श्रावण माह माहात्म्य छब्बीसवाँ अध्याय | Chapter -26 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 26 Adhyay

Shravan Maas 26 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य छब्बीसवाँ अध्याय

Chapter -26

 

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श्रावण अमावस्या को किये जाने वाले वृष पूजन और कुश ग्रहण का विधान

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas) में अमावस्या के दिन जो करणीय है, उसको तथा प्रसंगवश जो कुछ अन्य बात मुझे याद आ गई है, उसको भी मैं आपसे कहता हूँ। पूर्वकाल में अनेक प्रकार के महान बल तथा पराक्रम वाले, जगत का विध्वंस करने वाले तथा देवताओं का उत्पीड़न करने वाले दुष्ट दैत्यों के साथ मेरे अनेक युद्ध हुए। मैंने शुभ वृषभ अर्थात नन्दी पर आरूढ़ होकर संग्राम किए, किन्तु महाशक्तिशाली तथा महापराक्रमी उस वृषभ ने मुझको नहीं छोड़ा। अंधकासुर के साथ युद्ध में तो नन्दी का शरीर विदीर्ण हो गया था, उसकी त्वचा कट गई, शरीर से रक्त बहने लगा और उसके प्राण मात्र बचे रह गए थे फिर भी जब तक मैंने उस दुष्ट का संहार नहीं किया तब तक वह नन्दी धैर्य धारण कर मेरा वहन करता रहा।

उसकी इस दशा को मैंने जान लिया था। उसके बाद उस अंधक का वध करके मैंने प्रसन्न होकर नन्दी से कहा – हे सुव्रत ! मैं तुम्हारे इस कृत्य से प्रसन्न हूँ, वर माँगो. तुम्हारे घाव ठीक हो जाएँ। तुम बलवान हो जाओ और तुम्हारा पराक्रम तथा रूप पहले से भी बढ़ जाए। इसके अतिरिक्त तुम जो-जो वर माँगोगे, उसे मैं तुम्हें अवश्य दूँगा।

नंदिकेश्वर बोले – हे देवदेव ! हे महेश्वर ! मेरी कोई याचना नहीं है. आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो फिर इससे बढ़कर क्या वैभव हो सकता है। तथापि हे भगवन ! लोकोपकार के लिए मैं मांग रहा हूँ। हे शिव (Lord Shiv) ! आज श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या है, जिसमें आप मुझ पर प्रसन्न हुए हैं। इस तिथि में गायों सहित उत्तम मिटटी से निर्मित वृषभों की पूजा करनी चाहिए। आज अमावस्या के दिन जन्म लेना कामधेनु तुल्य होता है। अतः इस तिथि में वर प्रदान करें की यह अमावस्या वांछित फल देने वाली हो।

आज के दिन भक्तिपूर्वक प्रत्यक्ष वृषभों तथा गायों की पूजा करनी चाहिए। गेरू आदि धातुओं से प्रयत्नपूर्वक उन्हें भूषित करना चाहिए। उनकी सींगों पर सोना, चाँदी आदि के पत्तर मढ़े और रेशम के बड़े-बड़े गुच्छों को भी सींगों पर बांधे। अनेक प्रकार के वर्णों से चित्रित सुन्दर वस्त्र से उनकी पीठ को ढक दें और गले में मनोहर शब्द करने वाला घण्टा बाँध दे। सूर्योदय से लगभग चार घड़ी बीतने पर गायों को ग्राम से बाहर ले जाकर पुनः सांयवेला में ग्राम में प्रवेश कराएं।

आहार के रूप में सरसों, तिल की खली आदि अनेक प्रकार का अन्न इस दिन अर्पित करें। जो इस दिन ऐसा करता है, उसका गोधन सदा बढ़ता रहता है। जिस घर में गाय ना हों वह श्मशान के समान होता है। पंचामृत तथा पंचगव्य दूध के बिना नहीं बनते है। गोबर से लेप किए बिना घर पवित्र नहीं होता। हे सुरोत्तम ! जहाँ गोमूत्र से छिड़काव नहीं होता वहाँ चींटी आदि जंतुओं का उपद्रव विद्यमान रहता है। हे महादेव ! दूध के बिना भोजन का रस ही क्या है? हे प्रभो ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न है तो इन वरों को तथा अन्य वरों को भी मुझे प्रदान कीजिए।

हे सनत्कुमार ! तब नन्दी का यह वचन सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. मैंने कहा – हे वृषश्रेष्ठ ! जो तुमने माँगा है सब हो जाए। हे नन्दिन ! इस दिन का जो अन्य नाम है, उसे भी सुनो। जो वृषभ किसी के द्वारा कहीं भी किसी कार्य में प्रयुक्त नहीं किया जाता और तृण खाता हुआ तथा जल पीता हुआ जो शांतिपूर्वक विचरण करता है तथा महान वीर व बलशाली होता है उसे “पोल” कहा जाता है। अतः हे नन्दिन ! उसी के नाम से यह दिन “पोला” नामवाला होगा। इस दिन अपने इष्ट बंधुओं के साथ महान उत्सव करना चाहिए।

हे वत्स ! मैंने उस दिन ये श्रेष्ठ वर प्रदान किए थे अतः लोगों के द्वारा इस श्रेष्ठ दिन को “पोला” नामवाला कहा गया है। इस दिन सभी कामनाओ को पूर्ण करने वाला वृषभों का महान उत्सव करना चाहिए। इसके साथ ही अब मैं इसी तिथि में किए जाने वाले कुशग्रहण का वर्णन करूँगा। श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या के दिन पवित्र होकर कुशों को उखाड़ लाएं। वे कुश सदा ताजे होते हैं, उन्हें बार-बार प्रयोग में लाना चाहिए।

कुश, काश, यव, दूर्वा, उशीर, सकूदक, गेहूँ, व्रीहि, मूंज और बल्वज – ये दस दर्भ होते हैं। “ब्रह्माजी के साथ उत्पन्न होने वाले तथा ब्रह्माजी की इच्छा से प्रकट होने वाले हे दर्भ ! मेरे सभी पापों का नाश कीजिए और कल्याणकारक होइए” – इस मन्त्र का उच्चारण करने के साथ ईशान दिशा में मुख करके “हुं फट” – मन्त्र के द्वारा एक ही बार में कुश को उखाड़ लें। जिनके अग्र भाग टूटे हुए ना हों तथा शुष्क न हों, वे हरित वर्ण के कुश श्राद्धकर्म के योग्य कहे गए हैं और जडऱहित कुश देवकार्यों तथा जप आदि में प्रयोग के योग्य होते हैं। सात पत्तों वाले कुश देवकार्य तथा पितृकार्य के लिए श्रेष्ठ होते हैं। मूलरहित तथा गर्भयुक्त, अग्रभागवाले तथा दस अंगुल प्रमाण वाले दो दर्भ पवित्रक के लिए उपयुक्त होते हैं।

ब्राह्मण के लिए चार कुश पत्रों का पवित्रक बताया गया है और अन्य वर्णों के लिए क्रमशः तीन, दो और एक दर्भ का पवित्रक कहा गया है अथवा सभी वर्णों के लिए दो दर्भों का ग्रंथियुक्त पवित्रक होता है। यह पवित्रक धारण करने के लिए होता है, इसे मैंने आपको बता दिया है। उत्पवन हेतु सभी के लिए दो दर्भ उपयुक्त होते हैं। पचास दर्भों से ब्रह्मा और पच्चीस दर्भों से विष्टर बनाना चाहिए। आचमन के समय हाथ से पवित्रक को नहीं निकालना चाहिए. विकिर के लिए पिंड देने तथा अग्नौकरण करने के साथ और पाद्य देने के पश्चात पवित्रक का त्याग कर देना चाहिए। दर्भ के समान पुण्यप्रद, पवित्र और पापनाशक कुछ भी नहीं है।

देवकर्म तथा पितृकर्म – ये सब दर्भ के अधीन हैं। उस प्रकार के दर्भों को श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या के दिन उखाड़ना चाहिए, इससे इनकी पवित्रता बनी रहती है. श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या का वर्णन क्या किया जाए। हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas)की अमावस्या के दिन जो कृत्य होता है, उसे मैंने कह दिया। श्रावण मास (Sawan Maas) में और भी जो करणीय है, उसे भी मैं आपसे कहता हूँ।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “अमावस्या के दिन वृषभ पूजन-कुशग्रहण” नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य पच्चीसवाँ अध्याय | Chapter -25 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 25 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य पच्चीसवाँ अध्याय

Chapter -25

 

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श्रावण अमावस्या को किए जाने वाले पिठोरी व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं उत्तम पिठोरी व्रत का वर्णन करूँगा। सभी संपदाओं को प्रदान करने वाला यह व्रत श्रावण मास (Shravan Maas) की अमावस्या को होता है। जो यह घर है वह सभी वस्तु मात्र का अधिष्ठान है इसलिए इसे पीठ कहा गया है और पूजन में वस्तु मात्र के समूह को “आर” कहते हैं, अतः हे मुनीश्वर ! इस व्रत का नाम इसलिए “पिठोर” है। अब मैं उसकी विधि कहूँगा, सावधान होकर सुनिए। दीवार को ताम्रवर्ण, कृष्णवर्ण अथवा श्वेतवर्ण धातु से पोतना चाहिए। अगर ताम्रवर्ण से पोता गया हो तो पीले रंग से, कृष्ण वर्ण से पोता गया तो श्वेत रंग से और श्वेत वर्ण से पोता गया हो तो कृष्ण वर्ण से चित्र बनाना चाहिए। अथवा श्वेत पीत से, लाल से, काले या हरे वर्ण से चित्र बनाएं।

मध्य में पार्वती सहित शिव (Lord Shiv) की मूर्त्ति अथवा शिवलिंग को बनाकर विस्तीर्ण दीवार पर संसार की अनेक चीजों का चित्र बनाएं। चतुःशाला सहित रसोईघर, देवालय, शयनघर, सात खजाने, स्त्रियों का अंतःपुर जो महलों तथा अट्टालिकाओं से सुशोभित तथा शाल के वृक्षों से मण्डित हो, चूने आदि से दृढ़ता से बंधे पाषाणों तथा ईंटों से सुशोभित हो और जिसमें विचित्र दरवाजे-छत तथा क्रीड़ास्थान हों, इन सभी को चित्रित करें। बकरियां, गायें, भैंस, घोड़े, ऊँट, हाथी, चलने वाला रथ, अनेक प्रकार की सवारी गाड़ियाँ, स्त्रियां, बच्चे, वृद्ध, जवान, पुरुष, पालकी, झूला और अनेक प्रकार के मंच – इन सबका अंकन करें. सुवर्ण, चाँदी, ताम्र, सीसा, लोहा, मिटटी तथा पीतल के और अन्य प्रकार के विभिन्न रंगों वाले पात्रों को लिखें।

