दूसरा अध्याय – सांख्ययोग | Shrimad Bhagwat Gita Download Free PDF

Sankhya Yoga

Sankhya Yoga

दूसरा अध्याय – सांख्ययोग

Chapter 02- Sankhya Yoga

 

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दूसरा अध्याय का माहात्म्य

Chapter 02 Mahatmya

श्री भगवान कहते हैं:- लक्ष्मी ! प्रथम अध्याय के माहात्म्य का उपाख्यान मैंने सुना दिया । अब अन्य अध्यायों के माहात्मय श्रवण करो । दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में श्रीमान देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे । वे अतिथियों के पूजक स्वाध्यायशील, वेद-शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले और तपस्वियों के सदा ही प्रिय थे । उन्होंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन धर्मात्मा ब्राह्मण को कभी सदा रहने वाली शान्ति न मिली । वे परम कल्याणमय तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्पवाले तपस्वियों की सेवा करने लगे । इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए । वे पूर्ण अनुभवी, शान्तचित्त थे । निरन्तर परमात्मा के चिन्तन में संलग्न हो वे सदा आनन्द विभोर रहते थे । देवशर्मा ने उन नित्य सन्तुष्ट तपस्वी को शुद्धभाव से प्रणाम किया और पूछाः ‘महात्मन ! मुझे शान्तिमयी स्थिती कैसे प्राप्त होगी?’ तब उन आत्मज्ञानी संत ने देवशर्मा को सौपुर ग्राम के निवासी मित्रवान का, जो बकरियों का चरवाहा था, परिचय दिया और कहाः ‘वही तुम्हें उपदेश देगा ।’

यह सुनकर देवशर्मा ने महात्मा के चरणों की वन्दना की और समृद्धशाली सौपुर ग्राम में पहुँचकर उसके उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा । उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था । उसके नेत्र आनन्दातिरेक से निश्चल हो रहे थे, वह अपलक दृष्टि से देख रहा था । वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर विरोधी जन्तुओं से घिरा था । जहाँ उद्यान में मन्द-मन्द वायु चल रही थी । मृगों के झुण्ड शान्तभाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनन्दमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था । इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसन्न हो गया । वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गये । मित्रवान ने भी अपने मस्तक को किंचित् नवाकर देवशर्मा का सत्कार किया । तदनन्तर विद्वान देवशर्मा अनन्य चित्त से मित्रवान के समीप गये और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया, उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछीः ‘महाभाग ! मैं आत्मा का

ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ । मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी उपाय का उपदेश कीजिए, जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो ।’

देवशर्मा की बात सुनकरक मित्रवान ने एक क्षण तक कुछ विचार किया । उसके बाद इस प्रकार कहाः ‘विद्वन ! एक समय की बात है । मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था । इतने में ही एक भयंकर व्याघ्र पर मेरी दृष्टि पड़ी, जो मानो सब को ग्रास लेना चाहता था । मैं मृत्यु से डरता था, इसलिए व्याघ्र को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहाँ से भाग चला, किंतु एक बकरी तुरन्त ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस बाघ के पास बेरोकटोक चली गयी । फिर तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया । उसे इस अवस्था में देखकर बकरी बोलीः ‘व्याघ्र ! तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है । मेरे शरीर से मांस निकालकर प्रेमपूर्वक खाओ न ! तुम इतनी देर से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है?’

व्याघ्र बोलाः- बकरी ! इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया । भूख प्यास भी मिट गयी । इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता ।

व्याघ्र के यों कहने पर बकरी बोलीः- ‘न जाने मैं कैसे निर्भय हो गयी हूँ । इसका क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ ।’ यह सुनकर व्याघ्र ने कहाः ‘मैं भी नहीं जानता । चलो सामने खड़े हुए इन महापुरुष से पुछें ।’ ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहाँ से चल दिये । उन दोनों के स्वभाव में यह विचित्र परिवर्तन देखकर मैं बहुत विस्मय में पड़ा था । इतने में उन्होंने मुझसे ही आकर प्रश्न किया । वहाँ वृक्ष की शाखा पर एक वानरराज था । उन दोनों साथ मैंने भी वानरराज से पूछा । विप्रवर ! मेरे पूछने पर वानरराज ने आदरपूर्वक कहाः ‘अजापाल! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूँ । यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्माजी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है । पूर्वकाल में यहाँ सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मन्दिर में उपासना करते थे । वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे । इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे । बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि का आगमन हुआ । सुकर्मा ने भोजन के लिए फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहाः ‘विद्वन ! मैं केवल तत्त्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूँ । आज इस आराधना का फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है ।

सुकर्मा के ये मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने एक शिलाखण्ड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ और अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए कहाः- ‘ब्रह्मन् ! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-आप सफल हो जायेगा ।’ यह कहकर वे बुद्धिमान तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये । सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरन्तर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे । तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया । उनमें शीत-उष्ण और राग-द्वेष आदि की बाधाएँ दूर हो गयीं । इतना ही नहीं, उन स्थानों में भूख-प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया । यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव समझो ।

मित्रवान कहता हैः- वानरराज के यों कहने पर मैं प्रसन्नता पूर्वक बकरी और व्याघ्र के साथ उस मन्दिर की ओर गया । वहाँ जाकर शिलाखण्ड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा । उसी की आवृत्ति करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है । अतः भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्याय की ही आवृत्ति किया करो । ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी ।

श्रीभगवान कहते हैं- प्रिये ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देवशर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुर की राह ली । वहाँ किसी देवालय में पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तान्त निवेदन किया और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा । उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अन्तःकरण वाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का पाठ करने लगे । तबसे उन्होंने अनवद्य (प्रशंसा के योग्य) परम पद को प्राप्त कर लिया । लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया ।

॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः  ॥  |  Chapter 02

॥ संजय उवाच ॥

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥1॥

संजय बोलेः उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसूओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने ये वचन कहा ।(1)

॥ श्रीभगवानुवाच ॥

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परंतप॥3॥

श्री भगवान बोलेः हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है । इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा । (2,3)

॥ अर्जुन उवाच ॥

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥4॥

अर्जुन बोलेः हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ।(4)

गुरुनहत्वा हि महानुभावा- ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।5।।

इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा ।(5)

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।6।।

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना – इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हे हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ।(6)

कार्पण्दोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।7।।

इसलिए कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए ।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।8।।

क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ।

॥ संजय उवाच ॥

एवमुक्तवा हृषिकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्तवा तूष्णीं बभूव ह।।9।।

संजय बोलेः हे राजन ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविन्द भगवान से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ।(9)

तमुवाच हृषिकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।10।।

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले ।(10)

॥ श्री भगवानुवाच ॥

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।11।।

श्री भगवान बोलेः हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के जैसे वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते । (11)

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।12।।

न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ।(12)

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।13।।

जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।14।।

हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत ! उसको तू सहन कर ।(14)

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।15।।

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।(15)

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।16।।

असत् वस्तु की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है । इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा इन दोनों का ही तत्त्व देखा गया है । (16)

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17।।

नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत दृश्यवर्ग व्याप्त है । इस अविनाशी का विनाश करने में भी कोई समर्थ नहीं है । (17)

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।18।।

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं । इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर । (18)

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।19।।

जो उस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है ।

न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।20।।

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है । शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है ।(20)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।21।।

हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है? (21)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है । (22)

नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुतः।।23।।

इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती ।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थानुरचलोऽयं सनातनः।।24।।

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्या, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापि, अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है । (24)

अव्यक्तोऽयमचिन्तयोऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।25।।

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है । इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है । (25)

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26।।

किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है । (26)

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27।।

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है । इससे भी इस बिना उपाय वाले विषम में तू शोक करने के योग्य नहीं है । (27)

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।28।।

हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट है फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है? (28)

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रुणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।29।।

कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता । (29)

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।30।।

हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है । इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है । (30)

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धम् र्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।31।।

तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है । (31)

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32।।

हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं । (32)

अथ चेत्त्वमिमं धम् र्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।33।।

किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।(33)

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।34।।

तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ।(34)

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।35।।

और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध में हटा हुआ मानेंगे ।(35)

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।36।।

तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे । उससे अधिक दुःख और क्या होगा?(36)

हतो व प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।37।।

या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ।(37)

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।38।।

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा । इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।(38)

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।39।।

हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीभाँति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा ।(39)

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।40।।

इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है । (40)

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41।।

हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ।(41)

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।44।।

हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती । (42, 43, 44)

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।45।।

हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों और उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों और उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो ।(45)

यावारनर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।46।।

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्त्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।(46)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतूर्भूर्माते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।47।।

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उनके फलों में कभी नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।(47)

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।48।।

हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्यकर्मों को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है । (48)

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।49।।

इस समत्व बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है । इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ।(49)

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।50।।

समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है । इससे तू समत्वरूप योग में लग जा । यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है ।(50)

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्तवा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।51।।

क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ।(51)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52।।

जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भली भाँति पार कर जायेगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोकसम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ।(52)

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53।।

भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायेगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा ।

॥ अर्जुन उवाच ॥

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।54।।

अर्जुन बोले हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?(54)

॥ श्रीभगवानुवाच ॥

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।55।।

श्री भगवान बोलेः हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।(55)

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।56।।

दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन पर उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।57।।

जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है । (57)

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58।।

और जैसे कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों के सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है । (ऐसा समझना चाहिए) ।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।59।।

इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त् हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती । इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है । (59)

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।60।।

हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।(60)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।61।।

इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है । (61)

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62।।

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।(62)

क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63।।

क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।(63)

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।64।।

परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्तः करणवाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।(64)

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।65।।

अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर परमात्मा में ही भली भाँति स्थिर हो जाती है ।(65)

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।66।।

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?(66)

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।67।।

क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।(67)

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।68।।

इसलिए हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ।(68)

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।69।।

सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है ।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।70।।

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं । (70)

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।71।।

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है ।(71)

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।72।।

हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है । इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ।

ॐ तत्सदिति श्रीमदभगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2 ॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में ‘सांख्ययोग’ नामक द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।

Sampuran Bhagwat Gita

पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग | दूसरा अध्याय – सांख्ययोग | तीसरा अध्याय – कर्मयोग | चौथा अध्याय – ज्ञानकर्मसन्यासयोग | पाँचवाँ अध्याय – कर्मसंन्यासयोग | छठा अध्याय – आत्मसंयमयोग | सातवाँ अध्याय – ज्ञानविज्ञानयोग | आठवाँ अध्याय – अक्षरब्रह्मयोग | नौवाँ अध्याय – राजविद्याराजगुह्ययोग | दसवाँ अध्याय – विभूतियोग | ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोग | बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग | तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग | चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रयविभागयोग | पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तमयोग | सोलहवाँ अध्याय – दैवासुरसंपद्विभागयोग | सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग | अठारहवाँ अध्याय- मोक्षसंन्यासयोग

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पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग | Shrimad Bhagwat Gita Download Free PDF

Arjun Vishada Yoga

Arjun Vishada Yoga

पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग

Chapter 1- Arjun Vishada Yoga

 

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पहला अध्याय का माहात्म्य 

Chapter 01 Mahatmya

श्री पार्वती जी ने कहाः- भगवन् ! आप सब तत्त्वों के ज्ञाता हैं । आपकी कृपा से मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले, जो समस्त लोक का उद्धार करने वाले हैं । देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हूँ, जिसका श्रवण करने से श्रीहरि की भक्ति बढ़ती है ।

श्री महादेवजी बोलेः- जिनका श्रीविग्रह अलसी के फूल की भाँति श्याम वर्ण का है, पक्षिराज गरूड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महाविष्णु की हम उपासना करते हैं ।

एक समय की बात है । मुर दैत्य के नाशक भगवान विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुखपूर्वक विराजमान थे । उस समय समस्त लोकों को आनन्द देने वाली भगवती लक्ष्मी ने आदरपूर्वक प्रश्न किया ।

श्रीलक्ष्मीजी ने पूछाः- भगवन ! आप सम्पूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?

श्रीभगवान बोलेः- सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ । यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार-तत्त्व निश्च्चित करते हैं । वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निष्पन्द तथा द्वैतरहित है । इस जगत का जीवन उसी के अधीन है । मैं उसी का अनुभव करता हूँ । देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता सा प्रतीत हो रहा हूँ ।

श्रीलक्ष्मीजी ने कहाः हृषिकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं । आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है । इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं । आप सर्वसमर्थ हैं । इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये ।

श्री भगवान बोलेः प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है । शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है । वही मेरा ईश्वरीय रूप है । आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है । गीताशास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है । अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करे हुए कहाः भगवन ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है? मेरे इस संदेह का निवारण कीजिए ।

श्री भगवान बोलेः- सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ । क्रमश पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो । इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाङमयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए । यह ज्ञानमात्र से ही महान पातकों का नाश करने वाली है । जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है ।

श्री लक्ष्मीजी ने पूछाः- देव ! सुशर्मा कौन था? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई?

श्रीभगवान बोलेः- प्रिय ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था । पापियों का तो वह शिरोमणि ही था । उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य और क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था । वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अतिथियों का सत्कार । वह लम्पट होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही लगा रहता था । हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था । उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था । इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घकाल व्यतीत कर दिया । एकदिन मूढ़बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिए किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था । इसी बीच मे कालरूपधारी काले साँप ने उसे डँस लिया । सुशर्मा की मृत्यु हो गयी । तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मृत्युलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ । उस समय किसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिए उसे खरीद लिया । बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताए । एक दिन पंगु ने किसी ऊँचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया । इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्च्छित हो गया । उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गये । उस जनसमुदाय में से किसी पुण्यात्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिए उसे अपना पुण्य दान किया । तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके लिए दान किया । उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी । उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिए कुछ त्याग किया ।

तदनन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये । वहाँ यह विचारकर कि यह वेश्या के दिये हुए पुण्य से पुण्यवान हो गया है, उसे छोड़ दिया गया फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ । उस समय भी उसे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण बना रहा । बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछाः ‘तुमने कौन सा पुण्य दान किया था?’ वेश्या ने उत्तर दियाः ‘वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है । उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है । उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिए दान किया था ।’ इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा । तब उस तोते ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया ।

शुक बोलाः पूर्वजन्म में मैं विद्वान होकर भी विद्वता के अभिमान से मोहित रहता था । मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा । फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा । उसके बाद इस लोक में आया । सदगुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ । पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया । एक दिन मैं ग्रीष्म ऋतु में तपे मार्ग पर पड़ा था । वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया । वहीं मुझे पढ़ाया गया । ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे । उन्हीं से सुनकर मैं भी बारंबार पाठ करने लगा । इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया । तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया । पूर्वकाल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापों को दूर किया है । फिर उसी से इस वेश्या का भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से ये द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं ।

इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहात्म्य की प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये । इसलिए जो गीता के प्रथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है, उसे इस भवसागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती ।

।। अथ प्रथमोऽध्यायः ।। । Chapter 01

॥ धृतराष्ट्र उवाच ॥ 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥1॥

धृतराष्ट्र बोलेः हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? (1)

॥ संजय उवाच ॥

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंङगम्य राजा वचनमब्रवीत्।।2।।

संजय बोलेः उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहाः (2)

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।3।।

हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये ।(3)

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।4।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंङगवः।।5।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।6।।

इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशीराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी, युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र ये सभी महारथी हैं । (4,5,6)

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।7।।

हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए । आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ ।

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।8।।

आप, द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा । (8)

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।9।।

और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर हैं । (9)

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।10।।

भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है । (10)

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।11।।

इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें । (11)

।। संजय उवाच ।।

तस्य संञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख्ङं दध्मौ प्रतापवान्।।12।।

कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया । (12)

ततः शंख्ङाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।13।।

इसके पश्चात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे । उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ । (13)

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंख्ङौ प्रदध्मतुः।।14।।

इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये ।(14)

पाञ्चजन्यं हृषिकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख्ङं भीमकर्मा वृकोदरः।।15।।

श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया । (15)

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।16।।

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पकनामक शंख बजाये । (16)

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यिकश्चापराजितः।।17।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंख्ङान्दध्मुः पृथक् पृथक्।।18।।

श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु-इन सभी ने, हे राजन ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये ।

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।19।।

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात् आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये । (19)

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।20।।
हृषिकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

।। अर्जुन उवाच ।।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।21।।

हे राजन ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हए धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषिकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहाः हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए ।

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्ध्रुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।22।।

और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्धरुप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये । (22)

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।23।।

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा । (23)

।। संजयउवाच ।।

एवमुक्तो हृषिकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।24।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति।।25।।

संजय बोलेः हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख । (24,25)

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।26।।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरूभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय़ः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।27।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निमब्रवीत्।

इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा । उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले ।(26,27)

।। अर्जुन उवाच ।।

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।28।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।29।।

अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन-समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प और रोमांच हो रहा है ।

गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।30।।

हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ ।(30)

