श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा और व्रत कथा | Shri Satyanarayan Vrat Katha

 

।। श्री सत्यनारायण भगवान पूर्णिमा व्रत कथा ।।

Shri Satyanarayan Bhagwan ki Vrat Katha 

 

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श्री सत्यनारायण भगवान पूर्णिमा व्रतकी कथा

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प्रत्येक माह की पूर्णिमा तिथि को सत्यनारायण व्रत रखा जाता है। लेकिन कभी-कभी यह व्रत चतुर्दशी तिथि में भी रखा जाता है। क्योंकि चन्द्रोदय कालिक एवं प्रदोषव्यापिनी पूर्णिमा ही व्रत के लिए ग्रहण करनी चाहिए l सत्यनारायण व्रत में कथा, स्नान-दान आदि का बहुत महत्व माना गया है l इस व्रत में सत्यनारायण भगवान अर्थात विष्णु जी की पूजा की जाती है।  सारा दिन व्रत रखकर संध्या समय में पूजा तथा कथा की जाती है l

 

श्री सत्यनारायण व्रत की सूची

संवत 2081 | सन 2024

मास (महीना)

श्री सत्यनारायण व्रत | पूर्णिमा व्रत 

पूर्णिमा 

(स्नान, दान आदि के लिए)

पौष मास

25 जनवरी 2024

25 जनवरी 2024

माघ मास

23 फरवरी 2024

24 फरवरी 2024

फाल्गुन मास

24 मार्च 2024

25 मार्च 2024

चैत्र मास

23 अप्रैल 2024

23 अप्रैल 2024

वैशाख मास

23 मई 2024

23 मई 2024

ज्येष्ठ मास

21 जून 2024

22 जून 2024

आषाढ़ मास

20 जुलाई 2024

21 जुलाई 2024

श्रावण मास

19 अगस्त 2024

19 अगस्त 2024

भाद्रपद मास

17 सितंबर 2024

18 सितंबर 2024

आश्विन मास

17 अक्टूबर 2024

17 अक्टूबर 2024

कार्तिक मास

15 नवंबर 2024

15 नवंबर 2024

मार्गशीर्ष मास

14 दिसंबर 2024

15 दिसंबर 2024

 

श्री सत्यनारायण व्रत की सूची

संवत 2081 | सन 2025

मास (महीना)

श्री सत्यनारायण व्रत | पूर्णिमा व्रत 

पूर्णिमा 

(स्नान, दान आदि के लिए)

पौष मास

13 जनवरी 2025

13 जनवरी 2025

माघ मास

12 फरवरी 2025

12 फरवरी 2025

फाल्गुन मास

13 मार्च 2025

14 मार्च 2025

बहुत समय पहले नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादिक अट्ठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेत्ता श्री सूतजी से पूछा- हे सूतजी! इस कलियुग में वेद-विद्या-रहित मानवों को ईश्वर भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनिश्रेष्ठ! कोई ऐसा व्रत अथवा तप बताइये जिसके करने से थोड़े ही समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनोवाञ्छित फल भी मिले। ऐसी कथा सुनने की हमारी बहुत इच्छा है।

इस प्रश्न पर शास्त्रों के ज्ञाता श्री सूतजी ने कहा- हे वैष्णवों में पूज्य! आप सभी ने प्राणियों के हित एवम् कल्याण की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा जिसे श्रेष्ठमुनि नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान से पूछा था और श्री लक्ष्मीनारायण भगवान ने मुनिश्रेष्ठ नारद जी को बताया था। आप सभी श्रेष्ठगण यह कथा ध्यान से सुनें-

मुनिनाथ सुनो यह सत्यकथा सब कालहि होय महासुखदायी।

ताप हरे, भव दूर करे, सब काज सरे सुख की अधिकाई॥

अति संकट में दुःख दूर करै सब ठौर कुठौर में होत सहाई।

प्रभु नाम चरित गुणगान किए बिन कैसे महाकलि पाप नसाई॥

मुनिश्रेष्ठ नारद दूसरों के कल्याण हेतु सभी लोकों में घूमते हुए एक समय मृत्युलोक में आ पहुँचे। यहाँ बहुत सी योनियों में जन्मे प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मानुसार अनेक कष्टों से पीड़ित देखकर उन्होंने विचार किया कि किस यत्न् के करने से निश्चय ही प्राणियों के कष्टों का निवारण हो सकेगा। मन में ऐसा विचार कर श्री नारद विष्णुलोक गए।

वहाँ श्‍वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे, को देखकर उनकी स्तुति करने लगे। नारदजी ने कहा- हे भगवन्! आप अत्यन्त शक्तिवान हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं है। आप निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के कष्टों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा शत शत नमन है।

नारदजी से इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर विष्णु भगवान बोले- हे योगिराज! आपके मन में क्या है? आपका किस कार्य हेतु यहाँ आगमन हुआ है? निःसंकोच कहें।

तब मुनिश्रेष्ठ नारद मुनि ने कहा- मृत्युलोक में सब मनुष्य, जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों द्वारा अनेक प्रकार के कष्टों के कारण दुःखी हैं। हे स्वामी! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए कि उन मनुष्यों के सब कष्ट थोड़े से ही प्रयत्‍न से किस प्रकार दूर हो सकते हैं।

श्री विष्णु भगवान ने कहा- हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह व्रत मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो, अति पुण्य दान करने वाला, स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनो में दुर्लभ, एक अति उत्तम व्रत है जो आज मैं तुमसे कहता हूँ। श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न करने पर मनुष्य इस धरती पर सभी प्रकार के सुख भोगकर, मरणोपरान्त मोक्ष को प्राप्त होता है। श्री विष्णु भगवान के ऐसे वचन सुनकर नारद मुनि बोले- हे भगवन्! उस व्रत का विधान क्या है? फल क्या है? इससे पूर्व किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिये? कृपया मुझे विस्तार से समझाएं।

श्री विष्णु भगवान ने कहा- हे नारद! दुःख-शोक एवम् सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजय दिलाने वाला है। श्रद्धा और भक्ति के साथ किसी भी दिन, मनुष्य सन्ध्या के समय श्री सत्यनारायण भगवान की ब्राह्मणों और बन्धुओं के साथ पूजा करे। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, नैवेद्य, घी, शहद, शक्कर अथवा गुड़, दूध और गेहूँ का आटा सवाया लेवे (गेहूँ के अभाव में साठी का चूर्ण भी ले सकते हैं)। इन सभी को भक्तिभाव से भगवान श्री सत्यनारायण को अर्पण करे। बन्धु-बान्धवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराए। इसके पश्‍चात् ही स्वयम् भोजन करे। रात्रि में श्री सत्यनारायण भगवान के गीत आदि का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करे। इस तरह जो मनुष्य व्रत करेंगे, उनकी मनोकामनायें अवश्य ही पूर्ण होंगी। विशेषरूप से कलियुग में, मृत्युलोक में यही एक ऐसा उपाय है, जिससे अल्प समय और कम धन में महान पुण्य की प्राप्ति हो सकती है।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय सम्पूर्ण ॥

सूतजी ने कहा- हे ऋषियों! जिन्होंने प्राचीन काल में इस व्रत को किया है, उनका इतिहास मैं आप सब से कहता हूँ- ध्यान से सुनें । अति सुन्दर काशीपुर नगरी में एक अति निर्धन ब्राह्मण वास करता था । वह भूख और प्यास से बेचैन होकर हर समय दुःखी रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान ने उसको दुखी देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर बड़े आदर से पूछा- हे ब्राह्मण! तुम हर समय ही दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण अपनी व्यथा मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। कष्टों से घिरे उस ब्राह्मण ने कहा- मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता हूँ। हे भगवन! यदि आप इससे मुक्ति पाने का कोई उपाय जानते हों तो कृपा कर मुझे बताएं।

वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किए हुए श्री विष्णु भगवान तब बोले- हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनोवाञ्छित फल देने वाले हैं, इसलिए तुम उनका विधिपूर्वक पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है। दरिद्र ब्राह्मण को व्रत का सम्पूर्ण विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धरे श्री सत्यनारायण भगवान अन्तर्ध्यान हो गए।

वृद्ध ब्राह्मण ने जिस व्रत को बतलाया है, मैं उसको अवश्य विधि-विधान सहित करूँगा, ऐसा निश्‍चय कर वह दरिद्र ब्राह्मण घर चला गया। परन्तु उस रात ब्राह्मण को नींद नहीं आई।

अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्‍चय कर भिक्षा माँगने के लिए चल दिया। उस दिन उसको भिक्षा में अधिक धन मिला, जिससे उसने पूजा का सब सामान खरीदा और घर आकर अपने बन्धु-बान्धवों के साथ विधिपूर्वक भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से वह गरीब ब्राह्मण सब कष्टों से छूटकर अति धनवान हो गया। उस समय से वह ब्राह्मण हर मास व्रत करने लगा। सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक करेगा, वह सब कष्टों से छूटकर मोक्ष प्राप्त करेगा। जो भी मनुष्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा, वह सब कष्टों से छूट जाएगा। इस तरह नारदजी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे श्रेष्ठ ब्राहमणों! अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझसे कहें?