शयन संबंधी जितने भी साधन हैं – चारपाई, पलंग, बिस्तर, तकिया आदि, बिल्ली, मैना अन्य और भी शुभ पक्षी, पुरुषों तथा स्त्रियों के अनेक प्रकार के आभूषण, बिछाने तथा ओढ़ने के जो वस्त्र हैं, यज्ञ के जितने भी पात्र होते है, मंथन के लिए दो स्तम्भ व तीन रस्सियां, दूध, मक्खन, दही, तकर, छाछ, घी, तेल, तिल – इन सभी को दीवार पर लिखें। गेहूं, चावल, अरहर, जौ, मक्का, वार्तानल (एक प्रकार का अन्न होता है), चना, मसूर, कुलथी, मूंग, कांगनी, तिल, कोदों, कातसी नामक अन्न, साँवाँ, चावल, उड़द – ये सभी धान्यवर्ग भी अंकित करें। सील, लोढ़ा, चूल्हा, झाड़ू, पुरुषों व स्त्रियों के सभी वस्त्र, बाँस तथा तृण के बने हुए सूप आदि, ओखली, मूसल, (गेहूं आदि पीसने तथा अरहर आदि दलने के लिए) दो यन्त्र – चाकी तथा दरैता, पंखा, चंवर, छत्र, जूता, दो खड़ाऊं, दासी, दास, नौकर, पोष्यवर्ग, तृण आदि पशुओं का आहार, धनुष, बाण, शतघ्नी (एक प्रकार का अस्त्र), खडग, भाला, बरछी, ढाल, पाश, अंकुश, गदा, त्रिशूल, भिन्दिपाल, तोमर, मुद्गर, फरसा, पट्टिश, भुशुण्डि, परिघ, चक्रयन्त्र आदि, जलयन्त्र, दवात, लेखनी, पुस्तक, सभी प्रकार के फल, छुरी, कैंची, अनेक प्रकार के पुष्प, विल्वपत्र, तुलसीदल, मशाल-दीपक तथा दीवट आदि उनके साधन, अनेक विध खाने योग्य शाक तथा पकवानों के जितने भी प्रकार हैं – उन सभी को लिखना है। जो वस्तुएं यहां नहीं बताई गई है उस सबको भी दीवार पर लिखना है क्योंकि यहां पर सभी कुछ लिखना संभव नहीं है क्योंकि एक-एक पदार्थ के सैकड़ो तथा हजारों भेद हैं और मैं कितना कह सका हूँ।

सोलहों उपचारों से इन सभी का पूजन होना चाहिए। पूजन में अनेक प्रकार के गंध-द्रव्य, पुष्प, धूप तथा चन्दन अर्पित करें। ब्राह्मणों, बालकों तथा सौभाग्यवती स्त्रियों को भोजन कराएं। उसके बाद पार्वती सहित शिव (Lord Shiv) से प्रार्थना करें – “मेरा व्रत संपूर्ण हो। हे साम्ब शिव (Lord Shiv)! हे दयासागर ! हे गिरीश ! हे चंद्रशेखर ! इस व्रत से प्रसन्न होकर आप हमारे मनोरथ पूर्ण करें।” इस प्रकार पाँच वर्ष तक व्रत करके बाद में उद्यापन कर देना चाहिए। इसमें घृत तथा बिल्वपत्रों से शिव-मन्त्र के द्वारा होम होता है। एक दिन अधिवासन करके सर्वप्रथम ग्रह होम करना चाहिए। आहुति की संख्या एक हजार आठ अथवा एक सौ आठ होनी चाहिए।

हे वत्स ! उसके बाद आचार्य की पूजा करें और भूयसी दक्षिणा दें। इसके बाद व्यक्ति इष्ट बंधुजनों तथा कुटुंब के साथ स्वयं भोजन करे। ऐसा विधान किए जाने पर मनुष्य सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इस लोक में जो-जो वस्तुएं उसे परम अभीष्ट होती है, उन सभी को वह पा लेता है। हे वत्स ! मैंने आपसे इस उत्तम पिठोरी व्रत का वर्णन कर दिया। इस व्रत के समान सभी मनोरथों तथा समृद्धियों को प्रदान करने वाला और शिवजी की प्रसन्नता करने वाला न कोई व्रत हुआ है और न तो होगा। मनुष्य इस व्रत में दीवार पर जो-जो वस्तु बनाता है उसको निश्चित रूप से पा लेता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “अमावस्या में पिठोरी व्रत कथन” नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य चौबीसवाँ अध्याय | Chapter -24 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 24 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य चौबीसवाँ अध्याय

Chapter -24

 

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श्रीकृष्णजन्माष्टमी व्रत के माहात्म्य में राजा मितजित का आख्यान

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! पूर्वकल्प में दैत्यों के भार से अत्यंत पीड़ित हुई पृथ्वी बहुत व्याकुल तथा दीन होकर ब्रह्माजी की शरण में गई। उसके मुख से वृत्तांत सुनकर ब्रह्माजी ने देवताओं के साथ क्षीरसागर में विष्णु के पास जाकर स्तुतियों के द्वारा उनको प्रसन्न किया तब नारायण श्रीहरि सभी दिशाओं में प्रकट हुए और ब्रह्माजी के मुख से संपूर्ण वृत्तांत सुनकर बोले – हे देवताओं ! आप लोग डरें मत, मैं वसुदेव के द्वारा देवकी के गर्भ से अवतार लूँगा और पृथ्वी का संताप दूर करूँगा। सभी देवता लोग यादवों का रूप धारण करें – ऐसा कहकर भगवान् अंतर्ध्यान हो गए।

समय आने पर वह देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए। वसुदेव ने कंस के भय से उन्हें गोकुल पहुंचा दिया और कंस का विनाश करने वाले उन कृष्ण का वहीँ पर पालन-पोषण हुआ। बाद में मथुरा में आकर उन्होंने अनुचरों सहित कंस का वध किया तब पुरवासियों ने आदरपूर्वक यह प्रार्थना की – हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे महायोगिन ! हे भक्तों को अभय देने वाले ! हे देव ! हे शरणागत वत्सल ! हम शरणागतों की रक्षा कीजिए। हे देव ! हम आपसे कुछ निवेदन करते हैं, इसे आप कृपा करके हम लोगों को बताएं। आपके जन्मदिन के कृत्य कोई कहीं भी नहीं जानता। वह सब आपसे जानकर हम सभी लोग उस जन्मदिन पर वर्धापन नामक उत्सव मनाएंगे। अपने प्रति उनकी भक्ति, श्रद्धा तथा सौहार्द को देखकर श्रीकृष्ण ने अपने जन्मदिन के संपूर्ण कृत्य को उनसे कह दिया। उसे सुनकर उन पुरवासियों ने भी विधानपूर्वक उस व्रत को किया तब भगवान् ने प्रत्येक व्रतकर्ता को अनेक वर प्रदान किए।

इस प्रसंग में एक प्राचीन इतिहास भी कहा जाता है – अंगदेश में उत्पन्न एक मितजित नामक राजा था। उसका पुत्र महासेन सत्यवादी था तथा सन्मार्ग पर चलने वाला था। सब कुछ जानने वाला वह राजा अपनी प्रजा को आनंदित करता हुआ उनका विधिवत पालन करता था। इस प्रकार रहते हुए उस राजा का अकस्मात दैवयोग से पाखंडियों के साथ बहुत कालपर्यंत साहचर्य हो गया और उनके संसर्ग से वह राजा अधर्मपरायण हो गया। वह राजा वेद, शास्त्र तथा पुराणों की बहुत निंदा करने लगा और वर्णाश्रम के धर्म के प्रति अत्यधिक द्वेष भाव से युक्त हो गया।

हे मुनिश्रेष्ठ ! बहुत दिन व्यतीत होने के पश्चात काल की प्रेरणा से वह राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ और यमदूतों के अधीन हो गया। यमदूतों के द्वारा पाश में बांधकर पीटते हुए यमराज के पास ले जाते हुए वह बहुत पीड़ित हुआ। दुष्टों की संगति के कारण उसे नरक में गिरा दिया गया और वहां बहुत समय तक उसने यातनाएँ प्राप्त की। यातनाओं को भोगकर अपने पाप के शेष भाग से वह पिशाच योनि को प्राप्त हुआ। भूख व प्यास से व्याकुल वह भ्रमण करता हुआ मारवाड़ देश में आकर किसी वैश्य के शरीर में प्रवेश करके रहने लगा। वह उसी के साथ पुण्यदायिनी मथुरापुरी चला गया। वहां पास के ही रक्षकों ने उस पिशाच को उसके गृह से निकाल दिया तब वह पिशाच वन में तथा ऋषियों के आश्रम में भ्रमण करने लगा।

किसी समय दैवयोग से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन व्रत करने वाले मुनियों तथा द्विजों के द्वारा महापूजा तथा नामसंकीर्तन आदि के साथ रात्रि-जागरण किया जा रहा था, वहाँ पहुँचकर उसने विधिवत सब कुछ देखा और श्रीहरि की कथा का श्रवण किया। इससे वह उसी क्षण पापरहित, पवित्र तथा निर्मल मनवाला हो गया। वह यमदूतों से मुक्त हो गया और प्रेत योनि छोड़कर विमान में बैठ दिव्य भोगों से युक्त हो विष्णुलोक पहुँच गया। इस प्रकार इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि को प्राप्त उस राजा को विष्णु का सान्निध्य प्राप्त हुआ।

तत्त्वदर्शी मुनियों ने पुराणों में इस शाश्वत तथा सार्वलौकिक व्रत का पूर्ण रूप से वर्णन किया है। सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस व्रत को करके मनुष्य सभी वांछित फल प्राप्त करता है। इस प्रकार जो कृष्णजन्माष्टमी के दिन इस शुभ व्रत को करता है, वह इस लोक में अनेक प्रकार के सुखों को भोगकर शुभ कामनाओं को प्राप्त करता है।

हे ब्रह्मपुत्र ! वहाँ वैकुण्ठ में एक लाख वर्ष तक देव विमान में आसीन होकर नानाविध सुखों का उपभोग करके अवशिष्ट पुण्य के कारण इस लोक में आकर सभी ऐश्वर्यों से समृद्ध तथा सभी अशुभों से रहित होकर महाराजाओं के कुल में उत्पन्न होता है, वह कामदेव के सामान स्वरुप वाला होता है। जिस स्थान पर कृष्ण जन्मोत्सव की उत्सव विधि लिखी हो अथवा सभी सौंदर्य से युक्त श्रीकृष्ण जन्मसामग्री किसी दूसरे को अर्पित की गई हो अथवा उत्सवपूर्वक अनुष्ठित व्रतों से विश्वसृष्टा श्रीकृष्ण की पूजा की जाती हो वहाँ शत्रुओं का भय कभी नहीं होता है। उस स्थान पर मेघ व्यक्ति की इच्छा करने मात्र से वृष्टि करता है और प्राकृतिक आपदाओं से भी कोई भय नहीं होता। जिस घर में कोई देवकी पुत्र श्रीकृष्ण के चरित्र की पूजा करता है, वह घर सब प्रकार से समृद्ध रहता है और वहाँ भूत-प्रेत आदि बाधाओं का भय नहीं होता है। जो मनुष्य किसी के साथ में भी शांत होकर इस व्रतोत्सव का दर्शन कर लेता है वह भी पाप से मुक्त होकर श्रीहरि के धाम जाता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “जन्माष्टमीव्रत कथन” नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य तेइसवाँ अध्याय | Chapter -23 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 23 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य तेइसवाँ अध्याय

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कृष्ण जन्माष्टमी व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार – श्रावण मास (Shravan Maas) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वृष के चन्द्रमा में अर्धरात्रि में इस प्रकार के शुभ योग में देवकी ने वसुदेव से श्रीकृष्ण को जन्म दिया (भारत के पश्चिमी प्रदेशों में युगादि तिथि के अनुसार मास का नामकरण होता है अतः श्रावण कृष्ण अष्टमी को भाद्रपद अष्टमी समझना चाहिए) सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर इस श्रेष्ठ महोत्सव को करना चाहिए। सप्तमी के दिन अल्प आहार करें। इस दिन दंतधावन करके उपवास के नियम का पालन करे और जितेन्द्रिय होकर रात में शयन करे।

