Bhadrapada Aja Ekadashi Vrat Katha | भाद्रपद कृष्ण पक्ष अजा एकादशी व्रत

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।। भाद्रपद मास कृष्ण पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
अजा एकादशी

Bhadrapada Aja Ekadashi Vrat Katha

 

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अजा एकादशी की कथा सुनने के लिए
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भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी के नाम से जाना जाता है। अजा का अर्थ ‘जिसका जन्म न हो’। प्रकृति अथवा आदि शक्ति के अर्थ में इसका प्रयोग होता है।

कृष्ण जन्माष्टमी के ठीक बाद पड़ने वाले इस व्रत को कामिका या आन्नदा एकादशी भी कहा जाता है। भगवान विष्णु को समर्पित एकादशी के इस व्रत में भगवान के ‘उपेंद्र’ स्वरूप की पूजा की जाती है। साथ ही इस दिन रात में जागरण की भी परंपरा है। मान्यता है कि अजा एकादशी का व्रत करने से तमाम समस्याएं दूर होती हैं और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

अजा एकादशी व्रत पूजा नियम

अजा एकादशी का व्रत करने के लिए उपरोक्त बातों का ध्यान रखने के बाद व्यक्ति को एकाद्शी तिथि के दिन शीघ्र उठना चाहिए। उठने के बाद नित्यक्रिया से मुक्त होने के बाद, सारे घर की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद तिल और मिट्टी के लेप का प्रयोग करते हुए, कुशा से स्नान करना चाहिए। स्नान आदि कार्य करने के बाद, भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करनी चाहिए।

भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करने के लिये एक शुद्ध स्थान पर धान्य रखने चाहिए. धान्यों के ऊपर कुम्भ स्थापित किया जाता है। कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से सजाया जाता है। और स्थापना करने के बाद कुम्भ की पूजा की जाती है. इसके पश्चात कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की प्रतिमा स्थापित कि जाती है प्रतिमा के समक्ष व्रत का संकल्प लिया जाता है। संकल्प लेने के पश्चात धूप, दीप और पुष्प से भगवान श्री विष्णु जी की जाती है।

अजा एकादशी कथा

कुंतीपुत्र युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! भाद्रपद कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम अजा है। यह सब प्रकार के समस्त पापों का नाश करने वाली है। जो मनुष्य इस दिन भगवान ऋषिकेश की पूजा करता है उसको वैकुंठ की प्राप्ति अवश्य होती है। अब आप इसकी कथा सुनिए।

प्राचीनकाल में हरिशचंद्र नामक एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। राजा हरिश्चन्द्र अपनी सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। एक बार देवताओं ने इनकी परीक्षा लेने की योजना बनाई। राजा ने स्वप्न में देखा कि ऋषि विश्वामित्र को उन्होंने अपना राजपाट दान कर दिया है। जब अगले दिन राजा हरिश्चन्द्र विश्वामित्र को अपना समस्त राज-पाठ को सौंप कर जाने लगे तो विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र से दक्षिणा स्वरुप 500 स्वर्ण मुद्राएं दान में मांगी। राजा ने उनसे कहा कि पांच सौ क्या, आप जितनी चाहे स्वर्ण मुद्राएं ले लीजिए। इस पर विश्वामित्र हँसने लगे और राजा को याद दिलाया कि राजपाट के साथ राज्य का कोष भी वे दान कर चुके हैं और दान की हुई वस्तु को दोबारा दान नहीं की जाती। तब राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएं हासिल की, लेकिन वो भी पांच सौ नहीं हो पाईं। राजा हरिश्चंद्र ने खुद को भी बेच डाला और सोने की सभी मुद्राएं विश्वामित्र को दान में दे दीं। राजा हरिश्चंद्र ने खुद को जहां बेचा था वह श्मशान का चांडाल था। चांडाल ने राजा हरिश्चन्द्र को श्मशान भूमि में दाह संस्कार के लिए कर वसूली का काम दे दिया।

राजा चांडाल का दास बनकर सत्य को धारण करता हुआ मृतकों का वस्त्र ग्रहण करता रहा। मगर किसी प्रकार से सत्य से विचलित नहीं हुआ। कई बार राजा चिंता के समुद्र में डूबकर अपने मन में विचार करने लगता कि मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, जिससे मेरा उद्धार हो।

इस प्रकार राजा को कई वर्ष बीत गए। एक दिन राजा इसी चिंता में बैठा हुआ था कि गौतम ऋषि आ गए। राजा ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और अपनी सारी दु:खभरी कहानी कह सुनाई। यह बात सुनकर गौतम ऋषि कहने लगे कि राजन तुम्हारे भाग्य से आज से सात दिन बाद भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अजा नाम की एकादशी आएगी, तुम विधिपूर्वक उसका व्रत करो।

गौतम ऋषि ने कहा कि इस व्रत के पुण्य प्रभाव से तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे। इस प्रकार राजा से कहकर गौतम ऋषि उसी समय अंतर्ध्यान हो गए। राजा ने उनके कथनानुसार एकादशी आने पर विधिपूर्वक व्रत व जागरण किया। उस व्रत के प्रभाव से राजा के समस्त पाप नष्ट हो गए।

स्वर्ग से बाजे बजने लगे और पुष्पों की वर्षा होने लगी। उसने अपने मृतक पुत्र को जीवित और अपनी स्त्री को वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त देखा। व्रत के प्रभाव से राजा को पुन: राज्य मिल गया। अंत में वह अपने परिवार सहित स्वर्ग को गया।

अजा एकादशी व्रत का महत्व

समस्त उपवासों में अजा एकादशी व्रत को रखने वाले व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है।अजा एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है. यह व्रत प्राचीन समय से यथावत चला आ रहा है. इस व्रत का आधार पौराणिक, वैज्ञानिक और संतुलित जीवन है. इस उपवास के विषय में यह मान्यता है कि इस उपवास के फलस्वरुप मिलने वाले फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में स्नान-दान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होते है. यह उपवास, मन निर्मल करता है, ह्रदय शुद्ध करता है तथा सदमार्ग की ओर प्रेरित करता है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