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।31।।

हे केशव ! मैं लक्ष्णों को भी विपरीत देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता । (31)

न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।32।।

हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही । हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? (32)

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।।33।।

हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं । (33)

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।34।।

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं । (34)

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।35।।

हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या? (35)

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः।।36।।

हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा । (36)

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।37।।

अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? (37)

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।39।।

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।40।।

कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है ।(40)

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।।41।।

हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है ।(41)

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।42।।

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है । लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ।(42)

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।43।।

इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं । (43)

उत्सन्कुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।44।।

हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।45।।

हा ! शोक ! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गये हैं । (45)

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।46।।

यदि मुझ शस्त्ररहित और सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा । (46)

।। संजय उवाच ।।

एवमुक्तवार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।47।।

संजय बोलेः रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ।(47 ।

ॐ तत्सदिति श्रीमदभगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥1 ॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमदभगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में ‘अर्जुनविषादयोग’ नामक प्रथम अध्याय संपूर्ण हुआ ।

Sampuran Bhagwat Gita

पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग | दूसरा अध्याय – सांख्ययोग | तीसरा अध्याय – कर्मयोग | चौथा अध्याय – ज्ञानकर्मसन्यासयोग | पाँचवाँ अध्याय – कर्मसंन्यासयोग | छठा अध्याय – आत्मसंयमयोग | सातवाँ अध्याय – ज्ञानविज्ञानयोग | आठवाँ अध्याय – अक्षरब्रह्मयोग | नौवाँ अध्याय – राजविद्याराजगुह्ययोग | दसवाँ अध्याय – विभूतियोग | ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोग | बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग | तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग | चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रयविभागयोग | पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तमयोग | सोलहवाँ अध्याय – दैवासुरसंपद्विभागयोग | सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग | अठारहवाँ अध्याय- मोक्षसंन्यासयोग

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सम्पूर्ण श्री गुरु गीता | शिव गीता | Shri Guru Gita । Shiv Gita Download Free PDF

Shiv Gita

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सम्पूर्ण श्री गुरु गीता | शिव गीता

Complete Guru Gita

भगवान शंकर और देवी पार्वती के संवाद में प्रकट हुई यह ‘श्रीगुरुगीता’ समग्र ‘स्कन्दपुराण’ का निष्कर्ष है। इसके हर एक श्लोक में सूत जी का सचोट अनुभव व्यक्त होता है जैसेः

मुखस्तम्भकरं चैव गुणानां च विवर्धनम्।
दुष्कर्मनाशनं चैव तथा सत्कर्मसिद्धिदम्।।

“इस श्री गुरुगीता का पाठ शत्रु का मुख बन्द करने वाला है, गुणों की वृद्धि करने वाला है, दुष्कृत्यों का नाश करने वाला और सत्कर्म में सिद्धि देने वाला है।”

गुरुगीताक्षरैकेकं मंत्रराजमिदं प्रिये।
अन्ये च विविधा मंत्राः कलां नार्हन्तिषोडशीम्।।

“हे प्रिये ! श्रीगुरुगीता का एक एक अक्षर मंत्रराज है। अन्य जो विविध मंत्र हैं वे इसका सोलहवाँ भाग भी नहीं।”

अकालमृत्युहंत्री च सर्व संकटनाशिनी।
यक्षराक्षसभूतादि चोरव्याघ्रविघातिनी।।

“श्रीगुरुगीता अकाल मृत्यु को रोकती है, सब संकटों का नाश करती है, यक्ष, राक्षस, भूत, चोर और शेर आदि का घात करती है।”

शुचिभूता ज्ञानवंतो गुरुगीतां जपन्ति ये।
तेषां दर्शनसंस्पर्शात् पुनर्जन्म न विद्यते।।

“जो पवित्र ज्ञानवान पुरुष इस श्रीगुरुगीता का जप-पाठ करते हैं उनके दर्शन और स्पर्श से पुनर्जन्म नहीं होता।”

इस श्रीगुरुगीता के श्लोक भवरोग-निवारण के लिए अमोघ औषधि हैं। साधकों के लिए परम अमृत है। स्वर्ग का अमृत पीने से पुण्य क्षीण होते हैं जबकि इस गीता का अमृत पीने से पाप नष्ट होकर परम शांति मिलती है, स्वस्वरूप का भान होता है।

तुलसीदास जी ने कहा हैः-

गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई।
जो बिरंचि संकर सम होई।।

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तीसरा अध्याय – श्री गुरु गीता । Shri Guru Gita । Shiv Gita Download Free PDF

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तीसरा अध्याय – श्री गुरु गीता

Chapter 03

 

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॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥

अथ काम्यजपस्थानं कथयामि वरानने ।
सागरान्ते सरित्तीरे तीर्थे हरिहरालये ॥
शक्तिदेवालये गोष्ठे सर्वदेवालये शुभे ।
वटस्य धात्र्या मूले व मठे वृन्दावने तथा ॥
पवित्रे निर्मले देशे नित्यानुष्ठानोऽपि वा ।
निर्वेदनेन मौनेन जपमेतत् समारभेत् ॥

हे सुमुखी ! अब सकामियों के लिए जप करने के स्थानों का वर्णन करता हूँ । सागर या नदी के तट पर, तीर्थ में, शिवालय में, विष्णु के या देवी के मंदिर में, गौशाला में, सभी शुभ देवालयों में, वटवृक्ष के या आँवले के वृक्ष के नीचे, मठ में, तुलसीवन में, पवित्र निर्मल स्थान में, नित्यानुष्ठान के रूप में अनासक्त रहकर मौनपूर्वक इसके जप का आरंभ करना चाहिए ।

जाप्येन जयमाप्नोति जपसिद्धिं फलं तथा ।
हीनकर्म त्यजेत्सर्वं गर्हितस्थानमेव च ॥

जप से जय प्राप्त होता है तथा जप की सिद्धि रूप फल मिलता है । जपानुष्ठान के काल में सब नीच कर्म और निन्दित स्थान का त्याग करना चाहिए । (145)

स्मशाने बिल्वमूले वा वटमूलान्तिके तथा ।
सिद्धयन्ति कानके मूले चूतवृक्षस्य सन्निधौ ॥

स्मशान में, बिल्व, वटवृक्ष या कनकवृक्ष के नीचे और आम्रवृक्ष के पास जप करने से से सिद्धि जल्दी होती है । (146)

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः ।
ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः ॥

हे देवी ! कल्प पर्यन्त के, करोंड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं । (147)

मंदभाग्या ह्यशक्ताश्च ये जना नानुमन्वते ।
गुरुसेवासु विमुखाः पच्यन्ते नरकेऽशुचौ ॥

भाग्यहीन, शक्तिहीन और गुरुसेवा से विमुख जो लोग इस उपदेश को नहीं मानते वे घोर नरक में पड़ते हैं । (148)

विद्या धनं बलं चैव तेषां भाग्यं निरर्थकम् ।
येषां गुरुकृपा नास्ति अधो गच्छन्ति पार्वति ॥

जिसके ऊपर श्री गुरुदेव की कृपा नहीं है उसकी विद्या, धन, बल और भाग्य निरर्थक है। हे पार्वती ! उसका अधःपतन होता है । (149)

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोदभवः।
धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ॥

जिसके अंदर गुरुभक्ति हो उसकी माता धन्य है, उसका पिता धन्य है, उसका वंश धन्य है, उसके वंश में जन्म लेनेवाले धन्य हैं, समग्र धरती माता धन्य है । (150)

शरीरमिन्द्रियं प्राणच्चार्थः स्वजनबन्धुतां ।
मातृकुलं पितृकुलं गुरुरेव न संशयः ॥

शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण, धन, स्वजन, बन्धु-बान्धव, माता का कुल, पिता का कुल ये सब गुरुदेव ही हैं । इसमें संशय नहीं है । (151)

गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः ।
गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ॥

गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है । गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ । (152)

समुद्रे वै यथा तोयं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम् ।
भिन्ने कुंभे यथाऽऽकाशं तथाऽऽत्मा परमात्मनि ॥

जिस प्रकार सागर में पानी, दूध में दूध, घी में घी, अलग-अलग घटों में आकाश एक और अभिन्न है उसी प्रकार परमात्मा में जीवात्मा एक और अभिन्न है । (153)

तथैव ज्ञानवान् जीव परमात्मनि सर्वदा ।
ऐक्येन रमते ज्ञानी यत्र कुत्र दिवानिशम् ॥

इसी प्रकार ज्ञानी सदा परमात्मा के साथ अभिन्न होकर रात-दिन आनंदविभोर होकर सर्वत्र विचरते हैं । (154)

गुरुसन्तोषणादेव मुक्तो भवति पार्वति ।
अणिमादिषु भोक्तृत्वं कृपया देवि जायते ॥

हे पार्वति ! गुरुदेव को संतुष्ट करने से शिष्य मुक्त हो जाता है । हे देवी ! गुरुदेव की कृपा से वह अणिमादि सिद्धियों का भोग प्राप्त करता है। (155)

साम्येन रमते ज्ञानी दिवा वा यदि वा निशि ।
एवं विधौ महामौनी त्रैलोक्यसमतां व्रजेत् ॥

ज्ञानी दिन में या रात में, सदा सर्वदा समत्व में रमण करते हैं । इस प्रकार के महामौनी अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ महात्मा तीनों लोकों मे समान भाव से गति करते हैं । (156)

गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम् ।
सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चरणाम्बुजम् ॥

गुरुभक्ति ही सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है । अन्य तीर्थ निरर्थक हैं । हे देवी ! गुरुदेव के चरणकमल सर्वतीर्थमय हैं । (157)

कन्याभोगरतामन्दाः स्वकान्तायाः पराड्मुखाः ।
अतः परं मया देवि कथितन्न मम प्रिये ॥

हे देवी ! हे प्रिये ! कन्या के भोग में रत, स्वस्त्री से विमुख (परस्त्रीगामी) ऐसे बुद्धिशून्य लोगों को मेरा यह आत्मप्रिय परमबोध मैंने नहीं कहा । (158)

अभक्ते वंचके धूर्ते पाखंडे नास्तिकादिषु ।
मनसाऽपि न वक्तव्या गुरुगीता कदाचन ॥

अभक्त, कपटी, धूर्त, पाखण्डी, नास्तिक इत्यादि को यह गुरुगीता कहने का मन में सोचना तक नहीं । (159)

गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः ।
तमेकं दुर्लभं मन्ये शिष्यह्यत्तापहारकम् ॥

शिष्य के धन को अपहरण करनेवाले गुरु तो बहुत हैं लेकिन शिष्य के हृदय का संताप हरनेवाला एक गुरु भी दुर्लभ है ऐसा मैं मानता हूँ । (160)

चातुर्यवान्विवेकी च अध्यात्मज्ञानवान् शुचिः ।
मानसं निर्मलं यस्य गुरुत्वं तस्य शोभते ॥

जो चतुर हों, विवेकी हों, अध्यात्म के ज्ञाता हों, पवित्र हों तथा निर्मल मानसवाले हों उनमें गुरुत्व शोभा पाता है । (161)

गुरवो निर्मलाः शान्ताः साधवो मितभाषिणः ।
कामक्रोधविनिर्मुक्ताः सदाचारा जितेन्द्रियाः ॥

गुरु निर्मल, शांत, साधु स्वभाव के, मितभाषी, काम-क्रोध से अत्यंत रहित, सदाचारी और जितेन्द्रिय होते हैं । (162)

सूचकादि प्रभेदेन गुरवो बहुधा स्मृताः ।
स्वयं समयक् परीक्ष्याथ तत्वनिष्ठं भजेत्सुधीः ॥

सूचक आदि भेद से अनेक गुरु कहे गये हैं । बिद्धिमान् मनुष्य को स्वयं योग्य विचार करके तत्वनिष्ठ सदगुरु की शरण लेनी चाहिए। (163)

वर्णजालमिदं तद्वद्बाह्यशास्त्रं तु लौकिकम् ।
यस्मिन् देवि समभ्यस्तं स गुरुः सूचकः स्मृतः ॥

हे देवी ! वर्ण और अक्षरों से सिद्ध करनेवाले बाह्य लौकिक शास्त्रों का जिसको अभ्यास हो वह गुरु सूचक गुरु कहलाता है। (164)

वर्णाश्रमोचितां विद्यां धर्माधर्मविधायिनीम् ।
प्रवक्तारं गुरुं विद्धि वाचकस्त्वति पार्वति ॥

हे पार्वती ! धर्माधर्म का विधान करनेवाली, वर्ण और आश्रम के अनुसार विद्या का प्रवचन करनेवाले गुरु को तुम वाचक गुरु जानो । (165)

पंचाक्षर्यादिमंत्राणामुपदेष्टा त पार्वति ।
स गुरुर्बोधको भूयादुभयोरमुत्तमः ॥

पंचाक्षरी आदि मंत्रों का उपदेश देनेवाले गुरु बोधक गुरु कहलाते हैं । हे पार्वती ! प्रथम दो प्रकार के गुरुओं से यह गुरु उत्तम हैं । (166)

मोहमारणवश्यादितुच्छमंत्रोपदर्शिनम् ।
निषिद्धगुरुरित्याहुः पण्डितस्तत्वदर्शिनः ॥

मोहन, मारण, वशीकरण आदि तुच्छ मंत्रों को बतानेवाले गुरु को तत्वदर्शी पंडित निषिद्ध गुरु कहते हैं । (167)

अनित्यमिति निर्दिश्य संसारे संकटालयम् ।
वैराग्यपथदर्शी यः स गुरुर्विहितः प्रिये ॥

हे प्रिये ! संसार अनित्य और दुःखों का घर है ऐसा समझाकर जो गुरु वैराग्य का मार्ग बताते हैं वे विहित गुरु कहलाते हैं । (168)

तत्वमस्यादिवाक्यानामुपदेष्टा तु पार्वति ।
कारणाख्यो गुरुः प्रोक्तो भवरोगनिवारकः ॥

हे पार्वती ! तत्वमसि आदि महावाक्यों का उपदेश देनेवाले तथा संसाररूपी रोगों का निवारण करनेवाले गुरु कारणाख्य गुरु कहलाते हैं । (169)

सर्वसन्देहसन्दोहनिर्मूलनविचक्षणः ।
जन्ममृत्युभयघ्नो यः स गुरुः परमो मतः ॥

सर्व प्रकार के सन्देहों का जड़ से नाश करने में जो चतुर हैं, जन्म, मृत्यु तथा भय का जो विनाश करते हैं वे परम गुरु कहलाते हैं, सदगुरु कहलाते हैं । (170)

बहुजन्मकृतात् पुण्याल्लभ्यतेऽसौ महागुरुः ।
लब्ध्वाऽमुं न पुनर्याति शिष्यः संसारबन्धनम् ॥

अनेक जन्मों के किये हुए पुण्यों से ऐसे महागुरु प्राप्त होते हैं । उनको प्राप्त कर शिष्य पुनः संसारबन्धन में नहीं बँधता अर्थात् मुक्त हो जाता है । (171)

एवं बहुविधालोके गुरवः सन्ति पार्वति ।
तेषु सर्वप्रत्नेन सेव्यो हि परमो गुरुः ॥

हे पर्वती ! इस प्रकार संसार में अनेक प्रकार के गुरु होते हैं । इन सबमें एक परम गुरु का ही सेवन सर्व प्रयत्नों से करना चाहिए । (172)

॥ पार्वत्युवाच ॥

स्वयं मूढा मृत्युभीताः सुकृताद्विरतिं गताः ।
दैवन्निषिद्धगुरुगा यदि तेषां तु का गतिः ॥

पर्वती ने कहा:- प्रकृति से ही मूढ, मृत्यु से भयभीत, सत्कर्म से विमुख लोग यदि दैवयोग से निषिद्ध गुरु का सेवन करें तो उनकी क्या गति होती है । (173)

॥ श्रीमहादेव उवाच ॥

निषिद्धगुरुशिष्यस्तु दुष्टसंकल्पदूषितः ।
ब्रह्मप्रलयपर्यन्तं न पुनर्याति मृत्यताम् ॥

श्री महादेवजी बोले:- निषिद्ध गुरु का शिष्य दुष्ट संकल्पों से दूषित होने के कारण ब्रह्मप्रलय तक मनुष्य नहीं होता, पशुयोनि में ही रहता है । (174)

श्रृणु तत्वमिदं देवि यदा स्याद्विरतो नरः ।
तदाऽसावधिकारीति प्रोच्यते श्रुतमस्तकैः ॥

हे देवी ! इस तत्व को ध्यान से सुनो । मनुष्य जब विरक्त होता है तभी वह अधिकारी कहलाता है, ऐसा उपनिषद कहते हैं । अर्थात् दैव योग से गुरु प्राप्त होने की बात अलग है और विचार से गुरु चुनने की बात अलग है । (175)

अखण्डैकरसं ब्रह्म नित्यमुक्तं निरामयम् ।
स्वस्मिन संदर्शितं येन स भवेदस्य देशिकः ॥

अखण्ड, एकरस, नित्यमुक्त और निरामय ब्रह्म जो अपने अंदर ही दिखाते हैं वे ही गुरु होने चाहिए । (176)