जो मनुष्य केवल उपवास के द्वारा कृष्णजन्माष्टमी का दिन व्यतीत करता है, वह सात जन्मों में किए गए पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। पापों से मुक्त होकर गुणों के साथ जो वास होता है उसी को सभी भोगों से रहित उपवास जानना चाहिए। अष्टमी के दिन नदी आदि के निर्मल जल में तिलों से स्नान करके किसी उत्तम स्थान में देवकी का सुन्दर सूतिकागृह बनाना चाहिए। जो अनेक वर्ण के वस्त्रों, कलशों, फलों, पुष्पों तथा दीपों से सुशोभित हो और चन्दन तथा अगरु से सुवासित हो। उसमे हरिवंशपुराण के अनुसार गोकुल लीला की रचना करें और उसे बाजों की ध्वनियों तथा नृत्य, गीत आदि मंगलों से सदा युक्त रखे।

उस गृह के मध्य में षष्ठी देवी की प्रतिमा सहित सुवर्ण, चाँदी, ताम्र, पीतल, मिटटी, काष्ठ अथवा मणि की अनेक रंगों से लिखी हुई श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करें। वहाँ आठ शल्य वाले पर्यंक (पलंग) के ऊपर सभी शुभ लक्षणों से संपन्न प्रसूतावस्था वाली देवी की मूर्त्ति रखकर उन सबको एक मंच पर स्थापित करे और उस पर्यंक में स्तनपान करते हुए सुप्त बालरूप श्रीकृष्ण को भी स्थापित करें।

उस सूतिकागृह में एक स्थान पर कन्या को जन्म दी हुई यशोदा को भी कृष्ण के समीप लिखे। साथ ही साथ हाथ जोड़े हुए देवताओं, यक्षों, विद्याधरों तथा अन्य देवयोनियों को भी लिखे और वहीँ पर खड्ग तथा ढाल धारण करके खड़े हुए वासुदेव को भी लिखे। इस प्रकार कश्यप के रूप में अवतीर्ण वसुदेव जी, अदितिस्वरूपा देवकी, शेषनाग के अवतार बलराम, अदिति के ही अंश से प्रादुर्भूत यशोदा, दक्ष प्रजापति के अवतार नन्द, ब्रह्मा के अवतार गर्गाचार्य, सभी अप्सराओं के रूप में प्रकट गोपिकावृन्द, देवताओं के रूप में जन्म लेने वाले गोपगण, कालनेमिस्वरूप कंस, उस कंस के द्वारा व्रज में भेजे गए वृषासुर – वत्सासुर – कुवलयापीड – केशी आदि असुर, हाथों में शास्त्र लिए हुए दानव तथा यमुनादह में स्थित कालिय नाग – इन सबको वहाँ चित्रित करना चाहिए।

इस प्रकार पहले इन्हे बनाकर श्रीकृष्ण ने जो कुछ भी लीलाएँ की हैं, उन्हें भी अंकित करके भक्तिपरायण होकर प्रयत्नपूर्वक सोलहों उपचारों से “देवकी.” – इस मन्त्र के द्वारा उनकी पूजा करनी चाहिए। वेणु तथा वीणा की ध्वनि के द्वारा गान करते हुए प्रधान किन्नरों से निरंतर जिनकी स्तुति की जाती है, हाथों में भृंगारि, दर्पण, दूर्वा, दधि-कलश लिए हुए किन्नर जिनकी सेवा कर रहे हैं, जो शय्या के ऊपर सुन्दर आसन पर भली-भाँति विराजमान हैं, जो अत्यंत प्रसन्न मुखमण्डल वाली हैं तथा पुत्र से शोभायमान हैं, वे देवताओं की माता तथा विजयसुतसुता देवी देवकी अपने पति वासुदेव सहित सुशोभित हो रही हैं।

उसके बाद विधि जानने वाले मनुष्य को चाहिए कि आदि में प्रणव तथा अंत में नमः से युक्त करके अलग-अलग सभी के नामो का उच्चारण करके सभी पापों से मुक्ति के लिए देवकी, वसुदेव,वासुदेव, बलदेव, नन्द तथा यशोदा की पृथक-पृथक पूजा करनी चाहिए। उसके बाद चन्द्रमा के उदय होने पर श्रीहरि का स्मरण करते हुए चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें। इस प्रकार कहना चाहिए – हे क्षीरसागर से प्रादुर्भूत, हे अत्रिगोत्र में उत्पन्न आपको नमस्कार है। हे रोहिणीकांत ! मेरे इस अर्घ्य को आप स्वीकार कीजिए। देवकी के साथ वासुदेव, नन्द के साथ यशोदा, रोहिणी के साथ चन्द्रमा और श्रीकृष्ण के साथ बलराम की विधिवत पूजा करके मनुष्य कौन-सी परम दुर्लभ वस्तु को नहीं प्राप्त कर सकता है। कृष्णाष्टमी का व्रत एक करोड़ एकादशी व्रत के समान होता है।

इस प्रकार से उस रात पूजन करके प्रातः नवमी तिथि को भगवती का जन्म महोत्सव वैसे ही मानना चाहिए जैसे श्रीकृष्ण का हुआ था। उसके बाद भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें जो-जो अभीष्ट हो गौ, धन आदि प्रदान करना चाहिए, उस समय यह कहना चाहिए – श्रीकृष्ण मेरे ऊपर प्रसन्न हों। गौ तथा ब्राह्मण का हित करने वाले आप वासुदेव को नमस्कार है, शान्ति हो, कल्याण हो – ऐसा कहकर उनका विसर्जन कर देना चाहिए। उसके बाद मौन होकर बंधु-बांधवों के साथ भोजन करना चाहिए। इस प्रकार जो प्रत्येक वर्ष विधानपूर्वक कृष्ण तथा भगवती का जन्म-महोत्सव मनाता है वह यथोक्त फल प्राप्त करता है। उसे पुत्र, संतान, आरोग्य तथा अतुल सौभाग्य प्राप्त होता है। वह इस लोक में धार्मिक बुद्धिवाला होकर मृत्यु के बाद वैकुण्ठलोक को जाता है।

हे सनत्कुमार ! अब इसके उद्यापन का वर्णन करूंगा। इसे किसी पुण्य दिन में विधिपूर्वक करें। एक दिन पूर्व एक बार भोजन करें और रात में ह्रदय में विष्णु का स्मरण करते हुए शयन करें। इसके बाद प्रातःकाल संध्या आदि कृत्य संपन्न करके ब्राह्मणों स्वस्तिवाचन कराएं और आचार्य का वरण करके ऋत्विजों की पूजा करें। इसके बाद वित्त शाठ्य से रहित होकर एक पल अथवा उसके आधे अथवा उसके भी आधे पल सुवर्ण की प्रतिमा बनवानी चाहिए और इसके बाद रचित मंडप में मंडल के भीतर ब्रह्मा आदि देवताओं की स्थापना करें।

इसके बाद वहाँ तांबे अथवा मिटटी का एक घट स्थापित करें और उसके ऊपर चाँदी या बाँस का एक पात्र रखे। उसमे गोविन्द की प्रतिमा रखकर वस्त्र से आच्छादित करके व्यक्ति सोलहों उपचारों से वैदिक तथा तांत्रिक मन्त्रों के द्वारा विधिवत पूजन करे। इसके बाद शंख में पुष्प, फल, चन्दन तथा नारिकेल फल सहित शुद्ध जल लेकर पृथ्वी पर घुटने टेककर यह कहते हुए देवकी सहित भगवान् श्रीकृष्ण को अर्घ्य प्रदान करे – कंस के वध के लिए, पृथ्वी का भार उतारने के लिए, कौरवों के विनाश के लिए तथा दैत्यों के संहार के लिए आपने अवतार लिया है, हे हरे ! मेरे द्वारा प्रदत्त इस अर्घ्य को आप देवकी सहित ग्रहण करें।

इसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि चन्द्रमा को पूर्वोक्त विधि से अर्घ्य प्रदान करें। पुनः भगवान् से प्रार्थना करें – हे जगन्नाथ ! हे देवकीपुत्र ! हे प्रभो ! हे वसुदेवपुत्र ! हे अनंत ! आपको नमस्कार है, भवसागर से मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार देवेश्वर से प्रार्थना करके रात्रि में जागरण करना चाहिए। पुनः प्रातःकाल शुद्ध जल में स्नान करके जनार्दन का पूजन खीर, तिल और घृत से मूल मन्त्र के द्वारा भक्तिपूर्वक एक सौ आठ आहुति देकर पुरुषसूक्त से हवन करें और पुनः “इदं विष्णुर्वी चक्रमे।” इस मन्त्र से केवल घृत(घी) की आहुतियाँ देनी चाहिए। पुनः पूर्णाहुति देकर तथा होमशेष संपन्न करने के अनन्तर आभूषण तथा वस्त्र आदि से आचार्य की पूजा करनी चाहिए।

उसके बाद व्रत की संपूर्णता के लिए दूध देने वाली, सरल स्वभाव वाली, बछड़े से युक्त, उत्तम लक्षणों से संपन्न, सोने की सींग, चाँदी के खुर, कांस्य की दोहनी, मोती की पूंछ, ताम्र की पीठ तथा सोने के घंटे से अलंकृत की हुई एक कपिला गौ को वस्त्र से आच्छादित करके दक्षिणा सहित दान करना चाहिए। इस प्रकार दान करने से व्रत संपूर्णता को प्राप्त होता है। कपिला गौ के अभाव में अन्य गौ भी दी जा सकती है।

इसके बाद ऋत्विजों को यथायोग्य दक्षिणा प्रदान करें। इसके बाद आठ ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और उन्हें भी दक्षिणा दे, पुनः सावधान होकर जल से परिपूर्ण कलश ब्राह्मणों को प्रदान करें और उनसे आज्ञा लेकर अपने बंधुओं के साथ भोजन करें। हे ब्रह्मपुत्र ! इस प्रकार व्रत का उद्यापन – कृत्य करने पर वह बुद्धिमान मनुष्य उसी क्षण पाप रहित हो जाता है और पुत्र-पौत्र से युक्त तथा धन-धान्य से संपन्न होकर बहुत समय तक सुखों का उपभोग कर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “कृष्णजन्माष्टमी व्रत कथन” नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य बाइसवाँ अध्याय | Chapter -22 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 22 Adhyay

Shravan Maas 22 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य बाइसवाँ अध्याय

Chapter -22

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) में किए जाने वाले संकष्ट हरण व्रत का विधान

ईश्वर बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! श्रावण मास (Shravan Maas) में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन सभी वांछित फल प्रदान करने वाला संकष्टहरण नामक व्रत करना चाहिए।

सनत्कुमार बोले – किस विधि से यह व्रत किया जाता है, इस व्रत में क्या करना चाहिए, किस देवता का पूजन करना चाहिए और इसका उद्यापन कब करना चाहिए? उसके विषय में मुझे विस्तारपूर्वक बताइए।

