श्रावण माह माहात्म्य सोलहवाँ अध्याय | Chapter -16 Shravan Maas ki Katha

Shravan Maas 16 Adhyay

Shravan Maas 16 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य सोलहवाँ अध्याय

Chapter -16

 

Click Here For Download Now

 

शीतलासप्तमी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं शीतला सप्तमी व्रत को कहूँगा। श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को यह व्रत करना चाहिए। सबसे पहले दीवार पर एक वापी का आकार बनाकर अशरीरी संज्ञक दिव्य रूप वाले सात जल देवताओं, दो बालकों से युक्त पुरुषसंज्ञक नारी, एक घोड़ा, एक वृषभ तथा नर वाहन सहित एक पालकी भी उस पर बना दे। इसके बाद सोलह उपचारों से सातों जल देवताओं की पूजा होनी चाहिए। इस व्रत के साधन में ककड़ी और दधि-ओदन का नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। उसके बाद नैवेद्य के पदार्थों में से ब्राह्मण को वायन देना चाहिए। इस प्रकार सात वर्ष तक इस व्रत को करने के बाद उद्यापन करना चाहिए।

इस व्रत में प्रत्येक वर्ष सात सुवासिनियों को भोजन कराना चाहिए। जलदेवताओं की प्रतिमाएं एक सुवर्ण पात्र में रखकर बालकों सहित एक दिन पहले सांयकाल में भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। प्रातःकाल पहले ग्रह होम करके देवताओं के निमित्त चरु से होम करना चाहिए। जिसने पहले इस व्रत को किया और उसे जो फल प्राप्त हुआ उसे आप सुनें।

सौराष्ट्र देश में शोभन नामक एक नगर था, उसमे सभी धर्मों के प्रति निष्ठां रखने वाला एक साहूकार रहता था। उसने जलरहित एक अत्यंत निर्जन वन में बहुत पैसा खर्च करके शुभ तथा मनोहर सीढ़ियों से युक्त, पशुओं को जल पिलाने के लिए, सरलता से उतरने-चढ़ने योग्य, दृढ पत्थरों से बंधी हुई तथा लंबे समय तक टिकने वाली एक बावली बनवाई। उस बावली के चारों ओर थके राहगीरों के विश्राम के लिए अनेक प्रकार के वृक्षों से शोभायमान एक बाग़ लगवाया लेकिन वह बावली सूखी ही रह गई और उसमे एक बून्द पानी नहीं आया। साहूकार सोचने लगा कि मेरा प्रयास व्यर्थ हो गया और व्यर्थ ही धन खर्च किया। इसी चिंता में विचार करता हुआ वह साहूकार रात में वहीँ सो गया तब रात्रि में उसके स्वप्न में जल देवता आए और उन्होंने कहा कि “हे धनद ! जल के आने का उपाय तुम सुनो, यदि तुम हम लोगों के लिए आदरपूर्वक अपने पौत्र की बलि दो तो उसी समय तुम्हारी यह बावली जल से भर जाएगी।”

यह सपना देख साहूकार ने सुबह अपने पुत्र को बताया। उसके पुत्र का नाम द्रविण था और वह भी धर्म-कर्म में आस्था रखने वाला था। वह कहने लगा – “आप मुझ जैसे पुत्र के पिता है, यह धर्म का कार्य है। इसमें आपको ज्यादा विचार ही नहीं करना चाहिए। यह धर्म ही है जो स्थिर रहेगा और पुत्र आदि सब नश्वर है। अल्प मूल्य से महान वस्तु प्राप्त हो रही है अतः यह क्रय अति दुर्लभ है, इसमें लाभ ही लाभ है। शीतांशु और चण्डाशु ये मेरे दो पुत्र है. इनमें शीतांशु नामक जो ज्येष्ठ पुत्र है उसकी बलि बिना कुछ विचार किए आप दे दे लेकिन पिताजी ! घर की स्त्रियों को यह रहस्य कभी ज्ञात नहीं होना चाहिए। उसका उपाय ये है कि इस समय मेरी पत्नी गर्भ से है और उसका प्रसवकाल भी निकट है जिसके लिए वह अपने पिता के घर जाने वाली है। छोटा पुत्र भी उसके साथ जाएगा। हे तात ! उस समय यह कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न हो जाएगा. पुत्र की यह बात सुनकर पिता उस पर अत्यधिक प्रसन्न हुए और बोले – हे पुत्र ! तुम धन्य हो और मैं भी धन्य हूँ जो कि तुम जैसे पुत्र का मैं पिता बना।

इसी बीच सुशीला के घर से उसके पिता का बुलावा आ गया और वह जाने लगी तब उसके ससुर तथा पति ने कहा कि यह ज्येष्ठ पुत्र हमारे पास ही रहेगा, तुम इस छोटे पुत्र को ले जाओ। इस पर उसने ऐसा ही किया, उसके चले जाने के बाद पिता-पुत्र ने उस बालक के शरीर में तेल का लेप किया और अच्छी प्रकार स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत करके पूर्वाषाढ़ा तथा शतभिषा नक्षत्र में उसे प्रसन्नतापूर्वक बावली के तट पर खड़ा किया और कहा कि बावली के जलदेवता इस बालक के बलिदान से आप प्रसन्न हों। उसी समय वह बावली अमृततुल्य जल से भर गई। वे दोनों पिता-पुत्र शोक व हर्ष से युक्त होकर घर की ओर चले गए।

सुशीला ने अपने घर में तीसरे पुत्र को जन्म दिया और तीन महीने बाद अपने घर जाने को निकल पड़ी। मार्ग में आते समय वह बावली के पास पहुँची और उस बावली को जल से भरा हुआ देखा तो वह बहुत ही आश्चर्य में पड़ गई। उसने उस बावली में स्नान किया और कहने लगी कि मेरे ससुर का परिश्रम व धन का व्यय सफल हुआ। उस दिन श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि थी और सुशीला ने शीतला सप्तमी नामक शुभ व्रत रखा हुआ था। उसने वहीँ पर चावल पकाए और दही भी ले आई। इसके बाद जलदेवताओं का विधिवत पूजन करके दही, भात तथा ककड़ी फल का नैवेद्य अर्पण किया तथा ब्राह्मणों को वायन देकर साथ के लोगों के साथ मिलकर उसी नैवेद्य अन्न का भोजन किया।

उस स्थान से सुशीला का ग्राम एक योजन की दूरी पर स्थित था। कुछ समय बाद वह सुन्दर पालकी में बैठ दोनों पुत्रों के साथ वहाँ से चल पड़ी तब वे जलदेवता कहने लगे कि हमें इसका पुत्र जीवित करके इसे वापिस करना चाहिए क्योंकि इसने हमारा व्रत किया है, साथ ही यह उत्तम बुद्धि रखने वाली स्त्री है। इस व्रत के प्रभाव से इसे नूतन पुत्र देना चाहिए। पहले उत्पन्न पुत्र को यदि हम ग्रहण किए रह गए तब हमारी प्रसन्नता का फल ही क्या? आपस में ऐसा कहकर उन दयालु जलदेवताओं ने बावली में से उसके पुत्र को बाहर निकालकर माता को दिखा दिया और फिर उसे विदा किया।

बाहर निकलकर वह पुत्र “माता-माता” पुकारता हुआ अपनी माता के पीछे दौड़ पड़ा। अपने पुत्र का शब्द सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा वहाँ अपने पुत्र को देखकर वह मन ही मन बहुत चकित हुई। उसे अपनी गोद में बिठाकर उसने उसका माथा सूँघा किन्तु यह डर जाएगा इस विचार से उसने पुत्र से कुछ नहीं पूछा। वह अपने मन में सोचने लगी कि यदि इसे चोर उठा लाए तो यह आभूषणों से युक्त कैसे हो सकता है और यदि पिशाचों ने इसे पकड़ लिया था तो दुबारा छोड़ क्यों दिया? घर में संबंधी जन तो चिंता के समुद्र में डूबे होंगे।

इस प्रकार सुशीला सोचती हुई वह नगर के द्वार पर आ गई तब लोग कहने लगे कि सुशीला आई है। यह सुनकर वे पिता-पुत्र अत्यंत चिंता में पड़ गए कि वह ना जाने क्या कहेगी और उसके पुत्र के बारे में हम क्या जवाब देंगे? इसी बीच वह तीनों पुत्रों के साथ आ गई तब ज्येष्ठ बालक को देखकर सुशीला के ससुर तथा पति घोर आश्चर्य में पड़ गए और साथ ही बहुत आनंदित भी हुए।

वे कहने लगे – हे शुचिस्मिते ! तुमने कौन सा पुण्य कर्म किया अथवा व्रत किया था। हे भामिनि ! तुम पतिव्रता हो, धन्य हो और पुण्यवती हो। इस शिशु को मरे हुए दो माह बीत चुके हैं और तुमने इसे फिर से प्राप्त कर लिया और वह बावली भी जल से परिपूर्ण है। तुम एक पुत्र के साथ अपने पिता के घर गई थी लेकिन वापिस तीनों पुत्रो के साथ आई हो। हे सुभ्रु ! तुमने तो कुल का उद्धार कर दिया। हे शुभानने ! मैं तुम्हारी कितनी प्रशंसा करू। इस प्रकार ससुर ने उसकी प्रशंसा की, पति ने उसे प्रेमपूर्वक देखा और सास ने उसे आनंदित किया। उसके बाद उसने मार्ग के पुण्य का समस्त वृत्तांत सुनाया। अंत में उन सभी ने मनोवांछित सुखों का उपभोग करके बहुत आनंद प्राप्त किया।

हे वत्स ! मैंने इस शीतला सप्तमी व्रत को आपसे कह दिया है। इस व्रत में दधि-ओदन शीतल, ककड़ी का फल शीतल और बावली का जल भी शीतल होता है तथा इसके देवता भी शीतल होते हैं। अतः शीतला-सप्तमी का व्रत करने वाले तीनों प्रकार के तापों के संताप से शीतल हो जाते हैं। इसी कारण से यह सप्तमी “शीतला-सप्तमी” इस यथार्थ नाम वाली है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “शीतला सप्तमी व्रत” कथन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य पन्द्रहवाँ अध्याय | Chapter -15 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 15 Adhyay

Shravan Maas 15 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य पन्द्रहवाँ अध्याय
Chapter -15

 

Click Here For Download Now

 

सुपौदन षष्ठी व्रत तथा अर्क विवाह विधि

सनत्कुमार बोले – हे देवेश ! मैंने नागों का यह आश्चर्यजनक पंचमी व्रत सुन लिया अब आप बताएं कि षष्ठी तिथि में कौन-सा व्रत होता है और उसकी विधि क्या है?