तब ऋषियों ने कहा- हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब सुनना चाहते हैं।

मुनियों से ऐसा सुनकर श्री सूतजी ने कहा- हे मुनिगण! जिस-जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है, उन सबकी कथा सुनो। एक समय वह धनी ब्राह्मण बन्धु-बान्धवों के साथ शास्त्र विधि के अनुसार अपने घर पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहा था। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा व्यक्ति वहाँ आया। उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और ब्राह्मण के मकान में चला गया। प्यास से बेचैन लकड़हारे ने विप्र को व्रत करते देखा। वह प्यास को भूल गया। उसने विप्र का अभिनन्दन किया और पूछा- हे ब्राह्मण! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है? कृपा कर मुझे बताएं!

तब उस ब्राह्मण ने कहा- सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवन का व्रत है। इनकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन एवम् ऐश्वर्य का आगमन हुआ है। ब्राह्मण से इस व्रत के बारे में जानकर वह लकड़हारा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। भगवान का चरणामृत लेकर और भोजन करने के पश्चात् वह अपने घर को चला गया।

और फिर अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में सङ्कल्प किया कि आज गाँव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूँगा। मन में ऐसा विचार कर वह लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस दिन उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला। तब वह बूढ़ा लकड़हारा बहुत प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, शहद घी, दूध, दही और गेहूँ का चूर्ण इत्यादि, श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की सभी सामग्री लेकर अपने घर आया। फिर उसने अपने बन्धु-बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान का पूजन एवम् व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन-धान्य से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ठ को चला गया।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण ॥

श्री सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो! अब मैं आगे की एक कथा कहता हूँ। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक महान ज्ञानी राजा था। वह जितेन्द्रिय और सत्यवक्ता था। प्रतिदिन मन्दिरों में जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके दुःख दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान सुन्दर मुख वाली और सती साध्वी थी। एक दिन भद्रशीला नदी के तट पर वे दोनों विधि विधान सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे थे। उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। वह वैश्य नाव को नदी किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया। राजा को व्रत करते हुए देखकर उसने विनम्रतापूर्वक पूछा- हे राजन! यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृपया आप यह मुझे भी समझाइये। महाराज उल्कामुख ने कहा- हे साधु वैश्य! मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्र की प्राप्ति के लिए श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा- हे राजन! मुझे भी इसका सम्पूर्ण विधि विधान बताएं। मैं भी आपके कहे अनुसार इस व्रत को करूँगा। मेरी भी कोई सन्तान नहीं है। मुझे विश्वास है, इस उत्तम व्रत को करने से अवश्य ही मुझे भी सन्तान होगी।

राजा से व्रत के सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य सुखपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी पत्‍नी को सन्तान देने वाले उस व्रत के विषय में सुनाया और प्रण किया कि जब मेरे सन्तान होगी, तब मैं इस व्रत को करूँगा। वैश्य ने यह वचन अपनी पत्‍नी लीलावती से भी कहे। एक दिन उसकी पत्‍नी लीलावती श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसने एक अति सुन्दर कन्या को जन्म दिया। दिनों-दिन वह कन्या इस तरह बढ़्ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम उन्होंने कलावती रखा। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का सङ्कल्प किया था, अब आप उसे पूरा कीजिये। साधु वैश्य ने कहा- हे प्रिय! मैं कलावती के विवाह पर इस व्रत को करूँगा। इस प्रकार अपनी पत्‍नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने विदेश चला गया।

कलावती पितृगृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। लौटने पर साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी वयस्क होती पुत्री को खेलते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता हुई, तब उसने एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाए। दूत साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर कन्चननगर पहुँचा और देख-भालकर वैश्य की कन्या के लिए एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। उस सुयोग्य लड़के के साथ साधू नमक वैश्य ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया। इस पर श्री सत्यनारायण भगवान अत्यन्त क्रोधित हो गए। उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा।

और फिर अपने कार्य में कुशल वह वैश्य अपने दामाद सहित नावों का बेड़ा लेकर व्यापार करने के लिए सागर के समीप स्थित रत्‍नसारपुर नगर में गया। रत्‍नसारपुर पर चन्द्रकेतु नामक राजा राज करता था। दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा चन्द्रकेतु का धन चुराकर भाग रहा था। राजा के दूतों को अपने पीछे तेजी से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वैश्य की नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे और भाग गया। जब दूतों ने उस वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो उन्होंने उन ससुर-दामाद को ही चोर समझा। वे उन ससुर-दामाद दोनों को बाँधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले- आपका धन चुराने वाले ये दो चोर हम पकड़कर लाए हैं, देखकर आज्ञा दें।

तब राजा ने बिना उस वैश्य की बात सुने उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कारावास में डाल दिया गया तथा उनका सारा धन भी छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण उस वैश्य की पत्‍नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुःखी हुईं। उनका सारा धन चोर चुराकर ले गए। मानसिक व शारीरिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुःखी हो भोजन की आस मे कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत विधिपूर्वक करते देखा। उसने कथा सुनी तथा श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से पूछा- हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही, मैं तेरे लिए बहुत चिन्तित थी।

माता के शब्द सुन कलावती बोली- हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है और मेरी भी उस उत्तम व्रत को करने की इच्छा है।

माता ने कन्या के वचन सुनकर सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने बन्धुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन व व्रत किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर लौट आएँ। साथ ही विनती की कि हे प्रभु! अगर हमसे कोई भूल हुई हो तो हम सबका अपराध क्षमा करो। श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से प्रसन्न हो गए। उन्होंने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा – हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो। उनका सब धन जो तुमने अधिग्रहित किया है, लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हारा राज्य, धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए।

और फिर प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने दरबार में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वैश्यों को कैद से मुक्त कर दरबार में ले आयें। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने कोमल वचनों में कहा- हे महानुभावों! तुम्हें अज्ञानतावश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो। इसके बाद राजा ने उनको नये-नये वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना लौटाकर आदर से विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय सम्पूर्ण ॥

सूतजी ने आगे कहा- वैश्य ने यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दण्डी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उसकी परीक्षा लेने हेतु उससे पूछा- हे वैश्य! तेरी नाव में क्या है? अभिमानि वणिक हँसता हुआ बोला- हे दण्डी! आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की कामना है? मेरी नाव में तो बेल के पत्ते भरे हैं।

वैश्य के ऐसे वचन सुनकर दण्डी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान बोले- तुम्हारा वचन सत्य हो! ऐसा कहकर वे वहाँ से चले गए और कुछ दूर जाकर समुद्र के तट पर बैठ गए।

दण्डी महाराज के जाने के पश्‍चात वैश्य ने नित्य-क्रिया से निवृत्त होने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। मूर्च्छा खुलने पर अति शोक करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा- आप शोक न करें। यह दण्डी महाराज का श्राप है, अतः हमें उनकी शरण में ही चलना चाहिये, वही हमारे दुःखों का अन्त करेंगे। दामाद के वचन सुनकर वह वैश्य दण्डी भगवान के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से पश्चाताप करते हुए बोला- मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनके लिए मुझे क्षमा करें। ऐसा कहकर वह शोकातुर हो रोने लगा। तब दण्डी भगवान बोले- हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से ही बार-बार तुझे दुख कष्ट प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है। तब उस वैश्य ने कहा- हे भगवन! आपकी माया को ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जान पाते, तब मैं मुर्ख भला कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइये, मैं अपनी क्षमता अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा कीजिये और मेरी नौका को पहले के समान धन से परिपूर्ण कर दीजिये।

उसके भक्ति से परिपूर्ण वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्ध्यान हो गए। तब ससुर व दामाद दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है। फिर वह विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा। दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर उसकी पत्‍नी को नमस्कार किया और कहा- आपके पति अपने जमाता सहित इस नगर मे समीप आ गए हैं। लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं। दूत का वचन सुनकर साधु की पत्‍नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन पूर्ण किया और अपनी पुत्री से कहा- मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू पूजन पूर्ण कर शीघ्र आ जाना। परन्तु कलावती पूजन एवम् प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शन के लिए चली गई।

पूजन एवम् प्रसाद की अवज्ञा के कारण भगवान सत्यनारायण ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न पाकर रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी। नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देख साधु नामक वैश्य द्रवित हो बोला- हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से अज्ञानतावश जो अपराध हुआ है, उसे क्षमा करें।

उसके ऐसे वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए। आकाशवाणी हुई- हे वैश्य! तेरी पुत्री मेरा प्रसाद छोड़कर आई है, इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह घर जाकर प्रसाद ग्रहण कर लौटे तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा। आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद ग्रहण किया और फिर आकर अपने पति को पूर्व रूप में पाकर वह अति प्रसन्न हुई तथा उसने अपने पति के दर्शन किये। तत्पश्‍चात साधु वैश्य ने वहीं बन्धु-बान्धवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। वह इस लोक के सभी प्रकार के सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुआ।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण ॥