ईश्वर बोले – चतुर्थी के दिन प्रातः उठकर दंतधावन करके इस संकष्टहरण नामक शुभ व्रत को करने के लिए यह संकल्प ग्रहण करना चाहिए – हे देवेश ! आज मैं चन्द्रमा के उदय होने तक निराहार रहूँगा और रात्रि में आपकी पूजा करके भोजन करूँगा, संकट से मेरा उद्धार कीजिए। हे ब्रह्मपुत्र ! इस प्रकार संकल्प करके शुभ काले तिलों से युक्त जल से स्नान करके समस्त आह्निक कृत्य संपन्न करने के बाद गणपति की पूजा करनी चाहिए। बुद्धिमान को चाहिए की तीन माशे अथवा उसके आधे परिमाण अथवा एक माशे सुवर्ण से अथवा अपनी शक्ति के अनुसार सुवर्ण की प्रतिमा बनाए। सुवर्ण के अभाव में चांदी अथवा तांबे की ही प्रतिमा सुखपूर्वक बनाए। यदि निर्धन हो तो वह मिटटी की ही शुभ प्रतिमा बना ले किन्तु इसमें वित्त शाठ्य ना करें क्योंकि ऐसा करने पर कार्य नष्ट हो जाता है। रम्य अष्टदल कमल पर जल से पूर्ण तथा वस्त्रयुक्त कलश स्थापित करें और उसके ऊपर पूर्णपात्र रखकर उसमें वैदिक तथा तांत्रिक मन्त्रों द्वारा सोलहों उपचारों से देवता की पूजा करें।

हे विप्र ! तिलयुक्त दस उत्तम मोदक बनाएं, उनमें से पाँच मोदक देवता को अर्पित करें और पाँच मोदक ब्राह्मण को प्रदान करें। भक्ति भाव से उस विप्र की देवता की भाँति पूजा करें और यथाशक्ति दक्षिणा देकर यह प्रार्थना करे – हे विप्रवरी ! आपको नमस्कार है। हे देव ! मैं आपको फल तथा दक्षिणा से युक्त पाँच मोदक प्रदान करता हूँ। हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरी विपत्ति को दूर करने के लिए इसे ग्रहण कीजिए। हे विप्ररूप गणेश्वर ! मेरे द्वारा जो भी न्यून, अधिक अथवा द्रव्यहीन कृत्य किया गया हो, वह सब पूर्णता को प्राप्त हो। इसके बाद स्वादिष्ट अन्न से ब्राह्मणों को प्रसन्नतापूर्वक भोजन कराएं।

उसके बाद चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे, उसका मन्त्र प्रारम्भ से सुनिए – हे क्षीरसागर से प्रादुर्भूत ! हे सुधारूप ! हे निशाकर ! हे गणेश की प्रीति को बढ़ाने वाले ! मेरे द्वारा दिए गए अर्घ्य को ग्रहण कीजिए। इस विधान के करने पर गणेश्वर प्रसन्न होते हैं और वांछित फल प्रदान करते हैं, अतः इस व्रत को अवश्य करना चाहिए। इस व्रत का अनुष्ठान करने से विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता है, धन चाहने वाला धन पा जाता है, पुत्र की अभिलाषा रखने वाला पुत्र प्राप्त करता है, मोक्ष चाहने वाला उत्तम गति प्राप्त करता है, कार्य की सिद्धि चाहने वाले का कार्य सिद्ध हो जाता है और रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। विपत्तियों में पड़े हुए, व्याकुल चित्तवाले, चिंता से ग्रस्त मनवाले तथा जिन्हे अपने सुहृज्जनों का वियोग हो गया हो – उन मनुष्यों का दुःख दूर हो जाता है। यह व्रत मनुष्यों के सभी कष्टों का निवारण करने वाला, उन्हें सभी अभीष्ट फल प्रदान करने वाला, पुत्र-पौत्र आदि देने वाला तथा सभी प्रकार की संपत्ति प्रदान कराने वाला है।

ॐ नमो हेरम्बाय मदमोदिताय संकष्टस्य निवारणाय स्वाहा को बोलना चाहिए। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इंद्र आदि लोकपालों की सभी दिशाओं में पूजा करें। अब मैं मोदकों की दूसरी विधि आपको बताता हूँ – पके हुए मूँग तथा तिलों से युक्त घी में पकाए गए तथा गरी के छोटे-छोटे टुकड़ों से मिश्रित मोदक गणेश जी को अर्पित करें। उसके बाद दूर्वा के अंकुर लेकर इन नाम पदों से पृथक-पृथक गणेश जी की पूजा करें।

उन नामों को मुझसे सुनिए – हे गणाधिप ! हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! हे एकदन्त ! हे इभवक्त्र ! हे मूषकवाहन ! हे विनायक ! हे ईशपुत्र ! हे सर्वसिद्धिप्रदायक ! हे विघ्नराज ! हे स्कन्द्गुरो ! हे सर्वसंकष्टनाशन ! हे लम्बोदर ! हे गणाध्यक्ष ! हे गौर्यांगमलसम्भव ! हे धूमकेतो ! हे भालचंद्र ! हे सिन्दूरासुरमर्दन ! हे विद्यानिधान ! हे विकत ! हे शूर्पकर्ण ! आपको नमस्कार है। इस प्रकार इन इक्कीस नामों से गणेश जी की पूजा करें।

उसके बाद भक्ति से नम्र होकर प्रसन्नबुद्धि से गणेश देवता से इस प्रकार प्रार्थना करें – हे विघ्नराज ! आपको नमस्कार है। हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! जिस उद्देश्य से मैंने यथाशक्ति आज आपका पूजन किया है, उससे प्रसन्न होकर शीघ्र ही मेरे हृदयस्थित मनोरथों को पूर्ण कीजिए। हे प्रभो ! मेरे समक्ष उपस्थित विविध प्रकार के समस्त विघ्नों का नाश कीजिए, मैं यहां सभी कार्य आपकी ही कृपा से करता हूँ, मेरे शत्रुओं की बुद्धि का नाश कीजिए तथा मित्रों की उन्नति कीजिए।

इसके बाद एक सौ आठ आहुति देकर होम करें। उसके बाद व्रत की संपूर्णता के लिए मोदकों का वायन प्रदान करें। उस समय यह कहें – गणेश जी की प्रसन्नता के लिए मैं सात लड्डुओं तथा सात मोदकों का वायन फल सहित ब्राह्मण को प्रदान करता हूँ। तदनन्तर हे सत्तम ! पुण्यदायिनी कथा सुनकर इस मन्त्र के द्वारा पाँच बार प्रयत्नपूर्वक चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें –क्षीरोदार्णवसम्भूत अत्रिगोत्रसमुद्भव | गृहाणारघ्यं मया दत्तं रोहिण्या सहितः शशिन ॥

क्षीरसागर से उत्पन्न तथा अत्रिगोत्र में उत्पन्न हे चंद्र ! रोहिणी सहित आप मेरे द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को स्वीकार कीजिए। उसके बाद अपने अपराध के लिए देवता से क्षमा प्रार्थना करें और अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा ब्राह्मणों को जो अर्पित किया हो उसके अवशिष्ट भोजन को स्वयं ग्रहण करें। मौन होकर सात ग्रास ग्रहण करें और अशक्त हो तो इच्छानुसार भोजन करें। इसी प्रकार तीन मास अथवा चार मास तक विधानपूर्वक इस व्रत को करें। उसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि पाँचवें महीने में उद्यापन करे।

उद्यापन के लिए बुद्धिमान को अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वर्णमयी गणेश-प्रतिमा बनानी चाहिए। उसके बाद उस भक्ति संपन्न मनुष्य को पूर्वोक्त विधान से चन्दन, सुगन्धित द्रव्य तथा अनेक प्रकार के सुन्दर पुष्पों से पूजा करनी चाहिए और एकाग्रचित्त होकर नारिकेल फल से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए। पायस से युक्त सूप में फल रखकर और उसे लाल वस्त्र से लपेटकर यह वायन भक्त ब्राह्मण को प्रदान करें। साथ ही स्वर्ण की गणपति की प्रतिमा भी दक्षिणा सहित उन्हें दें। व्रत की पूर्णता के लिए एक आढ़क टिल का दान करें, उसके बाद “विघ्नेश प्रसन्न हों” ऐसा कहकर देवता से क्षमा प्रार्थना करें।

इस प्रकार उद्यापन करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है और मनोवांछित सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। हे सत्तम ! पूर्व कल्प में स्कंदकुमार के चले जाने पर पार्वती ने मेरी आज्ञा से चार महीने तक इस व्रत को किया था तब पाँचवें महीने में पार्वती ने कार्तिकेय को प्राप्त किया था। समुद्र पान के समय अगस्त्य जी ने इस व्रत को किया था और तीन माह में विघ्नेश्वर की कृपा से उन्होंने सिद्धि प्राप्त कर ली। हे विपेन्द्र ! राजा नल के लिए दमयंती ने छह महीने तक इस व्रत को किया था तब नल को खोजती हुई दमयंती को वे मिल गए थे। जब चित्रलेखा अनिरुद्ध को बाणासुर के नगर में ले गई थी तब “वह कहाँ गया और उसे कौन ले गया” – यह सोचकर प्रदुम्न व्याकुल हो गए। उस समय प्रदुम्न को पुत्र शोक से पीड़ित देखकर रुक्मिणी ने प्रेम पूर्वक उससे कहा – हे पुत्र ! मैंने जो व्रत अपने घर में किया था उसे मैं बताती हूँ इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

बहुत समय पहले जब राक्षस तुम्हे उठा ले गया था तब तुम्हारे वियोगजन्य दुःख के कारण मेरा ह्रदय विदीर्ण हो गया था। मैं सोचती थी कि मैं अपने पुत्र का अति सुन्दर मुख कब देखूंगी। उस समय अन्य स्त्रियों के पुत्रों को देखकर मेरा ह्रदय विदीर्ण हो जाता था कि कहीं अवस्था साम्य से यह मेरा ही पुत्र तो नहीं। इसी चिंता में व्याकुल हुए मेरे अनेक वर्ष व्यतीत हो गए। तब दैवयोग से लोमश मुनि मेरे घर आ गए। उन्होंने सभी चिंताओं को दूर करने वाला संकष्टचतुर्थी का व्रत मुझे विधिपूर्वक बताया और मैंने चार महीने तक इसे किया । उसी के प्रभाव से तुम शंबरासुर को युद्ध में मारकर आ गए थे। अतः हे पुत्र ! इस व्रत की विधि जानकर तुम भी इसे करो, उससे तुम्हे अपने पुत्र का पता चल जाएगा।

हे विप्र ! प्रदुम्न ने यह व्रत करके गणेश जी को प्रसन्न किया तब नारद जी से उन्होंने सूना कि अनिरुद्ध बाणासुर के नगर में है। इसके बाद बाणासुर के नगर में जाकर उससे अत्यंत भीषण युद्ध करके और संग्राम में शिव (Lord Shiv) सहित बाणासुर को जीत कर पुत्रवधू सहित अनिरुद्ध को प्रदुम्न घर लाये थे। हे मुने ! इसी प्रकार अन्य देवताओं तथा असुरों ने भी विघ्नेश की प्रसन्नता के लिए यह व्रत किया था। हे सनत्कुमार ! इस व्रत के समान सभी सिद्धियाँ देने वाला इस लोक में कोई भी व्रत, तप, दान और तीर्थ नहीं है। बहुत कहने से क्या लाभ? इसके तुल्य कार्यसिद्धि करने वाला दूसरा कुछ भी नहीं है। अभक्त, नास्तिक तथा शठ को इस व्रत का उपदेश नहीं करना चाहिए अपितु पुत्र, शिष्य, श्रद्धालु तथा सज्जन को इसका उपदेश करना चाहिए।