 

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Shravan Putrada Ekadashi Vrat Katha | श्रावण शुक्ला पक्ष पुत्रदा एकादशी व्रत

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Sharavana Shukla Putrada Ekadshi

।। श्रावण मास शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।

पुत्रदा एकादशी

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पुत्रदा एकादशी महात्म्य एवं कथा :

हिन्दू धर्म में एकादशी का खास महत्व है। एकादशी का व्रत करने से जातक का मन चंचल नहीं होता है बल्कि शांत रहता है। पुत्रदा एकादशी साल में दो बार आती है एक है श्रावण एकादशी तथा दूसरी है पौष एकादशी। सावन महीने में आने वाली पुत्रदा एकादशी का व्रत संतान प्राप्ति तथा संतान की समस्याओं के निवारण हेतु किया जाता है। सावन की पुत्रदा एकादशी को विशेष फलदायी माना जाता है। इस व्रत को करने से संतान संबंधी हर चिंता और समस्या का अंत हो जाता है।

कथा: धनुर्धर अर्जुन ने कहा- “हे प्रभु! ये कल्याणकारी और महापुण्यदायी कथाएँ सुनकर मेरे आनन्द की सीमा नहीं है और मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। हे कमलनयन! अब आप मुझे श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा सुनाने की कृपा करें। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसके व्रत का क्या विधान है? इसमें किस देवता का पूजन किया जाता है और इसका व्रत करने से किस फल की प्राप्ति होती है?”

श्रीकृष्ण ने कहा- “हे धनुर्धर! श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा के श्रवण मात्र से ही अनन्त यज्ञ का फल प्राप्त होता है। हे पार्थ! द्वापर युग के आरम्भ में ही महिष्मती नाम की एक नगरी थी। उस नगरी में महाजित नाम का एक राजा राज्य करता था। वह पुत्रहीन था, इसलिए वह सदा दुखी रहता था। उसे वह राज्य-सुख और वैभव, सभी कुछ बड़ा ही कष्टदायक प्रतीत होता था, क्योंकि पुत्र के बिना मनुष्य को इहलोक और परलोक दोनों में सुख नहीं मिलता है।

राजा ने पुत्र प्राप्ति के बहुत उपाय किये, किन्तु उसका हर उपाय निष्फल रहा। जैसे-जैसे राजा महाजित वृद्धावस्था की ओर बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे उसकी चिन्ता भी बढ़ती जा रही थी।

एक दिन राजा ने अपनी सभा को सम्बोधित करके कहा – ‘न तो मैंने अपने जीवन में कोई पाप किया है और न ही अन्यायपूर्वक प्रजा से धन एकत्रित किया है, न ही कभी प्रजा को कष्ट दिया है और न कभी देवता और ब्राह्मणों का निरादर किया है।

मैंने प्रजा का सदैव अपने पुत्र की तरह पालन किया है, कभी किसी से ईर्ष्या भाव नहीं किया, सभी को एक समान समझा है। मेरे राज्य में कानून भी ऐसे नहीं हैं जो प्रजा में अनावश्यक डर उत्पन्न करें। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करने पर भी मैं इस समय अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। आप इस पर विचार करें कि इसका क्या कारण है और क्या इस जीवन में मैं इस कष्ट से मुक्त हो पाऊँगा?

राजा के इस कष्ट के निवारण के लिए मन्त्री आदि वन को गये, ताकि वहाँ जाकर किसी ऋषि-मुनि को राजा का दुख बताकर कोई समाधान पा सकें। वन में जाकर उन्होंने श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों के दर्शन किये।

उस वन में वयोवृद्ध और धर्म के ज्ञाता महर्षि लोमश भी रहते थे। वे सभी जन महर्षि लोमश के पास गये। उन सबने महर्षि लोमश को दण्डवत प्रणाम किया और उनके सम्मुख बैठ गये। महर्षि के दर्शन से सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई और सबने महर्षि लोमश से प्रार्थना की – ‘हे देव! हमारे अहो भाग्य हैं कि हमें आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।’

मन्त्री की बात सुन लोमश ऋषि ने कहा – ‘हे मन्त्रीवर! आप लोगों की विनम्रता और सद्व्यवहार से मैं अति प्रसन्न हूँ। आप मुझसे अपने आने का प्रयोजन कहें। मैं आपके कार्य को अपने सामर्थ्य के अनुसार अवश्य ही करूँगा, क्योंकि हमारा शरीर ही परोपकार के लिए बना है।

लोमश ऋषि के ऐसे मृदु वचन सुनकर मन्त्री ने कहा – ‘हे ऋषिवर! आप हमारी सभी बातों को जानने में ब्रह्मा से भी ज्यादा समर्थ हैं, अतः आप हमारे सन्देह को दूर कीजिए। महिष्मती नामक नगरी के हमारे महाराज महाजित बड़े ही धर्मात्मा व प्रजावत्सल हैं। वह प्रजा का, पुत्र की तरह धर्मानुसार पालन करते हैं, किन्तु फिर भी वे पुत्रहीन हैं। हे महामुनि! इससे वह अत्यन्त दुखी रहते हैं। हम लोग उनकी प्रजा हैं। हम भी उनके दुख से दुखी हो रहे हैं, क्योंकि प्रजा का यह कर्तव्य है कि राजा के सुख में सुख माने और दुख में दुख माने। हमें उनके पुत्रहीन होने का अभी तक कारण ज्ञात नहीं हुआ है, इसलिए हम आपके पास आये हैं। अब आपके दर्शन करके, हमको पूर्ण विश्वास है कि हमारा दुख अवश्य ही दूर हो जायेगा, क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से ही प्रत्येक कार्य की सिद्धि हो जाती है, अतः आप हमें बताने की कृपा करें कि किस विधान से हमारे महाराज पुत्रवान हो सकते हैं। हे ऋषिवर! यह आपका हम पर व हमारे राज्य की प्रजा पर बड़ा ही उपकार होगा।’