जलानां सागरो राजा यथा भवति पार्वति ।
गुरुणां तत्र सर्वेषां राजायं परमो गुरुः ॥

हे पार्वती ! जिस प्रकार जलाशयों में सागर राजा है उसी प्रकार सब गुरुओं में से ये परम गुरु राजा हैं । (177)

मोहादिरहितः शान्तो नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
तृणीकृतब्रह्मविष्णुवैभवः परमो गुरुः ॥

मोहादि दोषों से रहित, शांत, नित्य तृप्त, किसीके आश्रयरहित अर्थात् स्वाश्रयी, ब्रह्मा और विष्णु के वैभव को भी तृणवत् समझनेवाले गुरु ही परम गुरु हैं । (178)

सर्वकालविदेशेषु स्वतंत्रो निश्चलस्सुखी ।
अखण्डैकरसास्वादतृप्तो हि परमो गुरुः ॥

सर्व काल और देश में स्वतंत्र, निश्चल, सुखी, अखण्ड, एक रस के आनन्द से तृप्त ही सचमुच परम गुरु हैं । (179)

द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तः स्वानुभूतिप्रकाशवान् ।
अज्ञानान्धमश्छेत्ता सर्वज्ञ परमो गुरुः ॥

द्वैत और अद्वैत से मुक्त, अपने अनुभुवरूप प्रकाशवाले, अज्ञानरूपी अंधकार को छेदनेवाले और सर्वज्ञ ही परम गुरु हैं । (180)

यस्य दर्शनमात्रेण मनसः स्यात् प्रसन्नता ।
स्वयं भूयात् धृतिश्शान्तिः स भवेत् परमो गुरुः ॥

जिनके दर्शनमात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती है वे परम गुरु हैं । (181)

स्वशरीरं शवं पश्यन् तथा स्वात्मानमद्वयम् ।
यः स्त्रीकनकमोहघ्नः स भवेत् परमो गुरुः ॥

जो अपने शरीर को शव समान समझते हैं अपने आत्मा को अद्वय जानते हैं, जो कामिनी और कंचन के मोह का नाशकर्ता हैं वे परम गुरु हैं । (182)

मौनी वाग्मीति तत्वज्ञो द्विधाभूच्छृणु पार्वति ।
न कश्चिन्मौनिना लाभो लोकेऽस्मिन्भवति प्रिये ॥
वाग्मी तूत्कटसंसारसागरोत्तारणक्षमः ।
यतोऽसौ संशयच्छेत्ता शास्त्रयुक्त्यनुभूतिभिः ॥

हे पार्वती ! सुनो । तत्वज्ञ दो प्रकार के होते हैं । मौनी और वक्ता । हे प्रिये ! इन दोंनों में से मौनी गुरु द्वारा लोगों को कोई लाभ नहीं होता, परन्तु वक्ता गुरु भयंकर संसारसागर को पार कराने में समर्थ होते हैं । क्योंकि शास्त्र, युक्ति (तर्क) और अनुभूति से वे सर्व संशयों का छेदन करते हैं । (183, 184)

गुरुनामजपाद्येवि बहुजन्मार्जितान्यपि ।
पापानि विलयं यान्ति नास्ति सन्देहमण्वपि ॥

हे देवी ! गुरुनाम के जप से अनेक जन्मों के इकठ्ठे हुए पाप भी नष्ट होते हैं, इसमें अणुमात्र संशय नहीं है । (185)

कुलं धनं बलं शास्त्रं बान्धवास्सोदरा इमे ।
मरणे नोपयुज्यन्ते गुरुरेको हि तारकः ॥

अपना कुल, धन, बल, शास्त्र, नाते-रिश्तेदार, भाई, ये सब मृत्यु के अवसर पर काम नहीं आते । एकमात्र गुरुदेव ही उस समय तारणहार हैं । (186)

कुलमेव पवित्रं स्यात् सत्यं स्वगुरुसेवया ।
तृप्ताः स्युस्स्कला देवा ब्रह्माद्या गुरुतर्पणात् ॥

सचमुच, अपने गुरुदेव की सेवा करने से अपना कुल भी पवित्र होता है । गुरुदेव के तर्पण से ब्रह्मा आदि सब देव तृप्त होते हैं । (187)

स्वरूपज्ञानशून्येन कृतमप्यकृतं भवेत् ।
तपो जपादिकं देवि सकलं बालजल्पवत् ॥

हे देवी ! स्वरूप के ज्ञान के बिना किये हुए जप-तपादि सब कुछ नहीं किये हुए के बराबर हैं, बालक के बकवाद के समान (व्यर्थ) हैं । (188)

न जानन्ति परं तत्वं गुरुदीक्षापराड्मुखाः ।
भ्रान्ताः पशुसमा ह्येते स्वपरिज्ञानवर्जिताः ॥

गुरुदीक्षा से विमुख रहे हुए लोग भ्रांत हैं, अपने वास्तविक ज्ञान से रहित हैं । वे सचमुच पशु के समान हैं । परम तत्व को वे नहीं जानते । (189)

तस्मात्कैवल्यसिद्धयर्थं गुरुमेव भजेत्प्रिये ।
गुरुं विना न जानन्ति मूढास्तत्परमं पदम् ॥

इसलिये हे प्रिये ! कैवल्य की सिद्धि के लिए गुरु का ही भजन करना चाहिए । गुरु के बिना मूढ लोग उस परम पद को नहीं जान सकते । (190)

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते सर्वकर्माणि गुरोः करुणया शिवे ॥

हे शिवे ! गुरुदेव की कृपा से हृदय की ग्रन्थि छिन्न हो जाती है, सब संशय कट जाते हैं और सर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं । (191)

कृताया गुरुभक्तेस्तु वेदशास्त्रनुसारतः ।
मुच्यते पातकाद् घोराद् गुरुभक्तो विशेषतः ॥

वेद और शास्त्र के अनुसार विशेष रूप से गुरु की भक्ति करने से गुरुभक्त घोर पाप से भी मुक्त हो जाता है । (192)

दुःसंगं च परित्यज्य पापकर्म परित्यजेत् ।
चित्तचिह्नमिदं यस्य तस्य दीक्षा विधीयते ॥

दुर्जनों का संग त्यागकर पापकर्म छोड़ देने चाहिए । जिसके चित्त में ऐसा चिह्न देखा जाता है उसके लिए गुरुदीक्षा का विधान है । (193)

चित्तत्यागनियुक्तश्च क्रोधगर्वविवर्जितः ।
द्वैतभावपरित्यागी तस्य दीक्षा विधीयते ॥

चित्त का त्याग करने में जो प्रयत्नशील है, क्रोध और गर्व से रहित है, द्वैतभाव का जिसने त्याग किया है उसके लिए गुरुदीक्षा का विधान है । (194)

एतल्लक्षणसंयुक्तं सर्वभूतहिते रतम् ।
निर्मलं जीवितं यस्य तस्य दीक्षा विधीयते ॥

जिसका जीवन इन लक्षणों से युक्त हो, निर्मल हो, जो सब जीवों के कल्याण में रत हो उसके लिए गुरुदीक्षा का विधान है । (195)

अत्यन्तचित्तपक्वस्य श्रद्धाभक्तियुतस्य च ।
प्रवक्तव्यमिदं देवि ममात्मप्रीतये सदा ॥

हे देवी ! जिसका चित्त अत्यन्त परिपक्व हो, श्रद्धा और भक्ति से युक्त हो उसे यह तत्व सदा मेरी प्रसन्नता के लिए कहना चाहिए । (196)

सत्कर्मपरिपाकाच्च चित्तशुद्धस्य धीमतः ।
साधकस्यैव वक्तव्या गुरुगीता प्रयत्नतः ॥

सत्कर्म के परिपाक से शुद्ध हुए चित्तवाले बुद्धिमान् साधक को ही गुरुगीता प्रयत्नपूर्वक कहनी चाहिए । (197)

नास्तिकाय कृतघ्नाय दांभिकाय शठाय च ।
अभक्ताय विभक्ताय न वाच्येयं कदाचन ॥

नास्तिक, कृतघ्न, दंभी, शठ, अभक्त और विरोधी को यह गुरुगीता कदापि नहीं कहनी चाहिए । (198)

स्त्रीलोलुपाय मूर्खाय कामोपहतचेतसे ।
निन्दकाय न वक्तव्या गुरुगीतास्वभावतः ॥

स्त्रीलम्पट, मूर्ख, कामवासना से ग्रस्त चित्तवाले तथा निंदक को गुरुगीता बिलकुल नहीं कहनी चाहिए । (199)

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुर्नैव मन्यते ।
श्वनयोनिशतं गत्वा चाण्डालेष्वपि जायते ॥

एकाक्षर मंत्र का उपदेश करनेवाले को जो गुरु नहीं मानता वह सौ जन्मों में कुत्ता होकर फिर चाण्डाल की योनि में जन्म लेता है । (200)

गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मन्त्रत्यागाद्यरिद्रता ।
गुरुमंत्रपरित्यागी रौरवं नरकं व्रजेत् ॥

गुरु का त्याग करने से मृत्यु होती है । मंत्र को छोड़ने से दरिद्रता आती है और गुरु एवं मंत्र दोनों का त्याग करने से रौरव नरक मिलता है । (201)

शिवक्रोधाद् गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराज्ञां न लंघयेत् ॥

शिव के क्रोध से गुरुदेव रक्षण करते हैं लेकिन गुरुदेव के क्रोध से शिवजी रक्षण नहीं करते । अतः सब प्रयत्न से गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । (202)

सप्तकोटिमहामंत्राश्चित्तविभ्रंशकारकाः ।
एक एव महामंत्रो गुरुरित्यक्षरद्वयम् ॥

सात करोड़ महामंत्र विद्यमान हैं । वे सब चित्त को भ्रमित करनेवाले हैं । गुरु नाम का दो अक्षरवाला मंत्र एक ही महामंत्र है । (203)

न मृषा स्यादियं देवि मदुक्तिः सत्यरूपिणि ।
गुरुगीतासमं स्तोत्रं नास्ति नास्ति महीतले ॥

हे देवी ! मेरा यह कथन कभी मिथ्या नहीं होगा । वह सत्यस्वरूप है । इस पृथ्वी पर गुरुगीता के समान अन्य कोई स्तोत्र नहीं है । (204)

गुरुगीतामिमां देवि भवदुःखविनाशिनीम् ।
गुरुदीक्षाविहीनस्य पुरतो न पठेत्क्वचित् ॥

भवदुःख का नाश करनेवाली इस गुरुगीता का पाठ गुरुदीक्षाविहीन मनुष्य के आगे कभी नहीं करना चाहिए । (205)

रहस्यमत्यन्तरहस्यमेतन्न पापिना लभ्यमिदं महेश्वरि ।
अनेकजन्मार्जितपुण्यपाकाद् गुरोस्तु तत्वं लभते मनुष्यः ॥

हे महेश्वरी ! यह रहस्य अत्यंत गुप्त रहस्य है । पापियों को वह नहीं मिलता । अनेक जन्मों के किये हुए पुण्य के परिपाक से ही मनुष्य गुरुतत्व को प्राप्त कर सकता है । (206)

सर्वतीर्थवगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः ।
गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन् ॥

श्री सदगुरु के चरणामृत का पान करने से और उसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्य सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त करता है । (207)

गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्टभोजनम् ।
गुरुर्मूर्ते सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः ॥

गुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिए, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए । (208)

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित समग्र जगत गुरुदेव में समाविष्ट है । गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है, इसलिए गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए । (209)

ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः ।
गुरोः समानतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम् ॥

गुरुदेव के प्रति (अनन्य) भक्ति से ज्ञान के बिना भी मोक्षपद मिलता है । गुरु के मार्ग पर चलनेवालों के लिए गुरुदेव के समान अन्य कोई साधन नहीं है । (210)

गुरोः कृपाप्रसादेन ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
सामर्थ्यमभजन् सर्वे सृष्टिस्थित्यंतकर्मणि ॥

गुरु के कृपाप्रसाद से ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव यथाक्रम जगत की सृष्टि, स्थिति और लय करने का सामर्थ्य प्राप्त करते हैं । (211)

मंत्रराजमिदं देवि गुरुरित्यक्षरद्वयम् ।
स्मृतिवेदपुराणानां सारमेव न संशयः ॥

हे देवी ! गुरु यह दो अक्षरवाला मंत्र सब मंत्रों में राजा है, श्रेष्ठ है । स्मृतियाँ, वेद और पुराणों का वह सार ही है, इसमें संशय नहीं है । (212)

यस्य प्रसादादहमेव सर्वं मय्येव सर्वं परिकल्पितं च ।
इत्थं विजानामि सदात्मरूपं त्स्यांघ्रिपद्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥

मैं ही सब हूँ, मुझमें ही सब कल्पित है, ऐसा ज्ञान जिनकी कृपा से हुआ है ऐसे आत्मस्वरूप श्री सद्गुरुदेव के चरणकमलों में मैं नित्य प्रणाम करता हूँ । (213)

अज्ञानतिमिरान्धस्य विषयाक्रान्तचेतसः ।
ज्ञानप्रभाप्रदानेन प्रसादं कुरु मे प्रभो ॥

हे प्रभो ! अज्ञानरूपी अंधकार में अंध बने हुए और विषयों से आक्रान्त चित्तवाले मुझको ज्ञान का प्रकाश देकर कृपा करो । (214)

॥ इति श्री स्कान्दोत्तरखण्डे उमामहेश्वरसंवादे श्री गुरुगीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥

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दूसरा अध्याय – श्री गुरु गीता । Shri Guru Gita । Shiv Gita Download Free PDF

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दूसरा अध्याय – श्री गुरु गीता

Chapter 02

 

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॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्
भावतीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ॥

जो ब्रह्मानंदस्वरूप हैं, परम सुख देनेवाले हैं जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख, दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं, मलरहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, भावना से परे हैं, सत्व, रज और तम तीनों गुणों से रहित हैं ऐसे श्री सदगुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ । (52)

गुरुपदिष्टमार्गेण मनः शिद्धिं तु कारयेत् ।
अनित्यं खण्डयेत्सर्वं यत्किंचिदात्मगोचरम् ॥

श्री गुरुदेव के द्वारा उपदिष्ट मार्ग से मन की शुद्धि करनी चाहिए । जो कुछ भी अनित्य वस्तु अपनी इन्द्रियों की विषय हो जायें उनका खण्डन (निराकरण) करना चाहिए । (53)

किमत्रं बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि ।
दुर्लभा चित्तविश्रान्तिः विना गुरुकृपां पराम् ॥

यहाँ ज्यादा कहने से क्या लाभ ? श्री गुरुदेव की परम कृपा के बिना करोड़ों शास्त्रों से भी चित्त की विश्रांति दुर्लभ है । (54)

करुणाखड्गपातेन छित्त्वा पाशाष्टकं शिशोः ।
सम्यगानन्दजनकः सदगुरु सोऽभिधीयते ॥
एवं श्रुत्वा महादेवि गुरुनिन्दा करोति यः ।

स याति नरकान् घोरान् यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥

करुणारूपी तलवार के प्रहार से शिष्य के आठों पाशों (संशय, दया, भय, संकोच, निन्दा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति ) को काटकर निर्मल आनंद देनेवाले को सदगुरु कहते हैं । ऐसा सुनने पर भी जो मनुष्य गुरुनिन्दा करता है, वह (मनुष्य) जब तक सूर्यचन्द्र का अस्तित्व रहता है तब तक घोर नरक में रहता है । (55, 56)

यावत्कल्पान्तको देहस्तावद्देवि गुरुं स्मरेत् ।
गुरुलोपो न कर्त्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत् ॥

हे देवी ! देह कल्प के अन्त तक रहे तब तक श्री गुरुदेव का स्मरण करना चाहिए और आत्मज्ञानी होने के बाद भी (स्वच्छन्द अर्थात् स्वरूप का छन्द मिलने पर भी ) शिष्य को गुरुदेव की शरण नहीं छोड़नी चाहिए । (57)

हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञशिष्यै कदाचन ।
गुरुराग्रे न वक्तव्यमसत्यं तु कदाचन ॥

श्री गुरुदेव के समक्ष प्रज्ञावान् शिष्य को कभी हुँकार शब्द से (मैने ऐसे किया… वैसा किया ) नहीं बोलना चाहिए और कभी असत्य नहीं बोलना चाहिए । (58)

गुरुं त्वंकृत्य हुंकृत्य गुरुसान्निध्यभाषणः ।
अरण्ये निर्जले देशे संभवेद् ब्रह्मराक्षसः ॥

गुरुदेव के समक्ष जो हुँकार शब्द से बोलता है अथवा गुरुदेव को तू कहकर जो बोलता है वह निर्जन मरुभूमि में ब्रह्मराक्षस होता है । (59)

अद्वैतं भावयेन्नित्यं सर्वावस्थासु सर्वदा ।
कदाचिदपि नो कुर्यादद्वैतं गुरुसन्निधौ ॥

सदा और सर्व अवस्थाओं में अद्वैत की भावना करनी चाहिए परन्तु गुरुदेव के साथ अद्वैत की भावना कदापि नहीं करनी चाहिए । (60)

दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् ।
तादृशस्यैव कैवल्यं न च तद्व्यतिरेकिणः ॥