श्री सूतजी बोले- हे ऋषिगण! मैं एक और कथा कहता हूँ, आप सभी ध्यान से सुनो- सदा प्रजा के लिए चिन्तित तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था। उसने भगवान सत्यनारायण का प्रसाद त्यागकर बहुत कष्ट पाया। एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से बन्धु-बान्धवों सहित श्री सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा। परन्तु राजा देखकर भी अभिमान के कारण न तो वहाँ गया और न ही सत्यदेव भगवान को नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद छोड़कर अपने नगर को चला गया। नगर में पहुँचकर उसने देखा कि उसका सारा राज्य नष्ट हो गया है। वह समझ गया कि यह सब भगवान सत्यदेव ने रुष्ट होकर किया है। तब वह वन में वापस आया और ग्वालों के समीप जाकर विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद ग्रहण किया तो सत्यनारायण की कृपा से सब-कुछ पहले जैसा ही हो गया और लम्बे समय तक सुख भोगकर मरणोपरान्त वह मोक्ष को प्राप्त हुआ।

जो मनुष्य इस श्रेष्ठ दुर्लभ व्रत को करेगा, श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की कोई कमी नहीं होगी। निर्धन धनी और बन्दी बन्धनों से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। सन्तानहीन को सन्तान प्राप्त होती है तथा सब इच्छाएँ पूर्ण कर अन्त में वह बैकुण्ठ धाम को जाता है।

अब उनके बारे में भी जानिए, जिन्होंने पहले इस व्रत को किया, अब उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिये।

शतानन्द नामक वृद्ध ब्राह्मण ने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण की भक्ति एवम् सेवा कर बैकुण्ठ प्राप्त किया। उल्कामुख नामक महाराज, राजा दशरथ बने और श्री रङ्गनाथ का पूजन कर मोक्ष को प्राप्त हुए। साधु नाम के वैश्य ने धर्मात्मा व सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर बैकुण्ठ धाम प्राप्त किया। महाराज तुङ्ग्ध्वज स्वयंभू मनु बने? उन्होंने बहुत से लोगों को भगवान की भक्ति में लीन कराकर बैकुण्ठ धाम प्राप्त किया। लकड़हारा अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा बना, जिसने राम के चरणों की सेवा कर अपने सभी जन्मों को सँवार लिया।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा पञ्चम अध्याय सम्पूर्ण ॥

॥ आरती श्री सत्यनारायणजी ॥

जय लक्ष्मीरमणा श्री जय लक्ष्मीरमणा।

सत्यनारायण स्वामी जनपातक हरणा॥

जय लक्ष्मीरमणा।

रत्नजड़ित सिंहासन अद्भुत छवि राजे।

नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजे॥

जय लक्ष्मीरमणा।

प्रगट भये कलि कारण द्विज को दर्श दियो।

बूढ़ो ब्राह्मण बनकर कंचन महल कियो॥

जय लक्ष्मीरमणा।

दुर्बल भील कठारो इन पर कृपा करी।

चन्द्रचूड़ एक राजा जिनकी विपति हरी॥

जय लक्ष्मीरमणा।

वैश्य मनोरथ पायो श्रद्धा तज दीनी।

सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर स्तुति कीनी॥

जय लक्ष्मीरमणा।

भाव भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धर्यो।

श्रद्धा धारण कीनी तिनको काज सर्यो॥

जय लक्ष्मीरमणा।

ग्वाल बाल संग राजा वन में भक्ति करी।

मनवांछित फल दीनो दीनदयाल हरी॥

जय लक्ष्मीरमणा।

चढ़त प्रसाद सवाया कदली फल मेवा।

धूप दीप तुलसी से राजी सत्यदेवा॥

जय लक्ष्मीरमणा।

श्री सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे॥

जय लक्ष्मीरमणा।

 

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।

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दुकान अथवा व्यापार आरंभ करने का मुहूर्त सन 2024-2025

किसी भी कार्य को संपादित करने के लिए सही दिन, सही समय अर्थात शुभ मुहूर्त का चुनाव ही उस कार्य में त्वरित सफलता दिलाता है। वैदिक काल से लेकर आज तक किसी भी कार्य को करने से पहले शुभ मुहूर्त देखने की परंपरा रही है। शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न होता है, ऐसा ऋषि-मुनियों का वचन है तथा यह अनुभवजन्य भी है।

यह स्वाभाविक-सी बात है कि इस अशुभ समय में किया गया कार्य या तो पूर्ण नहीं होगा या विलंब से होगा या व्यवधान के साथ होगा या नहीं भी हो सकता है। परंतु नकारात्मक विचार रखने वाले यह भी कह सकते हैं कि क्या गारंटी है कि शुभ समय में किया गया कार्य पूरा हो ही जाए या उसमें कोई व्यवधान न हो। लेकिन यह सच है कि अशुभ समय के चयन से तो शुभ समय का चयन अच्छा ही होगा, क्योंकि यदि अच्छा मुहूर्त हमारा भाग्य नहीं बदल सकता तो कार्य की सफलता के पथ को सुगम तो बना सकता है।

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए शुभ नक्षत्र | Auspicious Nakshatras for Business or Opening Shop:-

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए नक्षत्र हस्त, चित्रा, रोहिणी, रेवती, उत्तराफाल्गुनी,  उत्तराषाढ़ा,  उत्तराभाद्रपद, पुष्य, अश्विणी, अभिजीत शुभ है।

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए शुभ तिथियां | Auspicious Tithi for Business or Opening Shop:-

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए तिथियां 1, 2, 3, 5, 6, 7, 8 ,10, 11, 12, 13, 15 शुभ है।

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए शुभ वार | Auspicious Day for Business or Opening Shop:-

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए वार सोम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रवि शुभ है।

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए शुभ लग्न | Auspicious Nakshatra for Business or Opening Shop:-

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए लग्न कुंभ लग्न को छोड़कर अन्य लग्नों में शुभ है।

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए शुभ समय | Auspicious Timing for Business or Opening Shop:-

दुकान खोलने अथवा व्यापार आरंभ करने के लिए समय 2, 10, 11 स्थानों में शुभ ग्रह बैठे हों, 3, 6 में पाप ग्रह हों, 8, 12 वां स्थान पाप रहित हो, शुभ दशा भी हो तो दुकान करना शुभ है, चंद्र लग्न में हो तो अत्यंत शुभ है।

दुकान अथवा व्यापार आरंभ करने का मुहूर्त सन् -2024

प्रारंभ काल – तारीखमुहूर्त का समय – घं.मि.
11 जुलाईदोपहर 01:04 के बाद
12 जुलाईसुबह 07:09 के बाद
17 जुलाईसुबह 07:53 से सुबह 10:13 तक
21 जुलाईपूरा दिन
22 जुलाईसुबह 07:33 से सुबह 09:53 तक
दोपहर 12:11 से दोपहर 02:33 तक, अभिजित्
27 जुलाईसुबह 10:25 से दोपहर 12:59 तक (मृत्युबाण परिहार),
दोपहर 12:51 के बाद
28 जुलाईसूर्योदय से सुबह 11:47 तक
31 जुलाईसूर्योदय से दोपहर 02:14 तक, भौमयुति परिहार
01 अगस्तसूर्योदय से सुबह 10:24 तक
09 अगस्तपूरा दिन (केतुयुति परिहार)
14 अगस्तसुबह 10:24 से दोपहर 12:13 तक
23 अगस्तसुबह 11:55 के बाद
24 अगस्तसूर्योदय से शाम 06:05 तक, 
विशेष:- सुबह 10:01 से 02:43 तक, अभिजित्
26 अगस्तदोपहर 03:55 के बाद
28 अगस्तसूर्योदय से दोपहर 01:26 तक, भौमयुति परिहार
31 अगस्तसूर्योदय से शाम 05:38 तक
04 सितंबरपूरा दिन
08 सितंबरसुबह 09:02 से दोपहर 01:44 तक, अभिजित्
14 सितंबरसूर्योदय से सुबह 09:35 तक
03 अक्टूबर दोपहर 01:32 के बाद
07 अक्टूबरसुबह 09:48 के बाद
11 अक्टूबरसूर्योदय से दोपहर 01:39 तक, अभिजित्
12 अक्टूबरसुबह 10:59 के बाद
18 अक्टूबरसूर्योदय से दोपहर 01:26 तक, मृत्युबाण परिहार 
21 अक्टूबरसुबह 06:50 से सुबह 11:11 तक 
24 अक्टूबरपूरा दिन
28 अक्टूबरदोपहर 01:23 के बाद
03 नवंबरपूरा दिन
04 नवंबरसूर्योदय से सुबह 08:03 तक
07 नवंबरसुबह 11:51 के बाद
08 नवंबरसूर्योदय से सुबह 08:27 तक, 
सुबह 10:51 से दोपहर 12:03 तक 
13 नवंबरपूरा दिन
14 नवंबरसूर्योदय से सुबह 09:43 तक, मृत्युबाण परिहार
17 नवंबरपूरा दिन (मृत्युबाण परिहार)
18 नवंबरसुबह 09:05 से 12:50 तक, अभिजित्,  भद्रा परिहार 
21 नवंबरसूर्योदय से दोपहर 03:35 तक, भौमयुति परिहार
25 नवंबरसुबह 08:37 से दोपहर 12:23 तक, अभिजित्, केतुयुति परिहार
27 नवंबरपूरा दिन
28 नवंबरसूर्योदय से सुबह 07:35 तक
05 दिसंबरदोपहर 12:49 के बाद
06 दिसंबरसूर्योदय से सुबह 10:43 तक
11 दिसंबरसुबह 07:35 से सुबह 11:20 तक
सुबह 11:47 से दोपहर 02:26 तक
12 दिसंबरसूर्योदय से सुबह 09:52 तक