ऐसी करुण प्रार्थना सुनकर लोमश ऋषि नेत्र बन्द करके राजा के पूर्व जन्मों पर विचार करने लगे। कुछ पलों बाद उन्होंने विचार करके कहा – ‘हे भद्रजनो! यह राजा पिछले जन्म में अत्यन्त उद्दण्ड था तथा बुरे कर्म किया करता था। उस जन्म में यह एक गाँव से दूसरे गाँव में घूमा करता था।

एक बार ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन की बात है, यह दो दिन से भूखा था। दोपहर के समय एक जलाशय पर जल पीने गया। उस स्थान पर उस समय ब्यायी हुई एक गाय जल पी रही थी। राजा ने उसको प्यासी ही भगा दिया और स्वयं जल पीने लगा।

हे श्रेष्ठ पुरुषों! इसलिए राजा को यह कष्ट भोगने पड़ रहे हैं।

एकादशी के दिन भूखा रहने का फल यह हुआ कि इस जन्म में यह राजा है और प्यासी गाय को जलाशय से भगाने के कारण पुत्रहीन है।’

यह जान सभी सभासद प्रार्थना करने लगे – ‘हे -ऋषि श्रेष्ठ! शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि पुण्य से पाप नष्ट हो जाते हैं, अतः कृपा करके आप हमें कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे हमारे राजा के पूर्व जन्म के पाप नष्ट हो जायें और उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हो।’

सभासदों की प्रार्थना सुनकर लोमश मुनि ने कहा – ‘हे श्रेष्ठ पुरुषो! यदि तुम सब श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पुत्रदा एकादशी का व्रत और रात्रि जागरण करो और उस व्रत का फल राजा के निमित्त कर दो, तो तुम्हारे राजा के यहाँ पुत्र उत्पन्न होगा। राजा के सभी कष्टों का नाश हो जायेगा।’

इस उपाय को जानकर मन्त्री सहित सभी ने महर्षि को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया तथा उनका आशीर्वाद लेकर अपने राज्य में लौट आये। तदुपरान्त उन्होंने लोमश ऋषि की आज्ञानुसार पुत्रदा एकादशी का विधानपूर्वक उपवास किया और द्वादशी को उसका फल राजा को दे दिया।

इस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और नौ माह पश्चात एक अत्यन्त तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया।

हे पाण्डु पुत्र! इसलिए इस एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा। पुत्र की इच्छा रखने वाले मनुष्य को विधानपूर्वक श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करना चाहिये। इस व्रत के प्रभाव से इहलोक में सुख और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।”

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Shravan Kamika Ekadashi Vrat Katha | श्रावण कृष्ण पक्ष कामिका एकादशी व्रत

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।। श्रावण मास कृष्ण पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
कामिका एकादशी

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कामिका एकादशी महात्म्य एवं कथा :

कुंतीपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन, आषाढ़ शुक्ल देवशयनी एकादशी तथा चातुर्मास्य माहात्म्य मैंने भली प्रकार से सुना। अब कृपा करके श्रावण कृष्ण एकादशी का क्या नाम है, सो बताइए।

श्रीकृष्ण भगवान कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! इस एकादशी की कथा एक समय स्वयं ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कही थी, वही मैं तुमसे कहता हूँ। नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा था कि हे पितामह! श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा सुनने की मेरी इच्छा है, उसका क्या नाम है? क्या विधि है और उसका माहात्म्य क्या है, सो कृपा करके कहिए।

नारदजी के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! लोकों के हित के लिए तुमने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। श्रावण मास की कृष्ण एकादशी का नाम कामिका है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। इस दिन शंख, चक्र, गदाधारी विष्णु भगवान का पूजन होता है, जिनके नाम श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव, मधुसूदन हैं। उनकी पूजा करने से जो फल मिलता है सो सुनो।

जो फल गंगा, काशी, नैमिषारण्य और पुष्कर स्नान से मिलता है, वह विष्णु भगवान के पूजन से मिलता है। जो फल सूर्य व चंद्र ग्रहण पर कुरुक्षेत्र और काशी में स्नान करने से, समुद्र, वन सहित पृथ्वी दान करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोदावरी और गंडकी नदी में स्नान से भी प्राप्त नहीं होता वह भगवान विष्णु के पूजन से मिलता है।

जो मनुष्य श्रावण में भगवान का पूजन करते हैं, उनसे देवता, गंधर्व और सूर्य आदि सब पूजित हो जाते हैं। अत: पापों से डरने वाले मनुष्यों को कामिका एकादशी का व्रत और विष्णु भगवान का पूजन अवश्यमेव करना चाहिए। पापरूपी कीचड़ में फँसे हुए और संसाररूपी समुद्र में डूबे मनुष्यों के लिए इस एकादशी का व्रत और भगवान विष्णु का पूजन अत्यंत आवश्यक है। इससे बढ़कर पापों के नाशों का कोई उपाय नहीं है।

हे नारद! स्वयं भगवान ने यही कहा है कि कामिका व्रत से जीव कुयोनि को प्राप्त नहीं होता। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन भक्तिपूर्वक तुलसी दल भगवान विष्णु को अर्पण करते हैं, वे इस संसार के समस्त पापों से दूर रहते हैं। विष्णु भगवान रत्न, मोती, मणि तथा आभूषण आदि से इतने प्रसन्न नहीं होते जितने तुलसी दल से।

तुलसी दल पूजन का फल चार भार चाँदी और एक भार स्वर्ण के दान के बराबर होता है। हे नारद! मैं स्वयं भगवान की अतिप्रिय तुलसी को सदैव नमस्कार करता हूँ। तुलसी के पौधे को सींचने से मनुष्य की सब यातनाएँ नष्ट हो जाती हैं। दर्शन मात्र से सब पाप नष्ट हो जाते हैं और स्पर्श से मनुष्य पवित्र हो जाता है।