जब तक दृश्य प्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा-अर्चना करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले को ही कैवल्यपद की प्रप्ति होती है, इसके विपरीत करनेवाले को नहीं होती । (61)

अपि संपूर्णतत्त्वज्ञो गुरुत्यागी भवेद्ददा ।
भवेत्येव हि तस्यान्तकाले विक्षेपमुत्कटम् ॥

संपूर्ण तत्त्वज्ञ भी यदि गुरु का त्याग कर दे तो मृत्यु के समय उसे महान् विक्षेप अवश्य हो जाता है । (62)

गुरौ सति स्वयं देवी परेषां तु कदाचन ।
उपदेशं न वै कुर्यात् तदा चेद्राक्षसो भवेत् ॥

हे देवी ! गुरु के रहने पर अपने आप कभी किसी को उपदेश नहीं देना चाहिए । इस प्रकार उपदेश देनेवाला ब्रह्मराक्षस होता है । (63)

न गुरुराश्रमे कुर्यात् दुष्पानं परिसर्पणम् ।
दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि गुरोराज्ञां न कारयेत् ॥

गुरु के आश्रम में नशा नहीं करना चाहिए, टहलना नहीं चाहिए । दीक्षा देना, व्याख्यान करना, प्रभुत्व दिखाना और गुरु को आज्ञा करना, ये सब निषिद्ध हैं । (64)

नोपाश्रमं च पर्यंकं न च पादप्रसारणम् ।
नांगभोगादिकं कुर्यान्न लीलामपरामपि ॥

गुरु के आश्रम में अपना छप्पर और पलंग नहीं बनाना चाहिए, (गुरुदेव के सम्मुख) पैर नहीं पसारना, शरीर के भोग नहीं भोगने चाहिए और अन्य लीलाएँ नहीं करनी चाहिए । (65)

गुरुणां सदसद्वापि यदुक्तं तन्न लंघयेत् ।
कुर्वन्नाज्ञां दिवारात्रौ दासवन्निवसेद् गुरौ ॥

गुरुओं की बात सच्ची हो या झूठी, परन्तु उसका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए । रात और दिन गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हुए उनके सान्निध्य में दास बन कर रहना चाहिए । (66)

अदत्तं न गुरोर्द्रव्यमुपभुंजीत कहिर्चित् ।
दत्तं च रंकवद् ग्राह्यं प्राणोप्येतेन लभ्यते ॥

जो द्रव्य गुरुदेव ने नहीं दिया हो उसका उपयोग कभी नहीं करना चाहिए । गुरुदेव के दिये हुए द्रव्य को भी गरीब की तरह ग्रहण करना चाहिए । उससे प्राण भी प्राप्त हो सकते हैं । (67)

पादुकासनशय्यादि गुरुणा यदभिष्टितम् ।
नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् ॥

पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सर्व को नमस्कार करने चाहिए और उनको पैर से कभी नहीं छूना चाहिए । (68)

गच्छतः पृष्ठतो गच्छेत् गुरुच्छायां न लंघयेत् ।<नोल्बणं धारयेद्वेषं नालंकारास्ततोल्बणान् ॥

चलते हुए गुरुदेव के पीछे चलना चाहिए, उनकी परछाईं का भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए । गुरुदेव के समक्ष कीमती वेशभूषा, आभूषण आदि धारण नहीं करने चाहिए । (69)

गुरुनिन्दाकरं दृष्ट्वा धावयेदथ वासयेत् ।
स्थानं वा तत्परित्याज्यं जिह्वाच्छेदाक्षमो यदि ॥

गुरुदेव की निन्दा करनेवाले को देखकर यदि उसकी जिह्वा काट डालने में समर्थ न हो तो उसे अपने स्थान से भगा देना चाहिए । यदि वह ठहरे तो स्वयं उस स्थान का परित्याग करना चाहिए । (70)

मुनिभिः पन्नगैर्वापि सुरैवा शापितो यदि ।
कालमृत्युभयाद्वापि गुरुः संत्राति पार्वति ॥

हे पर्वती ! मुनियों पन्नगों और देवताओं के शाप से तथा यथा काल आये हुए मृत्यु के भय से भी शिष्य को गुरुदेव बचा सकते हैं । (71)

विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया ।
ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः ॥

गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे संन्यासी हैं, अन्य तो मात्र वेशधारी हैं । (72)

नित्यं ब्रह्म निराकारं निर्गुणं बोधयेत् परम् ।
भासयन् ब्रह्मभावं च दीपो दीपान्तरं यथा ॥

गुरु वे हैं जो नित्य, निर्गुण, निराकार, परम ब्रह्म का बोध देते हुए, जैसे एक दीपक दूसरे दीपक को प्रज्ज्वलित करता है वैसे, शिष्य में ब्रह्मभाव को प्रकटाते हैं । (73)

गुरुप्रादतः स्वात्मन्यात्मारामनिरिक्षणात् ।
समता मुक्तिमर्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते ॥

श्री गुरुदेव की कृपा से अपने भीतर ही आत्मानंद प्राप्त करके समता और मुक्ति के मार्ग द्वार शिष्य आत्मज्ञान को उपलब्ध होता है । (74)

स्फ़टिके स्फ़ाटिकं रूपं दर्पणे दर्पणो यथा ।
तथात्मनि चिदाकारमानन्दं सोऽहमित्युत ॥

जैसे स्फ़टिक मणि में स्फ़टिक मणि तथा दर्पण में दर्पण दिख सकता है उसी प्रकार आत्मा में जो चित् और आनंदमय दिखाई देता है वह मैं हूँ । (75)

अंगुष्ठमात्रं पुरुषं ध्यायेच्च चिन्मयं हृदि ।
तत्र स्फ़ुरति यो भावः श्रुणु तत्कथयामि ते ॥

हृदय में अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाले चैतन्य पुरुष का ध्यान करना चाहिए । वहाँ जो भाव स्फ़ुरित होता है वह मैं तुम्हें कहता हूँ, सुनो । (76)

अजोऽहममरोऽहं च ह्यनादिनिधनोह्यहम् ।
अविकारश्चिदानन्दो ह्यणियान् महतो महान् ॥

मैं अजन्मा हूँ, मैं अमर हूँ, मेरा आदि नहीं है, मेरी मृत्यु नहीं है । मैं निर्विकार हूँ, मैं चिदानन्द हूँ, मैं अणु से भी छोटा हूँ और महान् से भी महान् हूँ । (77)

अपूर्वमपरं नित्यं स्वयं ज्योतिर्निरामयम् ।
विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम् ॥
अगोचरं तथाऽगम्यं नामरूपविवर्जितम् ।

निःशब्दं तु विजानीयात्स्वाभावाद् ब्रह्म पर्वति ॥

हे पर्वती ! ब्रह्म को स्वभाव से ही अपूर्व (जिससे पूर्व कोई नहीं ऐसा), अद्वितीय, नित्य, ज्योतिस्वरूप, निरोग, निर्मल, परम आकाशस्वरूप, अचल, आनन्दस्वरूप, अविनाशी, अगम्य, अगोचर, नाम-रूप से रहित तथा निःशब्द जानना चाहिए । (78, 79)

यथा गन्धस्वभावत्वं कर्पूरकुसुमादिषु ।
शीतोष्णस्वभावत्वं तथा ब्रह्मणि शाश्वतम् ॥

जिस प्रकार कपूर, फ़ूल इत्यादि में गन्धत्व, (अग्नि में) उष्णता और (जल में) शीतलता स्वभाव से ही होते हैं उसी प्रकार ब्रह्म में शश्वतता भी स्वभावसिद्ध है । (80)

यथा निजस्वभावेन कुंडलकटकादयः ।
सुवर्णत्वेन तिष्ठन्ति तथाऽहं ब्रह्म शाश्वतम् ॥

जिस प्रकार कटक, कुण्डल आदि आभूषण स्वभाव से ही सुवर्ण हैं उसी प्रकार मैं स्वभाव से ही शाश्वत ब्रह्म हूँ । (81)

स्वयं तथाविधो भूत्वा स्थातव्यं यत्रकुत्रचित् ।
कीटो भृंग इव ध्यानात् यथा भवति तादृशः ॥

स्वयं वैसा होकर किसी-न-किसी स्थान में रहना । जैसे कीडा भ्रमर का चिन्तन करते-करते भ्रमर हो जाता है वैसे ही जीव ब्रह्म का धयान करते-करते ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । (82)

गुरोर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् ।
स्थितश्च यत्रकुत्रापि मुक्तोऽसौ नात्र संशयः ॥

सदा गुरुदेव का ध्यान करने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है । वह किसी भी स्थान में रहता हो फ़िर भी मुक्त ही है । इसमें कोई संशय नहीं है । (83)

ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यं यशः श्री समुदाहृतम् ।
षड्गुणैश्वर्ययुक्तो हि भगवान् श्री गुरुः प्रिये ॥

हे प्रिये ! भगवत्स्वरूप श्री गुरुदेव ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, यश, लक्ष्मी और मधुरवाणी, ये छः गुणरूप ऐश्वर्य से संपन्न होते हैं । (84)

गुरुः शिवो गुरुर्देवो गुरुर्बन्धुः शरीरिणाम् ।
गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरन्यन्न विद्यते ॥

मनुष्य के लिए गुरु ही शिव हैं, गुरु ही देव हैं, गुरु ही बांधव हैं गुरु ही आत्मा हैं और गुरु ही जीव हैं । (सचमुच) गुरु के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है । (85)

एकाकी निस्पृहः शान्तः चिंतासूयादिवर्जितः ।
बाल्यभावेन यो भाति ब्रह्मज्ञानी स उच्यते ॥

अकेला, कामनारहित, शांत, चिन्तारहित, ईर्ष्यारहित और बालक की तरह जो शोभता है वह ब्रह्मज्ञानी कहलाता है । (86)

न सुखं वेदशास्त्रेषु न सुखं मंत्रयंत्रके ।
गुरोः प्रसादादन्यत्र सुखं नास्ति महीतले ॥

वेदों और शास्त्रों में सुख नहीं है, मंत्र और यंत्र में सुख नहीं है । इस पृथ्वी पर गुरुदेव के कृपाप्रसाद के सिवा अन्यत्र कहीं भी सुख नहीं है । (87)

चावार्कवैष्णवमते सुखं प्रभाकरे न हि ।
गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम् ॥

गुरुदेव के श्री चरणों में जो वेदान्तनिर्दिष्ट सुख है वह सुख न चावार्क मत में, न वैष्णव मत में और न प्रभाकर (सांखय) मत में है । (88)

न तत्सुखं सुरेन्द्रस्य न सुखं चक्रवर्तिनाम् ।
यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकान्तवासिनः ॥

एकान्तवासी वीतराग मुनि को जो सुख मिलता है वह सुख न इन्द्र को और न चक्रवर्ती राजाओं को मिलता है । (89)

नित्यं ब्रह्मरसं पीत्वा तृप्तो यः परमात्मनि ।
इन्द्रं च मन्यते रंकं नृपाणां तत्र का कथा ॥

हमेशा ब्रह्मरस का पान करके जो परमात्मा में तृप्त हो गया है वह (मुनि) इन्द्र को भी गरीब मानता है तो राजाओं की तो बात ही क्या ? (90)

यतः परमकैवल्यं गुरुमार्गेण वै भवेत् ।
गुरुभक्तिरतिः कार्या सर्वदा मोक्षकांक्षिभिः ॥

मोक्ष की आकांक्षा करनेवालों को गुरुभक्ति खूब करनी चाहिए, क्योंकि गुरुदेव के द्वारा ही परम मोक्ष की प्राप्ति होती है । (91)

एक एवाद्वितीयोऽहं गुरुवाक्येन निश्चितः।
एवमभ्यास्ता नित्यं न सेव्यं वै वनान्तरम् ॥
अभ्यासान्निमिषणैव समाधिमधिगच्छति ।

आजन्मजनितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥

गुरुदेव के वाक्य की सहायता से जिसने ऐसा निश्चय कर लिया है कि मैं एक और अद्वितीय हूँ और उसी अभ्यास में जो रत है उसके लिए अन्य वनवास का सेवन आवश्यक नहीं है, क्योंकि अभ्यास से ही एक क्षण में समाधि लग जाती है और उसी क्षण इस जन्म तक के सब पाप नष्ट हो जाते हैं । (92, 93)

गुरुर्विष्णुः सत्त्वमयो राजसश्चतुराननः ।
तामसो रूद्ररूपेण सृजत्यवति हन्ति च ॥

गुरुदेव ही सत्वगुणी होकर विष्णुरूप से जगत का पालन करते हैं, रजोगुणी होकर ब्रह्मारूप से जगत का सर्जन करते हैं और तमोगुणी होकर शंकर रूप से जगत का संहार करते हैं । (94)

तस्यावलोकनं प्राप्य सर्वसंगविवर्जितः ।
एकाकी निःस्पृहः शान्तः स्थातव्यं तत्प्रसादतः ॥

उनका (गुरुदेव का) दर्शन पाकर, उनके कृपाप्रसाद से सर्व प्रकार की आसक्ति छोड़कर एकाकी, निःस्पृह और शान्त होकर रहना चाहिए । (95)

सर्वज्ञपदमित्याहुर्देही सर्वमयो भुवि ।
सदाऽनन्दः सदा शान्तो रमते यत्र कुत्रचित् ॥

जो जीव इस जगत में सर्वमय, आनंदमय और शान्त होकर सर्वत्र विचरता है उस जीव को सर्वज्ञ कहते हैं । (96)

यत्रैव तिष्ठते सोऽपि स देशः पुण्यभाजनः ।
मुक्तस्य लक्षणं देवी तवाग्रे कथितं मया ॥

ऐसा पुरुष जहाँ रहता है वह स्थान पुण्यतीर्थ है । हे देवी ! तुम्हारे सामने मैंने मुक्त पुरूष का लक्षण कहा । (97)

यद्यप्यधीता निगमाः षडंगा आगमाः प्रिये ।
आध्यामादिनि शास्त्राणि ज्ञानं नास्ति गुरुं विना ॥

हे प्रिये ! मनुष्य चाहे चारों वेद पढ़ ले, वेद के छः अंग पढ़ ले, आध्यात्मशास्त्र आदि अन्य सर्व शास्त्र पढ़ ले फ़िर भी गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता । (98)

शिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा ।
गुरुतत्वविहीनश्चेत्तत्सर्वं व्यर्थमेव हि ॥

शिवजी की पूजा में रत हो या विष्णु की पूजा में रत हो, परन्तु गुरुतत्व के ज्ञान से रहित हो तो वह सब व्यर्थ है । (99)

सर्वं स्यात्सफलं कर्म गुरुदीक्षाप्रभावतः ।
गुरुलाभात्सर्वलाभो गुरुहीनस्तु बालिशः ॥

गुरुदेव की दीक्षा के प्रभाव से सब कर्म सफल होते हैं । गुरुदेव की संप्राप्ति रूपी परम लाभ से अन्य सर्वलाभ मिलते हैं । जिसका गुरु नहीं वह मूर्ख है । (100)

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सर्वसंगविवर्जितः ।
विहाय शास्त्रजालानि गुरुमेव समाश्रयेत् ॥

इसलिए सब प्रकार के प्रयत्न से अनासक्त होकर , शास्त्र की मायाजाल छोड़कर गुरुदेव की ही शरण लेनी चाहिए । (101)

ज्ञानहीनो गुरुत्याज्यो मिथ्यावादी विडंबकः ।
स्वविश्रान्ति न जानाति परशान्तिं करोति किम् ॥

ज्ञानरहित, मिथ्या बोलनेवाले और दिखावट करनेवाले गुरु का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि जो अपनी ही शांति पाना नहीं जानता वह दूसरों को क्या शांति दे सकेगा । (102)

शिलायाः किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे ।
स्वयं तर्तुं न जानाति परं निसतारेयेत्कथम् ॥

पत्थरों के समूह को तैराने का ज्ञान पत्थर में कहाँ से हो सकता है ? जो खुद तैरना नहीं जानता वह दूसरों को क्या तैरायेगा । (103)

न वन्दनीयास्ते कष्टं दर्शनाद् भ्रान्तिकारकः ।
वर्जयेतान् गुरुन् दूरे धीरानेव समाश्रयेत् ॥

जो गुरु अपने दर्शन से (दिखावे से) शिष्य को भ्रान्ति में ड़ालता है ऐसे गुरु को प्रणाम नहीं करना चाहिए । इतना ही नहीं दूर से ही उसका त्याग करना चाहिए । ऐसी स्थिति में धैर्यवान् गुरु का ही आश्रय लेना चाहिए । (104)

पाखण्डिनः पापरता नास्तिका भेदबुद्धयः ।
स्त्रीलम्पटा दुराचाराः कृतघ्ना बकवृतयः ॥
कर्मभ्रष्टाः क्षमानष्टाः निन्द्यतर्कैश्च वादिनः ।
कामिनः क्रोधिनश्चैव हिंस्राश्चंड़ाः शठस्तथा ॥
ज्ञानलुप्ता न कर्तव्या महापापास्तथा प्रिये ।
एभ्यो भिन्नो गुरुः सेव्य एकभक्त्या विचार्य च ॥