दुकान अथवा व्यापार आरंभ करने का मुहूर्त सन् -2025

प्रारंभ काल – तारीखमुहूर्त का समय – घं.मि.
15 जनवरीसूर्योदय से सुबह 10:28 तक
19 जनवरीसूर्योदय से शाम 05:30 तक, केतुयुति परिहार
विशेष:- सुबह 11:33 से दोपहर 01:06 तक, अभिजित्
24 जनवरीसुबह 11:14 से दोपहर 02:41 तक, अभिजित्, मृत्युबाण परिहार
07 फरवरीसूर्योदय से शाम 04:16 तक
विशेष:- सुबह 10:29 से दोपहर 01:46 तक, अभिजित्
15 फरवरीसुबह 09:47 से दोपहर 01:14 तक, अभिजित्, केतुयुति परिहार
20 फरवरीदोपहर 01:30 के बाद
21 फरवरीसुबह 09:23 से दोपहर 12:51 तक, अभिजित्
06 मार्चसुबह 08:32 से दोपहर 12:00 तक, अभिजित् 
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जानिए श्री शनि देव व्रत उद्यापन पूजा विधि – Shani dev vrat udyapan ki puja vidhi

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श्री शनिदेव | शनिवार व्रत उद्यापन पूजन  विधि

शनिदेव उद्यापन  विधिपूर्वक  11, 21, 31, 51 अथवा जितने भी व्रत करने का आपने संकल्प किया था। वह संकल्प पूरा होने के बाद उससे अगले शनिवार को प्रातः स्नान के जल में गंगा जल व काले तिल डालकर

 ” ॐ प्राम प्रीम प्रौम सः शनैश्चराय नमः ।। “

इस बीज मंत्र का जाप करते हुए स्नान करें।

इसके बाद शनि देव के बीज मंत्र का कम से कम 108 बार अथवा अपनी श्रद्धा अनुसार अधिक मंत्रों के द्वारा व महाराज दशरथ कृत शनि स्तोत्र के द्वारा भी शमी की लकड़ीसंकट नाशक सामग्री के साथ यज्ञ करें।

हवन पूर्ण होने के बाद छायापात्र का दान तथा शनि देव से संबंधित सामग्रियों का दान डाकौत को संकल्प करके करें। संकल्प करने की विधि दान वाले स्थान पर दी गयी है।

।। श्री शनि स्तोत्रम ।।

शनि स्तोत्र का प्रतिदिन कम से कम 1 बार पाठ अवश्य करें।

नम: कृष्णाय नीलाय, शिति कण्ठ निभाय च ।

नम: कालाग्नि रूपाय, कृत – अन्ताय च वै नम: ।।1।।

नमो निर्मांस देहाय, दीर्घ श्मश्रु जटाय च ।

नमो विशाल नेत्राय, शुष्क उदर भयाकृते ।। 2।।

नम: पुष्कल गाेत्राय, स्थूल रोम्णे अथ वै नम: ।

नमो दीर्घाय शुष्काय, कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ।। 3।।

नमस्ते कोटराक्षाय, दुर्निरीक्ष्याय वै नम: ।

नमो घोराय रौद्राय, भीषणाय कपालिने ।। 4।।

नमस्ते सर्वभक्षाय, वलीमुख नमोऽस्तु ते ।

सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु, भास्करे अभयदाय च ।। 5।।

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु, संवर्तक नमोऽस्तु ते ।

नमो मन्द गते तुभ्यं, निः त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।। 6।।

तपसा दग्ध-देहाय, नित्यं योग रताय च ।

नमो नित्यं क्षुधार्ताय, अतृप्ताय च वै नम: ।। 7।।

ज्ञान चक्षुः नमस्तेऽस्तु, कश्यप आत्मज-सूनवे ।

तुष्टो ददासि वै राज्यं, रुष्टो हरसि तत्क्षणात्  ।।8।।

देवासुर मनुष्याः च सिद्ध-विद्याधरो रगा: ।

त्वया विलोकिता:, सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ।। 9 ।।

प्रसादम् कुरु मे देव ! वराहो अहम् उपागतः ।

एवं स्तुतः तदा सौरिः ग्रहराजो महाबल: ।। 10 ।।

 

छायापात्र दान

महीने में एक शनिवार के दिन लोहे के कटोरे में सरसों का तेल भरकर उसमें 7 दाने काली साबुत उड़द, 7 दाने काली मिर्च, 1 रुपए का सिक्का डालकर उसमें अपना चेहरा देखते हुए प्रार्थना करें कि मेरे ऊपर शनि ग्रह का जो भी अशुभ प्रभाव है। वह इस तेल में आ जाए। फिर उस कटोरे को सिर से 7 बार उतारकर डाकौत को दे देवें अथवा शनि मंदिर में दान करें।

शनि ग्रह की शांति के लिए दान

शनिवार को अथवा जिस शनिवार को शनि ग्रह का नक्षत्र पड़े उस दिन लोहा, काली साबुत उड़द, सरसों का तेल, काला कपड़ा, काले फूल, जूते, चाकू आदि सामान अपने सिर के ऊपर से 7 बार सीधे तथा 7 बार उल्टी तरफ उतारकर मंदिर में या धर्म स्थान में दान करें। दान करते समय कृपया संकल्प अवश्य करवा लीजिएगा तथा जो दान लेने वाला है। वह समस्त वस्तुओं के ऊपर अपना हाथ रखकर यह यह बोले कि मैं यह दान स्वीकार करता हूं।

सामर्थ्य अनुसार हलवे व काले चने अथवा भण्डारे का वितरण करें |

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Pausha Saphala Ekadashi Vrat Katha | पौष कृष्ण सफला एकादशी व्रत कथा

pausha krishna ekadashi

।। पौष कृष्ण एकादशी व्रत कथा ।।
सफला एकादशी

Pausha Saphala Ekadashi Vrat Katha

 

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सफला एकादशी की कथा सुनने के लिए
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मोक्षदा एकादशी की व्रत कथा को सुनकर अर्जुन ने प्रसन्न होते हुए कहा- “हे कमलनयन! मोक्षदा एकादशी की व्रत कथा सुनकर मैं धन्य हो गया। हे मधुसूदन! अब आप पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की महिमा बताने की कृपा करें। उस एकादशी का क्या नाम है, उस दिन किस देवता की पूजा होती है और उसके व्रत का विधान क्या है? मुझ पर कृपा करते हुए यह सब आप मुझे विस्तारपूर्वक बताएं।

अर्जुन की जिज्ञासा सुन श्रीकृष्ण ने कहा- “हे कुंती पुत्र! तुम्हारे प्रेम के कारण मैं तुम्हारे प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर देता हूं। अब तुम इस एकादशी व्रत का माहात्म्य सुनो- हे पार्थ! इस एकादशी के द्वारा भगवान विष्णु को शीघ्र ही प्रसन्न किया जा सकता है। पौष माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम ‘सफला’ (Saphala) है। इस एकादशी के आराध्य देव नारायण हैं। इस एकादशी के दिन श्रीमन नारायणजी की विधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजा करनी चाहिए। हे पाण्डुनंदन! इसे सत्य जानो कि जिस तरह नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरूड़ ग्रहों में सूर्य-चन्द्र, यज्ञों में अश्वमेध और देवताओं में भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति भगवान श्रीहरि को अति प्रिय हैं। इस एकादशी में नीबू, नारियल, नैवेद्य आदि अर्पण करके भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए। मनुष्य को पांच सहस्र वर्ष तपस्या करने से जिस पुण्य का फल प्राप्त होता है, वही पुण्य श्रद्धापूर्वक रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी का उपवास करने से मिलता है।

हे कुंती पुत्र! अब तुम सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) की कथा ध्यानपूर्वक सुनो-

प्राचीन समय में चम्पावती नगरी में महिष्मान नामक एक राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। उसका सबसे बड़ा लुम्पक नाम का पुत्र महापापी और दुष्ट था