कामिका एकादशी की रात्रि को दीपदान तथा जागरण के फल का माहात्म्य चित्रगुप्त भी नहीं कह सकते। जो इस एकादशी की रात्रि को भगवान के मंदिर में दीपक जलाते हैं उनके पितर स्वर्गलोक में अमृतपान करते हैं तथा जो घी या तेल का दीपक जलाते हैं, वे सौ करोड़ दीपकों से प्रकाशित होकर सूर्य लोक को जाते हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं कि हे नारद! ब्रह्महत्या तथा भ्रूण हत्या आदि पापों को नष्ट करने वाली इस कामिका एकादशी का व्रत मनुष्य को यत्न के साथ करना चाहिए। कामिका एकादशी के व्रत का महात्म्य श्रद्धा से सुनने और पढ़ने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक को जाता है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Ashadh Devshayani Ekadashi Vrat Katha | आषाढ़ शुक्ला देवशयनी एकादशी व्रत

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।। आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत कथा ।। देवशयनी एकादशी

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देवदेवशयनी, हरिदेवशयनी, पद्मनाभा, शयनी तथा प्रबोधनी एकादशी

 
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देवशयनी एकदाशी की कथा सुनने के लिए
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देवशयनी एकादशी का महत्त्व: ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। यह एकादशी आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी जिसे योगिनी एकादशी कहते हैं, के बाद आती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसी एकादशी से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस अवधि में कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह आदि नहीं किया जाता। मान्यता है कि, इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर चार माह बाद उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है। देवशयनी एकादशी को देवदेवशयनी, हरिदेवशयनी, पद्मनाभाशयनी तथा प्रबोधनी एकादशी भी कहा जाता है। पद्मा एकादशी – परिवर्तिनी एकादशी – देवझूलनी एकादशी विशेष पद्मा एकादशी महात्म्य आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी पाशर्व (पद्मा) परिवर्तिनी अथवा देव (जलझूलनी) एकादशी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन भगवान विष्णु श्रीरसागर में चार मास के श्रवण के पश्चात करवट बदलते है, क्याेंकि निद्रामग्न भगवान के करवट परिवर्तन के कारण ही अनेक शास्त्राें में इस एकादशी काे वामन एवं पार्शव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस एकादशी व्रत करने पर अनेक गौ दान करने के बराबर पुन्य प्राप्त होने के विषय में कहा गया है. इस दिन उपवास कर, पांच रंगों का प्रयोग कर पद्म बनाकर विष्णु जी कि पूजा- अर्चना की जाती है। इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामन रुप कि पूजा भी की जाती है। इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढोतरी होती है। इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृष्ण के वस्त्र धोये थे। इसी कारण से इस एकादशी को “जलझूलनी एकादशी” भी कहा जाता है। डोल ग्यारस राजस्थान में जलझूलनी एकादशी को डोल ग्यारस एकादशी भी कहा जाता है। इस अवसर पर यहां भगवान गणेश ओर माता गौरी की पूजा एवं स्थापना की जाती है। इस अवसर पर यहां पर कई मेलों का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर देवी-देवताओं को नदी-तालाब के किनारे ले जाकर इनकी पूजा की जाती है। संध्या समय में इन मूर्तियों को वापस ले आया जाता है. अलग- अलग शोभा यात्राएं निकाली जाती है। जिसमें भक्तजन भजन, कीर्तन, गीत गाते हुए प्रसन्न मुद्रा में खुशी मनाते हैं। कैसे करें पूजन  इस व्रत काे करने के लिए पहले दिन हाथ में जल का पात्र भरकर व्रत का सच्चे मन से संकल्प करना हाेता है। प्रातः सूर्य निकलने से पूर्व उठकर स्नानादि क्रियाओं से निवृत हाेकर भगवान विष्णु के वामन रूप की पूजा करने का विधान है। धूप, दीप, नेवैद्य, पुष्प मिष्ठान एवं फलाें से विष्णु भगवान का पूजन करने के पश्चात अपना अधिक समय हरिनाम संकीर्तन एवं प्रभु भक्ति में बिताना चाहिए। कमलनयन भगवान का कमल पुष्पाें से पूजन करें, एक समय फलाहार करें आैर रात्रि काे भगवान का जागरण करें। मंदिर में जाकर दीपदान करने से भगवान अति प्रसन्न हाे जाते हैं और अपने भक्ताें पर अत्यधिक कृपा करते है। पद्मा एकादशी व्रत कथा युधिष्ठिर ने पूछा : केशव ! कृपया यह बताइये कि आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके देवता कौन हैं और कैसी विधि है? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने महात्मा नारद से कहा था । नारदजी ने पूछा : चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है ! मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है । क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे ! आषाढ़ के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘पद्मा’ के नाम से विख्यात है । उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है । यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है । सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं । वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे । उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था । उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी । उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था । एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई । इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी । तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा : प्रजा बोली: नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए । पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को ‘नार’ कहा है । वह ‘नार’ ही भगवान का ‘अयन’ (निवास स्थान) है, इसलिए वे ‘नारायण’ कहलाते हैं । नारायणस्वरुप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापकरुप में विराजमान हैं । वे ही मेघस्वरुप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है । नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो । राजा ने कहा : आप लोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है । लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा । ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने गिने व्यक्तियों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये । वहाँ जाकर मुख्य मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ॠषि के दर्शन हुए । उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनि ने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी । राजा ने अपनी कुशलता बताकर मुनि के स्वास्थय का समाचार पूछा । मुनि ने राजा को आसन और अर्ध्य दिया । उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा । राजा ने कहा : भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था । फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता । ॠषि बोले : राजन् ! सब युगों में उत्तम यह सत्ययुग है । इसमें सब लोग परमात्मा के चिन्तन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है । इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । किन्तु महाराज ! तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते । तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय । राजा ने कहा : मुनिवर ! एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है । अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करुँगा । आप उक्त दोष को शांत करनेवाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये । ॠषि बोले : राजन् ! यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो । भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा’ नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो । ॠषि के ये वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ आषाढ़ के शुक्लपक्ष की ‘पधा एकादशी’ का व्रत किया । इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे । पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी । उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । ‘पदमा एकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए । दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए : नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥ अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव । भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥ दान नहीं भी कर सको तो जिन्होंने गुरुमंत्र लिया 5 माला अधिक जप कर लो। और बाकि साधक हरिनाम का मानसिक जप कर ले। ‘बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान गोविन्द ! आपको नमस्कार है… नमस्कार है ! मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं ।’ राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Ashadh Yogini Ekadashi Vrat Katha | आषाढ़ कृष्णा योगिनी एकादशी व्रत कथा |