ईश्वर बोले – हे विपेन्द्र ! श्रावण मास (Shravan Maas) के शुक्ल पक्ष में षष्ठी तिथि को महामृत्यु का नाश करने वाले सुपौदन नामक शुभ व्रत को करना चाहिए। शिवालय में अथवा घर में ही प्रयत्नपूर्वक शिव (Lord Shiv) का पूजन करके सुपौदन का नैवेद्य उन्हें विधिपूर्वक अर्पण करना चाहिए। इस व्रत के साधन में आम्र का लवण मिलाकर शाक और अनेक पदार्थों के नैवेद्य अर्पित करें, साथ ही ब्राह्मण को वायन प्रदान करे। जो इस विधि से व्रत करता है उसे अनन्त पुण्य मिलता है।

इस प्रकरण में लोग एक प्राचीन कहानी सुनाते है जो इस प्रकार से है – प्राचीन समय में रोहित नाम का एक राजा था। काफी समय बीतने के बाद भी उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हुई तब पुत्र की अभिलाषा में उस राजा ने अत्यंत कठोर तप किया। ब्रह्मा जी ने राजा से कहा – “तुम्हारे प्रारब्ध में पुत्र नहीं है” तब भी पुत्र की लालसा में वह राजा अपनी तपस्या से ज़रा भी विचलित नहीं हुआ। इसके बाद राजा तपस्या करते-करते संकटग्रस्त हो गए तब ब्रह्माजी पुनः प्रकट हुए और कहने लगे – “मैंने आपको पुत्र का वर तो दे दिया है लेकिन आपका यह पुत्र अल्पायु होगा” तब राजा तथा उनकी पत्नी ने विचार किया के इससे रानी का बांझपन तो दूर हो जाएगा। संतानहीनता की निंदा नहीं होगी।

कुछ समय बीत जाने के बाद ब्रह्माजी के वरदान से उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई. राजा ने विधिपूर्वक उसके जातकर्म आदि सभी संस्कार किए। दक्षिणा नाम वाली उस रानी व राजा ने अपने पुत्र का नाम शिवदत्त रखा। उचित समय आने पर भयभीत चित्त वाले राजा ने पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार किया किन्तु राजा ने उसकी मृत्यु के भय से उसका विवाह नहीं किया। तदनन्तर सोलहवें साल में उनका पुत्र शिवदत्त मृत्यु को प्राप्त हो गया तब ब्रह्मचारी की मृत्यु का स्मरण करते हुए राजा को बहुत चिंता होने लगी कि जिन लोगों के कुल में कोई ब्रह्मचारी मर जाए तब उनका कुल ख़तम हो जाता है और वह ब्रह्मचारी भी दुर्गति में पड़ जाता है।

सनत्कुमार बोले – हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! इसके दोष निवारण का उपाय है या नहीं, यदि उपाय है तो अभी बताएं जिससे दोष की शान्ति हो सके।

ईश्वर बोले – यदि कोई स्नातक अथवा ब्रह्मचारी मर जाए तो अर्कविधि से उसका विवाह कर देना चाहिए। इसके बाद उन दोनों ब्रह्मचारी तथा आक को परस्पर संयुक्त कर देना चाहिए। अब अर्कविवाह की विधि कहते हैं – मृतक का गोत्र, नाम आदि लेकर देशकाल का उच्चारण करके करता कहे कि “मैं मृत ब्रह्मचारी के दोष निवारन हेतु वैसर्गिक व्रत करता हूँ” । सर्वप्रथम सुवर्ण से अभ्युदयिक करके अग्नि स्थापन कर आघार-होम करके चारों व्याहृतियों – ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः – से हवन करना चाहिए। इसके बाद व्रत अनुष्ठान के उत्तम फल के निमित्त व्रतपति अग्नि के संपादनार्थ विश्वेदेवों के लिए घृत की आहुति डालें। उसके बाद स्विष्टकृत होम करके अवशिष्ट होम संपन्न करें। पुनः देशकाल का उच्चारण करके इस प्रकार बोले – “मैं अर्कविवाह करूँगा।”

उसके बाद सुवर्ण से अभ्युदयिक कृत्य करके अर्कशाखा तथा मृतक की देह को तेल तथा हल्दी से लिप्त करके पीले सूत से वेष्टित करें और पीले रंग के दो वस्त्रों से उन्हें ढक दें। इसके बाद अग्निस्थापन करे और विवाह विधि में प्रयुक्त योजक नामक अग्नि में आघार होम करें व अग्नि के लिए आज्य होम करें। उसके बाद चारों व्याहृतियों से – ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः – बृहस्पति तथा कामदेव के लिए आहुति प्रदान करें। पुनः घृत से स्विष्टकृत होमकरके संपूर्ण हवन कर्म समाप्त करें। उसके बाद आक की डाली तथा मृतक के शव को विधिपूर्वज जला दे। मृतक अथवा म्रियमाण के निमित्त छह वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इस अवसर पर तीस ब्रह्मचारियों को नवीन कौपीन वस्त्र प्रदान करना चाहिए और हस्तप्रमाण अथवा कान तक लंबाई वाले दंड तथा कृष्ण मृगचर्म भी प्रदान करने चाहिए। उन्हें चरण पादुका, छत्र, माला, गोपीचंदन, प्रवालमणि की माला तथा अनेक आभूषण समर्पित करने चाहिए। इस विधान से व्रत करने पर कोई भी विघ्न नहीं होता है।

ईश्वर बोले – ब्राह्मणों से यह सुनकर राजा ने मन में विचार किया कि यह अर्कविवाह तो मुझे गौण प्रतीत होता है, मुख्य नहीं क्योंकि कोई भी व्यक्ति मरे हुए को अपनी कन्या नहीं देता है। मैं राजा हूँ अतः मैं उस व्यक्ति को अनेक रत्न तथा धन दूंगा जो कोई भी इसकी वधू के रूप में अपनी कन्या प्रदान करेगा। उस नगर में एक ब्राह्मण था उस समय वह किसी दूसरे नगर में गया हुआ था। उसकी एक सुन्दर पुत्री थी जिसकी माता की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी। ब्राह्मण की दूसरी भी पत्नी थी जो ब्राह्मण की पुत्री के प्रति बुरे विचार रखती थी तथा दुष्ट मन वाली थी। कन्या दस वर्ष की तथा दीन थी और अपनी सौतेली माता के अधीन थी। अतः सौतेली माता ने द्वेष तथा अत्यधिक धन के लालच में एक लाख मुद्रा लेकर उस कन्या को मृतक राजकुमार के लिए दे दिया।

कन्या को लेकर राजा के लोग नदी के तट पर श्मशान भूमि में राजकुमार के पास ले गए और शव के साथ उसका विवाह कर दिया। इसके बाद विधानपूर्वक शव के साथ कन्या का योग करके जब वे जलाने की तैयारी करने लगे तब उस कन्या ने पूछा – हे सज्जनों ! आप लोग यह क्या कर रहे है? तब वे सभी दुखित मन से कहने लगे कि हम लोग तुम्हारे इस पति को जला रहे है। इस पर भयभीत होकर बाल स्वभाव के कारण रोती हुई उस कन्या ने कहा – आप लोग मेरे पति को क्यों जला रहे हैं, मैं जलाने नहीं दूँगी। आप लोग सभी यहाँ से चले जाइए, मैं अकेली ही यहाँ बैठी रहूँगी और जब ये उठेंगे तब मैं अपने पतिदेव के साथ चली जाऊँगी।

उसका हठ देखकर दया के कारण दीन चित्त वाले कुछ भाग्यवादी वृद्धजन कहने लगे – “अहो ! होनहार भी क्या होता है। इसे कोई भी नहीं जान सकता। दीनों की रक्षा करने वाले तथा कृपालु भगवन न जाने क्या करेंगे ! सौत की पुत्री का भाव रखने के कारण सौतेली माता ने इस कन्या को बेचा है अतः संभव है कि भगवान् इसके रक्षक हो जाएं। अतः हम लोग इस कन्या को व इस शव को नहीं जला सकते इसलिए सभी को अच्छा लगे तो हम लोगों को यहाँ से चले जाना चाहिए।” परस्पर ऐसा निश्चय करके वे सब अपने नगर को चले गए।

बाल स्वभाव के कारण “यह सब क्या है” – इसे ना जानती हुई भय से व्याकुल वह कन्या एकमात्र शिव (Lord Shiv) तथा पार्वती का स्मरण करती रही। उस कन्या के स्मरण करने से सब कुछ जानने वाले तथा दया से पूर्ण ह्रदय वाले शिव-पार्वती शीघ्र ही वहां आ गए। नन्दी पर विराजमान उन तेजनिधान शिव-पार्वती को देखकर उन देवों का न जानती हुई भी उस कन्या ने पृथ्वी पर दंड की भाँति पड़कर प्रणाम किया तब उसे आश्वासन प्राप्त हुआ कि पति से तुम्हारे मिलने का समय अब आ गया है तब कन्या ने कहा कि मेरे पति अब जीवित नहीं होंगे? उसके बालभाव से प्रसन्न तथा दया से परिपूर्ण शिव-पार्वती ने कहा कि तुम्हारी माता ने सुपौदन नामक व्रत किया था। उस व्रत का फल संकल्प करके तुम अपने पति को प्रदान करो। तुम कहो कि “मेरी माता के द्वारा जो सुपौदन नामक व्रत किया गया है, उसके प्रभाव से मेरे पति जीवित हो जाएं।” तब कन्या ने वैसा ही किया और उसके परिणामस्वरूप शिवदत्त जीवित उठ खड़ा हो गया।

उस कन्या को व्रत का उपदेश देकर शिव (Lord Shiv) तथा पार्वती अंतर्ध्यान हो गए तब शिवदत्त ने उस कन्या से पूछा – “तुम कौन हो और मैं यहाँ कैसे आ गया हूँ?” तब उस कन्या ने उसे वृत्तांत सुनाया और रात हो गई। प्रातः होने पर नदी के तट पर गए लोगों ने राजा को वापिस आकर कहा कि – हे राजन! आपका पुत्र व पुत्रवधू नदी के तट पर स्थित है। विश्वस्त लोगों से यह बात सुनकर राजा बहुत खुश हुआ. वह हर्ष भेरी बजवाते हुए नदी के तट पर गया। सभी लोग प्रसन्न होकर राजा की प्रशंसा करने लगे।

वह बोले – हे राजन ! मृत्यु के घर गया हुआ आपका पुत्र पुनः लौट आया है। इस पर राजा पुत्रवधू की प्रशंसा करने लगे और बोले कि लोग मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे है! प्रशंसा के योग्य तो यह वधू है। मैं तो भाग्यहीन तथा अधम हूँ। धन्य और सौभाग्यशालिनी तो यह पुत्रवधू है क्योंकि इसी के पुण्य प्रभाव से मेरा पुत्र जीवित हुआ है। इस प्रकार अपनी पुत्रवधू की प्रशंसा करके राजा ने दान तथा सम्मान के साथ श्रेष्ठ ब्राह्मणो का पूजन किया और ग्राम से बाहर ले जाए गए मृत व्यक्ति के पुनः ग्राम में प्रवेश कराने से संबंधित शान्ति की विधि को ब्राह्मणों के निर्देश पर विधिपूर्वक संपन्न किया।

हे वत्स ! इस प्रकार मैंने आपसे यह सुपौदन नामक व्रत कहा. इसे पांच वर्ष तक करने के अनन्तर उद्यापन करना चाहिए। पार्वती तथा शिव (Lord Shiv) की प्रतिमा का प्रतिदिन पूजन करना चाहिए और प्रातःकाल आम के पल्लवों के साथ चरु का होम करना चाहिए, साथ ही नैवेद्य तथा वायन अर्पित करना चाहिए। मनुष्य यदि व्रत की बताई गई इस विधि के अनुसार आचरण करे तो वह दीर्घजीवी पुत्र प्राप्त करके मृत्यु के बाद शिवलोक जाता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “सुपौदनषष्ठी व्रत कथन” नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय | Chapter -14 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 14 Adhyay

Shravan Maas 14 Adhyayश्रावण माह माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय

Chapter -14

 

Click Here For Download Now

 

नाग पंचमी व्रत का माहात्म्य

ईश्वर बोले – हे महामुने ! श्रावण मास (Shravan Maas) में जो व्रत करने योग्य है वो अब मैं बताऊँगा, आप उसे ध्यान से सुनिए। चतुर्थी तिथि को एक बार भोजन करें और पंचमी को नक्त भोजन करें। स्वर्ण, चाँदी, काष्ठ अथवा मिटटी का पाँच फणों वाला सुन्दर नाग बनाकर पंचमी के दिन उस नाग की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। द्वार के दोनों ओर गोबर से बड़े-बड़े नाग बनाए और दधि, शुभ दुर्वांकुरों, कनेर-मालती-चमेली-चम्पा के फूलों, गंधों, अक्षतों, धूपों तथा मनोहर दीपों से उनकी विधिवत पूजा करें। उसके बाद ब्राह्मणों को घृत, मोदक तथा खीर का भोजन कराएं। इसके बाद अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, कर्कोटक, अश्व, आठवाँ धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालीय तथा तक्षक – इन सब नागकुल के अधिपतियों को तथा इनकी माता कद्रू को भी हल्दी और चन्दन से दीवार पर लिखकर फूलों आदि से इनकी पूजा करें।

उसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि वामी में प्रत्यक्ष नागों का पूजन करें और उन्हें दूध पिलाएं। घृत तथा शर्करा मिश्रित पर्याप्त दुग्ध उन्हें अर्पित करें। उस दिन व्यक्ति लोहे के पात्र में पूड़ी आदि ना बनाए। नैवेद्य के लिए गोधूम का पायस भक्तिपूर्वक अर्पण करें। भुने हुए चने, धान का लावा तथा जौ सर्पों को अर्पित करना चाहिए और स्वयं भी उन्हें ग्रहण करना चाहिए, बच्चों को भी यही खिलाना चाहिए इससे उनके दाँत मजबूत होते हैं। सांप की बाम्बी के पास श्रृंगारयुक्त स्त्रियों को गायन तथा वादन करना चाहिए और इस दिन को उत्सव की तरह मनाना चाहिए. इस विधि से व्रत करने पर सर्प से कभी भी भय नहीं होता है। हे विप्र ! मैं लोकों के हित की कामना से आपसे कुछ और भी कहूँगा, हे महामुने ! आप उसे सुनिए। हे वत्स ! नाग के द्वारा डसा गया मनुष्य मरने के बाद अधोगति को प्राप्त होता है और अधोगति में पहुंचकर वह तामसी सर्प होता है। इसकी निवृत्ति के लिए पूर्वोक्त विधि से एकभुक्त आदि समस्त कृत्य करें और ब्राह्मणों से नाग निर्माण तथा पूजा आदि आदरपूर्वक कराएं।
इस प्रकार बारह मासों में प्रत्येक मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान करें और वर्ष के पूरा होने पर नागों के निमित्त ब्राह्मणों तथा सन्यासियों को भोजन कराएं। किसी पुराणज्ञाता ब्राह्मण को रत्नजटित सुवर्णमय नाग और सभी उपस्करों से युक्त तथा बछड़े सहित गौ प्रदान करें। दान के समय सर्वव्यापी, सर्वगामी, सब कुछ प्रदान करने वाले, अनंतनारायण का स्मरण करते हुए यह कहना चाहिए – हे गोविन्द ! मेरे कुल में अगर कोई व्यक्ति सर्प दंश से अधोगति को प्राप्त हुए हैं वे मेरे द्वारा किए गए व्रत तथा दान से मुक्त हो जाएं – ऐसा उच्चारण करके अक्षतयुक्त तथा श्वेतचन्दन मिश्रित जल वासुदेव के समक्ष भक्तिपूर्वक जल में छोड़ दें।

हे मुनिसत्तम ! इस विधि से व्रत के करने पर उसके कुल में जो सभी लोग सर्प के काटने से भविष्य में मृत्यु को प्राप्त होगें या पूर्व में मर चुके हैं वे सब स्वर्गगति प्राप्त करेंगे। साथ ही हे कुलनन्दन ! इस विधि से व्रत करने वाला अपने सभी वंशजों का उद्धार करके अप्सराओं के द्वारा सेवित होता हुआ शिव-सान्निध्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य वित्तशाठ्य से रहित होता है, वही इस व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त करता है।
जो लोग शुक्ल पक्ष की सभी पंचमी तिथियों में नक्तव्रत करके भक्ति संपन्न होकर पुष्प आदि उपहारों से सौभाग्यशाली नागों का पूजन करते हैं, उनके घरों में मणियों की किरणों से विभूषित अंगोंवाले सर्प उन्हें अभय देने वाले होते हैं और उनके ऊपर प्रसन्न रहते हैं। जो ब्राह्मण गृहदान का प्रतिग्रह करते है, वे भी घोर यातना भोगकर अंत में सर्पयोनि को प्राप्त होते हैं।

हे मुनिसत्तम ! जो कोई भी मनुष्य नागहत्या के कारण इस लोक में मृत संतानों वाले अथवा पुत्रहीन होते हैं और जो कोई मनुष्य स्त्रियों के प्रति कार्पण्य के कारण सर्प योनि में जाते हैं, कुछ लोग धरोहर रखकर उसे स्वयं ग्रहण कर लेते हैं अथवा मिथ्या भाषण के कारण सर्प होते हैं अथवा अन्य कारणों से भी जो मनुष्य सर्पयोनि में जाते हैं उन सभी के प्रायश्चित के लिए यह उत्तम उपाय कहा गया है।

यदि कोई मनुष्य वित्तशाठ्य से रहित होकर नाग पंचमी का व्रत करता है तो उसके कल्याण के लिए सभी नागों के अधिपति शेषनाग तथा वासुकि हाथ जोड़कर प्रभु श्रीहरि से तथा सदाशिव (Lord Shiv) से प्रार्थना करते हैं तब शेष और वासुकि की प्रार्थना से प्रसन्न हुए परमेश्वर शिव (Lord Shiv) तथा विष्णु उस व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण कर देते हैं। वह नागलोक में अनेक प्रकार के विपुल सुखों का उपभोग करके बाद में उत्तम वैकुण्ठ अथवा कैलाश में जाकर शिव (Lord Shiv) तथा विष्णु का गण बनकर परम सुख प्राप्त करता है। हे वत्स ! मैंने आपसे नागों के इस पंचमी व्रत का वर्णन कर दिया, इसके बाद अब आप अन्य कौन-सा व्रत सुनना चाहते हैं, उसे बताइए।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “नागपंचमी व्रत कथन” नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय | Chapter -13 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 13 Adhyay

Shravan Maas 13 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय
Chapter -13

 

Click Here For Download Now

 

दूर्वागणपति व्रत विधान

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! किस व्रत के द्वारा अतुलनीय सौभाग्य प्राप्त होता है और मनुष्य पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य तथा सुख प्राप्त करता है? हे महादेव ! व्रतों में उत्तम उस व्रत को आप मुझे बताएं।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! तीनों लोकों में विख्यात दूर्वागणपति व्रत है। सर्वप्रथम भगवती पार्वती ने श्रद्धा के साथ इस व्रत को किया था। हे मुनिसत्तम ! इसी प्रकार पूर्व में सरस्वती, महेंद्र, विष्णु, कुबेर, अन्य देवता, मुनिजन, गन्धर्व, किन्नर – इन सभी ने भी इस व्रत को किया था। श्रावण मास (Shravan Maas) की शुक्ल पक्ष की शुद्ध व महापुण्यदायिनी चतुर्थी तिथि को इस व्रत को करना चाहिए क्योंकि उसी दिन सभी पाप समूह का नाश हो जाएगा।

चतुर्थी के दिन स्वर्ण पीठासीन स्थित एकदन्त गजानन विघ्नेश की स्वर्णमयी प्रतिमा बनाकर उसके आधार पर स्वर्णमय दूर्वा को व्यवस्थित करने के पश्चात विघ्नेश्वर को रक्तवस्त्र से वेष्टित ताम्रमय पात्र के ऊपर रखकर सर्वतोभद्रमण्डल में रक्त पुष्पों से, अपामार्ग-शमी-दूर्वा-तुलसी-बिल्वपत्र – इन पाँच पत्रों से, अन्य उपलब्ध सुगन्धित पुष्पों से, सुगन्धित द्रव्यों से, फलों से तथा मोदकों से उनकी पूजा करनी चाहिए और इसके बाद उन्हें उपहार अर्पित करना चाहिए। इस प्रकार अनेक उपचारों से भी गिरिजापुत्र विघ्नेश की पूजा करनी चाहिए।

इस प्रकार कहें – सुवर्ण निर्मित इस प्रतिमा में मैं विघ्नेश का आवाहन करता हूँ, कृपानिधि पधारें। इस सुवर्णमय सर्वोत्तम रत्नजटित सिंहासन को मैंने आसन के लिए प्रदान किया है इसलिए विश्व के स्वामी इसे स्वीकार करें।

हे उमासुत ! आपको नमस्कार है ! हे विश्वव्यापिन ! हे सनातन ! मेरे समस्त कष्टों को आप नष्ट कर दें। मैं आपको पाद्य समर्पित करता हूँ। गणेश्वर, देव, उमापुत्र तथा मंगल का विधान करने वाले को यह अर्घ्य प्रदान करता हूँ। हे भगवन ! आप मेरे इस अर्घ्य को स्वीकार करें। विनायक, शूर तथा वर प्रदान करने वाले को नमस्कार है, नमस्कार है। मैं आपको यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, इसे ग्रहण करें। मैंने गंगा आदि सभी तीर्थों से प्रार्थनापूर्वक यह जल प्राप्त किया है। हे सुरपुंगव ! आपके स्नान के लिए मेरे द्वारा प्रदत्त इस जल को स्वीकार कीजिए।
सिंदूर से चित्रित तथा कुंकुम से रंगा हुआ यह वस्त्रयुग्म आपको दिया गया है, आप इसे ग्रहण करें। लम्बोदर तथा सभी विघ्नों का नाश करने वाले देवता को नमस्कार है। उमा के शरीर के मल से आविर्भूत हे गणेश जी ! आप इस चन्दन को स्वीकार करें।

हे सुरश्रेष्ठ ! मैंने भक्ति के साथ आपको रक्त चन्दन से मिश्रित अक्षत अर्पण किया है, हे सुरसत्तम ! आप इसे स्वीकार करें। मैं चम्पा के पुष्पों, केतकी के पत्रों तथा जपाकुसुम के पुष्पों से गौरी पुत्र की पूजा करता हूँ, आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों। सभी लोकों पर अनुग्रह करने तथा दानवों का वध करने के लिए स्कन्द गुरु के रूप में अवतार ग्रहण करने वाले आप प्रसन्नतापूर्वक यह धूप लीजिए। परम ज्योति प्रकाशित करने वाले तथा सभी सिद्धियों को देने वाले आप महादेव पुत्र को मैं दीप अर्पण करता हूँ, आपको नमस्कार है। इसके बाद “गणानां त्वा.” – इस मन्त्र से मोदक, चार प्रकार के अन्न, पायस तथा लड्डू आदि का नैवेद्य अर्पण करें।

मैं आपकी मुख शुद्धि के लिए आदरपूर्वक कपूर, इलायची तथा नागवल्ली के दल से युक्त ताम्बूल आपको प्रदान करता हूँ। हिरण्यगर्भ के गर्भ में स्थित अग्नि के सुवर्ण बीज को मैं दक्षिणा रूप में आपको प्रदान करता हूँ, अतः आप मुझे शान्ति प्रदान कीजिए। हे गणेश्वर ! हे गणाध्यक्ष ! हे गौरीपुत्र ! हे गजानन ! हे इभानन ! आपकी कृपा से मेरा व्रत पूर्ण हो। इस प्रकार अपने सामर्थ्य के अनुसार विघ्नेश का विधिवत पूजन करके उपस्कर निवेदित सामग्री सहित गणाध्यक्ष को आचार्य के लिए अर्पण कर देना चाहिए। उनसे प्रार्थना करे – हे भगवन ! हे ब्रह्मण ! दक्षिणा सहित गणराज की मूर्ति को आप ग्रहण कीजिए, आपके वचन से मेरा यह व्रत आज पूर्णता को प्राप्त हो।

जो मनुष्य पाँच वर्ष तक इस प्रकार व्रत कर के उद्यापन करता है वह वांछित मनोरथों को प्राप्त करता है और देहांत के बाद शिव (Lord Shiv) लोक को जाता है अथवा तीन वर्ष तक जो इस व्रत को करता है वह सभी सिद्धियां प्राप्त करता है। जो व्यक्ति उद्यापन के बिना ही इस उत्तम व्रत को करता है, विधि के अनुसार भी उसका जो कुछ किया हुआ होता है वह सब निष्फल हो जाता है।

अब उद्यापन विधि बताई जाती है – उद्यापन के दिन प्रातःकाल तिलों से स्नान करें। उसके बाद व्यक्ति एक पल या आधा पल या उसके भी आधे पल की स्वर्ण की गणपति की प्रतिमा बनाकर पंचगव्य से स्नान कराकर भक्ति तथा श्रद्धा के साथ इन दस नाम-मन्त्रों से दूर्वादलों से सम्यक पूजन करें – हे गणाधीश ! हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! हे विनायक ! हे ईशपुत्र ! हे सर्वसिद्धिप्रदायक ! हे एकदन्त ! हे इभवक्त्र ! हे मूषकवाहन ! आपको नमस्कार है। आप कुमार गुरु को नमस्कार है – इन नाम पदों से पृथक-पृथक पूजन करें।
पहले दिन अधिवासन करके प्रातःकाल ग्रहहोम करके दूर्वादलों तथा मोदकों से होम करना चाहिए। उसके बाद पूर्णाहुति देकर आचार्य आदि का विधिवत पूजन करना चाहिए और घट-तुल्य थनों वाली गाय का दान अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए। हे वत्स ! इस प्रकार व्रत करने पर मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है। हे सनत्कुमार ! अपने प्रिय पुत्र गणेश के व्रत करने से संतुष्ट होकर मैं उस मनुष्य को पृथ्वी पर सभी सुख प्रदान करके अंत में उसे सद्गति देता हूँ। जैसे दूर्वा अपनी शाखा-प्रशाखाओं के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होती है उसी प्रकार उस मनुष्य की पुत्र, पौत्र आदि संतति निरंतर बढ़ती रहती है। हे सनत्कुमार ! मैंने दूर्वागणपति का यह अत्यंत गोपनीय व्रत कहा है, सुख चाहने वालों को इस सर्वोत्कृष्ट व्रत को अवश्य करना चाहिए।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावणमास माहात्म्य में “दूर्वागणपति व्रत कथन” नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य बारहवाँ अध्याय | Chapter -12 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 12 Adhyay