वह हमेशा, पर-स्त्री गमन में तथा वेश्याओं के यहां जाकर अपने पिता का धन व्यय किया करता था। देवता, ब्राह्मण, वैष्णव आदि सुपात्रों की निंदा करके वह अति प्रसन्न होता था। सारी प्रजा उसके कुकर्मों से बहुत दुःखी थी, परंतु युवराज होने के कारण सब चुपचाप उसके अत्याचारों को सहन करने को विवश थे और किसी में भी इतना साहस नहीं था कि कोई राजा से उसकी शिकायत करता, परंतु बुराई अधिक समय तक पर्दे में नहीं रहती। एक दिन राजा महिष्मान को लुम्पक के कुकर्मों का पता चल ही गया। तब राजा अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने लुम्पक को अपने राज्य से निकाल दिया। पिता द्वारा त्यागते ही लुम्पक को और सभी ने भी त्याग दिया। अब वह सोचने लगा कि मैं क्या करूं? कहां जाऊं? अंत में उसने रात्रि को पिता के राज्य में चोरी करने की ठानी।

वह दिन में राज्य से बाहर रहने लगा और रात्रि को अपने पिता की नगरी में जाकर चोरी तथा अन्य बुरे कर्म करने लगा। रात में वह जाकर नगर के निवासियों को मारता तथा कष्ट देता। वन में वह निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर उनका भक्षण किया करता था। किसी-किसी रात जब वह नगर में चोरी आदि करते पकड़ा भी जाता तो राजा के डर से पहरेदार उसे छोड़ देते थे। कहते हैं कि कभी-कभी अनजाने में भी प्राणी ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। ऐसा ही कुछ लुम्पक के साथ भी हुआ। जिस वन में वह रहता था, वह वन भगवान को भी बहुत प्रिय था। उस वन में एक प्राचीन पीपल का वृक्ष था तथा उस वन को सभी लोग देवताओं का क्रीड़ा-स्थल मानते थे। वन में उसी पीपल के वृक्ष के नीचे महापापी लुम्पक रहता था। कुछ दिन बाद पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वस्त्रहीन होने के कारण लुम्पक तेज ठंड से मूर्च्छित हो गया। ठंड के कारण वह रात को सो न सका और उसके हाथ-पैर अकड़ गए। वह रात बड़ी कठिनता से बीती किंतु सूर्य के उदय होने पर भी उसकी मूर्च्छा नहीं टूटी। वह ज्यों-का-त्यों पड़ा रहा।

सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) की दोपहर तक वह पापी मुर्च्छित ही पड़ा रहा। जब सूर्य के तपने से उसे कुछ गर्मी मिली, तब दोपहर में कहीं उसे होश आया और वह अपने स्थान से उठकर किसी प्रकार चलते हुए वन में भोजन की खोज में फिरने लगा। उस दिन वह शिकार करने में असमर्थ था, इसलिए पृथ्वी पर गिरे हुए फलों को लेकर पीपल के वृक्ष के नीचे गया। तब तक भगवान सूर्य अस्ताचल को प्रस्थान कर गए थे। भूखा होने के बाद भी वह उन फलों को न खा सका, क्योंकि कहां तो वह नित्य जीवों को मारकर उनका मांस खाता था और कहां फल। उसे फल खाना तनिक भी अच्छा नहीं लगा, अतः उसने उन फलों को पीपल की जड़ के पास रख दिया और दुःखी होकर बोला – ‘हे ईश्वर! यह फल आपको ही अर्पण हैं। इन फलों से आप ही तृप्त हों। ऐसा कहकर वह रोने लगा और रात को उसे नींद नहीं आई। वह सारी रात रोता रहा। इस प्रकार उस पापी से अनजाने में ही एकादशी का उपवास हो गया। उस महापापी के इस उपवास तथा रात्रि जागरण से भगवान श्रीहरि अत्यंत प्रसन्न हुए और उसके सभी पाप नष्ट हो गए। सुबह होते ही एक दिव्य रथ अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा हुआ आया और उसके सामने खड़ा हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई – ‘हे युवराज! भगवान नारायण के प्रभाव से तेरे सभी पाप नष्ट हो गए हैं, अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर।’

जब यह आकाशवाणी लुम्पक ने सुनी तो वह अत्यंत प्रसन्न होते हुए बोला – ‘हे प्रभु! आपकी जय हो!’ ऐसा कहकर उसने सुंदर वस्त्र धारण किए और फिर अपने पिता के पास गया। पिता के पास पहुंचकर उसने सारी कथा पिता को सुनाई। पुत्र के मुख से सारा वृत्तांत सुनने के बाद पिता ने अपना सारा राज्य तत्क्षण ही पुत्र को सौंप दिया और स्वयं वन में चला गया। अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा। उसकी स्त्री, पुत्र आदि भी श्री विष्णु के परम भक्त बन गए। वृद्धावस्था आने पर वह अपने पुत्र को राज्य सौंपकर भगवान का भजन करने के लिए वन में चला गया और अंत में परम पद को प्राप्त हुए। हे पार्थ! जो मनुष्य श्रद्धा व भक्तिपूर्वक इस सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) का उपवास करते हैं, उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में मुक्ति प्राप्त होती है। हे अर्जुन! जो मनुष्य इस सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) के माहात्म्य को नहीं समझते, उन्हें पूंछ और सींगों से विहीन पशु ही समझना चाहिए। सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) के माहात्म्य को पढ़ने अथवा श्रवण करने से प्राणी को राजसूय यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है।”

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

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Margashirsha Mokshda Ekadashi Vrat Katha| मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी

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Mokshda Ekadshi

।। मार्गशीर्ष मास शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
 मोक्षदा एकादशी

Margashirsha Mokshda Ekadashi Vrat Katha

 

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मोक्षदा एकादशी की कथा सुनने के लिए
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अर्जुन ने उत्पन्ना एकादशी की उत्पत्ति, महिमा, माहात्म्य आदि सुनकर श्रीकृष्ण से कहा– “हे परम पूजनीय भगवान श्रीकृष्ण! हे त्रिलोकीनाथ! आप सभी को सुख व मोक्ष देने वाले हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे प्रभु! आप कृपा करने वाले हैं। मेरी एक जिज्ञासा को शांत कीजिए।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहाहे अर्जुन! जो कुछ भी जानना चाहते हो, निर्भय होकर कहो, मैं अवश्य ही तुम्हारी जिज्ञासा को शांत करूंगा।

हे प्रभु! यह जो आपने मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के विषय में बताया है, उससे मुझे बड़ी ही शांति प्राप्त हुई। अब कृपा करके मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी पड़ती है उसके विषय में भी बताने की कृपा करें। उसका नाम क्या है? उस दिन कौनसे देवता की पूजा की जाती है और उसकी पूजन विधि क्या है? उसका व्रत करने से मनुष्य को क्या फल मिलता है?प्रभु! मेरे इन प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा को दूर कीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।

अर्जुन की जिज्ञासा सुन श्रीकृष्ण बोले– ‘हे अर्जुन! तुमने बहुत ही श्रेष्ठ प्रश्न किया है, इसलिए तुम्हारा यश संसार में फैलेगा। मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी अनेक पापों को नष्ट करने वाली है। संसार में इसे मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी के दिन श्री दामोदर भगवान का धूप, दीप, नैवेद्य आदि से भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए। हे कुंती पुत्र! इस एकादशी व्रत के पुण्य के प्रभाव से नरक में गए हुए माता, पिता, पितरादि को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

इसकी कथा एक पुराण में इस प्रकार है, इसे ध्वानपूर्वक सुनोवैखानस नाम का एक राजा प्राचीन नगर में राज करता था। उसके राज्य में चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण रहते थे। राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन किया करता था। एक रात्रि को स्वप्न में राजा ने अपने पिता को नरक की यातनाएं भोगते देखा, इस प्रकार का स्वप्न देखकर राजा बड़ा ही व्याकुल हुआ। वह बेचैनी से सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगा। सुबह होते ही उसने ब्राह्मणों को बुलाकर उनके समक्ष अपने स्वप्न की बात बताई– ‘हे ब्राह्मणों! रात्रि को स्वप्न में मैंने अपने पिता को नरक की यातनाएं भोगते देखा। उन्होंने मुझसे कहा है कि हे पुत्र! मैं घोर नरक भोग रहा हूँ। मेरी यहां से मुक्ति कराओ। जब से मैंने उनके यह वचन सुने हैं, तब से मुझे चैन नहीं है। मुझे अब राज्य, सुख, ऐश्वर्य, हाथीघोड़े, धन, स्त्री, पुत्र आदि कुछ भी सुखदायक प्रतीत नहीं हो रहे हैं। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? इस दुःख के कारण मेरा शरीर तप रहा है। आप लोग मुझे किसी प्रकार का तप, दान, व्रत आदि बताएं, जिससे मेरे पिता को मुक्ति प्राप्त हो। यदि मैंने अपने पिता को नरक की यातनाओं से मुक्त कराने के प्रयास नहीं किए तो मेरा जीवन निरर्थक है। जिसके पिता नरक की यातनाएं भोग रहे हों, उस व्यक्ति को इस धरती पर सुख भोगने का कोई अधिकार नहीं है। हे ब्राह्मण देवो। मुझे शीघ्र ही इसका कोई उपाय बताने की कृपा करें।

