सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग | Shrimad Bhagwat Gita Download Free PDF

Shraddhatray Vibhaga Yoga

सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग

Chapter 17 Shraddhatray Vibhaga Yoga

 

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सत्रहवाँ अध्याय का माहात्म्य

Chapter 17 Mahatmya

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया गया। अब सत्रहवें अध्याय की अनन्त महिमा श्रवण करो। राजा खड्गबाहू के पुत्र का दुःशासन नाम का एक नौकर था। वह बहुत खोटी बुद्धि का मनुष्य था। एक बार वह माण्डलीक राजकुमारों के साथ बहुत धन बाजी लगाकर हाथी पर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगों के मना करने पर भी वह मूढ हाथी के प्रति जोर-जोर से कठोर शब्द करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोध से अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जाने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ा। दुःशासन को गिरकर कुछ-कुछ उच्छवास लेते देख काल के समान निरंकुश हाथी ने क्रोध से भरकर उसे ऊपर फेंक दिया। ऊपर से गिरते ही उसके प्राण निकल गये। इस प्रकार कालवश मृत्यु को प्राप्त होने के बाद उसे हाथी की योनि मिली और सिंहलद्वीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया।

सिंहलद्वीप के राजा की महाराज खड्गबाहु से बड़ी मैत्री थी, अतः उन्होंने जल के मार्ग से उस हाथी को मित्र की प्रसन्नता के लिए भेज दिया। एक दिन राजा ने श्लोक की सम्सयापूर्ति से संतुष्ट होकर किसी कवि को पुरस्काररूप में वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ स्वर्णमुद्राएँ लेकर मालवनरेश के हाथ बेच दिया। कुछ काल व्यतीत होने पर वह हाथी यत्नपूर्वक पालित होने पर भी असाध्य ज्वर से ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया। हाथीवानों ने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्था में देखा तो राजा के पास जाकर हाथी के हित के लिए शीघ्र ही सारा हाल कह सुनायाः “महाराज ! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है। उसका खाना, पीना और सोना सब छूट गाया है। हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है।”

हाथीवानों का बताया हुआ समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग को पहचान वाले चिकित्साकुशल मंत्रियों के साथ उस स्थान पर पदार्पण किया, जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था। राजा को देखते ही उसने ज्वरजनित वेदना को भूलकर संसार को आश्चर्य में डालने वाली वाणी में कहाः ‘सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, राजनीति के समुद्र, शत्रु-समुदाय को परास्त करने वाले तथा भगवान विष्णु के चरणों में अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन औषधियों से क्या लेना है? वैद्यों से भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है, दान ओर जप स भी क्या सिद्ध होगा? आप कृपा करके गीता के सत्रहवें अध्याय का पाठ करने वाले किसी ब्राह्मण को बुलवाइये।’

हाथी के कथनानुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही किया। तदनन्तर गीता-पाठ करने वाले ब्राह्मण ने जब उत्तम जल को अभिमंत्रित करके उसके ऊपर डाला, तब दुःशासन गजयोनि का परित्याग करके मुक्त हो गया। राजा ने दुःशासन को दिव्य विमान पर आरूढ तथा इन्द्र के समान तेजस्वी देखकर पूछाः ‘पूर्वजन्म में तुम्हारी क्या जाति थी? क्या स्वरूप था? कैसे आचरण थे? और किस कर्म से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बातें मुझे बताओ।’

राजा के इस प्रकार पूछने पर संकट से छूटे हुए दुःशासन ने विमान पर बैठे-ही-बैठे स्थिरता के साथ अपना पूर्वजन्म का उपर्युक्त समाचार यथावत कह सुनाया। तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश ने भी गीता के सत्रहवें अध्याय पाठ करने लगे। इससे थोड़े ही समय में उनकी मुक्ति हो गयी।

।। अथ सप्तदशोऽध्यायः ।। | Chapter 17

।। अर्जुन उवाच ।।

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।1।।

अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! जो शास्त्रविधि छोड़कर (केवल) श्रद्धायुक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी स्थिति कैसी होती है? सात्त्विक, राजसी या तामसी?(1)

॥ श्रीभगवानुवाच ॥

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।2।।

श्री भगवान बोलेः मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी – ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन।

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।3।।

हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है।(3)

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।4।।

सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।(4)

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।5।।
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्धयासुरनिश्चयान्।।6।।

जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त तथा कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। जो शरीररूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को तू आसुर-स्वभाव वाले जान।

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।7।।

भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान बी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझसे सुन।(7)

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्या स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।8।।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय – ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।(8)

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।9।।

कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।(9)

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।10।।

जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है।(10)

अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधििदष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।11।।

जो शास्त्रविधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है – इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है।(11)

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।12।।

परन्तु हे अर्जुन ! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।

विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।13।।

शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।(13)

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शरीरं तप उच्यते।।14।।

देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा – शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।(14)

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ् मयं तप उच्यते।।15।।

जो उद्वेग ने करने वाला, प्रिय और हितकारक व यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।(15)

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।16।।

मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवद् चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों को भली भाँति पवित्रता – इस प्रकार यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।(16)

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17।।

फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।(17)

सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।18।।

जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है।(18)

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तमसमुदाहृतम्।।19।।

जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है वह तप तामस कहा गया है।(19)

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।20।।

दान देना ही कर्तव्य है – ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।(20)

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।21।।

किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।(21)

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।22।।

जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।(22)

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।23।।

ॐ, तत्, सत्, – ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा हैः उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये।(23)

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।24।।

इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती है।

तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतपः क्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभिः।।25।।

तत् अर्थात् ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है – इस भाव से फल को न चाह कर नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छावाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।(25)

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।26।।

‘सत्’ – इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्म में भी ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।(26)

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।27।।

तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् – ऐसे कहा जाता है।(27)

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।28।।

हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान व तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है – वह समस्त ‘असत्’ – इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।(28)

ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ।।17।।

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।

Sampuran Bhagwat Gita

पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग | दूसरा अध्याय – सांख्ययोग | तीसरा अध्याय – कर्मयोग | चौथा अध्याय – ज्ञानकर्मसन्यासयोग | पाँचवाँ अध्याय – कर्मसंन्यासयोग | छठा अध्याय – आत्मसंयमयोग | सातवाँ अध्याय – ज्ञानविज्ञानयोग | आठवाँ अध्याय – अक्षरब्रह्मयोग | नौवाँ अध्याय – राजविद्याराजगुह्ययोग | दसवाँ अध्याय – विभूतियोग | ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोग | बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग | तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग | चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रयविभागयोग | पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तमयोग | सोलहवाँ अध्याय – दैवासुरसंपद्विभागयोग | सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग | अठारहवाँ अध्याय- मोक्षसंन्यासयोग

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