भेदबुद्धि उत्तन्न करनेवाले, स्त्रीलम्पट, दुराचारी, नमकहराम, बगुले की तरह ठगनेवाले, क्षमा रहित निन्दनीय तर्कों से वितंडावाद करनेवाले, कामी क्रोधी, हिंसक, उग्र, शठ तथा अज्ञानी और महापापी पुरुष को गुरु नहीं करना चाहिए । ऐसा विचार करके ऊपर दिये लक्षणों से भिन्न लक्षणोंवाले गुरु की एकनिष्ठ भक्ति से सेवा करनी चाहिए । (105, 106, 107 )

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं धर्मसारं मयोदितम् ।
गुरुगीता समं स्तोत्रं नास्ति तत्वं गुरोः परम् ॥

गुरुगीता के समान अन्य कोई स्तोत्र नहीं है । गुरु के समान अन्य कोई तत्व नहीं है । समग्र धर्म का यह सार मैंने कहा है, यह सत्य है, सत्य है और बार-बार सत्य है । (108)

अनेन यद् भवेद् कार्यं तद्वदामि तव प्रिये ।
लोकोपकारकं देवि लौकिकं तु विवर्जयेत् ॥

हे प्रिये ! इस गुरुगीता का पाठ करने से जो कार्य सिद्ध होता है अब वह कहता हूँ । हे देवी ! लोगों के लिए यह उपकारक है । मात्र लौकिक का त्याग करना चाहिए । (109)

लौकिकाद्धर्मतो याति ज्ञानहीनो भवार्णवे ।
ज्ञानभावे च यत्सर्वं कर्म निष्कर्म शाम्यति ॥

जो कोई इसका उपयोग लौकिक कार्य के लिए करेगा वह ज्ञानहीन होकर संसाररूपी सागर में गिरेगा । ज्ञान भाव से जिस कर्म में इसका उपयोग किया जाएगा वह कर्म निष्कर्म में परिणत होकर शांत हो जाएगा । (110)

इमां तु भक्तिभावेन पठेद्वै शृणुयादपि ।
लिखित्वा यत्प्रसादेन तत्सर्वं फलमश्नुते ॥

भक्ति भाव से इस गुरुगीता का पाठ करने से, सुनने से और लिखने से वह (भक्त) सब फल भोगता है । (111)

गुरुगीतामिमां देवि हृदि नित्यं विभावय ।
महाव्याधिगतैदुःखैः सर्वदा प्रजपेन्मुदा ॥

हे देवी ! इस गुरुगीता को नित्य भावपूर्वक हृदय में धारण करो । महाव्याधिवाले दुःखी लोगों को सदा आनंद से इसका जप करना चाहिए । (112)

गुरुगीताक्षरैकैकं मंत्रराजमिदं प्रिये ।
अन्ये च विविधा मंत्राः कलां नार्हन्ति षोड्शीम् ॥

हे प्रिये ! गुरुगीता का एक-एक अक्षर मंत्रराज है । अन्य जो विविध मंत्र हैं वे इसका सोलहवाँ भाग भी नहीं । (113)

अनन्तफलमाप्नोति गुरुगीताजपेन तु ।
सर्वपापहरा देवि सर्वदारिद्रयनाशिनी ॥

हे देवी ! गुरुगीता के जप से अनंत फल मिलता है । गुरुगीता सर्व पाप को हरने वाली और सर्व दारिद्रय का नाश करने वाली है । (114)

अकालमृत्युहंत्री च सर्वसंकटनाशिनी ।
यक्षराक्षसभूतादिचोरव्याघ्रविघातिनी ॥

गुरुगीता अकाल मृत्यु को रोकती है, सब संकटों का नाश करती है, यक्ष राक्षस, भूत, चोर और बाघ आदि का घात करती है । (115)

सर्वोपद्रवकुष्ठदिदुष्टदोषनिवारिणी ।
यत्फलं गुरुसान्निध्यात्तत्फलं पठनाद् भवेत् ॥

गुरुगीता सब प्रकार के उपद्रवों, कुष्ठ और दुष्ट रोगों और दोषों का निवारण करनेवाली है । श्री गुरुदेव के सान्निध्य से जो फल मिलता है वह फल इस गुरुगीता का पाठ करने से मिलता है । (116)

महाव्याधिहरा सर्वविभूतेः सिद्धिदा भवेत् ।
अथवा मोहने वश्ये स्वयमेव जपेत्सदा ॥

इस गुरुगीता का पाठ करने से महाव्याधि दूर होती है, सर्व ऐश्वर्य और सिद्धियों की प्राप्ति होती है । मोहन में अथवा वशीकरण में इसका पाठ स्वयं ही करना चाहिए । (117)

मोहनं सर्वभूतानां बन्धमोक्षकरं परम् ।
देवराज्ञां प्रियकरं राजानं वश्मानयेत् ॥

इस गुरुगीता का पाठ करनेवाले पर सर्व प्राणी मोहित हो जाते हैं बन्धन में से परम मुक्ति मिलती है, देवराज इन्द्र को वह प्रिय होता है और राजा उसके वश होता है । (118)

मुखस्तम्भकरं चैव गुणाणां च विवर्धनम् ।
दुष्कर्मनाश्नं चैव तथा सत्कर्मसिद्धिदम् ॥

इस गुरुगीता का पाठ शत्रु का मुख बन्द करनेवाला है, गुणों की वृद्धि करनेवाला है, दुष्कृत्यों का नाश करनेवाला और सत्कर्म में सिद्धि देनेवाला है । (119)

असिद्धं साधयेत्कार्यं नवग्रहभयापहम् ।
दुःस्वप्ननाशनं चैव सुस्वप्नफलदायकम् ॥

इसका पाठ असाध्य कार्यों की सिद्धि कराता है, नव ग्रहों का भय हरता है, दुःस्वप्न का नाश करता है और सुस्वप्न के फल की प्राप्ति कराता है । (120)

मोहशान्तिकरं चैव बन्धमोक्षकरं परम् ।
स्वरूपज्ञाननिलयं गीतशास्त्रमिदं शिवे ॥

हे शिवे ! यह गुरुगीतारूपी शास्त्र मोह को शान्त करनेवाला, बन्धन में से परम मुक्त करनेवाला और स्वरूपज्ञान का भण्डार है । (121)

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चयम् ।
नित्यं सौभाग्यदं पुण्यं तापत्रयकुलापहम् ॥

व्यक्ति जो-जो अभिलाषा करके इस गुरुगीता का पठन-चिन्तन करता है उसे वह निश्चय ही प्राप्त होता है । यह गुरुगीता नित्य सौभाग्य और पुण्य प्रदान करनेवाली तथा तीनों तापों (आधि-व्याधि-उपाधि) का शमन करनेवाली है । (122)

सर्वशान्तिकरं नित्यं तथा वन्ध्यासुपुत्रदम् ।
अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यस्य विवर्धनम् ॥

यह गुरुगीता सब प्रकार की शांति करनेवाली, वन्ध्या स्त्री को सुपुत्र देनेवाली, सधवा स्त्री के वैध्व्य का निवारण करनेवाली और सौभाग्य की वृद्धि करनेवाली है । (123)

आयुरारोग्मैश्वर्यं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम् ।
निष्कामजापी विधवा पठेन्मोक्षमवाप्नुयात् ॥

यह गुरुगीता आयुष्य, आरोग्य, ऐश्वर्य और पुत्र-पौत्र की वृद्धि करनेवाली है । कोई विधवा निष्काम भाव से इसका जप-पाठ करे तो मोक्ष की प्राप्ति होती है । (124)

अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि ।
सर्वदुःखभयं विघ्नं नाश्येत्तापहारकम् ॥

यदि वह (विधवा) सकाम होकर जप करे तो अगले जन्म में उसको संताप हरनेवाल अवैध्व्य (सौभाग्य) प्राप्त होता है । उसके सब दुःख भय, विघ्न और संताप का नाश होता है । (125)

सर्वपापप्रशमनं धर्मकामार्थमोक्षदम् ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥

इस गुरुगीता का पाठ सब पापों का शमन करता है, धर्म, अर्थ, और मोक्ष की प्राप्ति कराता है । इसके पाठ से जो-जो आकांक्षा की जाती है वह अवश्य सिद्ध होती है । (126)

लिखित्वा पूजयेद्यस्तु मोक्षश्रियम्वाप्नुयात् ।
गुरूभक्तिर्विशेषेण जायते हृदि सर्वदा ॥

यदि कोई इस गुरुगीता को लिखकर उसकी पूजा करे तो उसे लक्ष्मी और मोक्ष की प्राप्ति होती है और विशेष कर उसके हृदय में सर्वदा गुरुभक्ति उत्पन्न होती रहती है । (127)

जपन्ति शाक्ताः सौराश्च गाणपत्याश्च वैष्णवाः ।
शैवाः पाशुपताः सर्वे सत्यं सत्यं न संशयः ॥

शक्ति के, सूर्य के, गणपति के, शिव के और पशुपति के मतवादी इसका (गुरुगीता का) पाठ करते हैं यह सत्य है, सत्य है इसमें कोई संदेह नहीं है । (128)

जपं हीनासनं कुर्वन् हीनकर्माफलप्रदम् ।
गुरुगीतां प्रयाणे वा संग्रामे रिपुसंकटे ॥
जपन् जयमवाप्नोति मरणे मुक्तिदायिका ।
सर्वकमाणि सिद्धयन्ति गुरुपुत्रे न संशयः ॥

बिना आसन किया हुआ जप नीच कर्म हो जाता है और निष्फल हो जाता है । यात्रा में, युद्ध में, शत्रुओं के उपद्रव में गुरुगीता का जप-पाठ करने से विजय मिलता है । मरणकाल में जप करने से मोक्ष मिलता है । गुरुपुत्र के (शिष्य के) सर्व कार्य सिद्ध होते हैं, इसमें संदेह नहीं है । (129, 130)

गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धयन्ति नान्यथा ।
दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्धयन्ति गुरुपुत्रके ॥

जिसके मुख में गुरुमंत्र है उसके सब कार्य सिद्ध होते हैं, दूसरे के नहीं । दीक्षा के कारण शिष्य के सर्व कार्य सिद्ध हो जाते हैं । (131)

भवमूलविनाशाय चाष्टपाशनिवृतये ।
गुरुगीताम्भसि स्नानं तत्वज्ञ कुरुते सदा ॥
सर्वशुद्धः पवित्रोऽसौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति ।
तत्र देवगणाः सर्वे क्षेत्रपीठे चरन्ति च ॥

तत्वज्ञ पुरूष संसारूपी वृक्ष की जड़ नष्ट करने के लिए और आठों प्रकार के बन्धन (संशय, दया, भय, संकोच, निन्दा प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति) की निवृति करने के लिए गुरुगीता रूपी गंगा में सदा स्नान करते रहते हैं । स्वभाव से ही सर्वथा शुद्ध और पवित्र ऐसे वे महापुरूष जहाँ रहते हैं उस तीर्थ में देवता विचरण करते हैं । (132, 133)

आसनस्था शयाना वा गच्छन्तष्तिष्ठन्तोऽपि वा ।
अश्वरूढ़ा गजारूढ़ा सुषुप्ता जाग्रतोऽपि वा ॥
शुचिभूता ज्ञानवन्तो गुरुगीतां जपन्ति ये ।
तेषां दर्शनसंस्पर्शात् पुनर्जन्म न विद्यते ॥

आसन पर बैठे हुए या लेटे हुए, खड़े रहते या चलते हुए, हाथी या घोड़े पर सवार, जाग्रतवस्था में या सुषुप्तावस्था में , जो पवित्र ज्ञानवान् पुरूष इस गुरुगीता का जप-पाठ करते हैं उनके दर्शन और स्पर्श से पुनर्जन्म नहीं होता । (134, 135)

कुशदुर्वासने देवि ह्यासने शुभ्रकम्बले ।
उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः ॥

हे देवी ! कुश और दुर्वा के आसन पर सफ़ेद कम्बल बिछाकर उसके ऊपर बैठकर एकाग्र मन से इसका (गुरुगीता का) जप करना चाहिए (136)

शुक्लं सर्वत्र वै प्रोक्तं वश्ये रक्तासनं प्रिये ।
पद्मासने जपेन्नित्यं शान्तिवश्यकरं परम् ॥

सामन्यतया सफ़ेद आसन उचित है परंतु वशीकरण में लाल आसन आवश्यक है । हे प्रिये ! शांति प्राप्ति के लिए या वशीकरण में नित्य पद्मासन में बैठकर जप करना चाहिए । (137)

वस्त्रासने च दारिद्रयं पाषाणे रोगसंभवः ।
मेदिन्यां दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलम् ॥

कपड़े के आसन पर बैठकर जप करने से दारिद्रय आता है, पत्थर के आसन पर रोग, भूमि पर बैठकर जप करने से दुःख आता है और लकड़ी के आसन पर किये हुए जप निष्फल होते हैं । (138)

कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिः मोक्षश्री व्याघ्रचर्मणि ।
कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कम्बले ॥

काले मृगचर्म और दर्भासन पर बैठकर जप करने से ज्ञानसिद्धि होती है, व्याग्रचर्म पर जप करने से मुक्ति प्राप्त होती है, परन्तु कम्बल के आसन पर सर्व सिद्धि प्राप्त होती है । (139)

आग्नेय्यां कर्षणं चैव वयव्यां शत्रुनाशनम् ।
नैरॄत्यां दर्शनं चैव ईशान्यां ज्ञानमेव च ॥

अग्नि कोण की तरफ मुख करके जप-पाठ करने से आकर्षण, वायव्य कोण की तरफ़ शत्रुओं का नाश, नैरॄत्य कोण की तरफ दर्शन और ईशान कोण की तरफ मुख करके जप-पाठ करने से ज्ञान की प्रप्ति है । (140)

उदंमुखः शान्तिजाप्ये वश्ये पूर्वमुखतथा ।
याम्ये तु मारणं प्रोक्तं पश्चिमे च धनागमः ॥

उत्तर दिशा की ओर मुख करके पाठ करने से शांति, पूर्व दिशा की ओर वशीकरण, दक्षिण दिशा की ओर मारण सिद्ध होता है तथा पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप-पाठ करने से धन प्राप्ति होती है । (141)

॥ इति श्री स्कान्दोत्तरखण्डे उमामहेश्वरसंवादे श्री गुरुगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥

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पहला अध्याय – श्री गुरु गीता | Shri Guru Gita | Shiv Gita Download Free PDF

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पहला अध्याय – श्री गुरु गीता 

Chapter 01

 

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॥ अथ प्रथमोऽध्यायः॥

अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ।
समस्त जगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥

जो ब्रह्म अचिन्त्य, अव्यक्त, तीनों गुणों से रहित (फिर भी देखनेवालों के अज्ञान की उपाधि से) त्रिगुणात्मक और समस्त जगत का अधिष्ठान रूप है ऐसे ब्रह्म को नमस्कार हो । (1)

॥ ऋषयः ऊचुः ॥

सूत सूत महाप्राज्ञ निगमागमपारग ।
गुरुस्वरूपमस्माकं ब्रूहि सर्वमलापहम् ॥

ऋषियों ने कहा : हे महाज्ञानी, हे वेद-वेदांगों के निष्णात ! प्यारे सूत जी ! सर्व पापों का नाश करनेवाले गुरु का स्वरूप हमें सुनाओ । (2)

यस्य श्रवणमात्रेण देही दुःखाद्विमुच्यते ।
येन मार्गेण मुनयः सर्वज्ञत्वं प्रपेदिरे ॥

यत्प्राप्य न पुनर्याति नरः संसारबन्धनम् ।
तथाविधं परं तत्वं वक्तव्यमधुना त्वया ॥

जिसको सुनने मात्र से मनुष्य दुःख से विमुक्त हो जाता है । जिस उपाय से मुनियों ने सर्वज्ञता प्राप्त की है, जिसको प्राप्त करके मनुष्य फ़िर से संसार बन्धन में बँधता नहीं है ऐसे परम तत्व का कथन आप करें । (3, 4)

गुह्यादगुह्यतमं सारं गुरुगीता विशेषतः ।
त्वत्प्रसादाच्च श्रोतव्या तत्सर्वं ब्रूहि सूत नः ॥

जो तत्व परम रहस्यमय एवं श्रेष्ठ सारभूत है और विशेष कर जो गुरुगीता है वह आपकी कृपा से हम सुनना चाहते हैं । प्यारे सूतजी ! वे सब हमें सुनाइये । (5)

इति संप्राथितः सूतो मुनिसंघैर्मुहुर्मुहुः ।
कुतूहलेन महता प्रोवाच मधुरं वचः ॥

इस प्रकार बार-बार प्रर्थना किये जाने पर सूतजी बहुत प्रसन्न होकर मुनियों के समूह से मधुर वचन बोले । (6)

॥ सूत उवाच ॥

श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे श्रद्धया परया मुदा ।
वदामि भवरोगघ्नीं गीता मातृस्वरूपिणीम् ॥

सूतजी ने कहा : हे सर्व मुनियों ! संसाररूपी रोग का नाश करनेवाली, मातृस्वरूपिणी (माता के समान ध्यान रखने वाली) गुरुगीता कहता हूँ । उसको आप अत्यंत श्रद्धा और प्रसन्नता से सुनिये । (7)