Shravan Maas 12 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य बारहवाँ अध्याय
Chapter -12

 

Click Here For Download Now

 

स्वर्णगौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! अब मैं स्वर्णगौरी का शुभ व्रत कहूँगा, यह व्रत श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि को होता है। इस दिन प्रातःकाल स्नान करके नित्यकर्म करने के बाद संकल्प करे और सोलहों उपचारों से पार्वती तथा शंकर जी की पूजा करें। इसके बाद भगवान शिव (Lord Shiv) से प्रार्थना करें – “हे देवदेव ! आइए, हे जगत्पते ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ. हे सुरसत्तम ! मेरे द्वारा की गई पूजा को आप स्वीकार करें।” इस दिन भवानी पार्वती की प्रसन्नता और व्रत की पूर्णता के लिए दंपत्तियों को सोलह वायन प्रदान करें और “द्विजश्रेष्ठ की प्रसन्नता के लिए मैं यह वायन प्रदान करता हूँ” – ऐसा कहें।

चावल के चूर्ण के सोलह पकवानों से सोलह बांस की टोकरियों को भरकर तथा उन्हें वस्त्र आदि से युक्त करें और पुनः सोलह द्विज दंपत्तियों को बुलाकर इस प्रकार कहते हुए प्रदान करें – “व्रत की संपूर्णता के लिए मैं ब्राह्मणों को यह प्रदान कर रहा हूँ। मेरे कार्य की समृद्धि के लिए सुन्दर अलंकारों से विभूषित तथा पतिव्रत्य से सुशोभित ये शोभामयी सुहागिन स्त्रियां इन्हें ग्रहण करें” । इस प्रकार सोलह वर्ष अथवा आठ वर्ष या चार वर्ष या एक वर्ष तक इस व्रत को करके शीघ्र ही इसका उद्यापन कर देना चाहिए। पूजा के अनन्तर कथा का श्रवण करके वाचक की विधिवत पूजा करनी चाहिए।

सनत्कुमार बोले – हे प्रभो ! इस व्रत को सर्वप्रथम किसने किया, इसका माहात्म्य कैसा है और इसका उद्यापन किस प्रकार करना चाहिए? वह सब आप मुझे बताएं।

ईश्वर बोले – हे महाभाग ! आपने उत्तम बात पूछी है अब मैं आपके समक्ष मनुष्यों को सभी संपदाएं प्रदान करने वाले स्वर्णगौरी नामक व्रत का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में सरस्वती नदी के तट पर सुविला नामक विशाल पूरी थी। उस नगरी में कुबेर के समान चन्द्रप्रभ नामक एक राजा था।

उस राजा की रूपलावण्य से संपन्न, सौंदर्य तथा मंद मुस्कान से युक्त और कमल के समान नेत्रों वाली महादेवी और विशाला नामक दो भार्याएँ थी। उन दोनों में ज्येष्ठ महादेवी नामक भार्या राजा को अधिक प्रिय थी। आखेट करने में आसक्त मन वाले वे राजा किसी समय वन में गए और सिंहों, शार्दूलों, सूकरों, वन्य भैंसों तथा हाथियों को मारकर प्यास से आकुल होकर उस घोर वन में इधर-उधर भ्रमण करते रहे। राजा ने उस वन में चकवा-चकवी तथा बत्तखों से युक्त, भ्रमरों तथा पिकों से समन्वित और विकसित मल्लिका, चमेली, कुमुद तथा कमल से सुशोभित अप्सराओं का एक सुन्दर सरोवर देखा। उस सरोवर के तट पर आकर उसका जल पीकर राजा ने भक्तिपूर्वक गौरी का पूजन करती हुई अप्सराओं को देखा तब कमल के समान नेत्रों वाले राजा ने उनसे पूछा – “आप लोग यह क्या कर रही है? इस पर उन सबने कहा – “हम लोग स्वर्णगौरी नामक उत्तम व्रत कर रही हैं, यह व्रत मनुष्यों को सभी संपदाएं प्रदान करने वाला है. हे नृपश्रेष्ठ ! आप भी इस व्रत को कीजिए” ।

राजा बोले – इसका विधान कैसा है और इसका फल क्या है? मुझे यह सब विस्तार से बताएं तब वे सारी स्त्रियां बताने लगी – हे राजन ! यह स्वर्णगौरी नामक व्रत श्रावण मास (Shravan Maas) की शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है। इस व्रत में भक्तिपूर्वक अत्यंत प्रसन्नता के साथ पार्वती तथा शिव (Lord Shiv) की पूजा करनी चाहिए। पुरुष को सोलह तारों वाला एक डोरा दाहिने हाथ में बाँधना चाहिए। स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में या गले में इस डोरे को बाँधना चाहिए। यह सब सुनने के बाद संयत चित्त वाले राजा ने भी उस व्रत को संपन्न करके सोलह धागों से युक्त डोरे को अपने दाहिने हाथ में बाँध लिया।

उन्होंने कहा – हे देवदेवेशि ! मैं इस डोरे को बांधता हूँ, आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों और मेरा कल्याण करें। इस प्रकार देवी का व्रत करके वे अपने घर आ गए। राजा के हाथ में डोरा देखकर ज्येष्ठ रानी महादेवी ने पूछा और सारी बात सुनकर वह राजा के ऊपर अत्यंत कुपित हो उठी। राजा ने कहा – “ऐसा मत करो, मत करो” – लेकिन रानी ने उस डोरे को तोड़कर बाहर एक सूखे पेड़ के ऊपर फेंक दिया। उस डोरे के स्पर्श मात्र से वह वृक्ष पल्लवों से युक्त हो गया। उसके बाद उसे देखकर दूसरी रानी भी आश्चर्यचकित हो उठी और उस वृक्ष पर स्थित टूटे हुए डोरे को उसने अपने बाएं हाथ में बाँध लिया। उसी समय से उसके व्रत के माहात्म्य से वह रानी राजा के लिए अत्यंत प्रिय हो गई। वह ज्येष्ठ रानी व्रत के अपचार के कारण राजा से त्यक्त होकर दुःखित हो वन में चली गई।

अपने मन में वह भगवती देवी का ध्यान करते हुए मुनियों के पवित्र आश्रम में निवास करने लगी, कहीं-कहीं श्रेष्ठ मुनियों के द्वारा यह कहकर आश्रम में रहने से रोक दी जाती थी कि हे पापिन ! अपनी इच्छा के अनुसार यहां से चली जाओ। इस प्रकार घोर वन में इधर-उधर भ्रमण करती हुई वह अत्यंत खिन्न होकर एक स्थान पर बैठ गई तब उसके ऊपर कृपा करके देवी उसके समक्ष प्रकट हो गई। उन्हें देखकर वह रानी भूमि पर दंडवत प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगी – हे देवी ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है, हे भक्तों को वर देने वाली ! आपकी जय हो। शंकर के वाम भाग में विराजने वाली! आपकी जय हो ! हे मंगलमङ्गले ! आपकी जय हो तब देवी की भक्ति के द्वारा वरदान प्राप्त करके और उन गौरी की अर्चना करके उसने जो व्रत किया, उसके प्रभाव से रानी के पति उसे घर ले आये। उसके बाद देवी की कृपा से उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गई। राजा सभी समृद्धियों से संपन्न होकर उन दोनों के साथ पूर्ण रूप से राज्य करने लगे। अंत में राजा ने उन दोनों रानियों सहित शिवपद को प्राप्त किया।

जो स्वर्णगौरी के इस उत्तम व्रत को करता है वह मेरा तथा गौरी का अत्यंत प्रिय होता है और विपुल लक्ष्मी प्राप्त करके तथा भूलोक में शत्रुसमुह को पराजित कर शिवजी के विशुद्ध लोक को जाता है। हे सनत्कुमार ! अब आप दत्तचित्त होकर इस व्रत के उद्यापन की विधि सुनिए।

चन्द्रमा तथा ताराबल से युक्त शुभ तिथि तथा शुभ वार में एक मंडप बनाकर उसके मध्य में अष्टदलकमल के ऊपर धान्य रखकर उस पर एक कुम्भ स्थापित करें। पुनः उसके ऊपर सोलह पल प्रमाण का बना हुआ एक तिलपूरित ताम्रमय पूर्णपात्र रखे और उस पर पार्वती-शंकर की दो प्रतिमाएँ स्थापित करें। शिवजी की प्रतिमा श्वेत वर्ण के दो वस्त्रों तथा शुक्ल वर्ण के यज्ञोपवीत से सुशोभित हो। उसके बाद वेदोक्त मन्त्रों से विधिपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा करें और भली-भाँति पूजा करके रात्रि में जागरण करें। इसके अनन्तर प्रातःकाल पूजा करने के बाद होम करें।

सर्वप्रथम ग्रह होम करके प्रधान होम करें। हवन के लिए यवमिश्रित तिल-घृत से पूर्णरूप से सशक्त होना चाहिए। एक हजार अथवा एक सौ आहुति डालनी चाहिए. उसके बाद वस्त्र, अलंकार तथा गौ के द्वारा आचार्य की पूजा करनी चाहिए और वायन प्रदान करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, साथ ही सोलह दंपत्तियों को भी भोजन कराना चाहिए। अपने द्रव्य सामर्थ्य के अनुसार उन्हें भूयसी दक्षिणा देनी चाहिए। अंत में हर्षोल्लास से युक्त होकर बन्धुजनो के साथ स्वयं भोजन करना चाहिए।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “तृतीया में स्वर्णगौरीव्रत कथन” नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय | Chapter -11 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 11 Adhyay

Shravan Maas 11 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय
Chapter -11

 

Click Here For Download Now

 

रोटक तथा उदुम्बर व्रत का वर्णन

सनत्कुमार बोले – हे देव ! श्रावण मास (Shravan Maas) के वारों के सभी व्रतों को मैंने आपसे सुना किन्तु आपके वचनामृत का पान करके मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। हे प्रभो ! श्रावण के समान अन्य कोई भी मास नहीं है – ऐसा मुझे प्रतीत होता है अतः आप तिथियों का माहात्म्य बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! मासों में कार्तिक मास श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ माघ कहा गया है, उस माघ से भी श्रेष्ठ वैशाख है और उससे भी श्रेष्ठ मार्गशीर्ष है जो श्रीहरि को अत्यंत प्रिय है। विश्वरूप भगवान् से उत्पन्न होने से ये चारों मास मुझे प्रिय हैं किन्तु बारहों मासों में श्रवण तो साक्षात शिव (Lord Shiv)का रूप है। हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas) में सभी तिथियां व्रत युक्त हैं फिर भी मैं उनमें प्रधान रूप से कुछ उत्तम तिथियों को आपको बता रहा हूँ। सर्वप्रथम मैं तिथि तथा वार से मिश्रित व्रत आपको बताता हूँ।

श्रावण मास (Shravan Maas) में जब प्रतिपदा तिथि में सोमवार हो तो उस महीने में पाँच सोमवार पड़ते हैं। उस श्रावण मास (Shravan Maas) में मनुष्यों को रोटक नामक व्रत करना चाहिए। यह रोटक नामक व्रत साढ़े तीन महीने का भी होता है, यह लक्ष्मी की वृद्धि करने वाला तथा सभी मनोरथों की सिद्धि करने वाला है। हे मुने ! मैं उसका विधान बताऊंगा, आप सावधान होकर सुनिए। श्रावण मास (Shravan Maas) के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा तिथि को जब सोमवार हो तब विद्वान् प्रातःकाल यह संकल्प करें – मैं आज से आरम्भ करके रोटक व्रत करूँगा, हे सुरश्रेष्ठ ! हे जगद्गुरो ! मुझ पर कृपा कीजिए।