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।। आषाढ़ मास कृष्ण पक्ष एकादशी व्रत कथा ।। योगिनी एकादशी

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योगिनी एकादशी की कथा सुनने के लिए
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धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि भगवन, मैंने ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी के व्रत का माहात्म्य सुना। अब कृपया आषाढ़ कृष्ण एकादशी की कथा सुनाइए। इसका नाम क्या है? माहात्म्य क्या है? यह भी बताइए। श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! आषाढ़ कृष्ण एकादशी का नाम योगिनी है। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यह इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाली है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। मैं तुमसे पुराणों में वर्णन की हुई कथा कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो। स्वर्गधाम की अलकापुरी नामक नगरी में कुबेर नाम का एक राजा रहता था। वह शिव भक्त था और प्रतिदिन शिव की पूजा किया करता था। हेम नाम का एक माली पूजन के लिए उसके यहाँ फूल लाया करता था। हेम की विशालाक्षी नाम की सुंदर स्त्री थी। एक दिन वह मानसरोवर से पुष्प तो ले आया लेकिन कामासक्त होने के कारण वह अपनी स्त्री से हास्य-विनोद तथा रमण करने लगा। इधर राजा उसकी दोपहर तक राह देखता रहा। अंत में राजा कुबेर ने सेवकों को आज्ञा दी कि तुम लोग जाकर माली के न आने का कारण पता करो, क्योंकि वह अभी तक पुष्प लेकर नहीं आया। सेवकों ने कहा कि महाराज वह पापी अतिकामी है, अपनी स्त्री के साथ हास्य-विनोद और रमण कर रहा होगा। यह सुनकर कुबेर ने क्रोधित होकर उसे बुलाया। हेम माली राजा के भय से काँपता हुआ ‍उपस्थित हुआ। राजा कुबेर ने क्रोध में आकर कहा- ‘अरे पापी! नीच! कामी! तूने मेरे परम पूजनीय ईश्वरों के ईश्वर श्री शिवजी महाराज का अनादर किया है, इस‍लिए मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू स्त्री का वियोग सहेगा और मृत्युलोक में जाकर कोढ़ी होगा।’ कुबेर के शाप से हेम माली का स्वर्ग से पतन हो गया और वह उसी क्षण पृथ्वी पर गिर गया। भूतल पर आते ही उसके शरीर में श्वेत कोढ़ हो गया। उसकी स्त्री भी उसी समय अंतर्ध्यान हो गई। मृत्युलोक में आकर माली ने महान दु:ख भोगे, भयानक जंगल में जाकर बिना अन्न और जल के भटकता रहा। रात्रि को निद्रा भी नहीं आती थी, परंतु शिवजी की पूजा के प्रभाव से उसको पिछले जन्म की स्मृति का ज्ञान अवश्य रहा। घूमते-घ़ूमते एक दिन वह मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में पहुँच गया, जो ब्रह्मा से भी अधिक वृद्ध थे और जिनका आश्रम ब्रह्मा की सभा के समान लगता था। हेम माली वहाँ जाकर उनके पैरों में पड़ गया। उसे देखकर मारर्कंडेय ऋषि बोले तुमने ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिसके प्रभाव से यह हालत हो गई। हेम माली ने सारा वृत्तांत कह ‍सुनाया। यह सुनकर ऋषि बोले- निश्चित ही तूने मेरे सम्मुख सत्य वचन कहे हैं, इसलिए तेरे उद्धार के लिए मैं एक व्रत बताता हूँ। यदि तू आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की योगिनी नामक एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करेगा तो तेरे सब पाप नष्ट हो जाएँगे। यह सुनकर हेम माली ने अत्यंत प्रसन्न होकर मुनि को साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उसे स्नेह के साथ उठाया। हेम माली ने मुनि के कथनानुसार विधिपूर्वक योगिनी एकादशी का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से अपने पुराने स्वरूप में आकर वह अपनी स्त्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगा। भगवान कृष्ण ने कहा- हे राजन! यह योगिनी एकादशी का व्रत 88 हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर फल देता है। इसके व्रत से समस्त पाप दूर हो जाते हैं और अंत में स्वर्ग प्राप्त होता है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Jyesthha Nirjala Ekadashi Vrat Katha | ज्येष्ठ शुक्ला निर्जला एकादशी व्रत कथा |

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।। ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
निर्जला एकादशी

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निर्जला एकादशी की कथा सुनने के लिए
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निर्जला एकादशी व्रत का पौराणिक महत्त्व और आख्यान भी कम रोचक नहीं है। जब सर्वज्ञ वेदव्यास ने पांडवों को चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया था।

युधिष्ठिर ने कहा- जनार्दन! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हे राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवती नन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं|

तब वेदव्यासजी कहने लगे- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है। द्वादशी के दिन स्नान करके पवित्र हो और फूलों से भगवान केशव की पूजा करे। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे।

यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव, ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि भीमसेन एकादशी को तुम भी न खाया करो परन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी।

भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा- यदि तुम नरक को दूषित समझते हो और तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और तो दोनों पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन नहीं करना।

भीमसेन बोले महाबुद्धिमान पितामह! मैं आपके सामने सच कहता हूँ। मुझसे एक बार भोजन करके भी व्रत नहीं किया जा सकता, तो फिर उपवास करके मैं कैसे रह सकता हूँ। मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुनि ! मैं पूरे वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करुँगा।

व्यासजी ने कहा- भीम! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।’

एकादशी व्रत करने वाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाव वाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आख़िर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।

जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।

कुन्तीनन्दन! निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो- उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँति के मिष्ठानों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम, और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस ‘निर्जला एकादशी’ का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आने वाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि “मैं भगवान केशव की प्रसन्नता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करुँगा।” द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे।

संसारसागर से तारने वाले हे देव ह्रषीकेश! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये।