पुरा कैलासशिखरे सिद्धगन्धर्वसेविते।
तत्र कल्पलतापुष्पमन्दिरेऽत्यन्तसुन्दरे ॥

व्याघ्राजिने समासिनं शुकादिमुनिवन्दितम् ।
बोधयन्तं परं तत्वं मध्येमुनिगणंक्वचित् ॥

प्रणम्रवदना शश्वन्नमस्कुर्वन्तमादरात् ।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्ना पार्वती परिपृच्छति ॥

प्राचीन काल में सिद्धों और गन्धर्वों के आवास रूप कैलास पर्वत के शिखर पर कल्पवृक्ष के फूलों से बने हुए अत्यंत सुन्दर मंदिर में, मुनियों के बीच व्याघ्रचर्म पर बैठे हुए, शुक आदि मुनियों द्वारा वन्दन किये जानेवाले और परम तत्व का बोध देते हुए भगवान शंकर को बार-बार नमस्कार करते देखकर, अतिशय नम्र मुखवाली पार्वति ने आश्चर्यचकित होकर पूछा । (8, 9, 10)

॥ पार्वत्युवाच ॥

ॐ नमो देव देवेश परात्पर जगदगुरो ।
त्वां नमस्कुर्वते भक्त्या सुरासुरनराः सदा ॥

पार्वती ने कहा: हे ॐकार के अर्थस्वरूप, देवों के देव, श्रेष्ठों के श्रेष्ठ, हे जगदगुरो! आपको प्रणाम हो । देव दानव और मानव सब आपको सदा भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं । (11)

विधिविष्णुमहेन्द्राद्यैर्वन्द्यः खलु सदा भवान् ।
नमस्करोषि कस्मै त्वं नमस्काराश्रयः किलः ॥

आप ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि के नमस्कार के योग्य हैं । ऐसे नमस्कार के आश्रयरूप होने पर भी आप किसको नमस्कार करते हैं । (12)

भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां व्रतनायकम् ।
ब्रूहि मे कृपया शम्भो गुरुमाहात्म्यमुत्तमम् ॥

हे भगवान् ! हे सर्व धर्मों के ज्ञाता ! हे शम्भो ! जो व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ है ऐसा उत्तम गुरु-माहात्म्य कृपा करके मुझे कहें । (13)

इति संप्रार्थितः शश्वन्महादेवो महेश्वरः ।
आनंदभरितः स्वान्ते पार्वतीमिदमब्रवीत् ॥

इस प्रकार (पार्वती देवी द्वारा) बार-बार प्रार्थना किये जाने पर महादेव ने अंतर से खूब प्रसन्न होते हुए पार्वती से इस प्रकार कहा । (14)

॥ महादेव उवाच ॥

न वक्तव्यमिदं देवि रहस्यातिरहस्यकम् ।
न कस्यापि पुरा प्रोक्तं त्वद्भक्त्यर्थं वदामि तत् ॥

श्री महादेव जी ने कहा: हे देवी ! यह तत्व रहस्यों का भी रहस्य है इसलिए कहना उचित नहीं । पहले किसी से भी नहीं कहा । फिर भी तुम्हारी भक्ति देखकर वह रहस्य कहता हूँ । (15)

मम् रूपासि देवि त्वमतस्तत्कथयामि ते ।
लोकोपकारकः प्रश्नो न केनापि कृतः पुरा ॥

हे देवी ! तुम मेरा ही स्वरूप हो इसलिए (यह रहस्य) तुमको कहता हूँ । तुम्हारा यह प्रश्न लोक का कल्याणकारक है । ऐसा प्रश्न पहले कभी किसीने नहीं किया । (16)

यस्य देवे परा भक्ति, यथा देवे तथा गुरौ ।
त्स्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥

जिसको ईश्वर में उत्तम भक्ति होती है, जैसी ईश्वर में वैसी ही भक्ति जिसको गुरु में होती है ऐसे महात्माओं को ही यहाँ कही हुई बात समझ में आयेगी । (17)

यो गुरु स शिवः प्रोक्तो, यः शिवः स गुरुस्मृतः ।
विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो गुरुतल्पगः ॥

जो गुरु हैं वे ही शिव हैं, जो शिव हैं वे ही गुरु हैं । दोनों में जो अन्तर मानता है वह गुरुपत्नीगमन करनेवाले के समान पापी है । (18)

वेद्शास्त्रपुराणानि चेतिहासादिकानि च ।
मंत्रयंत्रविद्यादिनिमोहनोच्चाटनादिकम् ॥

शैवशाक्तागमादिनि ह्यन्ये च बहवो मताः ।
अपभ्रंशाः समस्तानां जीवानां भ्रांतचेतसाम् ॥

जपस्तपोव्रतं तीर्थं यज्ञो दानं तथैव च ।
गुरु तत्वं अविज्ञाय सर्वं व्यर्थं भवेत् प्रिये ॥

हे प्रिये ! वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि मंत्र, यंत्र, मोहन, उच्चाट्न आदि विद्या शैव, शाक्त आगम और अन्य सर्व मत मतान्तर, ये सब बातें गुरुतत्व को जाने बिना भ्रान्त चित्तवाले जीवों को पथभ्रष्ट करनेवाली हैं और जप, तप व्रत तीर्थ, यज्ञ, दान, ये सब व्यर्थ हो जाते हैं । (19, 20, 21)

गुरुबुध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने ।
तल्लभार्थं प्रयत्नस्तु कर्त्तवयशच मनीषिभिः ॥

हे सुमुखी ! आत्मा में गुरु बुद्धि के सिवा अन्य कुछ भी सत्य नहीं है सत्य नहीं है । इसलिये इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिये बुद्धिमानों को प्रयत्न करना चाहिये । (22)

गुरुबुध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने ।
तल्लभार्थं प्रयत्नस्तु कर्त्तवयशच मनीषिभिः ॥

हे सुमुखी ! आत्मा में गुरु बुद्धि के सिवा अन्य कुछ भी सत्य नहीं है सत्य नहीं है । इसलिये इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिये बुद्धिमानों को प्रयत्न करना चाहिये । (22)

गूढाविद्या जगन्माया देहशचाज्ञानसम्भवः ।
विज्ञानं यत्प्रसादेन गुरुशब्देन कथयते ॥

जगत गूढ़ अविद्यात्मक मायारूप है और शरीर अज्ञान से उत्पन्न हुआ है । इनका विश्लेषणात्मक ज्ञान जिनकी कृपा से होता है उस ज्ञान को गुरु कहते हैं ।

देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थंवदामि तत् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात् ॥

जिस गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिये कहता हूँ । (24)

शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः ।
गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम् ॥

श्री गुरुदेव का चरणामृत पापरूपी कीचड़ का सम्यक् शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक् उद्यीपक है और संसारसागर का सम्यक तारक है । (25)

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत् ॥

अज्ञान की जड़ को उखाड़नेवाले, अनेक जन्मों के कर्मों को निवारनेवाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करनेवाले श्रीगुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिये । (26)

स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनम्
भवेदनन्तस्यशिवस्य कीर्तनम् ।
स्वदेशिकस्यैव च नामचिन्तनम्
भवेदनन्तस्यशिवस्य नामचिन्तनम् ॥

अपने गुरुदेव के नाम का कीर्तन अनंत स्वरूप भगवान शिव का ही कीर्तन है । अपने गुरुदेव के नाम का चिंतन अनंत स्वरूप भगवान शिव का ही चिंतन है । (27)

काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम् ।
गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चयः ॥

गुरुदेव का निवासस्थान काशी क्षेत्र है । श्री गुरुदेव का पादोदक गंगाजी है । गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और निश्चय ही साक्षात् तारक ब्रह्म हैं । (28)

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः ।
तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्रदत्तमनस्ततम् ॥

गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है । गुरुदेव का शरीर अक्षय वटवृक्ष है । गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं । वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है । (29)

गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः ।
गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् पुरूषं स्वैरिणी यथा ॥

ब्रह्म श्रीगुरुदेव के मुखारविन्द (वचनामृत) में स्थित है । वह ब्रह्म उनकी कृपा से प्राप्त हो जाता है । इसलिये जिस प्रकार स्वेच्छाचारी स्त्री अपने प्रेमी पुरुष का सदा चिंतन करती है उसी प्रकार सदा गुरुदेव का ध्यान करना चाहिये । (30)

स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्ति पुष्टिवर्धनम् ।
एतत्सर्वं परित्यज्य गुरुमेव समाश्रयेत् ॥

अपने आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रमादि) जाति, कीर्ति (पदप्रतिष्ठा), पालन-पोषण, ये सब छोड़ कर गुरुदेव का ही सम्यक् आश्रय लेना चाहिये । (31)

गुरुवक्त्रे स्थिता विद्या गुरुभक्त्या च लभ्यते ।
त्रैलोक्ये स्फ़ुटवक्तारो देवर्षिपितृमानवाः ॥

विद्या गुरुदेव के मुख में रहती है और वह गुरुदेव की भक्ति से ही प्राप्त होती है । यह बात तीनों लोकों में देव, ॠषि, पितृ और मानवों द्वारा स्पष्ट रूप से कही गई है । (32)

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ॥

‘गु’ शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान) । अज्ञान को नष्ट करनेवाल जो ब्रह्मरूप प्रकाश है वह गुरु है । इसमें कोई संशय नहीं है । (33)

गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत् ।
अन्धकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥

‘गु’ कार अंधकार है और उसको दूर करनेवाल ‘रु’ कार है । अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने के कारण ही गुरु कहलाते हैं । (34)

गुकारश्च गुणातीतो रूपातीतो रुकारकः ।
गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥

‘गु’ कार से गुणातीत कहा जता है, ‘रु’ कार से रूपातीत कहा जता है । गुण और रूप से पर होने के कारण ही गुरु कहलाते हैं । (35)

गुकारः प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासकः ।
रुकारोऽस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रान्तिविमोचकम् ॥

गुरु शब्द का प्रथम अक्षर गु माया आदि गुणों का प्रकाशक है और दूसरा अक्षर रु कार माया की भ्रान्ति से मुक्ति देनेवाला परब्रह्म है । (36)

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् ।
वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ॥

गुरु सर्व श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलवाले हैं और वेदान्त के अर्थ के प्रवक्ता हैं । इसलिये श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिये । (37)

यस्यस्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् ।
सः एव सर्वसम्पत्तिः तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ॥

जिनके स्मरण मात्र से ज्ञान अपने आप प्रकट होने लगता है और वे ही सर्व (शमदमदि) सम्पदारूप हैं । अतः श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिये । (38)

संसारवृक्षमारूढ़ाः पतन्ति नरकार्णवे ।
यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

संसाररूपी वृक्ष पर चढ़े हुए लोग नरकरूपी सागर में गिरते हैं । उन सबका उद्धार करनेवाले श्री गुरुदेव को नमस्कार हो । (39)

एक एव परो बन्धुर्विषमे समुपस्थिते ।
गुरुः सकलधर्मात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

जब विकट परिस्थिति उपस्थित होती है तब वे ही एकमात्र परम बांधव हैं और सब धर्मों के आत्मस्वरूप हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव को नमस्कार हो । (40)

भवारण्यप्रविष्टस्य दिड्मोहभ्रान्तचेतसः ।
येन सन्दर्शितः पन्थाः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

संसार रूपी अरण्य में प्रवेश करने के बाद दिग्मूढ़ की स्थिति में (जब कोई मार्ग नहीं दिखाई देता है), चित्त भ्रमित हो जाता है , उस समय जिसने मार्ग दिखाया उन श्री गुरुदेव को नमस्कार हो । (41)

तापत्रयाग्नितप्तानां अशान्तप्राणीनां भुवि ।
गुरुरेव परा गंगा तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥

इस पृथ्वी पर त्रिविध ताप (आधि-व्याधि-उपाधि) रूपी अग्नी से जलने के कारण अशांत हुए प्राणियों के लिए गुरुदेव ही एकमात्र उत्तम गंगाजी हैं । ऐसे श्री गुरुदेवजी को नमस्कार हो । (42)

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत् ।
गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम् ॥

सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्रीगुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा है । (43)

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।
लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ॥

यदि शिवजी नारज़ हो जायें तो गुरुदेव बचानेवाले हैं, किन्तु यदि गुरुदेव नाराज़ हो जायें तो बचानेवाला कोई नहीं । अतः गुरुदेव को संप्राप्त करके सदा उनकी शरण में रेहना चाहिए । (44)

गुकारं च गुणातीतं रुकारं रुपवर्जितम् ।
गुणातीतमरूपं च यो दद्यात् स गुरुः स्मृतः ॥

गुरु शब्द का गु अक्षर गुणातीत अर्थ का बोधक है और रु अक्षर रूपरहित स्थिति का बोधक है । ये दोनों (गुणातीत और रूपातीत) स्थितियाँ जो देते हैं उनको गुरु कहते हैं । (45)

अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः ।
योऽचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ॥

हे प्रिये ! गुरु ही त्रिनेत्ररहित (दो नेत्र वाले) साक्षात् शिव हैं, दो हाथ वाले भगवान विष्णु हैं और एक मुखवाले ब्रह्माजी हैं । (46)

देवकिन्नरगन्धर्वाः पितृयक्षास्तु तुम्बुरुः ।
मुनयोऽपि न जानन्ति गुरुशुश्रूषणे विधिम् ॥

देव, किन्नर, गंधर्व, पितृ, यक्ष, तुम्बुरु (गंधर्व का एक प्रकार) और मुनि लोग भी गुरुसेवा की विधि नहीं जानते । (47)

तार्किकाश्छान्दसाश्चैव देवज्ञाः कर्मठः प्रिये ।
लौकिकास्ते न जानन्ति गुरुतत्वं निराकुलम् ॥

हे प्रिये ! तार्किक, वैदिक, ज्योतिषि, कर्मकांडी तथा लोकिकजन निर्मल गुरुतत्व को नहीं जानते । (48)

यज्ञिनोऽपि न मुक्ताः स्युः न मुक्ताः योगिनस्तथा ।
तापसा अपि नो मुक्त गुरुतत्वात्पराड्मुखाः ॥

यदि गुरुतत्व से प्राड्मुख हो जाये तो याज्ञिक मुक्ति नहीं पा सकते, योगी मुक्त नहीं हो सकते और तपस्वी भी मुक्त नहीं हो सकते । (49)

न मुक्तास्तु गन्धर्वः पितृयक्षास्तु चारणाः ।
ॠष्यः सिद्धदेवाद्याः गुरुसेवापराड्मुखाः ॥

गुरुसेवा से विमुख गंधर्व, पितृ, यक्ष, चारण, ॠषि, सिद्ध और देवता आदि भी मुक्त नहीं होंगे ।

॥ इति श्री स्कान्दोत्तरखण्डे उमामहेश्वरसंवादे श्री गुरुगीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥

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श्रावण माह माहात्म्य तीसवाँ अध्याय | Chapter -30 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 30 Adhyay

Shravan Maas 30 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य तीसवाँ अध्याय

Chapter -30

 

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श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य के पाठ एवं श्रवण का फल

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे श्रावण मास (Sawan Maas) का कुछ-कुछ माहात्म्य कहा है, इसके सम्पूर्ण माहात्म्य का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता है। मेरी इस कल्याणी प्रिया सती ने दक्ष के यज्ञ में अपना शरीर दग्ध करके पुनः हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। श्रावण मास (Sawan Maas) में व्रत करने के कारण यह मुझे पुनः प्राप्त हुई इसीलिए श्रावण मुझे प्रियकर है। यह मास न अधिक शीतल होता है और ना ही अधिक उष्ण (गर्म) होता है। राजा को चाहिए कि श्रावण मास (Sawan Maas) में श्रौताग्नि से निर्मित श्वेत भस्म से अपने संपूर्ण शरीर को उदधूलित करके जल से आर्द्र भस्म के द्वारा मस्तक, वक्षःस्थल, नाभि, दोनों बाहु, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, कंठ, सर और पीठ – इन बारह स्थानों में त्रिपुण्ड धारण करें।

“मानस्तोके।” मन्त्र से अथवा “सद्योजात।” आदि मन्त्र से अथवा षडाक्षर मन्त्र – ॐ नमः शिवाय – से भस्म के द्वारा शरीर को सुशोभित करें और शरीर में एक सौ आठ रुद्राक्ष धारण करें। कण्ठ में बत्तीस रुद्राक्ष, सर पर बाइस, दोनों कानों में बारह, दोनों हाथों में चौबीस, दोनों भुजाओं में आठ-आठ, ललाट पर एक और शिखा के अग्रभाग में एक रुद्राक्ष धारण करें। इस प्रकार से करके मेरा पूजन कर पंचाक्षर मन्त्र का जप करें।

हे विपेन्द्र ! श्रावण मास (Sawan Maas) में जो ऐसा करता है वह मेरा ही स्वरुप है इसमें संदेह नहीं है। इस मास को मेरा अत्यंत प्रिय जानकर केशव की तथा मेरी पूजा करनी चाहिए। इस मास में मेरी अत्यंत प्रिय तिथि “कृष्णाष्टमी” (भारत के पश्चिमी प्रदेशों में युगादि तिथि के अनुसार मास का नामकरण होता है अतः श्रावण कृष्ण अष्टमी को भाद्रपद अष्टमी समझना चाहिए) पड़ती है, उस दिन भगवान् श्रीहरि देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। हे सनत्कुमार ! यह मैंने आपको संक्षेप में बताया है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं !

सनत्कुमार बोले – हे पार्वतीपते ! आपने श्रावण मास (Sawan Maas) का जो-जो कृत्य कहा, उन्हें सुनकर आनन्दसागर में निमग्न रहने के कारण और उनका वर्णन विस्तृत होने के कारण व्यवस्थित रूप से स्मृति नहीं बन पाई, अतः हे नाथ ! आप क्रम से सबको यथार्थ रूप से बताइए, सावधानी से सुनकर मैं भक्तिपूर्वक उन्हें धारण करूँगा। ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Sawan Maas) की शुभ अनुक्रमणिका को आप सावधान होकर सुनिए। सर्वप्रथम शौनक का प्रश्न, तत्पश्चात सूतजी का उत्तर, श्रोता के गुण, आपके प्रश्न, श्रावण की व्युत्पत्ति, उसकी स्तुति, पुनः हे मुने ! आपका विस्तृत प्रश्न, इसके बाद नामकथन सहित आपके द्वारा की गई मेरी स्तुति, फिर क्रम से उद्देश्यपूर्वक मेरा उत्तर, पुनः आपका विशेष प्रश्न, उसके बाद नक्तव्रत की विधि, रुद्राभिषेक कथन, इसके बाद लक्षपूजा विधि, दीपदान, फिर किसी प्रिय वस्तु का परित्याग, पुनः रुद्राभिषेक करने तथा पंचामृत-ग्रहण करने से प्राप्त होने वाला फल, इसके बाद पृथ्वी पर शयन करने तथा मौनव्रत धारण करने का फल, तत्पश्चात मासोपवास में धारणा-पारणा की विधि, इसके बाद सोमाख्यान में लक्षरुद्रवर्ती विधि, पुनः कोटिलिंग-विधान, इसके बाद “अनौदन” नामक व्रत कहा गया है।

इसी व्रत में हविष्यान्न ग्रहण, पत्तल पर भोजन करना, शाकत्याग, भूमि पर शयन, प्रातःस्नान और दम तथा शम का वर्णन, उसके बाद स्फटिक आदि लिंगों में पूजा, जप का फल, उसके बाद प्रदक्षिणा, नमस्कार, वेदपरायण, पुरुषसूक्त की विधि, उसके बाद ग्रह यज्ञ की विधि, रवि-सोम-मंगल के व्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन, पुनः बुध-गुरु का व्रत, इसके बाद शुक्रवार के दिन जीवन्तिका का व्रत, पुनः शनिवार को नृसिंह-शनि-वायुदेव और अश्वत्थ का पूजन – ये सब कहे गए हैं।

उसके बाद रोटक व्रत का माहात्म्य, औदुम्बर व्रत, स्वर्णगौरी व्रत, दूर्वागणपति व्रत, पंचमी तिथि में नाग व्रत, षष्ठी तिथि में सुपौदन व्रत, इसके बाद शीतला सप्तमी नामक व्रत, देवी का पवित्रारोपण, इसके बाद दुर्गाकुमारी की पूजा, आशा व्रत, उसके बाद दोनों एकादशियों का व्रत, पुनः श्रीहरि का पवित्रारोपण, पुनः त्रयोदशी तिथि को कामदेव की पूजा, उसके बाद शिवजी का पवित्रक धारण, पुनः उपाकर्म, उत्सर्जन तथा श्रवणा कर्म – इसका वर्णन किया गया है।

इसके बाद सर्पबलि, हयग्रीव-जन्मोत्सव, सभादीप, रक्षाबंधन, संकटनाशन व्रत, कृष्णजन्माष्टमी व्रत तथा उसकी कथा, पिठोर नामक व्रत, पोला नामक वृषव्रत,कुशग्रहण, नदियों का रजोधर्म, सिंह संक्रमण में गोप्रसव होने पर उसकी शान्ति, कर्क-सिंह-संक्रमणकाल में तथा श्रावण मास (Sawan Maas) में दान-स्नान-माहात्म्य, माहात्म्य-श्रवण, उसके बाद वाचकपूजा, इसके बाद अगस्त्य अर्घ्यविधि, फिर कर्मों तथा व्रतों के काल का निर्णय बताया गया है। जो श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य का पाठ करता है अथवा इसका श्रवण करता है, वह इस मास में किये गए व्रतों का फल प्राप्त करता है।
हे सनत्कुमार ! आप इस शुभ अनुक्रम को अपने ह्रदय में धारण कीजिए। जो इस अध्याय को तथा श्रावण मास (Sawan Maas) के माहात्म्य को सुनता है वह उस फल को प्राप्त करता है, जो फल सभी व्रतों का होता है। हे विप्रर्षे ! अधिक कहने से क्या लाभ है, श्रावण मास (Sawan Maas)में जो विधान किया गया है, उनमें से किसी एक व्रत का भी करने वाला मुझे प्रिय है।

सूतजी बोले – हे शौनक ! शिवजी के अमृतमय इस उत्तम वचन का अपने कर्णपुट से पान करके सनत्कुमार आनंदित हुए और कृतकृत्य हो गए। श्रावण मास (Sawan Maas) की स्तुति करते हुए तथा ह्रदय में शिवजी का स्मरण करते हुए वे देवर्षिश्रेष्ठ सनत्कुमार शंकर जी से आज्ञा लेकर चले गए। जिस किसी के समक्ष इस अत्यंत श्रेष्ठ रहस्य को प्रकाशित नहीं करना चाहिए। हे प्रभो ! आपकी योग्यता देखकर ही मैंने इसे आपसे कहा है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “अनुक्रमणिकाकथन” नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य उनत्तीसवाँ अध्याय | Chapter -29 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 29 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य उनत्तीसवाँ अध्याय

Chapter -29

 

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श्रावण मास (Sawan Maas) में किये जाने वाले व्रतों का कालनिर्णय

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं पूर्व में कहे गए व्रत कर्मों के समय के विषय में बताऊँगा। हे महामुने ! किस समय कौन-सा कृत्य करना चाहिए, उसे सुनिए। श्रावण मास (Sawan Maas) में कौन-सी तिथि किस विहित काल में ग्रहण के योग्य होती है और उस तिथि में पूजा, जागरण आदि से संबंधित मुख्य समय क्या है? उन-उन व्रतों के वर्णन के समय कुछ व्रतों का समय तो पूर्व के अध्यायों में बता दिया गया है। नक्त-व्रत का समय ही विशेष रूप से उन व्रतों तथा कर्मों में उचित बताया गया है। दिन में उपवास करें तथा रात्रि में भोजन करें, यही प्रधान नियम है। सभी व्रतों का उद्यापन उन-उन व्रतों की तिथियों में ही होना चाहिए, यदि किसी कारण से उन तिथि में उद्यापन असंभव हो तो पंचांग शुद्ध दिन में एक दिन पूर्व अधिवासन करके और दूसरे दिन आदरपूर्वक होम आदि कृत्यों को करें।

धारण-पारण व्रत में तिथि का घटना व बढ़ना कारण नहीं है। श्रावण मास (Sawan Maas)के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि में संकल्प करके उपवास करें, पुनः दूसरे दिन पारण करे, इसके बाद दूसरे दिन उपवास करें। इसी क्रम से करते रहें। व्रती को चाहिए कि वह पारण में हविष्यान्न – मूंग, चावल आदि – ग्रहण करे। एकादशी तिथि में पारण का दिन हो जाने पर तीन दिन निरंतर उपवास करें। रविवार व्रत में पूजा का समय प्रातःकाल ही होना चाहिए। सोमवार के व्रत में पूजा का प्रधान समय सायंकाल कहा गया है. मंगल, बुध तथा गुरु के व्रत में पूजन के लिए मुख्य समय प्रातःकाल है। शुक्रवार के व्रत में पूजन उषाकाल से लेकर सूर्योदय के पूर्व तक हो जाना चाहिए तथा रात्रि में जागरण करना चाहिए। शनिवार के दिन व्रत में नृसिंह का पूजन सायंकाल में करें।

शनि के व्रत में शनि के दान के लिए मध्याह्न मुख्य समय कहा गया है। हनुमान जी के पूजन का समय मध्याह्न है। अश्वत्थ का पूजन प्रातःकाल करना चाहिए। हे वत्स ! रोटक नामक व्रत में यदि सोमवार युक्त प्रतिपदा तिथि हो तो वह प्रतिपदा तीन मुहूर्त से कुछ अधिक होनी चाहिए अन्यथा पूर्वयोगिनी प्रतिपदा ग्रहण करनी चाहिए. औदुम्बरी द्वित्तीया सायंकाल व्यापिनी मानी गई है। यदि दोनों तिथियों में पूर्ववेध हो तो तृतीयासंयुक्त द्वित्तीया ग्रहण करनी चाहिए। स्वर्णगौरी नामक व्रत की तृतीया तिथि चतुर्थीयुक्त होनी चाहिए, गणपति व्रत के लिए तृतीयाविद्ध चतुर्थी तिथि प्रशस्त होती है।

नागों के पूजन में षष्ठीयुक्त पंचमी प्रशस्त होती है। सुपौदन व्रत में सायंकाल सप्तमीयुक्त षष्ठी श्रेष्ठ होती है। शीतला के व्रत में मध्याह्न व्यापिनी सप्तमी ग्रहण करनी चाहिए। देवी के पवित्रारोपण व्रत में रात्रि व्यापिनी अष्टमी तिथि ग्रहण करनी चाहिए। नक्तव्यापिनी कुमारी नवमी प्रशस्त मानी जाती है। इसी प्रकार आशा नामक जो दशमी तिथि है वह भी नक्त व्यापिनी होनी चाहिए। विद्ध एकादशी का त्याग करना चाहिए।

हे मुने ! उसमे वेध के विषय में सुनिए। एकादशी व्रत के लिए अरुणोदय में दशमी का वेध वैष्णवों के लिए तथा सूर्योदय में दशमी का वेध स्मार्तों के लिए निंद्य होता है। रात्रि के अंतिम प्रहार का आधा भाग अरुणोदय होता है। इसी रीति से जो द्वादशी हो, वह पवित्रारोपण में ग्राह्य है। कामदेव के व्रत में त्रयोदशी तिथि रात्रि व्यापिनी होनी चाहिए। उसमे भी द्वितीय याम व्यापिनी त्रयोदशी हो तो वह अति प्रशस्त होती है। शिवजी के पवित्रारोपण व्रत में रात्रि व्यापिनी चतुर्दशी होनी चाहिए, उसमे भी जो चतुर्दशी अर्धरात्रि व्यापिनी होती है, वह अतिश्रेष्ठ होती है।

उपाकर्म तथा उत्सर्जन कृत्य के लिए पूर्णिमा तिथि अथवा श्रवण नक्षत्र होने चाहिए। यदि दूसरे दिन तीन मुहूर्त तक पूर्णिमा हो तो दूसरा दिन ग्रहण करना चाहिए अन्यथा तैत्तिरीय शाखा वालों को और ऋग्वेदियों को पूर्व दिन ही करना चाहिए। तैत्तिरीय यजुर्वेदियों को तीन मुहूर्त पर्यन्त दूसरे दिन पूर्णिमा में श्रवण नक्षत्र हो तब भी पूर्व दिन दोनों कृत्य करने चाहिए।

यदि पूर्णिमा तथा श्रवण दोनों का पूर्व दिन एक मुहूर्त के अनन्तर योग हो और दूसरे दिन दो मुहूर्त के भीतर दोनों समाप्त हो गए हों तब पूर्व दिन ही दोनों कर्म होना चाहिए। यदि हस्त नक्षत्र दोनों दिन अपराह्नकालव्यापी हो तब भी दोनों कृत्य पूर्व दिन ही संपन्न होने चाहिए। श्रवणाकर्म में उपाकर्म प्रयोग के अंत में दीपक का काल माना गया है और सर्व बलि के लिए भी वही काल बताया गया है। पर्व के दिन में अथवा रात्रि में अपने-अपने गृह्यसूत्र के अनुसार जब भी इच्छा हो, इसे करना चाहिए।

इस दीपदान तथा सर्व बलिदान कर्म में अस्तकालव्यापिनी पूर्णिमा प्रशस्त है. हयग्रीव के उत्सव में मध्याह्नव्यापिनी पूर्णिमा प्रशस्त होती है। रक्षाबंधन कर्म में अपराह्नव्यापिनी पूर्णिमा होनी चाहिए। इसी प्रकार संकष्ट चतुर्थी चंद्रोदयव्यापिनी ग्राह्य होनी चाहिए। यदि चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी दोनों दिनों में हो अथवा दोनों दिनों में न हो तो भी चतुर्थी व्रत पूर्व दिन में करना चाहिए क्योंकि तृतीया में चतुर्थी महान पुण्य फल देने वाली होती है। अतः हे वत्स ! व्रतियों को चाहिए कि गणेश जी को प्रसन्न करने वाले इस व्रत को करें।

गणेश चतुर्थी, गौरी चतुर्थी और बहुला चतुर्थी – इन चतुर्थियों के अतिरिक्त अन्य सभी चतुर्थियों के पूजन के लिए पंचमी विद्या कही गई है. कृष्णजन्माष्टमी तिथि निशीथव्यापिनी ग्रहण करनी चाहिए। निर्णय में सर्वत्र तिथि छह प्रकार की मानी जाती है – 1) दोनों दिन पूर्ण व्याप्ति, 2) दोनों दिन केवल अव्याप्ति, 3) अंश से दोनों दिन सम व्याप्ति, 4) अंश से दोनों दिन विषम व्याप्ति, 5) पूर्व दिन संपूर्ण व्याप्ति और दूसरे दिन केवल आंशिक व्याप्ति, पूर्व दिन आंशिक व्याप्ति और 6) दूसरे दिन अव्याप्ति। इन पक्षों में तीन पक्षों में जिस प्रकार संदेह नहीं है, उसे अब सुनिए।

विषम व्याप्ति में अंशव्याप्ति से अधिक व्याप्ति उत्तम होती है। एक दिन तिथि पूर्णा है, वही तिथि दूसरे दिन अपूर्णा कही जाती है। अव्याप्ति तथा अंश से व्याप्ति – इनमें अंशव्याप्ति उत्तम होती है और जब अंशव्याप्ति पूर्ण हो तथा जब अंश से सम हो, वहां संदेह होता है और उसके निर्णय में भेद होता है। कहीं युग्म वाक्य से वार व नक्षत्र के योग से, कहीं प्रधानद्वय योग से और कहीं पारणा योग से। जन्माष्टमी व्रत में संदेह होने पर तीनों पक्षों में परा ग्राह्य होती है। यदि अष्टमी तीन प्रहर के भीतर ही समाप्त हुई हो तो अष्टमी के अंत में पारण हो जाना चाहिए और उसके बाद यदि अष्टमी उषाकाल में समाप्त होती हो तो पारण उसी समय करना चाहिए।

पिठोर नामक व्रत में मध्याह्नव्यापिनी अमावस्या शुभ होती है और वृषभों के पूजन में सायंकाल व्यापिनी अमावस्या शुभ होती है। कुशों के संचय में संगवकाल(यह दिन के पाँच भागों में से दूसरा भाग होता है) – व्यापिनी अमावस्या शुभ कही गई है। सूर्य के कर्क संक्रमण में तीस घड़ी पूर्व का काल पुण्यमय मानते हैं। अगस्त्य के अर्घ्य का काल तो व्रत वर्णन में ही कह दिया गया है. हे वत्स ! मैंने आपसे यह कर्मों के काल का निर्णय कह दिया। जो मनुष्य इस अध्याय को सुनता है अथवा इसका पाठ करता है वह श्रावण मास (Sawan Maas) में किए गए सभी व्रतों का फल प्राप्त करता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “व्रतनिर्णयकाल निर्णय कथन” नामक उन्नत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य अट्ठाईसवाँ अध्याय | Chapter -28 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 28 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य अट्ठाईसवाँ अध्याय

Chapter -28

 

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अगस्त्य जी को अर्घ्य प्रदान की विधि

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! अब मैं अगस्त्य जी को अर्घ्य प्रदान करने की उत्तम विधि का वर्णन करूंगा, जिसे करने से मनुष्य सभी वांछित फल प्राप्त कर लेता है। अगस्त्य के उदय के पूर्व काल का नियम जानना चाहिए। जब समरात्रि अर्थात आठ या दस रात्रि उदय होने में शेष रहे तब सात रात्रि पहले से उदयकाल तक प्रतिदिन अर्घ्य प्रदान करें, उसकी विधि मैं आपसे कहता हूँ। जब से अर्घ्य देना प्रारम्भ करे उस दिन प्रातःकाल श्वेत तिलों से स्नान करके गृहाश्रमी मनुष्य श्वेत माला तथा श्वेत वस्त्र धारण करे और सुवर्ण आदि से निर्मित कुम्भ स्थापित करें, जो छिद्र रहित, पंचरत्न से युक्त, घृतपात्र से समन्वित, अनेक प्रकार के मोदक आदि भक्ष्य पदार्थ तथा फलों से संयुक्त, माला-वस्त्र से विभूषित तथा ऊपर स्थित ताम्र के पूर्णपात्र से सुशोभित हो।