राजा के आंतरिक दुख की पीड़ा को सुनकर ब्राह्मणों ने आपस में विचारविमर्श किया, फिर एकमत होकर बोले– ‘राजन! वर्तमान, भूत और भविष्य के ज्ञाता पर्वत नाम के एक मुनि हैं। वे यहां से अधिक दूर नहीं हैं। आप अपनी यह व्यथा उनसे जाकर कहें, वे अवश्य ही इसका कोई सरल उपाय आपको बता देंगे।

ब्राह्मणों की बात मान राजा मुनि के आश्रम पर गए। आश्रम में अनेक शांतचित्त योगी और मुनि तपस्या कर रहे थे। चारों वेदों के ज्ञाता पर्वत मुनि दूसरे ब्रह्मा के समान बैठे जान पड़ रहे थे। राजा ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया तथा अपना परिचय दिया। पर्वत मुनि ने राजा से कुशलक्षेम पूछी, तब राजा ने बताया– ‘हे मुनिवर! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल हैं, किंतु मेरे समक्ष अकस्मात ही एक ऐसी समस्या आ खड़ी हुई, जिससे मेरा हृदय बड़ा ही अशांत हो रहा है।

फिर राजा ने मुनि को व्यथित हृदय से रात में देखे गए स्वप्न की पूरी बात बताई और फिर दुःखी स्वर में बोला– ‘हे महर्षि! अब आप कृपा कर मेरा मार्ग दर्शन करें कि ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? कैसे मैं अपने पिता को नरक की यातना से मुक्ति दिलाऊं?’

राजा की बात पर्वत मुनि ने गम्भीरतापूर्वक सुनी, फिर नेत्र बंद कर भूत और भविष्य पर विचार करने लगे। कुछ देर गम्भीरतापूर्वक चिंतन करने के बाद उन्होंने कहा– ‘राजन! मैंने अपने योगबल के द्वारा तुम्हारे पिता के सभी कुकर्मों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। उन्होंने पूर्व जन्म में अपनी पत्नियों में भेदभाव किया था। अपनी बड़ी रानी के कहने में आकर उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी को ऋतुदान मांगने पर नहीं दिया था। उसी पाप कर्म के फल से तुम्हारा पिता नरक में गया है।

यह जानकर वैखानस ने याचनाभरे स्वर में कहा– ‘हे ऋषिवर! मेरे पिता के उद्धार का आप कोई उपाय बताने की कृपा करें, किस प्रकार वे इस पाप से मुक्त होंगे?’

इस पर पर्वत मुनि बोले– ‘हे राजन! मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती है, उसे मोक्षदा एकादशी कहते हैं। यह मोक्ष प्रदान करने वाली है। आप इस मोक्षदा एकादशी का व्रत करें और उस व्रत के पुण्य को संकल्प करके अपने पिता को अर्पित कर दें। एकादशी के पुण्य प्रभाव से अवश्य ही आपके पिता की मुक्ति होगी।

पर्वत मुनि के वचनों को सुनकर राजा अपने राज्य को लौट आया और परिवार सहित मोक्षदा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। इस व्रत के पुण्य को राजा ने अपने पिता को अर्पित कर दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा के पिता को सहज ही मुक्ति मिल गई। स्वर्ग को प्रस्थान करते हुए राजा के पिता ने कहा– ‘हे पुत्र! तेरा कल्याण होइतना कहकर राजा के पिता ने स्वर्ग को प्रस्थान किया। हे पाण्डु पुत्र! जो मनुष्य मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का उपवास करते हैं, उनके सभी, पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में वे स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। इस उपवास से उत्तम और मोक्ष प्रदान करने वाला कोई भी दूसरा व्रत नहीं है। इस कथा को सुनने व पढ़ने से अनंत फल प्राप्त होता है। यह उपवास मोक्ष प्रदान करने वाला चिंतामणि के समान है। जिससे उपवास करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। हे अर्जुन! प्रत्येक मनुष्य की प्रबल इच्छा होती है कि वह मोक्ष प्राप्त करे। मोक्ष की इच्छा करने वालों के लिए मोक्षदा एकादशी का यह उपवास अति महत्त्वपूर्ण है। पिता के प्रति पुत्र के दायित्व का इस कथा से श्रेष्ठ दृष्टांत दूसरा कोई नहीं है, अतः भगवान श्रीहरि विष्णु के निमित्त यह उपवास पूर्ण निष्ठा व श्रद्धा से करना चाहिए।

 

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Margashirsha Utpatti Ekadashi Vrat Katha | मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पन्ना एकादशी कथा

utpanna ekadashi vrat katha

Utapti Ekadshi

।। मार्गशीर्ष मास कृष्ण पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
उत्पन्ना एकादशी

Margashirsha Utpatti Ekadashi Vrat Katha

 

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श्री सूतजी बाले- “हे विप्रो! भगवान श्रीकृष्ण ने विधि सहित इस एकादशी माहात्म्य को अर्जुन से कहा था। प्रभु में जिनकी श्रद्धा है वे ही इस व्रत को प्रेमपूर्वक सुनते है और इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त करते हैं। एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूँछा- “हे जनार्दन! एकादशी व्रत की क्या महिमा है? इस व्रत को करने से कौन-सा पुण्य मिलता है। इसकी विधि क्या है? सो आप मुझे बताने की कृपा करें।”

अर्जुन के ये वचन सुन भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- “हे अर्जुन! सर्वप्रथम हेमन्त ऋतु के मार्गशीर्ष माह में कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत करना चाहिए। दशमी की सन्ध्या को दातुन करनी चाहिए और रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिए। एकादशी को प्रातः संकल्प नियम के अनुसार कार्य करना चाहिए। मध्याह्न को संकल्पपूर्वक स्नान करना चाहिए। स्नान से पूर्व शरीर पर मिट्टी का लेप लगाना चाहिए। स्नान के बाद मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाना चाहिए। चन्दन लगाने का मन्त्र इस प्रकार है-

अश्वक्रांते रथक्रांते विष्णुक्रांते वसुंधरे, उद्धृतापि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।
मृत्तिके हर में पाप यन्मया पूर्वक संचितम्, त्वचा हतेन पापेन गच्छामि परमां गतिम्॥

स्नान के उपरान्त धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। रात्रि में दीपदान करना चाहिए। ये सभी सात्विक कर्म भक्तिपूर्वक करने चाहिए। रात में जागरण करते हुए श्रीहरि के नाम का जप करना चाहिए तथा किसी भी प्रकार के भोग-विलास या स्त्री-प्रसंग से सर्वथा दूर रहना चाहिए। हृदय में पवित्र एवं सात्विक विचारों को ही स्थान देना चाहिए। इस दिन श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देनी चाहिए और उनसे अपने पापों की क्षमा माँगनी चाहिए। धार्मिकजनों को शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की दोनों एकादशियों को एक समान समझना चाहिए। इनमें भेद-भाव नहीं करना चाहिए। ऊपर लिखी विधि के अनुसार जो मनुष्य एकादशी का व्रत करते हैं, उनको शंखोद्धार तीर्थ एवं दर्शन करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के पुण्य के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं है। हे अर्जुन! व्यतीपात योग में, संक्रान्ति में तथा सूर्य और चन्द्र ग्रहण में दान देने से और कुरुक्षेत्र में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य मनुष्य को एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है। हे कुन्ती पुत्र! जो फल वेदपाठी ब्राह्मणों को एक हजार गोदान करने से प्राप्त होता है, उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी का व्रत करने से मिलता है। दस श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह एकादशी के पुण्य के दसवें भाग के बराबर होता है। निर्जल व्रत करने का आधा फल एक बार भोजन करने के बराबर होता है, अतः एकादशी का व्रत करने पर ही यज्ञ, दान, तप, आदि मिलते हैं अन्यथा नहीं, अतः एकादशी का व्रत अवश्य ही करना चाहिए। इस एकादशी के व्रत में शंख से जल नहीं पीना चाहिए। मांसाहार तथा अन्य निरामिष आहार का एकादशी के व्रत में सर्वथा निषेध है। एकादशी व्रत का फल हजार यज्ञों से भी ज्यादा है।”

भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुन अर्जुन ने कहा- “हे प्रभु! आपने इस एकादशी व्रत के पुण्यों को अनेक तीर्थों के पुण्य से श्रेष्ठ तथा पवित्र क्यों बतलाया है? कृपा करके यह सब आप विस्तारपूर्वक कहिये।”