हे विप्रर्षे ! हे धर्मिष्ठ ! हे विधिनंदन ! तुम मेरे प्रिय हो तथा लोकोपकार करने वाले हो, अतः मैंने तुम्हारे लिए इस व्रत का उपदेश किया है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “चतुर्थीव्रत कथन” नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय | Chapter -21 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 21 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय

Chapter -21

 

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श्रावण पूर्णिमा पर किये जाने वाले कृत्यों का संक्षिप्त वर्णन तथा रक्षा बंधन की कथा

सनत्कुमार बोले – हे दयानिधे ! कृपा करके अब आप पौर्णमासी व्रत की विधि कहिए क्योंकि हे स्वामिन ! इसका माहात्म्य सुनने वालों की श्रवणेच्छा बढ़ती है।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! इस श्रावण मास (Shravan Maas) में पूर्णिमा तिथि को उत्सर्जन तथा उपाकर्म संपन्न होते हैं। पौष के पूर्णिमा तथा माघ की पूर्णिमा तिथि उत्सर्जन कृत्य के लिए होती है अथवा उत्सर्जनकृत्य हेतु पौष की प्रतिपदा अथवा माघ की प्रतिपदा तिथि विहित है अथवा रोहिणी नामक नक्षत्र उत्सर्जन कृत्य के लिए प्रशस्त होता है अथवा अन्य कालों में भी अपनी-अपनी शाखा के अनुसार उत्सर्जन तथा उपाकर्म – दोनों का साथ-साथ करना उचित माना गया है। अतः श्रावण मास (Shravan Maas) की पूर्णिमा को उत्सर्जन कृत्य प्रशस्त होता है। साथ ही ऋग्वेदियों के लिए उपाकर्म हेतु श्रवण नक्षत्र होना चाहिए।

चतुर्दशी, पूर्णिमा अथवा प्रतिपदा तिथि में जिस दिन श्रवण नक्षत्र हो उसी दिन ऋग्वेदियों को उपाकर्म करना चाहिए। यजुर्वेदियों का उपाकर्म पूर्णिमा में और सामवेदियों का उपाकर्म हस्त नक्षत्र में होना चाहिए। शुक्र तथा गुरु के अस्तकाल में भी सुखपूर्वक उपाकर्म करना चाहिए किन्तु इस काल में इसका प्रारम्भ पहले नहीं होना चाहिए ऐसा शास्त्रविदों का मानना है। ग्रहण तथा संक्रांति के दूषित काल के अनन्तर ही इसे करना चाहिए। हस्त नक्षत्र युक्त पंचमी तिथि में अथवा भाद्रपद पूर्णिमा तिथि में उपाकर्म करें। अपने-अपने गुह्यसूत्र के अनुसार उत्सर्जन तथा उपाकर्म करें। अधिकमास आने पर इसे शुद्धमास में करना चाहिए। ये दोनों कर्म आवश्यक हैं। अतः प्रत्येक वर्ष इन्हे नियमपूर्वक करना चाहिए।

उपाकर्म की समाप्ति पर द्विजातियों के विद्यमान रहने पर स्त्रियों को सभा में सभादीप निवेदन करना चाहिए। उस दीपक को आचार्य ग्रहण करे या किसी अन्य ब्राह्मण को प्रदान कर दें। दीप की विधि इस प्रकार है – सुवर्ण, चाँदी अथवा ताँबे के पात्र में सेर भर गेहूँ भर कर गेहूँ के आटे का दीपक बनाकर उसमें उस दीपक को जलाएं। वह दीपक घी से अथवा तेल से भरा हो और तीन बत्तियों से युक्त हो। दक्षिणा तथा ताम्बूल सहित उस दीपक को ब्राह्मण को अर्पण कर दें। दीपक की तथा विप्र की विधिवत पूजा करके निम्न मन्त्र बोले –

सदक्षिणः सताम्बूलः सभादीपोयमुत्तमः | अर्पितो देवदेवस्य मम सन्तु मनोरथाः ॥

दक्षिणा तथा ताम्बूल से युक्त यह उत्तम सभादीप मैंने देवदेव को निवेदित किया है, मेरे मनोरथ अब पूर्ण हो। सभादीप प्रदान करने से पुत्र-पौत्र आदि से युक्त कुल उज्जवलता को प्राप्त होता है और यश के साथ निरंतर बढ़ता है। इसे करने वाली स्त्री दूसरे जन्म में देवांगनाओं के समान रूप प्राप्त करती है। वह स्त्री सौभाग्यवती हो जाती है और अपने पति की अत्यधिक प्रिय पात्र होती है। इस प्रकार पांच वर्ष तक इसे करने के पश्चात उद्यापन करना चाहिए और अपने सामर्थ्य के अनुसार भक्तिपूर्वक दक्षिणा देनी चाहिए। हे सनत्कुमार यह मैंने आपसे सभादीप का शुभ माहात्म्य कह दिया। उसी रात्रि में श्रवणा कर्म का करना बताया गया है। उसके बाद वहीँ पर सर्पबलि की जाती हैv अपना-अपना गृह्यसूत्र देखकर ये दोनों ही कृत्य करने चाहिए।

हयग्रीव का अवतार उसी तिथि में कहा गया है अतः इस तिथि पर हयग्रीव जयंती का महोत्सव मनाना चाहिए। उनकी उपासना करने वालों के लिए यह उत्सव नित्य करना बताया गया है। श्रावण पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में भगवान् श्रीहरि हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए और सर्वप्रथम उन्होंने सभी पापों का नाश करने वाले सामवेद का गान किया। इन्होने सिंधु और वितस्ता नदियों के संगम स्थान में श्रवण नक्षत्र में जन्म लिया था। अतः श्रावणी के दिन वहाँ स्नान करना सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है। उस दिन वहाँ श्राङ्गधनुष, चक्र तथा गदा धारण करने वाले विष्णु की विधिवत पूजा करें। इसके बाद सामगान का श्रवण करें। ब्राह्मणों की हर प्रकार से पूजा करें और अपने बंधु-बांधवों के साथ वहाँ क्रीड़ा करे तथा भोजन करें।

स्त्रियों को चाहिए कि उत्तम पति प्राप्त करने के उद्देश्य से जलक्रीड़ा करें। उस दिन अपने-अपने देश में तथा घर में इस महोत्सव को मनाना चाहिए तथा हयग्रीव की पूजा करनी चाहिए और उनके मन्त्र का जप करना चाहिए। यह मन्त्र इस प्रकार से है – आदि में “प्रणव” तथा उसके बाद “नमः” शब्द लगाकर बाद में “भगवते धर्माय” जोड़कर उसके भी बाद “आत्मविशोधन” शब्द की चतुर्थी विभक्ति – आत्मविशोधनाय – लगानी चाहिए। पुनः अंत में “नमः” शब्द प्रयुक्त करने से अठारह अक्षरों वाला – ॐ नमो भगवते धर्माय आत्मविशोधनाय नमः – मन्त्र बनता है। यह मन्त्र सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाला और छह प्रयोगों को सिद्ध करने वाला है। इस मन्त्र का पुरश्चरण अठारह लाख अथवा अठारह हजार जप का है। कलियुग में इसका पुरश्चरण इससे भी चार गुना जप से होना चाहिए।

इस प्रकार करने पर हयग्रीव प्रसन्न होकर उत्तम वांछित फल प्रदान करते हैं। इसी पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन मनाया जाता है। जो सभी रोगों को दूर करने वाला तथा सभी अशुभों का नाश करने वाला है। हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी प्रसंग में एक प्राचीन इतिहास सुनिए – इंद्र की विजय प्राप्ति के लिए इंद्राणी ने जो किया था उसे मैं बता रहा हूँ। पूर्वकाल में बारह वर्षों तक देवासुर संग्राम होता रहा तब इंद्र को थका हुआ देखकर देवी इंद्राणी ने उन सुरेंद्र से कहा – हे देव ! आज चतुर्दशी का दिन है, प्रातः होने पर सब ठीक हो जाएगा। मैं रक्षा बंधन अनुष्ठान करुँगी उससे आप अजेय हो जाएंगे और तब ऐसा कहकर इंद्राणी ने पूर्णमासी के दिन मंगल कार्य संपन्न करके इंद्र के दाहिने हाथ में आनंददायक रक्षा बाँध दी। उसके बाद ब्राह्मणों के द्वारा स्वस्त्ययन किए गए तथा रक्षा बंधन से युक्त इंद्र ने दानव सेना पर आक्रमण किया और क्षण भर में उसे जीत लिया। इस प्रकार विजयी होकर इंद्र तीनों लोकों में पुनः प्रतापवान हो गए।

हे मुनीश्वर ! मैंने आपसे रक्षा बंधन के इस प्रभाव का वर्णन कर दिया जो कि विजय प्रदान करने वाला, सुख देने वाला और पुत्र, आरोग्य तथा धन प्रदान करने वाला है।

सनत्कुमार बोले – हे देवश्रेष्ठ ! यह रक्षाबंधन किस विधि से, किस तिथि में तथा कब किया जाता है? हे देव ! कृपा करके इसे बताये। हे भगवन ! जैसे-जैसे आप अद्भुत बातें बताते जा रहे है वैसे-वैसे अनेक अर्थों से युक्त कथाओं को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।

ईश्वर बोले – बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि श्रावण का महीना आने पर पूर्णिमा तिथि को सूर्योदय के समय श्रुति-स्मृति के विधान से स्नान करें। इसके बाद संध्या, जप आदि करके देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करने के बाद सुवर्णमय पात्र में बनाई गई, सुवर्ण सूत्रों से बंधी हुई, मुक्ता आदि से विभूषित, विचित्र तथा स्वच्छ रेशमी तंतुओं से निर्मित, विचित्र ग्रंथियों से सुशोभित, पदगुच्छों से अलंकृत और सर्षप तथा अक्षतों से गर्भित एक अत्यंत मनोहर रक्षा अथवा राखी बनाये। इसके बाद कलश स्थापन करके उसके ऊपर पूर्ण पात्र रखे और पुनः उस पर रक्षा को स्थापित कर दे। उसके बाद रम्य आसान पर बैठकर सुहृज्जनों के साथ वारांगनाओं के नृत्यगान आदि तथा क्रीड़ा-मंगल कृत्य में संलग्न रहे।

इसके बाद यह मन्त्र पढ़कर पुरोहित रक्षाबंधन करे – “येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः | तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥” जिस बंधन से महान बल से संपन्न दानवों के पति राजा बलि बांधे गए थे, उसी से मैं आपको बांधता हूँ, हे रक्षे ! चलायमान मत होओ, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों तथा अन्य मनुष्यों को चाहिए कि यत्नपूर्वक ब्राह्मणों की पूजा करके रक्षाबंधन करें। जो इस विधि से रक्षाबंधन करता है, वह सभी दोषों से रहित होकर वर्ष पर्यन्त सुखी रहता है। विधान को जानने वाला जो मनुष्य शुद्ध श्रावण मास (Shravan Maas) में इस रक्षाबंधन अनुष्ठान को करता है वह पुत्रों, पुत्रों तथा सुहृज्जनों के सहित एक वर्ष भर अत्यंत सुख से रहता है। उत्तम व्रत करने वालों को चाहिए कि भद्रा में रक्षाबंधन न करें क्योंकि भद्रा में बाँधी गई रक्षा विपरीत फल देने वाली होती है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “उपाकर्मोत्सर्जनश्रवणाकर्म-सर्पबलिसभादीप हयग्रीव जयंती रक्षा बंधन विधि कथन” नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य बीसवाँ अध्याय | Chapter -20 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 20 Adhyay