उस पात्र के ऊपर अगस्त्य जी की सुवर्ण-प्रतिमा स्थापित करें जो अंगुष्ठमात्र प्रमाण वाले, पुरुषाकर, चार भुजाओं से युक्त, स्थूल तथा दीर्घ भुजदंडों से सुशोभित, दक्ष्णि दिशा की ओर मुख किए हुए, सुन्दर, शांतभाव संपन्न, जटामंडलधारी, कमण्डलु धारण किए हुए, अनेक शिष्यों से आवृत, हाथों में कुश तथा अक्षत लिए हुए हों, ऐसे लोपामुद्रा सहित मुनि अगस्त्य का आवाहन करें और गंध, पुष्प आदि सोलह उपचारों तथा अनेक प्रकार के नैवेद्यों से उनका पूजन करें। इसके बाद भक्तियुक्त चित्त से उन्हें दही तथा भात की बलि प्रदान करें। इसके बाद अर्घ्य दें जिसकी विधि इस प्रकार है –

सुवर्ण, चाँदी, ताम्र अथवा बाँस के पात्र में नारंगी, खजूर, नारिकेल, कुष्मांड, करेला, केला, अनार, बैंगन, बिजौरा नीबू, अखरोट, पिस्तक, नीलकमल, पद्म, कुश, दूर्वांकुर, अन्य प्रकार के भी उपलब्ध फल तथा पुष्प, नानाविध भक्ष्य पदार्थ, सप्तधान्य, सप्त अंकुर, पंचपल्लव और वस्त्र – इन पदार्थों को रखकर पात्र की विधिवत पूजा करें। पुनः घुटने के बल, सिर झुकाकर उस पात्र को मस्तक से लगाकर नीचे की ओर मुख करके अगस्त्य मुनि का इस प्रकार से ध्यान करें और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सावधान होकर अर्घ्य प्रदान करें – काशपुष्प के समान स्वरुप वाले, अग्नि तथा वायु से प्रादुर्भूत तथा मित्रावरुण के पुत्र हे अगस्त्य ! आपको नमस्कार है। विंध्य की वृद्धि को रोक देने वाले, मेघ के जल का विष हरने वाले, रत्नों के स्वामी तथा लंका में वास करने वाले हे देवर्षे ! आपको नमस्कार है।

जिन्होंने आतापी तथा वातापी का भक्षण किया, लोपामुद्रा के पति, महाबली तथा श्रीमान जो ये अगस्त्य जी हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है। जिनके उदित होने से समस्त पाप, मानसिक तथा शारीरिक रोग और तीनों प्रकार के ताप – आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक – नष्ट हो जाते हैं, उन्हें बार-बार नित्य नमस्कार है। जिन्होंने जल-जंतुओं से परिपूर्ण समुद्र को पूर्वकाल में सूखा दिया था, उन पुत्रसहित, शिष्यसहित तथा भार्या सहित अगस्त्य जी को नमस्कार है. बुद्धिमान द्विजाति “अगस्त्यस्य नद्भयः” (ऋक. १०|६०|६) – इस वेदमंत्र से तथा शूद्र पौराणिक मन्त्र से अगस्त्य जी को अर्घ्य देकर उन्हें प्रणाम करें. इसके बाद लोपामुद्रा को अर्घ्य दें। हे राजपुत्रि ! हे महाभागे ! हे ऋषिपत्नि ! हे सुमुखि ! हे लोपामुद्रे ! आपको नमस्कार है, मेरे अर्घ्य को स्वीकार कीजिए।

इसके बाद अर्घ्य मन्त्र से घृत की आठ हजार अथवा एक सौ आठ आहुति प्रदान करें। इस प्रकार करके अगस्त्य जी को प्रणाम करने के बाद यह कहकर विसर्जन करे – बुद्धि से परे चरित्र वाले हे अगस्त्य ! मैंने सम्यक रूप से आपका पूजन किया है, अतः मेरी इहलौकिक तथा पारलौकिक कार्यसिद्धि को करके आप प्रस्थान कीजिए। इस प्रकार उन अगस्त्य जी को विसर्जित करके वेद-वेदांग के विद्वान्, निर्धन तथा गृहस्थ ब्राह्मण को समस्त पदार्थ अर्पण कर दे और मुख से यह कहें – “सत्कार किए गए अगस्त्य जी ब्राह्मण रूप से स्वीकार करें। अगस्त्य ही ग्रहण करते हैं, अगस्त्य ही देते हैं और दोनों का उद्धार करने वाले भी अगस्त्य ही हैं, अगस्त्य जी को बार-बार नमस्कार है।”

दोनों मन्त्रों का उच्चारण करके दान करें, ब्राह्मण आदि पूर्व विहित वैदिक मन्त्र का उच्चारण करें और शूद्र पौराणिक मन्त्र का उच्चारण करे। उसके बाद सुवर्णमयी सींगवाली, दूध देने वाली, बछड़े सहित, चाँदी के खुरवाली, ताम्र के पीठवाली, अत्यंत सुन्दर, काँसे की दोहनी से युक्त और घंटा तथा वस्त्र से विभूषित श्वेत वर्ण की धेनु प्रदान करें। अगस्त्य मुनि के उदय के सात दिन पूर्व से इस प्रकार अर्घ्य देकर ही सातवें दिन दक्षिणा सहित गौ प्रदान करें।

इस प्रकार इस व्रत को सात वर्ष तक करके निष्काम व्यक्ति पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता और सकाम व्यक्ति चक्रवर्ती राजा होता है तथा रूप व आरोग्य से युक्त रहता है, ब्राह्मण चार वेदों तथा सभी शास्त्रों का विद्वान् हो जाता है क्षत्रिय समुद्रपर्यन्त समस्त पृथ्वी को प्राप्त कर लेता है, वैश्य धान्यसंपदा और गोधन प्राप्त कर लेता है। शूद्रों को अत्यधिक धन, आरोग्य तथा सत्य की प्राप्ति होती है, स्त्रियों को पुत्र उत्पन्न होते हैं, उनका सौभाग्य बढ़ता है तथा घर समृद्धिमय हो जाता है। हे ब्रह्मपुत्र ! विधवाओं का महापुण्य बढ़ता है, कन्या रूपगुणसंपन्न पति प्राप्त करती है और दुःखी मनुष्य रोग से मुक्त हो जाता है।

जिन देशों में मनुष्यों के द्वारा अगस्त्य की पूजा की जाती है, उन देशों में मेघ लोगों की इच्छा के अनुसार वृष्टि करता है, वहाँ प्राकृतिक आपदाएं निर्मूल हो जाती हैं और व्याधियां नष्ट हो जाती हैं। जो कोई भी अगस्त्य जी के इस अर्घ्यदान का पाठ करते हैं अथवा इसे सुनते हैं, वे सर्वश्रेष्ठ मनुष्य पापों से छूट जाते हैं और पृथ्वीलोक में दीर्घकाल तक निवास करके हंसयुक्त विमान से स्वर्ग जाते हैं। जो लोग जीवनपर्यन्त निष्काम भाव से इसे करते हैं वे मुक्ति के भागी होते हैं।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “अगस्त्य अर्घ्यविधि” नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य सत्ताईसवाँ अध्याय | Chapter -27 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 27 Adhyay

Shravan Maas 27 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य सत्ताईसवाँ अध्याय

Chapter -27

 

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कर्क संक्रांति और सिंह संक्रांति में किए जाने वाले कार्य

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Sawan Maas)में कर्क संक्रांति तथा सिंह संक्रांति आने पर उस समय जो कृत्य किए जाते हैं उन्हें भी मैं आपसे कहता हूँ। कर्क संक्रांति तथा सिंह संक्रांति के बीच की अवधि में सभी नदियाँ रजस्वला रहती हैं अतः समुद्रगामिनी नदियों को छोड़कर उन सभी में स्नान नहीं करना चाहिए। कुछ ऋषियों ने यह कहा है कि अगस्त्य के उदयपर्यन्त ही वे रजस्वला रहती हैं। जब तक दक्षिण दिशा के आभूषण स्वरुप अगस्त्य उदित नहीं होते तभी तक वे नदियाँ रजस्वला रहती हैं और अल्प जलवाली कही जाती हैं। जो नदियाँ पृथ्वी पर ग्रीष्म-ऋतू में सूख जाती हैं, वर्षाकाल में जब तक दस दिन न बीत जाएं तब तक उनमे स्नान नहीं करना चाहिए। जिन नदियों की गति स्वतः आठ हजार धनुष तक नहीं हो जाती तब तक वे ‘नदी’ शब्द की संज्ञावली नहीं होती अपितु वे गर्त कही जाती हैं।

कर्क संक्रांति के प्रारम्भ में तीन दिन तक महानदियां रजस्वला रहती हैं, वे स्त्रियों की भाँति चौथे दिन शुद्ध हो जाती हैं। हे मुने ! अब मैं महानदियों को बताऊँगा, आप सावधान होकर सुनिए। गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेनिका, तापी, पयोष्णी – ये छह नदियाँ विंध्य के दक्षिण में कही गई हैं। भागीरथी, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशोका, वितस्ता – ये छह नदियाँ विंध्य के उत्तर में कही गई हैं। ये बारह महानदियां देवर्षिक्षेत्र से उत्पन्न हुई हैं। हे मुने ! देविका, कावेरी, वंजरा, कृष्णा – ये महानदियां कर्क संक्रमण के प्रारम्भ में एक दिन तक रजस्वला रहती हैं, गौतमी नामक नदी कर्क संक्रमण होने पर तीन दिनों तक रजस्वला रहती है।

चंद्रभागा, सती, सिंधु, सरयू, नर्मदा, गंगा, यमुना, प्लक्षजाला, सरस्वती – ये जो नादसंज्ञावाली नदियाँ हैं, वे रजोदोष से युक्त नहीं होती हैं। शोण, सिंधु, हिरण्य, कोकिल, आहित, घर्घर और शतद्रु – ये सात नाद पवित्र कहे गए हैं। धर्मद्रव्यमयी गंगा, पवित्र यमुना तथा सरस्वती – ये नदियाँ गुप्त रजोदोषवाली होती हैं, अतः ये सभी अवस्थाओं में निर्मल रहती हैं. जल का यह रजोदोष नदी तट पर रहने वालों को नहीं होता है। रजोधर्म से दूषित जल भी गंगा जल से पवित्र हो जाता है। प्रसवावस्था वाली बकरियां, गायें, भैंसे व स्त्रियाँ और भूमि पर वृष्टि के प्रारम्भ का जल – ये दस रात व्यतीत होने पर शुद्ध हो जाते हैं. कुएँ तथा बावली के अभाव में अन्य नदियों का जल अमृत होता है। रजोधर्म से दूषित काल में भी ग्रामभोग नदी दोषमय नहीं होती है। दूसरे के द्वारा भरवाए गए जल में रजो दोष नहीं होता है।

उपाकर्म में, उत्सर्ग कृत्य में, प्रातःकाल के स्नान में, विपत्तियों में, सूर्यग्रहणकाल में तथा चंद्रग्रहणकल में रजोदोष नहीं होता है। हे सनत्कुमार ! अब मैं सिंह संक्रांति में गोप्रसव के विषय में कहूँगा। सिंह राशि में सूर्य के सक्रमण होने पर यदि गोप्रसव होता है तब जिसकी गाय प्रसव करती है, उसकी मृत्यु छह महीनों में हो जाती है। मैं इसकी शांति भी बताऊँगा, जिससे सुख प्राप्त होता है। प्रसव करने वाली उस गाय को उसी क्षण ब्राह्मण को दे देना चाहिए। उसके बाद घृत मिश्रित काली सरसों से होम करना चाहिए। इसके बाद व्याहृतियों से घृत में सिक्त तिलों की एक हजार आठ आहुतियां डालनी चाहिए। उपवास रखकर विप्र को प्रयत्नपूर्वक दक्षिणा देनी चाहिए।

सिंह राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर जब गोष्ठ में गौ प्रसव होता है तब कोई अनिष्ट अवश्य होता है अतः उसकी शान्ति के लिए शांतिकर्म अनुष्ठान करना चाहिए। “अस्य वाम” इस सूक्त से तथा “तद्विष्णो:” इस मन्त्र से तिल तथा घृत से एक सौ आठ आहुतियां देनी चाहिए और मृत्युंजय मन्त्र से दस हजार आहुतियां डालनी चाहिए। उसके बाद श्रीसूक्त से अथवा शांतिसूक्त से स्नान करना चाहिए। इस प्रकार किए गए विधान से कभी भी भय नहीं होता है. इसी प्रकार यदि श्रावण मास (Sawan Maas) में घोड़ी दिन में प्रसव करे तो इसके लिए भी शान्ति कर्म करना चाहिए, उसके बाद दोष नष्ट हो जाता है।

हे सनत्कुमार ! अब मैं कर्क संक्रांति में, सिंह संक्रांति में तथा श्रावण मास (Sawan Maas) में किए जाने वाले शुभप्रद दान का वर्णन करूँगा। सूर्य के कर्क राशि में स्थित होने पर घृतधेनु का दान तथा सिंह राशि में स्थित होने पर सुवर्ण सहित छत्र का दान श्रेष्ठ कहा जाता है तथा श्रावण मास (Sawan Maas) में दान अति श्रेष्ठ फल देने वाला कहा गया है। भगवान् श्रीधर की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास (Sawan Maas) में घृत, घृतकुम्भ, घृतधेनु तथा फल विद्वान् ब्राह्मण को प्रदान करने चाहिए। मेरी प्रसन्नता के लिए श्रावण मास (Sawan Maas) में किए गए दान अन्य मासों के दानों की अपेक्षा अधिक अक्षय फल देने वाले होते हैं। बारहों महीनों में इसके समान अन्य मास मुझको प्रिय नहीं है। जब श्रावण मास (Sawan Maas) आने को होता है तब मैं उसकी प्रतीक्षा करता हूँ।

जो मनुष्य इस मास में व्रत करता है वह मुझे परम प्रिय होता है क्योंकि चन्द्रमा ब्राह्मणों के राजा हैं, सूर्य सभी के प्रत्यक्ष देवता हैं – ये दोनों मेरे नेत्र हैं, कर्क तथा सिंह की दोनों संक्रांतियां जिस मास में पड़े उससे बढ़कर किसका माहात्म्य होगा. जो मनुष्य इस श्रावण मास (Sawan Maas) में पूरे महीने प्रातःकाल स्नान करता है, वह बारहों महीने के प्रातः स्नान का फल प्राप्त करता है। यदि मनुष्य श्रावण मास (Sawan Maas) में प्रातः स्नान नहीं करता है तो बारहों महीनो में किये गए उसके स्नान का फल निष्फल हो जाता है।

हे महादेव ! हे दयासिन्धो ! मैं श्रावण मास (Sawan Maas) में उषाकाल में प्रातःस्नान करूँगा, हे प्रभो ! मुझे विघ्न रहित कीजिए। प्रातः स्नान करके शिवजी की पूजा करके श्रावण मास (Sawan Maas) की सत्कथा का प्रतिदिन भक्तिपूर्वक श्रवण करना चाहिए. बुद्धिमान व्यक्ति इस प्रकार से ही मास व्यतीत करता है। अन्य मासों की प्रवृत्ति पूर्णमासी प्रतिपदा से होती है किन्तु इस मास की प्रवृत्ति अमावस्या की प्रतिपदा से होती है. श्रावण मास (Sawan Maas) की कथा के माहात्म्य का वर्णन भला कौन कर सकता है। इस मास में व्रत, स्नान, कथा-श्रवण आदि से जो सात प्रकार की वन्ध्या स्त्री होती है, वह भी सुन्दर पुत्र प्राप्त करती है। विद्या चाहने वाला विद्या प्राप्त करता है, बल की कामना करने वाले को बल मिल जाता है, रोगी आरोग्य प्राप्त कर लेता है, बंधन में पड़ा हुआ व्यक्ति बंधन से छूट जाता है, धन का अभिलाषी धन को पा लेता है, धर्म के प्रति मनुष्य का अनुराग हो जाता है तथा पत्नी की कामना करने वाला उत्तम पत्नी पाता है। 

हे मानद ! अधिक कहने से क्या प्रयोजन, मनुष्य जो-जो चाहता है उस-उस को पा लेता है और मृत्यु के बाद मेरे लोक को पाकर मेरे सान्निध्य में आनंद प्राप्त करता है। कथा सुनाने के बाद वस्त्र, आभूषण आदि से कथा वाचक की विधिवत पूजा करनी चाहिए। जिसने वाचक को संतुष्ट कर दिया उसने मानो मुझ शिव (Lord Shiv) को प्रसन्न कर दिया। श्रावण मास (Sawan Maas) का माहात्म्य सुनकर जो वाचक की पूजा नहीं करता, यमराज उसके कानों को छेदते हैं और वह दूसरे जन्म में बहरा होता है। अतः सामर्थ्यानुसार वाचक की पूजा करनी चाहिए। जो मनुष्य उत्तम भक्ति के साथ इस श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य का पाठ करता है अथवा सुनता है अथवा दूसरों को सुनाता है उसको अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Sawan Maas) माहात्म्य में “नदी-रजोदोष-सिंह-गौप्रसव-सिंहकर्कट-श्रावणस्तुति वाचकपूजाकथन” नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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