भीमसेन! ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुँचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है। यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोक में ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से विख्यात हुई।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Jyestha Apra Ekadashi Vrat Katha | ज्येष्ठ कृष्णा अपरा एकादशी व्रत कथा |

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।। ज्येष्ठ मास कृष्णपक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
अपरा एकादशी

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अपरा एकादशी की कथा सुनने के लिए 
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युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? मैं उसका माहात्म्य सुनना चाहता हूँ । उसे बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आपने सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है । राजेन्द्र ! ज्येष्ठ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार वैशाख ) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘अपरा’ है । यह बहुत पुण्य प्रदान करनेवाली और बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है । ब्रह्महत्या से दबा हुआ, गोत्र की हत्या करनेवाला, गर्भस्थ बालक को मारनेवाला, परनिन्दक तथा परस्त्रीलम्पट पुरुष भी ‘अपरा एकादशी’ के सेवन से निश्चय ही पापरहित हो जाता है । जो झूठी गवाही देता है, माप तौल में धोखा देता है, बिना जाने ही नक्षत्रों की गणना करता है और कूटनीति से आयुर्वेद का ज्ञाता बनकर वैद्य का काम करता है… ये सब नरक में निवास करनेवाले प्राणी हैं । परन्तु ‘अपरा एकादशी’ के सवेन से ये भी पापरहित हो जाते हैं ।

यदि कोई क्षत्रिय अपने क्षात्रधर्म का परित्याग करके युद्ध से भागता है तो वह क्षत्रियोचित धर्म से भ्रष्ट होने के कारण घोर नरक में पड़ता है । जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुनिन्दा करता है, वह भी महापातकों से युक्त होकर भयंकर नरक में गिरता है । किन्तु ‘अपरा एकादशी’ के सेवन से ऐसे मनुष्य भी सदगति को प्राप्त होते हैं । माघ में जब सूर्य मकर राशि पर स्थित हो, उस समय प्रयाग में स्नान करनेवाले मनुष्यों को जो पुण्य होता है, काशी में शिवरात्रि का व्रत करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, गया में पिण्डदान करके पितरों को तृप्ति प्रदान करनेवाला पुरुष जिस पुण्य का भागी होता है, बृहस्पति के सिंह राशि पर स्थित होने पर गोदावरी में स्नान करनेवाला मानव जिस फल को प्राप्त करता है, बदरिकाश्रम की यात्रा के समय भगवान केदार के दर्शन से तथा बदरीतीर्थ के सेवन से जो पुण्य फल उपलब्ध होता है तथा सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में दक्षिणासहित यज्ञ करके हाथी, घोड़ा और सुवर्ण दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, ‘अपरा एकादशी’ के सेवन से भी मनुष्य वैसे ही फल प्राप्त करता है । ‘अपरा’ को उपवास करके भगवान वामन की पूजा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है । इसको पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है ।

हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि एकादशी व्रत करने वाले के समस्त पापों का नाश हो जाता है। प्रभु इस व्रत से प्रसन्न होकर साधक को अनंत पुण्य देते हैं। ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा करने का विधान है। इस एकादशी को अपरा एकादशी के नाम से जाना जाता है। अपरा एकादशी का एक अर्थ यह कि इस एकादशी का पुण्य अपार है।

इस एकादशी का व्रत करने से लोग पापों से मुक्ति होकर भवसागर से तर जाते हैं। पुराणों में एकादशी के व्रत के बारे में कहा गया है कि व्यक्ति को दशमी के दिन शाम में सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए। रात में भगवान का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। एकादशी के दिन सुबह उठकर, स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। पूजा में तुलसीदल, श्रीखंड चंदन, गंगाजल व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए। व्रत रखने वाले को पूरे दिन परनिंदा, झूठ, छल-कपट से बचना चाहिए। जो लोग किसी कारण व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें एकादशी के दिन चावल नहीं खाना चाहिए। जो व्यक्ति एकादशी के दिन ‘विष्णुसहस्रनाम’ का पाठ करता है, उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है। व्रत कथा इस प्रकार है:-

महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। राजा का छोटा भाई वज्रध्वज बड़े भाई से द्वेष रखता था। एक दिन मौका पाकर इसने राजा की हत्या कर दी और जंगल में एक पीपल के नीचे शव को गाड़ दिया। अकाल मृत्यु होने के कारण राजा की आत्मा प्रेत बनकर पीपल पर रहने लगी। मार्ग से गुजरने वाले हर व्यक्ति को आत्मा परेशान करती थी।

एक दिन एक ऋषि इस रास्ते से गुजर रहे थे। इन्होंने प्रेत को देखा और अपने तपोबल से उसके प्रेत बनने का कारण जाना। ऋषि ने पीपल के पेड़ से राजा की प्रेतात्मा को नीचे उतारा और परलोक विद्या का उपदेश दिया। राजा को प्रेत योनी से मुक्ति दिलाने के लिए ऋषि ने स्वयं अपरा एकादशी का व्रत रखा। द्वादशी के दिन व्रत पूरा होने पर व्रत का पुण्य प्रेत को दे दिया। एकादशी व्रत का पुण्य प्राप्त करके राजा प्रेतयोनी से मुक्त हो गया और स्वर्ग चला गया।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Vaishakh Mohini Ekadashi Vrat Katha | वैशाख शुक्ला मोहिनी एकादशी व्रत कथा

vaishakh maas

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।। वैशाख शुक्ल एकादशी व्रत कथा ।।
मोहिनी एकादशी

Vaishakh Mohini  Ekadashi Vrat Katha

 

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युधिष्ठिर ने पूछा: जनार्दन ! वैशाख मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? उसके लिए कौन सी विधि है?