श्रीकृष्ण बोले- “हे पार्थ! सतयुग में एक महा भयंकर दैत्य हुआ था, उसका नाम मुर था। उस दैत्य ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें उनके पद से हटा दिया। तब इन्द्र ने भगवान शंकर से प्रार्थना की- ‘हे भोलेनाथ! हम सब देवता, मुर दैत्य के अत्याचारों से दुखी होकर मृत्युलोक में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। राक्षसों के भय से हम बहुत दुख और कष्ट भोग रहे हैं। मैं स्वयं बहुत दुखी और भयभीत हूँ, अन्य देवताओं की तो बात ही क्या है, अतः हे कैलाशपति! कृपा कर आप मुर दैत्य के अत्याचार से बचने का उपाय बतलाइये।’

देवराज की प्रार्थना सुन शंकरजी ने कहा- ‘हे देवेन्द्र! आप भगवान श्रीहरि के पास जाइए। मधु-कैटभ का संहार करने वाले भगवान विष्णु देवताओं को अवश्य ही इस भय से मुक्त करेंगे।’

महादेवजी के आदेशानुसार इन्द्र तथा अन्य देवता क्षीर सागर गए, जहाँ पर भगवान श्रीहरि शेष-शैया पर विराजमान थे।

इन्द्र सहित सभी देवताओं ने भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित होकर उनकी स्तुति की- ‘हे तीनों लोकों के स्वामी! आप स्तुति करने योग्य हैं, हम सभी देवताओं का आपको कोटि-कोटि प्रणाम है। हे दैत्यों के संहारक! हम आपकी शरण में हैं, आप हमारी रक्षा करें। हे त्रिलोकपति! हम सभी देवता दैत्यों के अत्याचारों से भयभीत होकर आपकी शरण में आए हैं। इस समय दैत्यों ने हमें स्वर्ग से निकाल दिया है और हम सभी देवता बड़ी ही दयनीय स्थिति में मृत्युलोक में विचरण कर रहे हैं। अब आप ही हमारे रक्षक हैं! रक्षा कीजिये। हे कैलाशपति! हे जगन्नाथ! हमारी रक्षा करें।’

देवताओं की करुण पुकार सुनकर, भगवान श्रीहरि बाले- ‘हे देवगणो! वह कौन-सा दैत्य है, जिसने देवताओं को जीत लिया है? आप सभी देवगण किसके भय से पृथ्वीलोक में भटक रहे हैं? क्या वह दैत्य इतना बलवान है, जिसने इन्द्र सहित सभी देवताओं को जीत लिया है? तुम निर्भय होकर मुझे सब हाल बताओ।

भगवान विष्णु के इन स्नेहमयी वचनों को सुनकर देवेन्द्र ने कहा- ‘हे प्रभु! प्राचीन काल में ब्रह्मवंश में उत्पन्न हुआ नाड़ी जंगम नाम का एक असुर था, जिसका मुर नामक एक पुत्र है, जो चन्द्रवती नामक नगरी में निवास करता है, जिसने अपने बल से मृत्युलोक और देवलोक को जीत लिया हैं और सब देवताओं को देवलोक से निकालकर, अपने दैत्य कुल के असुरों को इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, चन्द्रमा आदि लोकपाल बना दिया है। वह स्वयं सूर्य बनकर पृथ्वी को तापता है और स्वयं मेघ बनकर जल की वर्षा करता है, अतः आप इस बलशाली भयानक असुर का संहार करके देवताओं की रक्षा करें।’

देवेन्द्र के मुख से ऐसे वचन सुन भगवान विष्णु बोले- ‘हे देवताओं! मैं आपके शत्रु का शीघ्र ही संहार करूँगा। आप सब इसी समय मेरे साथ चन्द्रवती नगरी चलिए।’

देवताओं की पुकार पर भगवान विष्णु तुरन्त ही उनके साथ चल दिए। उधर दैत्यराज मुर ने अपने तेज से जान लिया था कि श्रीविष्णु युद्ध की इच्छा से उसकी राजधानी की तरफ आ रहे हैं, अतः अपने राक्षस योद्धाओं के साथ वह भी युद्ध भूमि में आकर गरजने लगा। देखते-ही-देखते युद्ध शुरू हो गया। युद्ध शुरू होने पर अनगिनत असुर अनेक अस्त्रों-शस्त्रों को धारण कर देवताओं से युद्ध करने लगे, किन्तु देवता तो पहले ही डरे हुए थे, वह अधिक देर तक राक्षसों का सामना न कर सके और भाग खड़े हुए। तब भगवान विष्णु स्वयं युद्ध-भूमि में आ गए। दैत्य पहले से भी ज्यादा जोश में भरकर भगवान विष्णु से युद्ध करने लगे। वे अपने अस्त्र-शस्त्रों से उन पर भयंकर प्रहार करने लगे। दैत्यों के आक्रमण वारों को श्रीविष्णु अपने चक्र और गदा के प्रहारों से नष्ट करने लगे। इस युद्ध में अनेक दैत्य सदा के लिए मृत्यु की गोद में समा गए, किन्तु दैत्यराज मुर भगवान विष्णु के साथ निश्चल भाव से युद्ध करता रहा। उसका तो जैसे अभी बाल भी बांका नहीं हुआ था। वह बिना डरे युद्ध कर रहा था। भगवान विष्णु मुर को मारने के लिए जिन-जिन शस्त्रों का प्रयोग करते, वे सब उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगते। अनेक अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग करने पर भी भगवान विष्णु उससे जीत न सके। तब वे आपस में मल्ल युद्ध करने लगे। भगवान श्रीहरि उस असुर से देवताओं के लिए सहस्र वर्ष तक युद्ध करते रहे, किन्तु उस असुर से न जीत सके। अन्त में भगवान विष्णु शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बदरिकाश्रम स्थित अड़तीस कोस लम्बी एक द्वार वाली हेमवती नाम की एक गुफा में प्रवेश कर गए।

हे अर्जुन! उस गुफा में प्रभु ने शयन किया। भगवान विष्णु के पीछे-पीछे वह दैत्य भी चला आया था। भगवान श्रीहरि को सोता देखकर वह उन्हें मारने को तैयार हो गया। वह सोच रहा था कि मैं आज अपने चिर शत्रु को मारकर हमेशा-हमेशा के लिए निष्कण्टक हो जाऊँगा, परन्तु उसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी, क्योंकि उसी समय भगवान विष्णु की देह से दिव्य वस्त्र धारण किए एक अत्यन्त मोहिनी कन्या उत्पन्न हुई और राक्षस को ललकारकर उससे युद्ध करने लगी।

उस कन्या को देखकर राक्षस को घोर आश्चर्य हुआ और वह सोचने लगा कि यह ऐसी दिव्य कन्या कहाँ से उत्पन्न हुई और फिर वह असुर उस कन्या से लगातार युद्ध करता रहा, कुछ समय बीतने पर उस कन्या ने क्रोध में आकर उस दैत्य के अस्त्र-शस्त्रों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। उसका रथ तोड़ डाला। अब तो उस दैत्य को बड़ा ही क्रोध आया और वह सारी मर्यादाएँ भंग करके उस कन्या से मल्ल युद्ध करने लगा।

उस तेजस्वी कन्या ने उसको धक्का मारकर मुर्च्छित कर दिया और उसकी मूर्च्छा टूटने से पूर्व ही उसका सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया।

सिर काटते ही वह असुर पृथ्वी पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ बाकी बचे असुर अपने राजा का ऐसा दुःखद अन्त देखकर भयभीत होकर पाताल लोक में भाग गए। भगवान विष्णु जब निद्रा से जागे तो उस असुर को मरा देखकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ और वे सोचने लगे कि इस महाबली को किसने मारा है?

तब वह तेजस्वी कन्या श्रीहरि से हाथ जोड़कर बोली- ‘हे जगदीश्वर! यह असुर आपको मारने को उद्यत था, तब मैंने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इस असुर का वध किया है।’

कन्या की बात सुन भगवान बोले- ‘तुमने इस असुर को मारा है, अतः हे कन्या! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसे मारकर तुमने तीनों लोकों के देवताओं के कष्ट को हरा है, इसलिए तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग लो। मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूँगा।’

भगवान की बात सुन कन्या बोली- ‘हे प्रभु! मुझे यह वरदान दीजिये कि जो भी मनुष्य या देव मेरा व्रत करे, उसके सभी पाप नष्ट हो जाएँ और अन्त में उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हो। मेरे व्रत का आधा फल रात्रि को मिले और उसका आधा फल एक समय भोजन करने वाले को मिले। जो श्रद्धालु भक्तिपूर्वक मेरे व्रत को करें, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक को प्राप्त करें। जो मनुष्य मेरे व्रत में दिन तथा रात्रि को एक बार भोजन करे, वह धन-धान्य से भरपूर रहे। कृपा करके मुझे ऐसा वरदान दीजिये।’