उसके बाद अखंडित बिल्वपत्रों, तुलसीदलों, नीलोत्पल, कमलपुष्पों, कहलारपुष्पों, चम्पा तथा मालती के पुष्पों, कोविंद पुष्पों, आक के पुष्पों, उस ऋतु तथा काल में होने वाले नानाविध अन्य सुन्दर पुष्पों, धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकार के फलों से शूलधारी महादेव की प्रतिदिन पूजा करनी चाहिए। विशेष रूप से रोटकों का प्रधान नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। पुरुष के आहार प्रमाण के समान पाँच रोटक बनाने चाहिए। बुद्धिमान को चाहिए कि उनमें से दो रोटक ब्राह्मणों को दें, दो रोटक का स्वयं भोजन करें और एक रोटक देवता को नैवेद्य के रूप में अर्पित करें। बुद्धिमान को चाहिए कि शेषपूजा करने के अनन्तर अर्घ्य प्रदान करें।
केला, नारियल, जंबीरी नीबू, बीजपूरक, खजूर, ककड़ी, दाख, नारंगी, बिजौरा नीबू, अखरोट, अनार तथा अन्य और जो भी ऋतु में होने वाले फल हों – वे सब अर्घ्यदान में प्रशस्त हैं। उस अर्घ्यदान का फल सुनिए। सातों समुद्र सहित पृथ्वी का दान करके मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वही फल विधानपूर्वक इस व्रत को करके वह पा जाता है। विपुल धन की इच्छा रखने वालों को यह व्रत पाँच वर्ष तक रखना चाहिए। इसके बाद रोटक नामक व्रत का उद्यापन कर देना चाहिए। उद्यापन – कृत्य के लिए सोने तथा चाँदी के दो रोटक बनाए। प्रथम दिन अधिवासन करके प्रातःकाल शिव (Lord Shiv) मन्त्र के द्वारा घृत तथा उत्तम बिल्वपत्रों से हवन करें। हे तात ! इस विधि से व्रत के संपन्न किए जाने पर मनुष्य सभी वांछित फलों को प्राप्त कर लेता है। हे सनत्कुमार ! अब मैं द्वितीया के शुभ व्रत का वर्णन करूँगा जिसे श्रद्धापूर्वक करके मनुष्य लक्ष्मीवान तथा पुत्रवान हो जाता है। औदुम्बर नामक वह व्रत पाप का नाश करने वाला है।

शुभ सावन का महीना आने पर द्वितीया तिथि को प्रातःकाल संकल्प करके बुद्धिमान को विधिपूर्वक व्रत करना चाहिए। इस व्रत को करने वाला स्त्री हो या पुरुष – वह सभी संपदाओं का पात्र हो जाता है। इस व्रत में प्रत्यक्ष गूलर के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए किन्तु गूलर वृक्ष न मिलने पर दीवार पर वृक्ष का आकार बनाकर इन चार नाम मन्त्रों से उसकी पूजा करनी चाहिए – हे उदुंबर ! आपको नमस्कार है, हे हेमपुष्पक ! आपको नमस्कार है। जंतुसहित फल से युक्त तथा रक्त अण्डतुल्य फलवाले आपको नमस्कार है। इसके अधिदेवता शिव (Lord Shiv) तथा शुक्र की भी पूजा गूलर के वृक्ष में करनी चाहिए। इसके तैंतीस फल लेकर तीन बराबर भागों में बाँट लेना चाहिए। इनमें से ग्यारह फल ब्राह्मण को प्रदान करें, ग्यारह फल देवता को अर्पण करें और ग्यारह फलों का स्वयं भोजन करें।

उस दिन अन्न का आहार नहीं करना चाहिए। शिव (Lord Shiv) तथा शुक्र का विधिवत पूजन करके रात में जागरण करना चाहिए। हे तात ! इस प्रकार ग्यारह वर्ष तक व्रत का अनुष्ठान करने के बाद व्रत की संपूर्णता के लिए उद्यापन करना चाहिए। सुवर्णमय फल, पुष्प तथा पात्र सहित एक गूलर का वृक्ष बनाए और उसमें शिव (Lord Shiv) तथा शुक्र की प्रतिमा का पूजन करें, उसके बाद प्रातःकाल होम करें। गूलर के शुभ, कोमल तथा छोटे-छोटे एक सौ आठ फलों से तथा गूलर की समिधाओं से तिल तथा घृत सहित होम करें। इस प्रकार होमकृत्य समाप्त करके आचार्य की पूजा करें, उसके बाद सामर्थ्यानुसार एक सौ अन्यथा दस ब्राह्मणों को ही भोजन कराएं।

हे वत्स ! इस प्रकार व्रत किए जाने पर जो फल होता है, उसे सुनिए. जिस प्रकार यह गूलर का वृक्ष बहुत जंतुयुक्त फलो वाला होता है, उसी प्रकार व्रतकर्ता भी अनेक पुत्रों वाला होता है और उसके वंश की वृद्धि होती है। यह व्रत करने वाला सुवर्णमय पुष्पों से युक्त वृक्ष की भाँति लक्ष्मीप्रद हो जाता है। हे सनत्कुमार ! आज तक मैंने किसी को भी यह व्रत नहीं बताया था। गोपनीय से गोपनीय इस व्रत को मैंने आपके समक्ष कहा है। इसके विषय में संशय नहीं करना चाहिए और भक्तिपूर्वक इस व्रत का आचरण करना चाहिए।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसानत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “प्रति पदरोटक व्रतद्वितीयोदुम्बर व्रत कथन” नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य दसवाँ अध्याय | Chapter -10 Sawan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 10 Adhyay

Shravan Maas 10 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य दसवाँ अध्याय
Chapter -10

 

Click Here For Download Now

 

श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार को किए जाने वाले कृत्यों का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं आपसे शनिवार व्रत की विधि का वर्णन करूँगा, जिसका अनुष्ठान करने से मंदत्व नहीं होता है। श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार के दिन नृसिंह, शनि तथा अंजनीपुत्र हनुमान – इन तीनों देवताओं का पूजन करना चाहिए। दीवार पर अथवा स्तंभ पर नृसिंह की सुन्दर प्रतिमा बनाकर हल्दीयुक्त चन्दन से और नीले-लाल तथा पीले सुन्दर पुष्पों से लक्ष्मी सहित जगत्पति नृसिंह का भली-भांति पूजन करके उन्हें खिचड़ी का नैवेद्य तथा कुंजर नामक शाक का भोग अर्पण करना चाहिए। उसी को स्वयं भी खाना चाहिए और ब्राह्मणों को भी खिलाना चाहिए। तिल का तेल तथा घृत स्नान भगवान् नृसिंह को प्रिय है। शनिवार के दिन तिल सभी कार्यों के लिए प्रशस्त है।

शनिवार के दिन तिल के तेल से ब्राह्मणों तथा सुवासिनी स्त्रियों को उबटन लगाना चाहिए तथा कुटुंब सहित स्वयं भी संपूर्ण शरीर में तेल लगाकर स्नान करना चाहिए तथा उड़द का भोजन ग्रहण करना चाहिए इससे भगवान् नृसिंह प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार श्रावण मास (Shravan Maas) में चारों शनिवारों में इस व्रत को करना चाहिए। जो ऐसा करता है उसके घर में स्थिर लक्ष्मी का वास रहता है और धन धान्य की समृद्धि होती है। पुत्रहीन व्यक्ति पुत्र वाला हो जाता है और इस लोक में सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है। नृसिंह की कृपा से मनुष्य की चारों दिशाओं में व्याप्त रहने वाली उत्तम कीर्ति होती है। हे सौम्य ! मैंने आपसे नृसिंह का यह उत्तम व्रत कहा।

हे सनत्कुमार ! अब शनि की प्रसन्नता के लिए जो करना चाहिए उसे सुनिए। एक लंगड़े ब्राह्मण और उसके अभाव में किसी ब्राह्मण के शरीर में तिल का तेल लगाकर उसे उष्ण जल से स्नान कराना चाहिए और श्रद्धापूर्वक नृसिंह के लिए बताए गए अन्न अर्थात खिचड़ी उसे खिलानी चाहिए। उसके बाद तेल, लोहा, काला तिल, काला उड़द, काला कम्बल प्रदान करना चाहिए। इसके बाद व्रती यह कहे कि मैंने यह सब शनि की प्रसन्नता के लिए किया है, शनिदेव मुझ पर प्रसन्न हों। उसके बाद तिल के तेल से शनि का अभिषेक कराना चाहिए। उनके पूजन में तिल तथा उड़द के अक्षत (चावल) प्रशस्त माने गए हैं।

हे मुने ! अब मैं शनि का ध्यान बताऊँगा, आप ध्यानपूर्वक सुनिए। शनैश्चर कृष्ण वर्ण वाले हैं, मंद गति वाले हैं, काश्यप गोत्र वाले हैं, सौराष्ट्र देश में पैदा हुए हैं, सूर्य पुत्र हैं, वर देने वाले हैं, दंड के समान आकार वाले मंडल में स्थित हैं, इंद्रनीलमणितुल्य कांति वाले हैं। हाथों में धनुष-बाण-त्रिशूल धारण किए हुए हैं, गीध पर आरूढ़ हैं, यम इनके अधिदेवता हैं, ब्रह्मा इनके प्रत्यधिदेवता हैं, ये कस्तूरी-अगुरु का गंध तथा गुग्गुल का धूप ग्रहण करते हैं, इन्हें खिचड़ी प्रिय है, इस प्रकार ध्यान की विधि कही गई है। इनके पूजन के लिए लौहमयी सुन्दर प्रतिमा बनानी चाहिए। हे द्विजश्रेष्ठ ! इनके निमित्त की गई पूजा में कृष्ण अर्थात काली वस्तु का दान करना चाहिए। ब्राह्मण को काले रंग के दो वस्त्र देने चाहिए और काले बछड़े सहित काली गौ प्रदान करनी चाहिए। विधिपूर्वक पूजा करके इस प्रकार प्रार्थना तथा स्तुति करनी चाहिए।

आराधना से संतुष्ट होकर जिन्होंने नष्ट राज्य वाले राजा नील को उनका महान राज्य पुनः प्रदान कर दिया, वे शनिदेव मुझ पर प्रसन्न हों। नील अंजन के समान वर्ण वाले, मंद गति से चलने वाले और छाया देवी तथा सूर्य से उत्पन्न होने वाले उन शनैश्चर को मैं नमस्कार करता हूँ। मंडल के कोण में स्थित आपको नमस्कार है, पिंगल नाम वाले आप शनि को नमस्कार है। हे देवेश ! मुझ दीन तथा शरणागत पर कृपा कीजिए. इस प्रकार स्तुति के द्वारा प्रार्थना करके बार-बार प्रणाम करना चाहिए। तीन वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य – के लिए शनि के पूजन में “शन्नो देवी.” इस वैदिक मन्त्र का प्रयोग बताया गया है और शूद्रों के लिए पूजन में नाम मन्त्र का प्रयोग बताया गया है।

जो व्यक्ति दत्तचित्त होकर इस विधि से शनिदेव का पूजन करेगा उसे स्वप्न में भी शनि का भय नहीं होगा। हे विप्र ! जो मनुष्य श्रावण मास (Shravan Maas) में प्रत्येक शनिवार के दिन भक्तिपूर्वक इस विधि से इस व्रत को करेंगे, उन्हें शनैश्चर के द्वारा लेश मात्र भी कष्ट नहीं होगा। जन्म राशि से पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नौवें अथवा बारहवें स्थान में स्थित शनि सदा कष्ट पहुंचाता है। शनि की शान्ति के लिए “शमाग्नि.” इस मन्त्र का जप कराना बताया गया है। उसकी प्रसन्नता के लिए इंद्रनीलमणि का दान करना चाहिए।
हे सनत्कुमार ! इसके बाद अब मैं हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए विधि का वर्णन करूँगा। हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार को रूद्र मन्त्र के द्वारा तेल से उनका अभिषेक करना चाहिए। तेल में मिश्रित सिंदूर का लेप उन्हें समर्पित करना चाहिए। जपाकुसुम की मालाओं से आक-धतूर की मालाओं से मंदार पुष्प की मालाओं से, बटक-बड़ का पेड़, के नैवेद्य से तथा अन्य उपचारों से भी यथा विधि अपने सामर्थ्यानुसार श्रद्धा भक्ति से युक्त होकर अंजनी पुत्र हनुमान जी की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि हनुमान जी कि प्रसन्नता के लिए उनके बारह नामों का जप करें। हनुमान, अंजनीसूनु, वायुपुत्र, महाबल, रामेष्ट, फाल्गुन-सखा, पिंगाक्ष, अमितविक्रम, उदधिक्रमण, सीताशोकविनाशक, लक्ष्मणप्राणदाता और दशग्रीवदर्पहा – ये बारह नाम हैं।