भगवान श्रीकृष्ण बोले: धर्मराज ! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान श्रीरामचन्द्रजी ने महर्षि वशिष्ठजी से यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो ।

श्रीराम ने कहा: भगवन् ! जो समस्त पापों का क्षय तथा सब प्रकार के दु:खों का निवारण करनेवाला, व्रतों में उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ ।

वशिष्ठजी बोले: श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है । मनुष्य तुम्हारा नाम लेने से ही सब पापों से शुद्ध हो जाता है । तथापि लोगों के हित की इच्छा से मैं पवित्रों में पवित्र उत्तम व्रत का वर्णन करुँगा ।

वैशाख मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम ‘मोहिनी’ है । वह सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पातक समूह से छुटकारा पा जाते हैं ।

सरस्वती नदी के रमणीय तट पर भद्रावती नाम की सुन्दर नगरी है । वहाँ धृतिमान नामक राजा, जो चन्द्रवंश में उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे । उसी नगर में एक वैश्य रहता था, जो धन धान्य से परिपूर्ण और समृद्धशाली था । उसका नाम था धनपाल । वह सदा पुण्यकर्म में ही लगा रहता था । दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था । भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग था । वह सदा शान्त रहता था । उसके पाँच पुत्र थे : सुमना, धुतिमान, मेघावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि ।

धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था । वह सदा बड़े-बड़े पापों में ही संलग्न रहता था । जुए आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी । वह वेश्याओं से मिलने के लिए लालायित रहता था । उसकी बुद्धि न तो देवताओं के पूजन में लगती थी और न पितरों तथा ब्राह्मणों के सत्कार में । वह दुष्टात्मा अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बरबाद किया करता था।

एक दिन वह वेश्या के गले में बाँह डाले चौराहे पर घूमता देखा गया ।

तब पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु बान्धवों ने भी उसका परित्याग कर दिया । अब वह दिन रात दु:ख और शोक में डूबा तथा कष्ट पर कष्ट उठाता हुआ इधर उधर भटकने लगा ।

एक दिन किसी पुण्य के उदय होने से वह महर्षि कौण्डिन्य के आश्रम पर जा पहुँचा । वैशाख का महीना था । तपोधन कौण्डिन्य गंगाजी में स्नान करके आये थे ।

धृष्टबुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला : ‘ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो ।’

कौण्डिन्य बोले: वैशाख के शुक्लपक्ष में ‘मोहिनी’ नाम से प्रसिद्ध एकादशी का व्रत करो । ‘मोहिनी’ को उपवास करने पर प्राणियों के अनेक जन्मों के किये हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं |’

वशिष्ठजी कहते है: श्रीरामचन्द्रजी ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष्टबुद्धि का चित्त प्रसन्न हो गया । उसने कौण्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक ‘मोहिनी एकादशी’ का व्रत किया ।

नृपश्रेष्ठ ! इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरुढ़ हो सब प्रकार के उपद्रवों से रहित श्रीविष्णुधाम को चला गया ।

इस प्रकार यह ‘मोहिनी’ का व्रत बहुत उत्तम है । इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है ।’

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Chaitra Kamada Ekadashi Vrat Katha Hindi| चैत्र शुक्ल कामदा एकादशी व्रत कथा

Kamada ekadashi vrat katha vidhi

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।। चैत्र शुक्ल एकादशी व्रत कथा ।।

कामदा एकादशी

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युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! आपको नमस्कार है ! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है?

भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था ।

वशिष्ठजी बोले: राजन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है । वह परम पुण्यमयी है । पापरुपी ईँधन के लिए तो वह दावानल ही है ।

प्राचीन काल की बात है: नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे । उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे । पुण्डरीक नाम का नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था । गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेवन करती थीं । वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था । उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था । वे दोनों पति पत्नी के रुप में रहते थे । दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे । ललिता के हृदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदय में सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था ।

एक दिन की बात है । नागराज पुण्डरीक राजसभा में बैठकर मनोरंजन कर रहा था । उस समय ललित का गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी । गाते-गाते उसे ललिता का स्मरण हो आया । अत: उसके पैरों की गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी ।

नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित के मन का सन्ताप ज्ञात हो गया, अत: उसने राजा पुण्डरीक को उसके पैरों की गति रुकने और गान में त्रुटि होने की बात बता दी । कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण्डरीक की आँखे क्रोध से लाल हो गयीं ।

उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया : ‘दुर्बुद्धे ! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा ।’

महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया । भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रुप – ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगा ।

ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन ही मन बहुत चिन्तित हुई । भारी दु:ख से वह कष्ट पाने लगी । सोचने लगी: ‘क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं…’

वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे-पीछे घूमने लगी । वन में उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक मुनि शान्त बैठे हुए थे । किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर विरोध नहीं था । ललिता शीघ्रता के साथ वहाँ गयी और मुनि को प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई । मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले : ‘शुभे ! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच-सच बताओ ।’

ललिता ने कहा: महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं । मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गये हैं । उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है । ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्त्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले: भद्रे ! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की ‘कामदा’ नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व्रत का जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामी को दे डालो । पुण्य देने पर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायेगा ।

राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ । उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के दिन उन ब्रह्मर्षि के समीप ही भगवान वासुदेव के (श्रीविग्रह के) समक्ष अपने पति के उद्धार के लिए यह वचन कहा: ‘मैंने जो यह ‘कामदा एकादशी’ का उपवास व्रत किया है, उसके पुण्य के प्रभाव से मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाय ।’

वशिष्ठजी कहते हैं: ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया । उसने दिव्य देह धारण कर लिया । राक्षसभाव चला गया और पुन: गन्धर्वत्व की प्राप्ति हुई ।

नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति पत्नी ‘कामदा’ के प्रभाव से पहले की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रुप धारण करके विमान पर आरुढ़ होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे । यह जानकर इस एकादशी के व्रत का यत्नपूर्वक पालन करना चाहिए ।

मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है । ‘कामदा एकादशी’ ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है । राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

 

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Chaitra Papmochani Ekadashi Vrat Katha | चैत्र कृष्णा पापमोचनी एकादशी कथा

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।। चैत्र कृष्णा एकादशी व्रत कथा ।।
पापमोचनी एकादशी

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धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे महाराज ! आपने फाल्गुन शुक्ला एकादशी का माहात्म्य बतलाया। अब कृपा करके यह बतलाइए कि चैत्र कृष्णा एकादशी का क्या नाम है ? इसमें कौन से देवता की पूजा की जाती है और इसकी विधि क्या है ?