Shravan Maas 20 Adhyay

 श्रावण माह माहात्म्य बीसवाँ अध्याय

Chapter -20

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) में त्रयोदशी और चतुर्दशी को किए जाने वाले कृत्यों का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं आपके समक्ष त्रयोदशी तिथि का कृत्य कहता हूँ। इस दिन सोलहों उपचारों से कामदेव का पूजन करना चाहिए। अशोक, मालतीपुष्प, देवताओं को प्रिय कमल, कौसुम्भ तथा बकुल पुष्पों और अन्य प्रकार के भी सुगन्धित पुष्पों, रक्त अक्षत, पीले चन्दन, शुभ सुगन्धित द्रव्यों तथा पुष्टि प्रदान करने वाले तथा तेज की वृद्धि करने वाले अन्य पदार्थों से पूजन करना चाहिए। नैवेद्य और मुख के लिए रोचक ताम्बूल अर्पित करना चाहिए। ताम्बूल (पान) में चिकनी उत्तम सुपारी, खैर, चूना, जावित्री, जायफल, लवंग, इलायची, नारिकेल बीज के छोटे टुकड़े, सोने तथा चाँदी के पात्र, कपूर और केसर – इन पदार्थों को मिलाना चाहिए।

मगध देश में उत्पन्न होने वाले, श्वेतवर्ण, पके हुए, पुराने, दृढ तथा रसमय ताम्बूल शंबरासुर के शत्रु कामदेव की प्रसन्नता के लिए अर्पित करना चाहिए। उसके बाद मोम से बनाई गई बत्तियों से कामदेव का नीराजन करें और पुनः पुष्पांजलि प्रदान करें। इसके बाद उनके नामों से प्रार्थना करें जो इस प्रकार से हैं – समस्त उपमानों में सुन्दर तथा भगवान् का पुत्र “प्रद्युम्न” मीनकेतन, कंदर्प, अनंग, मन्मथ, मार, कामात्मसम्भूत, झषकेतु और मनोभव। कस्तूरी से सुशोभित जिनका वक्षस्थल आलिंगन के चिह्नों से अलंकृत है।
हे पुष्पधन्वन ! हे शंबरासुर के शत्रु ! हे कुसुमेश ! हे रतिपति ! हे मकरध्वज ! हे पंचेश ! हे मदन ! हे समर ! हे सुन्दर ! देवताओं की सिद्धि के लिए आप शिव (Lord Shiv) के द्वारा दग्ध हो गए, उसी कार्य से आप परोपकार की मर्यादा कहे जाते हैं। आपके दिग्विजय करने में वसंत की सहायता निमित्तमात्र है। इंद्र दिन-रात आपका मनोरंजन करने में लगे रहते हैं क्योंकि अपने पद से च्युत होने की शंका में वे तपस्वियों से भयभीत रहते हैं। आपके अतिरिक्त दृढ मन वाला कौन है जो शिवजी से विरोध कर सकता है।

परब्रह्मानन्द के समान आनंद देनेवाला आपके अतिरिक्त दुसरा कौन है तथा महामोह की सेनाओं में आपके समान तेजस्वी कौन है। अनिरुद्ध के स्वामी और मलयगिरि पर उत्पन्न चन्दन तथा अगरु से सुवासित विग्रह वाले जो देवेश कृष्णपुत्र है, वह आप ही हैं। हे शरत्कालीन चन्द्रमा के उत्तम मित्र ! हे जगत की सृष्टि के कारण ! जगत पर विजय के समय दक्षिण दिशा तथा पनवनदेव आपके सहायक थे। हे नाथ ! आपका अस्त्र महान, निष्फल न होनेवाला, अत्यंत दूर तक जाने वाला, मर्मस्थल का छेदन करने वाला, करुनाशून्य तथा प्रतिकाररहित है। सुना गया है कि वह अत्यंत कोमल होते हुए भी महान क्षोभ करने वाला और अपने तुल्य पदार्थ को भी दर्शन मात्र से ही क्षुभित करने वाला है।
जगत पर विजय करने में सहायक होने से प्रवृत्ति ही आपका मुख्य अलंकार है। हे विभो ! आपने सभी श्रेष्ठ देवताओं को उपहास के योग्य बना दिया क्योंकि ब्रह्माजी अपनी पुत्री में कामासक्त हो गए, विष्णु जी वृंदा में अनुरक्त कहे गए है और शिवजी परस्त्री के कारण अस्पृश्य हो गए। हे मानद ! यह वर्णन मैंने मुख्य रूप से किया है, अधिक कहने से क्या लाभ ! इस लोक में अपने वश में रहने वाले ब्राह्मण विरले हैं। अतः हे भगवन ! इस की गई पूजा से आप प्रसन्न हों।

श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन पूजा करके कामदेव प्रवृत्ति मार्ग के विषयासक्त व्यक्ति को अत्यधिक पराक्रम तथा शक्ति करते हैं और निवृत्ति मार्ग में संलग्न व्यक्ति से अपने विकार को हर लेते हैं। श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में अपनी पूजा के द्वारा संतुष्ट होकर ये कामदेव सकाम पुरुष को अनेक प्रकार के अलंकारों से भूषित तथा मनोरम स्त्रियां प्रदान करते हैं और दीर्घजीवी, गुणों से संपन्न, सुख देने वाले तथा श्रेष्ठ वंश परंपरा वाले अनेक पुत्र देते हैं। हे मानद ! त्रयोदशी तिथि का जो शुभ कृत्य है उसे मैंने कह दिया, अब चतुर्दशी तिथि में जो करना चाहिए, उसे सुनिए।

अष्टमी को देवी का पवित्रारोपण करने को मैंने आपसे कहा है, वह यदि उस दिन न किया गया हो तो चतुर्दशी के दिन पवित्रक धारण कराये। चतुर्दशी तिथि को त्रिनेत्र शिव (Lord Shiv) को पवित्रक अर्पण करना चाहिए। इसमें पवित्रक धारण कराने की विधि देवी तथा विष्णु जी की पवित्रक विधि के समान ही है, केवल प्रार्थना तथा नाम आदि में अंतर कर लेना चाहिए। शैव, आगम तथा जाबाल आदि ग्रंथों में इसकी जो विधि है, उसी को मैंने कहा है। विकल्प से इसमें जो कुछ विशेष है, उसे मैं आपको बताता हूँ।

ग्यारह अथवा अड़तालीस अथवा पचास तारों का समान ग्रंथि तथा समान अंतराल वाला पवित्रक बनाना चाहिए। पवित्रक बारह अंगुल प्रमाण के, आठ अंगुल प्रमाण के, चार अंगुल प्रमाण के अथवा पूजित शिवलिंग के विस्तार के प्रभाव वाले बनाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिए अर्पण कर देने चाहिए। विधि पहले बताई गई है फल आदि पहले कहे जा चुके हैं। जो इस व्रत को करता है, वह कैलाश लोक प्राप्त करता है। हे वत्स ! मैंने यह सब आपसे कह दिया अब आप और क्या सुनना चाहते है?

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “त्रयोदशी-चतुर्दशी कर्तव्य कथन” नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य उन्नीसवाँ अध्याय | Chapter -19 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 19 adhyay

Shravan Maas 19 adhyay

श्रावण माह माहात्म्य उन्नीसवाँ अध्याय

Chapter -19

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) की दोनों पक्षों की एकादशियों के व्रतों का वर्णन तथा विष्णुपवित्रारोपण विधि

ईश्वर बोले – हे महामुने ! अब मैं श्रावण मास (Shravan Maas) में दोनों पक्षों की एकादशी तिथि को जो किया जाता है, उसे कहता हूँ, आप सुनिए। हे वत्स ! रहस्यमय, अतिश्रेष्ठ, महान पुण्य प्रदान करने वाले तथा महापातकों का नाश करने वाले इस व्रत को मैंने किसी से नहीं कहा है। यह एकादशी व्रत श्रवण मात्र से मनुष्यों को वांछित फल प्रदान करने वाला, पापों का नाश करने वाला, सभी व्रतों में श्रेष्ठ तथा शुभ है। इसे मैं आपसे कहूँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए। दशमी तिथि में प्रातःकाल स्नान करके शुद्ध होकर संध्या आदि कर ले और वेदवेत्ता, पुराणज्ञ तथा जितेन्द्रिय विप्रों से आज्ञा लेकर सोलहों उपचारों से देवाधिदेव भगवान् का विधिवत पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करें – हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। हे अच्युत ! आप मेरे शरणदाता होइए।

हे वत्स ! गुरु, देवता तथा अग्नि की सन्निधि में नियम धारण करें और उस दिन काम-क्रोध रहित होकर भूमि पर शयन करें। उसके बाद प्रातःकाल होने पर भगवान् केशव में मन को लगाएं। भूख लगने तथा प्रस्खलन – गिरना, ठोकर आदि लगना – के समय “श्रीधर” – इस शब्द का उच्चारण करें. हे वत्स ! यह व्रत मोक्ष प्रदान करने वाला है, अतः तीन दिनों तक पाखंडी आदि लोगों के साथ बातचीत, उन्हें देखना तथा उनकी बातें सुनना – इन सबका त्याग कर देना चाहिए। तदनन्तर क्रोध रहित होकर पंचगव्य लेकर मध्याह्न के समय नदी आदि के निर्मल जल में स्नान करना चाहिए। सूर्य को नमस्कार करके भगवान् श्रीधर की शरण में जाना चाहिए और वर्णाचार की विधि से सभी कृत्य संपन्न करके घर आना चाहिए।

वहाँ पुष्प, धूप तथा अनेक प्रकार के नैवेद्यों से श्रद्धापूर्वक श्रीधर की पूजा करनी चाहिए। उसके बाद सुवर्णमय, पञ्चरत्नयुक्त, श्वेत चन्दन से लिप्त तथा दो वस्त्रों से आच्छादित कलश को स्थापित करके और शंख, चक्र, गदायुक्त देवाधिदेव श्रीधर की प्रतिमा स्थापित कर उनकी पूजा करके गीत, वाद्य तथा कथा श्रवण के साथ रात्रि में जागरण करना चाहिए। इसके बाद विमल प्रभात होने पर द्वादशी के दिन विधिवत पूजन करके कृतकृत्य होकर बुद्धिमान को चाहिए कि “श्रीधर” नाम का जप करे। इसके बाद उन शंख, चक्र तथा गदा धारण करने वाले देवदेवेश – श्रीधर – की पुनः पूजा करें और सुवर्ण – दक्षिणा सहित कलश ब्राह्मण को प्रदान करें। उस समय ब्राह्मण को विशेष करके नवनीत अवश्य प्रदान करें।

इस प्रकार प्रार्थना करें – भगवान् श्रीधर आज आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे अत्युत्तम लक्ष्मी प्रदान करें। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार उच्चारण करके जगद्गुरु श्रीधर से प्रार्थना करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देनी चाहिए। उसके बाद सेवकों आदि को भोजन कराकर गायों को घास खिलानी चाहिए। इसके बाद मित्रों तथा बंधु-बांधवों समेत स्वयं भोजन करना चाहिए।