जो मनुष्य प्रातःकाल उठाकर इन बारहों नामों को पढता है, उसका अमंगल नहीं होता और उसे सभी संपदा सुलभ प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार के दिन वायुपुत्र हनुमान जी की आराधना करके मनुष्य वज्रतुल्य शरीर वाला, निरोग तथा बलवान हो जाता है। अंजनीपुत्र की कृपा से वह कार्य करने में वेगवान तथा बुद्धि-वैभव से युक्त हो जाता है उसके बाद शत्रु नष्ट हो जाते हैं, मित्रों की वृद्धि होती है। वह वीर्यशाली तथा कीर्तिमान हो जाता है। यदि साधक हनुमान जी के मंदिर हनुमत्कवच का पाठ करे तो वह अणिमा आदि आठों सिद्धियों का स्वामित्व प्राप्त कर लेता है और यक्ष, राक्षस तथा वेताल उसे देखते ही कंपित तथा भयभीत होकर वेगपूर्वक दसों दिशाओं में भाग जाते हैं।
हे सत्तम ! शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष का आलिंगन तथा पूजन करना चाहिए। शनिवार को छोड़कर अन्य किसी दिन पीपल के वृक्ष का स्पर्श नहीं करना चाहिए। शनिवार के दिन उसका आलिंगन सभी संपदाओं को प्राप्त कराने वाला होता है। प्रत्येक मास में सातों वारों में पीपल का पूजन फलदायक है किन्तु श्रावण में यह पूजन अधिक फलप्रद है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “शनैश्चर नृसिंह हनुमत्पूजनादि शनैश्चर कृत्यकथन” नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य नवाँ अध्याय | Chapter -9 Sawan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 09 Adhyay

Shravan Maas 09 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य नवाँअध्याय
Chapter -9

 

Click Here For Download Now

 

शुक्रवार – जीवन्तिका व्रत की कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार – इसके बाद अब मैं शुक्रवार व्रत का आख्यान कहूँगा, जिसे सुनकर मनुष्य संपूर्ण आपदा से मुक्त हो जाता है। लोग इससे संबंधित एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। पांड्य वंश में उत्पन्न एक सुशील नामक राजा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी उसे पुत्र प्राप्ति नहीं हो सकी। उसकी सर्वगुणसंपन्न सुकेशी नामक भार्या थी। जब उसे संतान न हुई तब वह बड़ी चिंता में पड़ गई तब स्त्री-स्वभाव के कारण अति साहसयुक्त मनवाली उसने मासिक धर्म के समय प्रत्येक महीने में वस्त्र के टुकड़ों को अपने उदर पर बाँधकर उदर को बड़ा बना लिया और अपनी प्रसूति का अनुकरण करने वाली किसी अन्य गर्भिणी स्त्री को ढूंढने लगी।

भावी देवयोग से उसके पुरोहित की पत्नी गर्भिणी थी तब कपट करने वाली राजा की पत्नी ने किसी प्रसव कराने वाली को इस कार्य में लगा दिया और उसे एकांत में बहुत धन देकर वह रानी चली गई। उसके बाद रानी को गर्भिणी जानकार राजा ने उसका पुंसवन और अनवलोभन संस्कार किया। आठवाँ महीना होने पर सीमन्तोन्नयन-संस्कार के समय राजा अत्यंत हर्षित हुए। इसके बाद उस पुरोहित पत्नी का प्रसवकाल सुनकर वह रानी भी उसी के समान सभी प्रसव संबंधी चेष्टाएँ करने लगी। पुरोहित की पत्नी चूँकि पहली बार गर्भवती थी, अतः प्रसूति कार्य के प्रति वह अनभिज्ञ थी और केवल प्रसव कराने वाली दाई के ही कहने में स्थित थी तब उस दाई ने पुरोहित पत्नी के साथ छल करते हुए उसके नेत्रों पर पट्टी बाँध दी और प्रसव के समय उसके पैदा हुए पुत्र को किसी के हाथ से रानी के पास पहुंचा दिया।

इस बात को कोई भी नहीं जान सका। उसके बाद रानी ने उस पुत्र को लेकर यह घोषित कर दिया कि मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। इन सब के बाद दाई ने पुरोहित की पत्नी के आँखों की पट्टी खोल दी। दाई अपने साथ माँस का एक पिंड लाई थी और उसने वह उसे दिखा दिया फिर उसके सामने आश्चर्य तथा दुःख प्रकट करने लगी कि यह कैसा अनिष्ट हो गया और कहने लगी कि अपने पुरोहित पति से इसकी शान्ति जरूर करवा लेना। कहने लगी कि संतान नहीं हुई कोई बात नहीं पर तुम जीवित हो यह अच्छी बात है। इस पर पुरोहित पत्नी को अपने प्रसव के स्पर्श चिंतन से बहुत संदेह हुआ।

ईश्वर बोले – राजा ने पुत्र जन्म का समाचार सुन जातकर्म संस्कार कराया और ब्राह्मणों को हाथी, घोड़े तथा रथ आदि प्रदान किए। राजा ने कारागार में पड़े सभी कैदियों को प्रसन्नतापूर्वक मुक्त करा दिया। उसके बाद राजा ने सूतक के अंत में नामकर्म तथा अन्य सभी संस्कार किये, उन्होंने पुत्र का नाम प्रियव्रत रखा।

हे सनत्कुमार श्रावण मास (Shravan Maas) के आने पर पुरोहित की पत्नी ने शुक्रवार के दिन भक्तिपूर्वक देवी जीवंतिका का पूजन किया। दीवार पर अनेक बालकों सहित देवी जीवंतिका की मूर्त्ति लिखकर पुष्प तथा माला से उनकी पूजा करके गोधूम की पीठि के बनाए गए पांच दीपक उनके सम्मुख उसने जलाए और स्वयं भी गोधूम का चूर्ण भक्षण किया और उनकी मूर्ति पर चावल फेंका और कहा – हे जीवन्ति ! हे करुणार्णवे ! जहां भी मेरा पुत्र विद्यमान हो आप उसकी रक्षा करना – यह प्रार्थना करके उसने कथा सुनकर यथाविधि नमस्कार किया तब जीवंतिका की कृपा से वह बालक दीर्घायु हो गया और वे देवी उसकी माता की श्रद्धा भक्ति के कारण दिन-रात उस बालक की रक्षा करने लगी।

इस प्रकार कुछ समय बीतने पर राजा की मृत्यु हो गई तब पितृभक्त उनके पुत्र ने उनकी पारलौकिक क्रिया संपन्न की। इसके बाद मंत्रियों तथा पुरोहितों ने प्रियव्रत को राज्य पर अभिषिक्त किया तब कुछ वर्षों तक प्रजा का पालन करके तथा राज्य भोगकर वह पितरों के ऋण से मुक्ति के लिए गया जाने की तैयारी करने लगा। राज्य का भार वृद्ध मंत्रियों पर भक्तिपूर्वक सौंपकर और स्वयं के राजा होने का भाव त्यागकर उसने कार्पटिक का भेष धारण कर लिया और गया के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में किसी नगर में किसी गृहस्थ के घर में उन्होंने निवास किया। उस समय उस गृहस्थ की पत्नी को प्रसव हुआ था। इसके पहले षष्ठी देवी ने उसके पांच पुत्रों को उत्पन्न होने के पांचवें दिन मार दिया था। यह राजा भी उस समय पांचवें दिन ही वहां गया हुआ था।

रात में राजा के सो जाने पर उस बच्चे को ले जाने के लिए षष्ठी देवी आई। जीवन्तिका देवी ने उस षष्ठी देवी को यह कहकर रोका कि राजा को लांघकर मत जाओ तब जीवन्तिका के रोकने पर वह षष्ठी जैसे आयी थी वह वैसे ही चली गई। इस पकार उस गृहस्वामी ने उस बालक को पांचवें दिन जीवित रूप में प्राप्त किया. ये लोग इतने प्रभाव वाले हैं यह देखकर उस गृहस्थ ने राजा से प्रार्थना की – हे राजन ! आपका निवास आज के दिन मेरे ही घर में हो। हे प्रभो ! आपकी कृपा से मेरा यह छठा पुत्र जीवित रह गया है। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर करुणानिधि उस राजा ने कहा कि मुझे तो गया जाना है तब राजा गया के लिए प्रस्थान कर गए। वहां पिंडदान करते समय विष्णुपद वेदी पर कुछ अद्भुत घटना हुई। उस पिंड को ग्रहण करने के लिए दो हाथ निकलकर आए तब महान विस्मययुक्त राजा संशय में पड़ गए और पुनः पिंडदान कराने वाले ब्राह्मण के कहने पर उन्होंने विष्णुपद पर पिंड रख दिया।

इसके बाद उन्होंने किसी ज्ञानी तथा सत्यवादी ब्राह्मण से इस विषय में पूछा तब उस ब्राह्मण ने उनसे कहा कि ये दोनों हाथ आपके पितर के थे। इसमें संदेह हो तो घर जाकर अपनी माता से पूछ लीजिए, वह बता देगी तब राजा चिंतित तथा दुखी हुए और मन में अनेक बातें सोचने-विचारने लगे। वे यात्रा करके पुनः वहां गए जहां वह बालक जीवित हुआ था। उस समय भी उस स्त्री को पुत्र उत्पन्न हुआ था और वह उसका पांचवां दिन था। वह जो दूसरा पुत्र हुआ था उसे लेने रात में फिर वही षष्ठी देवी आई तब जीवन्तिका के दुबारा रोके जाने पर उस षष्ठी देवी ने उनसे कहा – इसका ऐसा क्या कृत्य है अथवा क्या इसकी माता तुम्हारा व्रत करती है जो तुम रात-दिन इसकी रक्षा करती हो? तब षष्ठी का यह वचन सुनकर जीवन्ति ने धीरे से मुस्कुराकर इसका सारा कारण बताया।

उस समय राजा शयन का बहाना बनाकर वास्तविकता जानने के लिए जाग रहा था। अतः उन्होंने जीवन्ति और षष्ठी – दोनों की बातचीत सुन ली। जीवन्ति ने कहा – हे षष्ठी ! श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्रवार को इसकी माता मेरे पूजन में रत रहती है और व्रत के संपूर्ण नियम का पालन करती है, वह सब मैं आपको बताती हूँ – वह हरे रंग का वस्त्र तथा कंचुकी नहीं पहनती और हाथ में उस रंग की चूड़ी भी नहीं धारण करती। वह चावल के धोने के जल को कभी नहीं लांघती, हरे पत्तों के मंडप के नीचे नहीं जाती और हरे वर्ण का होने के कारण करेले का शाक भी वह नहीं खाती है। यह सब वह मेरी प्रसन्नता के लिए करती है अतः मैं उसके पुत्र को किसी को मरने नहीं दूंगी।

यह सब सुनकर राजा प्रियव्रत अपने नगर को चले गए। उनके देश के सभी नागरिक स्वागत के लिए आए तब राजा ने अपनी माता से पूछा – हे मातः ! क्या तुम जीवन्तिका देवी का व्रत करती हो? इस पर उसने कहा कि मैं तो इस व्रत को जानती भी नहीं हूँ। उसके बाद राजा ने गया यात्रा का समुचित फल प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों तथा सुवासिनी स्त्रियों को भोजन कराने की इच्छा से उन्हें निमंत्रित किया और व्रत की परीक्षा लेने के लिए सुवासिनियों को वस्त्र, कंचुकी तथा कंकण भेजकर कहलाया कि आप सभी को भोजन के लिए राजभवन में आना है तब पुरोहित की पत्नी ने दूत से कहा कि मैं हरे रंग की कोई भी वस्तु कभी ग्रहण नहीं करती हूँ। राजा के पास आकर दूत ने उसके द्वारा कही गई बात राजा को बता दी तब राजा ने उसके लिए सभी रक्तवर्ण के शुभ परिधान भेजे।

