि आपके अनुग्रह से ही श्राप से विमुक्त हुए। अब आप इन बालकों के योग्य धर्म को कहिए। लोमशजी ने कहा कि इस युवा कुमार ने वेदों का अध्ययन समाप्त कर लिया है। इसलिए इन कन्याओं के प्रीतिपूर्वक कर कमलों को ग्रहण करें तब लोमशजी तथा अपने पिताजी की आज्ञा से इस ब्रह्मचारी ने पाँचों कन्याओं से विवाह किया। इन कन्याओं के सब मनोरथ पूर्ण हुए।

जिसके घर में लिखा हुआ यह माहात्म्य पूजा जाता है वहां नारायण ही पूजे जाते हैं। पुष्कर तीर्थ में, प्रयाग में, गंगा सागर में, देवालय में, कुरुक्षेत्र में तथा विशेष करके काशी में इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। पुष्कर तीर्थ में ग्रहण के अवसर पर इसके पाठ का दुगना फल मिलता है और मरने पर वैष्णव पद को प्राप्त होता है।

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