कृष्ण भगवान कहने लगे कि हे राजन् ! यही प्रश्न एक समय राजा मांधाता ने लोमश ऋषि से किया था और जो कुछ उन्होंने उत्तर दिया था सो वही तुमसे कहता हूं।

लोमश ऋषि कहने लगे कि हे राजन् ! इस एकादशी का नाम पापमोचनी एकादशी है और इसके करने से अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं। अब मैं इसकी कथा कहता हूं। प्राचीन समय में कुबेर का चैत्ररथ नाम का एक बाग था। उसमें गंधर्व की कन्याएं किन्नरों के साथ विहार करती थी। वहां अनेक प्रकार के पुष्प खिल रहे थे, उसी वन में अनेक ऋषि तपस्या करते थे। स्वयं इंद्र भी चैत्र और वैशाख मास में देवताओं के सहित वहां आकर क्रीड़ा किया करते थे। वही अपने आश्रम में मेधावी नाम के एक ऋषि भी तपस्या में संलग्न थे। वे शिव के भक्त थे।

एक समय मंजुघोषा नाम की अप्सरा ने उनको मोहित करने का विचार किया। वह ऋषि के भय के मारे समीप नहीं गई, वरन् दूर बैठकर वीणा पर मधुर गीत गाने लगी। उस समय कामदेव ने भी मेधावी ऋषि को जीतने की चेष्टा की। उन्होंने उस सुंदर अप्सरा के भ्रू को धनुष, कटाक्ष को डोरी, नेत्रों को धनुष की लचक, कूचों को कुरी बनाकर मंजुघोषा को सेनापति बनाया। उस समय मेधावी ऋषि भी युवा और हष्ट पुष्ट थे। साथ ही यज्ञोपवीत तथा दंड धारण किए हुए ब्रह्म तेज से युक्त थे।

मंजुघोषा ऐसे सुंदर ऋषि को देखकर उनकी सुंदरता पर मुग्ध हो गई और अपने गीत, चूड़ियों और नूपुरों की झंकार तथा नृत्य कला द्वारा हाव-भाव दिखाकर मुनि को रिझाने लगी। पर्याप्त समय तक यह क्रम चलता रहा और अंत में कामदेव ने ऋषि को पराजित कर दिया।

फलस्वरूप ऋषि मंजुघोषा के साथ रमण करने लगे और काम के इतने वशीभूत हो गए कि उन्हें दिन तथा रात्रि का कुछ भी विचार नहीं रहा।

इस प्रकार बहुत समय बीत गया, तब एक दिन मंजुघोषा कहने लगी ऋषि जी बहुत दिन हो गए अब मुझको स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिए।

मुनि ने कहा आज इसी संध्या को तो आई हो प्रातः काल होने तक चली जाना। मुनि के ऐसे वचन सुनकर अप्सरा कुछ समय तक और रुकी।

अंत में उसने पुनः मुनि से विदा मांगी तो मुनि कहने लगे कि अभी तो आधी रात ही हुई है।

अप्सरा ने कहा महाराज आपकी रात तो बहुत लंबी है। इसका क्या परिमाण है ? मुझको यहां पर आए कितने ही वर्ष बीत गए हैं।

उस अप्सरा की यह बात सुनकर मुनि को समय का ज्ञान हुआ तो विचार करने लगे कि इस अप्सरा के साथ रमण करते हुए हमको सत्तावन वर्ष, सात माह और तीन दिन बीत गए, तो वह उनको काल के समान प्रतीत हुई।

मुनि अत्यंत क्रोधित हुए और उनकी आंखों से ज्वाला उत्पन्न होने लगी। वे कहने लगे कि मेरी कठिन परिश्रम से एकत्रित की हुई तपस्या को तूने नष्ट करा दिया है। तुम महा पापिनी और दुराचारिणी है, तुझे धिक्कार है। तूने मेरे साथ घात किया है इसलिए तू मेरे श्राप से पिशाचिनी हो जा।

मुनि के श्राप से मंजुघोषा तत्क्षण पिशाचिनी हो गई और भयभीत होकर मुनि से प्रार्थना करने लगी कि महाराज इस श्राप का किसी प्रकार से निवारण कीजिए। अप्सरा के ऐसे दीन वचन सुनकर मुनि बोले कि दुष्टे यद्यपि तूने मेरा बहुत अनिष्ट किया है परंतु फिर भी

मैं तुझे श्राप से छूटने का उपाय बतलाता हूं। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम आप पापमोचनी है और यह सब प्रकार के पापों का नाश करने वाली है। उसका व्रत करने से पिशाच योनि से मुक्त हो जाएगी।

ऐसा कहकर मेधावी ऋषि अपने पिता च्यवन ऋषि के आश्रम में चले गए।

मेधावी को देखकर च्यवन ऋषि कहने लगे कि अरे पुत्र ! तूने ऐसा क्या किया जिससे तेरा सारा पुण्य क्षीण हो गया ?

मेधावी कहने लगे कि पिताजी मैंने अप्सरा के साथ रमण करके घोर पाप किया है। अब आप इस पाप से छूटने का प्रायश्चित मुझे बतलाइए।

तब च्यवन ऋषि कहने लगे कि हे पुत्र ! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की पापमोचनी एकादशी का व्रत करने से सब पापों का नाश हो जाता है, इसलिए तुम इस व्रत को करो। पिता की आज्ञा पाकर मेधावी ऋषि ने भी इस व्रत को किया जिससे उनके सब पाप नष्ट हो गए और वे पवित्र हो गये।

उधर मंजुघोषा भी व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि से छूटकर दिव्य देह धारण करके स्वर्ग को चली गई। लोमश ऋषि कहने लगे कि हे राजन् पापमोचनी एकादशी के व्रत को करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। इस कथा को पढ़ने और सुनने से हजार गोदान का फल प्राप्त होता है और व्रत से ब्रह्महत्या, गर्भपात, बालहत्या, सुरापान, गुरु स्त्री से प्रसंग आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 
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