हे सनत्कुमार ! मैंने आपको यह श्रावण मास (Shravan Maas) की शुक्ल पक्ष की एकादशी व्रत विधि बतला दी, इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की एकादशी में भी करना चाहिए। दोनों व्रतों में अनुष्ठान समान है, केवल देवताओं के नाम में भेद है। “जनार्दन” मुझ पर प्रसन्न हों – यह वाक्य बोलना चाहिए। शुक्ल एकादशी के देवता श्रीधर हैं और कृष्ण एकादशी के देवता जनार्दन हैं। हे सनत्कुमार ! यह मैंने आपसे दोनों एकादशियों के व्रत का वर्णन कर दिया है। इस एकादशी व्रत के समान पुण्यव्रत न तो कभी हुआ और ना होगा। आपको यह व्रत गुप्त रखना चाहिए और दुष्ट हृदय वाले को नहीं प्रदान करना चाहिए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं द्वादशी तिथि में होने वाले श्रीहरि के पवित्रारोपण व्रत का वर्णन करूँगा। पिछले अध्याय में देवी की कही गई पवित्रारोपण विधि के समान ही इसका भी पवित्रारोपण है। इसमें जो विशेष बात है, उसे मैं बताऊंगा, सावधान चित्त होकर सुनिए। हे महामुने ! इस व्रत के लिए जो अधिकारी बताया गया है, उसे आप सुनें। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री – इन सभी को अपने धर्म में स्थित होकर भक्तिपूर्वक पवित्रारोपण करना चाहिए। द्विज को चाहिए कि “अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः।” इस मन्त्र से विष्णु की पूजा करें। स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए नाम मन्त्र है जिसके द्वारा वे विष्णु की पूजा करें।

इसी प्रकार द्विज “कद्रुद्राय.” इस मन्त्र से शिवजी की पूजा करें स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए नाम मन्त्र है जिसके द्वारा वे शिवजी की पूजा करें। सतयुग में मणिमय, त्रेता में सुवर्णमय, द्वापर में रेशम का और कलियुग में कपास का सूत्र पवित्रक के लिए बताया गया है। सन्यासियों को शुभ मानस पवित्रारोपण करना चाहिए। बनाए गए पवित्रक को सर्वप्रथम बाँस की सुन्दर टोकरी में रखकर शुद्ध वस्त्र से ढंककर भगवान् के सम्मुख रखें और इस प्रकार कहें – हे प्रभो ! क्रियालोप के विधान के लिए जो आपने आच्छादन किया है, हे देव ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं इसे करता हूँ। हे देव ! मेरे इस कार्य में विघ्न न उत्पन्न हो, हे नाथ ! मुझ पर दया कीजिए। हे देव ! सब प्रकार से सर्वदा आप ही मेरी परम गति हैं। हे जगत्पते ! मैं इस पवित्रक से आपको प्रसन्न करता हूँ। ये काम-क्रोध आदि मेरे व्रत का नाश करने वाले ना हों। हे देवेश ! आप आज से लेकर वर्षपर्यंत अपने भक्त की रक्षा करें, आपको नमस्कार है। इस प्रकार कलश में देवता की प्रार्थना करके बाँस के शुभ पात्र में स्थित पवित्रक की आदरपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए।

“हे पवित्रक ! वर्ष भर की गई पूजा की पवित्रता के लिए विष्णु लोक से आप इस समय यहां पधारें, आपको नमस्कार है। हे देव ! मैं विष्णु के तेज से उत्पन्न, मनोहर, सभी पापों का नाश करने वाले तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस पवित्रक को आपके अंग में धारण कराता हूँ। हे देवेश ! हे पुराणपुरुषोत्तम ! आप मेरे द्वारा आमंत्रित हैं। अतः आप मेरे समीप पधारें, मैं आपका पूजन करूँगा, आपको नमस्कार है। मैं प्रातःकाल आपको यह पवित्रक निवेदन करूँगा।”

उसके बाद पुष्पांजलि देकर रात्रि में जागरण करना चाहिए। एकादशी के दिन अधिवासन करें और द्वादशी के दिन प्रातःकाल पूजन करें। पुनः हाथ में गंध, दूर्वा तथा अक्षत के साथ पवित्रक लेकर ऐसा कहें – हे देवदेव ! आपको नमस्कार है, वर्षपर्यंत की गई पूजा का फल देने वाले इस पवित्रक को पवित्रीकरण हेतु आप ग्रहण कीजिए। मैंने जो भी दुष्कृत किया है, उसके लिए आप मुझे आज पवित्र कीजिए। हे देव ! हे सुरेश्वर ! आपके अनुग्रह से मैं शुद्ध हो जाऊँ – इस प्रकार मूलमंत्र से सम्पुटित इन मन्त्रों के द्वारा पवित्रक अर्पण करें। उसके बाद महानैवेद्य अर्पित करके नीराजनकर प्रार्थना करें और मूलमंत्र से घृत सहित खीर का अग्नि में हवन करें। इसके बाद इसी मन्त्र से पवित्रक का विसर्जन करके इस प्रकार बोले – हे पवित्रक ! वर्ष भर की गई मेरी शुभ पूजा को पूर्ण करके अब आप विसर्जित होकर विष्णुलोक को प्रस्थान करें। इसके बाद पवित्रक को उतारकर ब्राह्मण को प्रदान कर दें अथवा जल में विसर्जित कर दें।

हे वत्स ! मैंने आपसे श्रीहरि के इस पवित्रारोपण का वर्णन कर दिया। इसे करने वाला इस लोक में सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “उभयैकादशी व्रत कथन और द्वादशी में विष्णुपवित्रारोपण कथन” नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य अठारहवाँ अध्याय | Chapter -18 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 18 Adhyay

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 श्रावण माह माहात्म्य अठारहवाँ अध्याय

Chapter -18

 

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आशा दशमी व्रत का विधान

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! हे पार्वतीनाथ ! हे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले ! हे दयासागर ! अब आप दशमी तिथि का माहात्म्य बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि से यह व्रत आरम्भ करें। पुनः प्रत्येक महीने में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को यह व्रत करें। इस प्रकार बारहों महीने में इस उत्तम व्रत को करके बाद में श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि पर इसका उद्यापन करें। राज्य की इच्छा रखने वाले राजपुत्र, उत्तम कृषि के लिए कृषक, व्यवसाय के लिए वैश्य पुत्र, पुत्र प्राप्ति के लिए गर्भिणी स्त्री, धर्म-अर्थ-काम की सिद्धि के लिए सामान्यजन, श्रेष्ठ वर की अभिलाषा रखने वाली कन्या, यज्ञ करने की कामना वाले ब्राह्मणश्रेष्ठ, आरोग्य के लिए रोगी और दीर्घकालिक पति के परदेश रहने पर उसके आने के लिए पत्नी – इन सबको तथा इसके अतिरिक्त अन्य लोगों को भी इस दशमी व्रत को करना चाहिए। जिस कारण जिसे कष्ट हो तब उसके निवारण हेतु उस मनुष्य को यह व्रत करना चाहिए।

श्रावण में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन स्नान करके देवता का विधिवत पूजनकर घर के आँगन में दसों दिशाओं में पुष्प-पल्लव, चन्दन से अथवा जौ के आटे से अधिदेवता की शस्त्रवाहनयुक्त स्त्रीरूपा शक्तियों का अंकन करके नक्तवेला में दसों दिशाओं में उनकी पूजा करनी चाहिए। घृतमिश्रित नैवेद्य अर्पण करके उन्हें पृथक-पृथक दीपक प्रदान करना चाहिए। उस समय जो फल उपलब्ध हों वह भी चढ़ाना चाहिए। इसके बाद अपने कार्य की सिद्धि के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए – हे दिग्देवता ! मेरी आशाएँ पूर्ण हों और मेरे मनोरथ सिद्ध हों, आप लोगों की कृपा से सदा कल्याण हो। इस प्रकार विधिवत पूजन करके ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए।

हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी क्रम से प्रत्येक महीने में दशमी तिथि का व्रत सदा करना चाहिए और एक वर्ष तक करने के अनन्तर उद्यापन करना चाहिए। अब पूजन की विधि कही जाती है – सुवर्ण अथवा चाँदी अथवा आटे से ही दसों दिशाओं को बनवाए। उसके बाद स्नान करके भली भाँति वस्त्राभूषण से अलंकृत होकर बंधू-बांधवों के साथ भक्तिपूर्ण मन से दसों दिग्देवताओं का पूजन करना चाहिए। घर के आँगन में क्रम से इन मन्त्रों के द्वारा दिग्देवताओं को स्थापित करें – इस भवन के स्वामी और देवताओं तथा दानवों से नमस्कार किए जाने वाले इंद्र आपके ही समीप रहते हैं, आप ऐन्द्री नामक दिग्देवता को नमस्कार है। हे आशे ! अग्नि के साथ परिग्रह (विवाह) होने के कारण आप “आग्नेयी” कही जाती हैं। आप तेजस्वरूप तथा पराशक्ति हैं, अतः मुझे वर देने वाली हों।

आपका ही आश्रय लेकर वे धर्मराज सभी लोगों को दण्डित करते हैं इसलिए आप संयमिनी नाम वाली हैं। हे याम्ये ! आप मेरे लिए उत्तम मनोरथ पूर्ण करने वाली हों। हाथ में खड्ग धारण किए हुए मृत्यु देवता आपका ही आश्रय ग्रहण करते हैं, अतः आप निरऋतिरूपा हैं। आप मेरी आशा को पूर्ण कीजिए। हे वारुणि ! समस्त भुवनों के आधार तथा जल जीवों के स्वामी वरुणदेव आप में निवास करते हैं। अतः मेरे कार्य तथा धर्म को पूर्ण करने के लिए आप तत्पर हों। आप जगत के आदिस्वरूप वायुदेव के साथ अधिष्ठित हैं, इसलिए आप “वायव्या” हैं। हे वायव्ये ! आप मेरे घर में नित्य शान्ति प्रदान करें।

आप धन के स्वामी कुबेर के साथ अधिष्ठित हैं, अतः आप इस लोक में “उत्तरा” नाम से विख्यात हैं। हमें शीघ्र ही मनोरथ प्रदान करके आप निरुत्तर हों. हे ऐशानि ! आप जगत के स्वामी शम्भु के साथ सुशोभित होती हैं। हे शुभे ! हे देवी ! मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण कीजिए, आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप समस्त लोकों के ऊपर अधिष्ठित हैं, सदा कल्याण करने वाली हैं और सनक आदि मुनियों से घिरी रहती हैं, आप सदा मेरी रक्षा करें, रक्षा करें।
सभी नक्षत्र, ग्रह, तारागण तथा जो नक्षत्रमाताएँ हैं और जो भूत-प्रेत तथा विघ्न करने वाले विनायक हैं – उनकी मैंने भक्तियुक्त मन से भक्तिपूर्वक पूजा की है, वे सब मेरे अभीष्ट की सिद्धि के लिए सदा तत्पर हों। नीचे के लोकों में आप सर्पों तथा नेवलों के द्वारा सेवित हैं, अतः नाग पत्नियों सहित आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों. इन मन्त्रों के द्वारा पुष्प, धूप आदि से पूजन करके वस्त्र, अलंकार तथा फल निवेदित करना चाहिए। इसके बाद वाद्यध्वनि, गीत-नृत्य आदि मंगलकृत्यों और नाचती हुई श्रेष्ठ स्त्रियों के सहित जागरण करके रात्रि व्यतीत करनी चाहिए।