वह सब धारण करके वह पुरोहित पत्नी भी राजभवन में आयी। राजभवन के पूर्वी द्वार पर चावलों के धोने का जल पड़ा देखकर और वहां हरे रंग का मंडप देखकर वह दूसरे द्वार से गई तब राजा ने पुरोहित की पत्नी को प्रणाम करके इस नियम का संपूर्ण कारण पूछा। इस पर उसने इसका कारण शुक्रवार का व्रत बताया। उस प्रियव्रत को देखकर उसके दोनों स्तनों में से बहुत दूध निकलने लगा। दोनों वक्ष स्थलों ने उस राजा को दुग्ध की धाराओं से पूर्ण रूप से सिंचित कर दिया तब गया में विष्णुपदी पर निकले दोनों हाथों, जीवंतिका तथा षष्ठी दोनों देवियों के वार्तालाप तथा पुरोहित पत्नी के स्तनों से दूध निकलने के द्वारा राजा को विश्वास हो गया कि मैं इसी का पुत्र हूँ।

उसके बाद पालन-पोषण करने वाली माता के पास जाकर विनम्रतापूर्वक उन्होंने कहा – हे मातः ! डरो मत, मेरे जन्म का वृत्तांत सत्य-सत्य बता दो। यह सुनकर सुन्दर केशों वाली रानी ने सब कुछ सच-सच बता दिया तब प्रसन्न होकर उन्होंने जन्म देने वाले अपने माता-पिता को नमस्कार किया और संपत्ति से वृद्धि को प्राप्त कराया। वे दोनों भी परम आनंदित हुए. एक दिन राजा प्रियव्रत ने रात में देवी जीवन्ति से प्रार्थना की – हे जीवन्ति ! मेरे पिता तो ये हैं तो फिर गया में वे दोनों हाथ कैसे निकल आए थे? तब देवी ने स्वप्न में आकर संशय का नाश करने वाला वाक्य कहा – हे प्रियव्रत ! मैंने तुम्हें विश्वास दिलाने के लिए ही यह माया की थी, इसमें संदेह नहीं है।

हे सनत्कुमार ! यह सब मैंने आपको बता दिया। श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्रवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “शुक्रवारजीवन्तिका व्रत कथन” नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ” ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य आठवाँ अध्याय | Chapter -8 Sawan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 08 Adhyay

Shravan Maas 08 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य आठवाँ अध्याय
Chapter -8

 

Click Here For Download Now

 

श्रावण मास (Shravan Maas) में किए जाने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं समस्त पापों का नाश करने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णन करूँगा जिसे श्रद्धापूर्वक करके मनुष्य परम सिद्धि प्राप्त करता है। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मणों के राजा के रूप में अभिषिक्त किया। किसी समय उसने रूप तथा यौवन से संपन्न तारा नामक गुरु पत्नी को देखा। उसकी रूप संपदा से मोहित होकर वह काम के वशीभूत हो गया और उसे उसने अपने घर में रख लिया। इस प्रकार बहुत दिन बीतने पर उसे बुध नामक एक पुत्र हुआ जो बुद्धिमान, सौंदर्यशाली तथा सभी शुभ लक्षणों से युक्त था।

गुरु बृहस्पति को ज्ञात हुआ कि तारा, चन्द्रमा के घर में स्थित है तब उन्होंने चन्द्रमा से कहा कि मेरी पत्नी को वापिस कर दो, अनेक तरह से समझाने पर भी जब चन्द्रमा ने तारा को वापिस नहीं दिया तब बृहस्पति ने देवताओं की सभा में जाकर देवराज इंद्र को यह वृत्तांत बतलाया और कहा – हे शक्र ! आप देवताओं के राजा हैं अतः अपनी आज्ञा से आप उसे दिलाएं अन्यथा उस चन्द्रमा के द्वारा किया गया पाप आप को ही निसंदेह लगेगा क्योंकि शास्त्र निर्णय के अनुसार प्रजा के द्वारा किए गए पाप को राजा भोगता है। पुराण में भी ऐसा कहा गया है कि दुर्बल का बल राजा होता है। गुरु का यह वचन सुनकर चन्द्रमा ने कहा – मैं आपकी आज्ञा से तारा को तो दे दूँगा किन्तु इस पुत्र को नहीं दूँगा। शास्त्र के अनुसार विचार करके देवताओं ने उस बुध को चन्द्रमा को दे दिया।

इसके बाद गुरु को उदास देखकर देवताओं ने उन दोनों को वर प्रदान किया – हे चंद्र ! अब तुम घर जाओ, यह तुम्हारा भी पुत्र है और बृहस्पति का भी है। यह तुम्हारा पुत्र ग्रहों में प्रतिष्ठित होगा। हे सुराचार्य ! आप यह दुसरा भी शुभ वर ग्रहण कीजिए कि जो बुद्धिमान व्यक्ति आप दोनों – बुध-गुरु – का व्रत मिलाकर करेगा उसकी संपूर्ण सिद्धि होगी, यह सत्य है, इसमें संदेह नहीं। शंकर जी के लिए अत्यंत प्रिय इस श्रावण मास (Shravan Maas) के आने पर जो लोग बुधवार तथा बृहस्पतिवार को पूजन व्रत करेंगे उन्हें सिद्धि प्राप्त होगी।
इस व्रत में दही तथा भात का नैवेद्य व्रत सिद्धि में मूल हेतु है। स्थान भेद से आप दोनों की मूर्ति लिखकर पूजन करने से भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होता है। यदि कोई हिंडोले के ऊपरी स्थान पर आप दोनों कि मूर्ति लिखकर पूजन करे तो वह सर्वगुणसंपन्न तथा दीर्घायु पुत्र प्राप्त करेगा। यदि मनुष्य कोषागार में मूर्ति को लिखकर पूजन करता है तो उसके कोष बढ़ते हैं और वे कभी क्षय को प्राप्त नहीं होते। इसी प्रकार पाकालय में पूजन करने से पाकवृद्धि और देवालय में पूजन करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है। शय्यागार में लिखकर पूजन करने से स्त्री का वियोग कभी नहीं होता है। धान्यागार में लिखकर पूजन करने से धान्य की वृद्धि होती है। इस प्रकार मनुष्य उन-उन फलों को प्राप्त करता है।

इस प्रकार सात वर्ष तक करने के बाद उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन से पहले दिन अधिवासन करके रात्रि में जागरण करना चाहिए। सुवर्ण कि प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक सोलह उपचारों से पूजन करने के पश्चात् तिल, घृत, चारु और अपामार्ग तथा अश्वत्थ से युक्त समिधाओं से होम करना चाहिए, अंत में पूर्णाहुति देनी चाहिए। उसके बाद मामा व भांजे को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को तथा अन्य लोगों को भी भोजन कराना चाहिए. स्वयं भी भोजन करना चाहिए। इस विधि से सात वर्ष तक करने पर मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है। जो इसे विद्या कि कामना से करता है, वह वेद व शास्त्र के अर्थों को जाने वाला हो जाता है। बुध बुद्धि प्रदान करते हैं और गुरु बृहस्पति गुरुता प्रदान करते हैं।

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! आपने जो यह कहा है कि इस अवसर पर मामा तथा भांजे को भोजन करना चाहिए, यदि बताने योग्य हो तो इसका कारण बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में अत्यंत दीन तथा दरिद्र कोई दो ब्राह्मण थे, वे दोनों मामा-भानजे थे। उदार पूर्ति हेतु परिश्रमपूर्वक भ्रमण करते हुए वे दोनों किसी नगर में अन्न माँगने के लिए गए थे। उन्होंने घर-घर में श्रावण मास (Shravan Maas) में प्रत्येक वार को उस वार का व्रत होते हुए देखा किन्तु कहीं भी बुध-गुरु का व्रत नहीं देखा तब उन्होंने बहुत देर तक परस्पर विचार किया कि सभी वारों का व्रत तो सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है किन्तु बुध-गुरु का कहीं नहीं अतः चूँकि यह व्रत अनुच्छिष्ट है इसलिए हम दोनों को चाहिए कि इस शुभ व्रत का अनुष्ठान आदरपूर्वक करें। किन्तु हे सनत्कुमार ! इसकी विधि ना जानने के कारण वे दोनों संशय में पड़ गए तब रात्रि में उन्हें स्वप्न में इस व्रत की विधि दृष्टोगोचर हो गई। इसके बाद उन्होंने उसकी विधि के अनुसार व्रत को किया जिससे उन्होंने अपार संपदा प्राप्त की।

प्रतिदिन उनकी संपत्ति बढ़ने लगी और सभी लोगों को ज्ञात भी हो गयी। इस प्रकार सात वर्ष तक करके वे पुत्र व पौत्र आदि से संपन्न हो गए। उसके बाद उनके ऊपर प्रसन्न होकर बुध व गुरु प्रकट हुए और उन्होंने उन दोनों को यह वर दिया – आप दोनों ने हम दोनों के निमित्त इस व्रत को प्रवर्तित किया है अतः आज से कोई भी इस शुभ व्रत को करे उसे व्रत की समाप्ति पर मामा तथा भानजे को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से उसे सभी कामनाओं की परम सिद्धि हो जाती है और अंत में चंद्र सूर्य पर्यन्त उसका हमारे लोक में वास होता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रवण मास माहात्म्य में “बुधगुरुव्रत कथन” नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य

श्रावण माह माहात्म्य सातवाँ अध्याय | Chapter -7 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 07 Adhyay

Shravan Maas 07 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य सातवाँ अध्याय
Chapter -7

 

Click Here For Download Now

 

मंगलागौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं अत्युत्तम भौम व्रत का वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठान करने मात्र से वैधव्य नहीं होता है। विवाह होने के पश्चात पाँच वर्षों तक यह व्रत करना चाहिए। इसका नाम मंगला गौरी व्रत है. यह पापों का नाश करने वाला है। विवाह के पश्चात प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष में पहले मंगलवार को यह व्रत आरंभ करना चाहिए। केले के खम्भों से सुशोभित एक पुष्प मंडल बनाना चाहिए और उसे अनेक प्रकार के फलों तथा रेशमी वस्त्रों से सजाना चाहिए। उस मंडप में अपने सामर्थ्य के अनुसार देवी की सुवर्णमयी अथवा अन्य धातु की बनी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। उस प्रतिमा को सोलह उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों से सोलह चावलों से तथा सोलह चने की दालों से मंगला गौरी नामक देवी की पूजा करनी चाहिए और सोलह बत्तियों से सोलह दीपक जलाने चाहिए। दही तथा भात का नैवेद्य भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। देवी के पास ही पत्थर का सील तथा लोढ़ा स्थापित करना चाहिए। पाँच वर्ष तक इस प्रकार से करने के पश्चात उद्यापन करना चा माता को वायन प्रदान करना चाहिए जिसकी विधि आप सुनिए – अपने सामर्थ्य अनुसार एक पल प्रमाण सुवर्ण की अथवा उसके आधे प्रमाण की अथवा उसके भी आधे प्रमाण की मंगला गौरी की प्रतिमा निर्मित करानी चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार स्वर्ण आदि के बने तंडुलपूरित पात्र पर वस्त्र तथा रमणीय कंचु की ओढ़नी रखकर उन दोनों के ऊपर देवी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। पास में चाँदी से निर्मित सिल तथा लोढ़ा रखकर माता को वायन प्रदान करना चाहिए। इसके बाद सोलह सुवासिनियों को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए। हे विप्र ! इस विधि से व्रत करने पर सात जन्मों तक सौभाग्य बना रहता है और पुत्र, पुत्र आदि के साथ संपदा विद्यमान रहती है।

सनत्कुमार बोले – सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया था और किसको इसका फल प्राप्त हुआ? हे शम्भो ! जिस तरह से मुझे इसके प्रति निष्ठा हो जाए, कृपा करके वैसे ही बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में कुरु देश में श्रुतकीर्ति नामक एक विद्वान्, कीर्तिशाली, शत्रुओं का नाश करने वाला, चौसंठ कलाओं का ज्ञाता तथा धनुर्विद्या में कुशल राजा हुआ था। पुत्र के अतिरिक्त अन्य सभी शुभ चीजें उस राजा के पास थी। अतः वह राजा संतान के विषय में अत्यंत चिंतित हुआ और जप-ध्यानपूर्वक देवी की आराधना करने लगा तब उसकी कठोर तपस्या से देवी प्रसन्न हो गई और उस से यह वचन बोली – हे सुव्रत ! वर माँगों।

श्रुतकीर्ति बोला – हे देवी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सुन्दर पुत्र दीजिए। हे देवी ! आपकी कृपा से अन्य किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है। उसका यह वचन सुनकर पवित्र मुसकान वाली देवी ने कहा – हे राजन ! तुमने अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है, फिर भी कृपा वश मैं तुम्हें अवश्य दूंगी। किन्तु हे राजेंद्र ! सुनिए, यदि परम गुणी पुत्र चाहते हो तो वह केवल सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा और यदि रूप तथा विद्या से विहीन पुत्र चाहते हो तो दीर्घजीवी होगा। देवी का यह वचन सुनकर राजा चिंतित हो उठा और पुनः अपनी पत्नी से परामर्श कर के उसने गुणवान तथा सभी शुभ लक्षणों से संपन्न सोलह वर्ष की आयु वाला पुत्र माँगा तब देवी ने भक्ति संपन्न राजा से कहा – हे नृपनन्दन ! मेरे मंदिर के द्वार पर आम का वृक्ष है, उसका एक फल लाकर मेरी आज्ञा से अपनी भार्या को उसे भक्षण करने हेतु प्रदान करो। जिससे वह शीघ्र ही गर्भ धारण करेगी, इसमें संदेह नहीं है।

प्रसन्न होकर राजा ने वैसा ही कियाऔर उसकी पत्नी ने गर्भ धारण कर लिया। दसवें महीने में उसने देवतुल्य सुन्दर पुत्र को जन्म दिया तब हर्ष तथा शोक से युक्त राजा ने बालक का जातकर्म आदि संस्कार किया और शिव (Lord Shiv) का स्मरण करते हुए उसका नाम चिरायु रखा। इसके बाद पुत्र के सोलह वर्ष के होने पर पत्नी सहित राजा चिंता में पड़ गए और वे विचार करने लगे कि यह पुत्र बड़े कष्ट से प्राप्त हुआ है और मैं इसकी दुःखद मृत्यु अपने ही सामने कैसे देख सकूंगा, ऐसा विचार कर के राजा ने पुत्र को उसके मामा के साथ काशी भेज दिया। प्रस्थान के समय राजा की पत्नी ने अपने भाई से कहा कि कार्पटिक का वेश धारण कर के आप मेरे पुत्र को काशी ले जाइए। मैंने भगवान् मृत्युंजय से पूर्व में पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और कहा था कि – “हे विश्वेश ! आप जगत्पति की यात्रा के लिए मैं उस पुत्र को अवश्य भेजूंगी”। अतः आप मेरे पुत्र को आज ही ले जाइए और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा कीजिएगा। अपनी बहन की यह बात सुनकर भांजे के साथ वह चल पड़ा।

कई दिनों तक चलते-चलते वह ‘आनंद’ नामक नगर में पहुंचा। वहाँ सभी प्रकार की समृद्धियों से संपन्न वीरसेन नाम वाला राजा रहता था। उस राजा की एक सर्वलक्षण संपन्न, युवावस्था प्राप्त, मनोहर तथा रूपलावण्यमयी मंगलागौरी नामक कन्या थी। सभी उपमानों को तुच्छ कर के सौंदर्य-अभिवृद्धि को प्राप्त वह कन्या किसी समय सखियों के साथ नगर के उपवन में क्रीड़ा करने के लिए गई हुई थी। उसी समय वह चिरायु तथा उसका मामा वे दोनों भी वहाँ पहुँच गए और उन कन्याओं को देखने की लालसा से वहीँ विश्राम करने लगे। इसी बीच विनोदपूर्वक क्रीड़ा करती हुई उन कन्याओं में से किसी एक ने कुपित होकर राजकुमारी को रांडा – यह कुवचन कह दिया तब उस अशुभ वचन को सुनकर राजकुमारी ने कहा – “तुम अनुचित बात क्यों बोल रही हो, मेरे कुल में तो इस प्रकार की कोई नहीं है। मंगला गौरी की कृपा से तथा उनके व्रत के प्रभाव से विवाह के समय जिस के सर पर मेरे हाथ से अक्षत पड़ेंगे, हे सखी ! वह यदि अल्प आयु वाला होगा तो भी चिरंजीवी हो जाएगा।” इसके बाद वह सभी कन्याएं अपने-अपने घर चली गई।

उसी दिन राजकुमारी का विवाह था। बाह्लीक देश के दृढ़धर्मा नामक राजा के सुकेतु नाम वाले पुत्र के साथ उसका विवाह निश्चित किया गया था। वह सुकेतु विद्याहीन, कुरूप तथा बहरा था तब सुकेतु के साथ आए हुए उन लोगों ने विचार किया कि इस समय कोई दूसरा श्रेष्ठ वर ले जाना चाहिए और विवाह संपन्न हो जाने के बाद वहाँ सुकेतु पहुँच जाए। उन लोगों ने चिरायु के मामा के पास जाकर याचना की कि आप इस बालक को हमें दे दीजिए, जिस से हमारा कार्य सिद्ध हो जाए। इस पृथ्वी पर परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। उनकी बात सुनकर चिरायु का मामा मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसने उपवन में पहले ही कन्या मंगला गौरी की बात सुन ली थी फिर भी उसने एक बार कहा कि आप लोग इसे किसलिए मांग रहे हैं? कार्य की सिद्धि हेतु वस्त्र, अलंकार आदि मांगे जाते हैं, वर तो कहीं भी नहीं माँगा जाता तथापि आप लोगों का सम्मान रखने के लिए मैं इसे दे रहा हूँ।
इसके बाद चिरायु को वहाँ ले जाकर उन लोगों ने विवाह संपन्न कराया. सप्तपदी आदि के हो जाने पर रात्रि में शिव-पार्वती की प्रतिमा के समक्ष उस चिरायु ने हर्षयुक्त होकर मंगलागौरी के साथ शयन किया। उसी दिन चिरायु के सोलह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और अर्धरात्रि में साक्षात काल सर्परूप में वहाँ आ गया. इसी बीच संयोगवश राजकुमारी जाग गई। उसने उस महासर्प को वहाँ देखा और वह भय से व्याकुल होकर कांपने लगी तभी उस कन्या ने धैर्य धारण सोलह उपचारों से सर्प की पूजा की और पीने के लिए उसे दूध दिया। उसने दीनता भरी वाणी में उस सर्प की प्रार्थना तथा स्तुति की। मंगलागौरी प्रार्थना करने लगी कि मैं उत्तम व्रत को करुँगी जिससे मेरे पति जीवित रहें, ये जिस तरह से चिरकाल तक जीवित रहें, आप वैसा कीजिए।

इतने में सर्प वहाँ स्थित एक कमण्डलु में प्रवेश कर गया और उस मंगलागौरी ने अपनी कंचुकी से उस कमण्डलु का मुँह बाँध दिया। इसी बीच उसका पति अंगड़ाई लेकर जाग गया और अपनी पत्नी से बोला – हे प्रिये ! मुझे भूख लगी है तब वह अपनी माता के पास जाकर खीर, लड्डू आदि ले आई और उसके द्वारा दिए भोज्य पदार्थ को उसने प्रसन्न मन होकर खाया। भोजन के पश्चात् हाथ धोते समय उसके हाथ से अँगूठी गिर पड़ी। ताम्बूल खाकर वह पुनः सो गया। इसके बाद मंगलागौरी कमण्डलु को फेंकने के लिए जाने लगी। विधि की कैसी गति है कि उस कमण्डलु में से बाहर की ओर जगमग करती हुई हारकान्ति को देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई। घट में स्थित उस हार को उसने अपने कंठ में धारण कर लिया। इसके बाद कुछ रात शेष रहते ही चिरायु का मामा आकर उसे ले गया। इसके बाद वर पक्ष के लोग सुकेतु को वहाँ ले आए। उसे देख मंगलागौरी ने कहा कि यह मेरा पति नहीं है तब उन सभी ने उससे कहा – हे शुभे ! तुम यह क्या बोल रही हो? यहाँ तुम्हारा कोई परिचायक हो तो उसे हम लोगों को बताओ।

मंगलागौरी बोली – जिसने रात्रि में नौ रत्नों से बानी अँगूठी दी है, उसकी अंगुली में इसे डालकर परिचायक निशानी देख लें। मेरे पति ने रात्रि में मुझे जो हार दिया था, उसके रत्नों का समुदाय कैसा है, इस बात को यह बताए, यह तो कोई अन्य ही है। इसके अतिरिक्त रात्रि में आम सींचते समय उनका पैर कुमकुम से लिप्त हो गया था, वह मेरी जांघ पर अब भी विद्यमान है, उसे आप लोग शीघ्र देख लें। साथ ही रात में परस्पर भाषण तथा भोजन आदि जो कुछ किया गया था, उसे भी यह बता दें तब यह निश्चय ही मेरा पति है।

इस प्रकार उसका वचन सुनकर सभी ठीक है-ठीक है कहने लगे किन्तु जब एक भी बात न मिली तब सभी ने सुकेतु को उसका पति होने से निषिद्ध कर दिया और वर पक्ष वाले जिस तरह से आए थे उसी तरह से चले गए। उसके बाद अपने वंश को बढ़ाने वाले, महान यश से संपन्न तथा परम मनस्वी मंगलागौरी के पिता ने अन्न, पान आदि का सत्र चलाया। उन्होंने वर पक्ष का वृत्तांत कानों-कान सुन लिया कि स्वरुप से कुरूप होने के कारण लोगों के द्वारा किसी अन्य को वर के रूप में आदरपूर्वक लाया गया था तब उन्होंने अपनी कन्या को परदे के भीतर बिठा दिया। उसके बाद एक वर्ष बीतने पर यात्रा करके चिरायु अपने मामा के साथ यह देखने आया कि विवाह के बाद वहाँ क्या हुआ? तब उसे गवाक्ष के भीतर से देखकर वह मंगलागौरी अत्यंत प्रसन्न हुई और माता-पिता से बोली कि मेरे पति आ गए हैं।

राजा ने अपने सुहृज्जनों को बुलाकर पूर्व में कहे गए सभी परिचायकों को निशानी को देखकर मंद मुस्कान वाली अपनी कन्या चिरायु को सौंप दी। राजा ने शिष्टजनों को साथ लेकर विवाह का उत्सव कराया। इसके बाद राजा वीरसेन ने वस्त्र, आभूषण आदि, सेना, घोड़े, रथ और अन्य भी बहुत-सी सामग्रियां देकर उन्हें विदा किया।

उसके बाद कुल को आनंदित करने वाला वह चिरायु पत्नी तथा मामा को साथ लेकर सेना के साथ अपने नगर पहुँचा। लोगों के मुख से उसे आया हुआ सुनकर उसके माता-पिता को विशवास नहीं हुआ, उन्होंने सोचा कि प्रारब्ध अन्यथा कैसे हो सकता है! इतने में वह अपने माता-पिता के पास आ गया और स्नेह से परिपूर्ण वह चिरायु भक्तिपूर्वक उनके चरणों में गिर पड़ा, तब अपने पुत्र का मस्तक सूंघ कर उन दोनों ने परम आनंद प्राप्त किया। पुत्रवधु मंगलागौरी ने भी सास-ससुर को प्रणाम किया. तब सास उसे अपनी गोद में बिठाकर सारा वृत्तांत शीघ्रतापूर्वक पूछने लगी।

हे महामुने ! तब पुत्रवधु ने भी मंगलागौरी के उत्तम व्रत माहात्म्य तथा जो कुछ घटित हुआ था वह सब वृत्तांत बताया। हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे इस मंगलागौरी व्रत का वर्णन कर दिया। जो कोई भी इसका श्रवण करता है अथवा जो इसे कहता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! इस प्रकार शिवजी ने सनत्कुमार को यह मंगलागौरी व्रत बताया और उन्होंने सभी कार्यों को पूर्ण करने वाले इस व्रत को सुनकर महान आनंद प्राप्त किया।

॥इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण माहात्म्य में “मंगलागौरी व्रत कथन” नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥

Other Keywords :-

Shravan maas ki kahani hindi, Sawan maas ki katha hindi, Shravan mass ki sari kahani, Shravan Mahatam ki katha, Sawan month in hindi, Free PDF of Shravan Mass, Download Free PDF of Sawan Mahatmya, Lord Shiv, Shravan Somvar, Sawan Somvar Mahatmya, Lord Vishnu, Lord Mangal Gori, Lord Ganpati, Lord Shani, Lord Hanuman, Sawan Mass ki Shivratri, Shravn ki Purnima, Shravan Mass Me Rakshabhan Ka Mahatmya, Sawan Mass me Nag Panchmi ka Mahatmya, Krishan Janmashatmi ka Mahatamya, Shravan Mass Kb se suru h, Lord Shiv Aarti, Chalisa, Sawan Maas me Shivaratri Mahatmya, श्रावण मास माहात्म्य