कुमकुम, अक्षत, ताम्बूल, दान, मान आदि के द्वारा भक्तिपूर्ण मन से उस रात्रि को सुखपूर्वक व्यतीत करके प्रातःकाल प्रतिमाओं की पूजा करके ब्राह्मण को प्रदान कर देनी चाहिए। इस विधि से व्रत को करके क्षमा-प्रार्थना तथा प्रणाम करके मित्रों तथा प्रिय बंधुजनों को साथ लेकर भोजन करना चाहिए। हे तात ! जो मनुष्य इस विधि से आदरपूर्वक दशमी व्रत करता है, वह सभी मनोवांछित फल प्राप्त करता है। विशेष रूप से स्त्रियों को इस सनातन व्रत को करना चाहिए क्योंकि मनुष्य जाति में स्त्रियां अधिक श्रद्धा-कामनापारायण होती हैं।
हे मुनिश्रेष्ठ ! धन प्रदान करने वाले, यश देने वाले, आयु बढ़ाने वाले तथा सभी कामनाओं का फल प्रदान करने वाले इस व्रत को मैंने आपसे कह दिया, तीनों लोकों में अन्य कोई भी व्रत इसके समान नहीं है। हे ब्रह्मपुत्रों में श्रेष्ठ ! वांछित फल की कामना करने वाले जो मनुष्य दशमी तिथि को दसों दिशाओं की सदा पूजा करते हैं, उनके ह्रदय में स्थित सभी बड़ी-बड़ी कामनाओं को वे दिशाएँ फलीभूत कर देती हैं, इसमें अधिक कहने से क्या प्रयोजन? हे सनत्कुमार ! यह व्रत मोक्षदायक है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। इस व्रत के समान न कोई व्रत है और न तो होगा।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “आशा दशमी व्रत कथन” नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य सत्रहवाँ अध्याय | Chapter -17 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 17 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य सत्रहवाँ अध्याय

Chapter -17

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) की अष्टमी को देवी पवित्रारोपण, पवित्रनिर्माण विधि तथा नवमी का कृत्य

ईश्वर बोले – हे देवेश ! अब मैं शुभ पवित्रारोपण का वर्णन करूँगा। सप्तमी तिथि को अधिवासन करके अष्टमी तिथि को पवित्रकों को अर्पण करना चाहिए। जो पवित्रक बनवाता है उसके पुण्यफल को सुनिए – सभी प्रकार के यज्ञ, व्रत तथा दान करने और सभी तीर्थों में स्नान करने का फल मनुष्य को केवल पवित्र धारण करने से प्राप्त हो जाता है क्योंकि भगवती शिवा सर्वव्यापिनी है। इस व्रत से मनुष्य धनहीन नहीं होता, उसे दुःख, पीड़ा तथा व्याधियां नहीं होती, उसे शत्रुओं से होने वाला भय नहीं होता और वह कभी भी ग्रहों से पीड़ित नहीं रहता। इससे छोटे-बड़े सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।

हे वत्स ! मनुष्यों तथा राजाओं के विशेष करके स्त्रियों के पुण्य की वृद्धि के लिए इससे श्रेष्ठ कोई अन्य व्रत नहीं है। हे तात ! सौभाग्य प्रदान करने वाले इस व्रत को मैंने आपके प्रति स्नेह के कारण बताया है। हे ब्रह्मपुत्र ! श्रावण मास (Shravan Maas) के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को अधिवासन करके देवी के प्रति उत्तम भक्ति से संपन्न वह मनुष्य सभी सामग्रियों से युक्त होकर सभी पूजाद्रव्यों – गंध, पुष्प, फल आदि अनेक प्रकार के नैवेद्य तथा वस्त्राभरण आदि संपादित करके इनकी शुद्धि करे।

इसके बाद पंचगव्य का प्राशन कराए, चरु से दिग्बली प्रदान करे तथा अधिवासन करे। उसके बाद सदृश वस्त्रों तथा पत्रों से इस पवित्रक को आच्छादित करे, पुनः देवी के उस मूल मन्त्र से उसे सौ बार अभिमंत्रित करके सर्वशोभासमन्वित उस पवित्रक को देवी के समक्ष स्थापित करे। इसके बाद देवी का मंडप बनाकर रात्रि में जागरण करे और नट, नर्तक तथा वारांगनाओं के अनेक विध कुशल समूहों और गाने-बजाने तथा नाचने की कला में प्रवीण लोगों को देवी के समक्ष स्थापित करें।

उसके बाद प्रातःकाल विधिवत स्नान करके पुनः बलि प्रदान करें। इसके बाद विधिवत देवी की पूजा करके स्त्रियों तथा द्विजों को भोजन कराएँ। पहले देवी को पवित्रक अर्पण करें और अंत में दक्षिणा प्रदान करें. हे वत्स ! अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्यसिद्धि करने वाले उस नियम को धारण करें। राजा को प्रयत्नपूर्वक स्त्री के प्रति आसक्ति, जुआ, आखेट तथा मांस आदि का परित्याग कर देना चाहिए। ब्राह्मणों तथा आचार्यों को स्वाध्याय का और वैश्यों को खेती का कार्य तथा व्यवसाय नहीं करना चाहिए। सात, पाँच, तीन, एक अथवा आधा दिन ही त्यागपूर्वक रहना चाहिए और देवी के कार्यों में निरंतर अपने मन में आसक्ति बनाए रखनी चाहिए।

हे मुनिसत्तम ! जो बुद्धिमान व्यक्ति विधानपूर्वक पवित्रारोपण नहीं करता है, उसकी वर्ष भर की पूजा व्यर्थ हो जाती है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि देवीपरायण तथा भक्ति से संपन्न होकर प्रत्येक वर्ष शुभ पवित्रारोपण अवश्य करें। कर्क अथवा सिंह राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को देवी को पवित्रक अर्पित करना चाहिए। हे सनत्कुमार ! इसके ना करने में दोष होता है, इसे नित्य करना बताया गया है।

सनत्कुमार बोले – हे देवदेव ! हे महादेव ! हे स्वामिन ! आपने जिस पवित्रक का कथन किया, वह कैसे बनाया जाना चाहिए, उसकी संपूर्ण विधि बताएँ।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! सुवर्ण, ताम्र, चांदी, रेशमी वस्त्र से निकाले गए कुश, काश के अथवा ब्राह्मणी के द्वारा काटे गए कपास के सूत्र को तिगुना करके फिर उसका तिगुना करके पवित्रक बनाना चाहिए। उनमें तीन सौ आठ तारों का पवित्रक उत्तम और दो सौ सत्तर तारों का पवित्रक माध्यम माना गया है। एक सौ अस्सी तारों वाले पवित्रक को कनिष्ठ जानना चाहिए।

इसी प्रकार एक सौ ग्रंथि का पवित्रक उत्तम, पचास ग्रंथि का पवित्रक माध्यम तथा छब्बीस ग्रंथि का सुन्दर पवित्रक कनिष्ठ होता है अथवा छः, तीन, चार, दो, बारह, चौबीस, दस अथवा आठ ग्रंथियों वाला पवित्रक बनाना चाहिए अथवा एक सौ आठ ग्रंथि का पवित्रक उत्तम, चव्वन ग्रंथि का माध्यम तथा सत्ताईस ग्रंथि का कनिष्ठ होता है। प्रतिमा के घुटने तक का लंबा पवित्रक उत्तम, जंघा तक लंबा पवित्रक माध्यम तथा नाभि पर्यन्त पवित्रक अधम कहा जाता है।

पवित्रक की सभी शुभ ग्रंथियों को कुमकुम से रंग देना चाहिए, इसके बाद अपने समक्ष शुभ सर्वतोभद्रमण्डल पर देवी का पूजन करके कलश के ऊपर बांस के पात्र में पवित्रकों को रखें। तीन तार वाले पवित्रक में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव (Lord Shiv) का आवाहन करके स्थापित करें. इसके बाद का सुनिए – नौ तार के पवित्रक में ओंकार, सोम, अग्नि, ब्रह्मा, समस्त नागों, चन्द्रमा, सूर्य, शिव (Lord Shiv) तथा विश्वेदेवों की स्थापना करें।
हे सनत्कुमार – अब मैं ग्रंथियों में स्थापित किये जाने वाले देवताओं का वर्णन करूँगा। क्रिया, पौरुषी, वीरा, विजया, अपराजिता, मनोन्मनी, जाया, भद्रा, मुक्ति और ईशा – ये देवियाँ हैं। इनके नामों के पूर्व में प्रणव तथा अंत में “नमः” लगाकर ग्रंथि संख्या के अनुसार क्रमशः आवाहन करके चन्दन आदि से इनकी पूजा करनी चाहिए। इसके बाद प्रणव से अभिमंत्रित करके देवी को धूप अर्पण करना चाहिए।

हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे देवी के इस शुभ पवित्रारोपण का वर्णन कर दिया। इसी प्रकार अन्य देवताओं का भी पवित्रारोपण प्रतिपदा आदि तिथियों में करना चाहिए। मैं उन देवताओं को आपको बताता हूँ। कुबेर, लक्ष्मी, गौरी, गणेश, चन्द्रमा, बृहस्पति, सूर्य, चंडिका, अम्बा, वासुकि, ऋषिगण, चक्रपाणि, अनंत, शिवजी, ब्रह्मा और पितर – इन देवताओं की पूजा प्रतिपदा आदि तिथियों में करनी चाहिए। यह मुख्य देवता का पवित्रारोपण है, उनके अंगदेवता का पवित्रक तीन सूत्रों का होना चाहिए।

ईश्वर बोले – हे विपेन्द्र ! अब मैं श्रावण मास (Shravan Maas) के दोनों पक्षों की नवमी तिथियों के करणीय कृत्य को बताऊँगा। इस दिन कुमारी नामक दुर्गा की यथाविधि पूजा करनी चाहिए। दोनों पक्षों की नवमी के दिन नक्तव्रत करें और उसमें दुग्ध तथा मधु का आहार ग्रहण करें अथवा उपवास करें। उस दिन कुमारी नामक उन पापनाशिनी दुर्गा चंडिका की चाँदी की मूर्त्ति बनाकर भक्तिपूर्वक सदा उनका अर्चन करें। गंध, चन्दन, कनेर के पुष्पों, दशांग धुप और मोदकों से उनका पूजन करें। उसके बाद कुमारी कन्या, स्त्रियों तथा विप्रों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराएँ फिर मौन धारण करके स्वयं बिल्वपत्र का आहार ग्रहण करें। इस प्रकार जो मनुष्य अत्यंत श्रद्धा के साथ दुर्गा जी की पूजा करता है वह उस परम स्थान को जाता है जहां देव बृहस्पति विद्यमान हैं।

हे विधिनन्दन ! यह मैंने आपसे नवमी तिथि का कृत्य कह दिया। यह मनुष्यों के सभी पापों का नाश करने वाला, सभी संपदाएँ प्रदान करने वाला, पुत्र-पौत्र आदि उत्पन्न करने वाला और अंत में उन्हें उत्तम गति प्रदान करने वाला है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “अष्टमी तिथि को देवीपवित्रारोपण” नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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