भगवान श्रीहरि ने कहा- ‘हे कन्या! ऐसा ही होगा। मेरे और तुम्हारे भक्त एक ही होंगे और अन्त में संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त होकर मेरे लोक को प्राप्त करेंगे। हे कल्याणी! तुम एकादशी को पैदा हुई हो, इसलिए तुम्हारा नाम भी एकादशी हुआ और क्योंकि तुम मेरे अंश से उत्पन्न हुई हो, इसलिए संसार मे तुम उत्पन्ना एकादशी के नाम से जानी जाओगी तथा जो मनुष्य इस दिन व्रत करेंगे, उनके समस्त पाप समूल नष्ट हो जाएँगे। तुम मेरे लिए अब तीज, अष्टमी, नवमी और चौदस से भी अधिक प्रिय हो। तुम्हारे व्रत का फल सब तीर्थों के फल से भी महान होगा। यह मेरा अकाट्य कथन है।’

इतना कहकर, भगवान श्रीहरि उसी स्थान पर अन्तर्धान हो गए।”

श्रीकृष्ण ने कहा- “हे पाण्डु पुत्र! एकादशी के व्रत का फल सभी व्रतों व सभी तीर्थों के फल से महान है। एकादशी व्रत करने वाले मनुष्यों के शत्रुओं का मैं जड़ से नाश कर देता हूँ और व्रत करने वाले को मोक्ष प्रदान करता हूँ। उन मनुष्यों के जीवन के जो भी कष्ट होते हैं। मैं उन्हें भी दूर कर देता हूँ। अर्थात मुझे अत्यन्त प्रिय एकादशी के व्रत को करने वाला प्राणी सभी ओर से निर्भय और सुखी होकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है। हे कुन्ती पुत्र! यह मैंने तुम्हें एकादशी की उत्पत्ति के विषय में बतलाया है। एकादशी व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला और सिद्धि प्रदान करने वाला है। श्रेष्ठ मनुष्यों को दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए। उनमें भेद-भाव करना उचित नहीं है। जो मनुष्य एकादशी माहात्म्य का श्रवण व पठन करेंगे, उन्हें अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होगा। यह मेरा अकाट्य वचन है।”

 

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Kartik Devutthana Ekadashi Vrat Katha कार्तिक शुक्ला देवउठनी एकादशी कथा

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।। कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत कथा ।। देवउठनी एकादशी

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देवउठनी एकादशी की कथा सुनने के लिए
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भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- “हे अर्जुन! तुम मेरे बड़े ही प्रिय सखा हो। हे पार्थ! अब मैं तुम्हें पापों का नाश करने वाली तथा पुण्य और मुक्ति प्रदान करने वाली प्रबोधिनी एकादशी की कथा सुनाता हूँ, श्रद्धापूर्वक श्रवण करो- इस विषय में मैं तुम्हें नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूं। एक समय नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा – ‘हे पिता! प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विधानपूर्वक बताएं।’ ब्रह्माजी ने कहा – ‘हे पुत्र! कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का फल एक सहस्र अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ के फल के बराबर होता है।’ नारदजी ने कहा – ‘हे हिता! एक संध्या को भोजन करने से, रात्रि में भोजन करने तथा पूरे दिन उपवास करने से क्या-क्या फल मिलता है। कृपा कर सविस्तार समझाइए’ ब्रह्माजी ने कहा – ‘हे नारद! एक संध्या को भोजन करने से दो जन्म के तथा पूरे दिन उपवास करने से सात जन्म के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से सहज ही प्राप्त हो जाती है। प्रबोधिनी एकादशी के व्रत के प्रभाव से बड़े-से-बड़ा पाप भी क्षण मात्र में ही नष्ट हो जाता है। पूर्व जन्म के किए हुए अनेक बुरे कर्मों को प्रबोधिनी एकादशी का व्रत क्षण-भर मे नष्ट कर देता है। जो मनुष्य अपने स्वभावानुसार प्रबोधिनी एकादशी का विधानपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें पूर्ण फल प्राप्त होता है। हे पुत्र! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन किंचित मात्र पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है। जो मनुष्य अपने हृदय के अंदर ही ऐसा ध्यान करते हैं कि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करूंगा, उनके सौ जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य प्रबोधिनी एकादशी को रात्रि जागरण करते हैं, उनकी बीती हुई तथा आने वाली दस पीढ़ियां विष्णु लोक में जाकर वास करती हैं और नरक में अनेक कष्टों को भोगते हुए उनके पितृ विष्णुलोक में जाकर सुख भोगते हैं। हे नारद! ब्रह्महत्या आदि विकट पाप भी प्रबोधिनी एकादशी के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं। प्रबोधिनी एकादशी को रात्रि को जागरण करने का फल अश्वमेध आदि यज्ञों के फल से भी ज्यादा होता है । सभी तीर्थों में जाने तथा गौ, स्वर्ण भूमि आदि के दान का फल प्रबोधिनी के रात्रि के जागरण के फल के बराबर होता है। हे पुत्र! इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है, जिसने प्रबोधिनी एकादशी के व्रत द्वारा अपने कुल को पवित्र किया है। संसार में जितने भी तीर्थ हैं तथा जितने भी तीर्थों की आशा की जा सकती है, वह प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने वाले के घर में रहते हैं। प्राणी को सभी कर्मों को त्यागते हुए भगवान श्रीहरि की प्रसन्नता के लिए कार्तिक माह की प्रबोधिनी एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतने वाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु की अत्यंत प्रिय है। इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इस एकादशी व्रत के प्रभाव से कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के पापों का शमन हो जाता है। इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान विष्णु की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ आदि करते हैं, उन्हें अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। प्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान श्रीहरि का पूजन करने के बाद, यौवन और वृद्धावस्था के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी की रात्रि को जागरण करने का फल, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने के फल से सहस्र गुना ज्यादा होता है। मनुष्य अपने जन्म से लेकर जो पुण्य करता है, वह पुण्य प्रबोधिनी एकादशी के व्रत के पुण्य के सामने व्यर्थ हैं। जो मनुष्य प्रबोधिनी एकादशी का व्रत नहीं करता, उसके सभी पुण्य व्यर्थ हो जाते हैं। इसलिए हे पुत्र! तुम्हें भी विधानपूर्वक भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। जो मनुष्य कार्तिक माह के धर्मपरायण होकर अन्य व्यक्तियों का अन्न नहीं खाते, उन्हें चांद्रायण व्रत के फल की प्राप्ति होती है। कार्तिक माह में प्रभु दान आदि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितने कि शास्त्रों की कथा सुनने से प्रसन्न होते है। कार्तिक माह में जो मनुष्य प्रभु की कथा को थोड़ा-बहुत पढ़ते हैं या सुनते हैं, उन्हें सो गायों के दान के फल की प्राप्ति होती है। ब्रह्माजी की बात सुनकर नारदजी बोले – ‘हे पिता! अब आप एकादशी के व्रत का विधान कहिए और कैसा व्रत करने से किस पुण्य की प्राप्ति होती है? कृपा कर यह भी समझाइए। नारद की बात सुन ब्रह्माजी बोले – ‘हे पुत्र! इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाना चाहिए और स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करना चाहिए। उस समय भगवान विष्णु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु! आज मैं निराहार रहूंगा और दूसरे दिन भोजन करूंगा, इसलिए आप मेरी रक्षा करें। इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान का पूजन करना चाहिए और व्रत प्रारंभ करना चाहिए। उस रात्रि को भगवान के समीप गायन, नृत्य, बाजे तथा कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए। प्रबोधिनी एकादशी के दिन कृपणता को त्यागकर बहुत से पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए। शंख के जल से भगवान को अर्घ्य देना चाहिए। इसका फल तीर्थ दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है। जो मनुष्य अगस्त्य पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं, उनके सामने इन्द्र भी हाथ जोड़ता है। कार्तिक माह में जो बिल्व पत्र से भगवान का पूजन करते हैं, उन्हें अंत में मुक्ति मिलती है। कार्तिक माह में जो मनुष्य तुलसीजी से भगवान का पूजन करता है, उसके दस हजार जन्मों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस माह में श्री तुलसीजी के दर्शन करते हैं या स्पर्श करते हैं या ध्यान करते हैं या कीर्तन करते हैं या रोपन करते हैं अथवा सेवा करते हैं, वे हजार कोटियुग तक भगवान विष्णु के लोक में वास करते हैं। जो मनुष्य तुलसी का पौधा लगाते हैं उनके कुल में जो पैदा होते हैं, वे प्रलय के अंत तक विष्णुलोक में रहते हैं। जो मनुष्य भगवान का कदंब पुष्प से पूजन करते हैं, वह यमराज के कष्टों को नहीं पाते। सभी कामनाओं को पूरा करने वाले भगवान विष्णु कदंब पुष्प को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं। यदि उनका कदंब पुष्प से पूजन किया जाए तो इससे उत्तम बात और कोई नहीं है। जो गुलाब के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं, उन्हें निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य बकुल और अशोक के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं, वे अनंत काल तक शोक से रहित रहते हैं। जो मनुष्य भगवान विष्णु का सफेद और लाल कनेर के फूलों से पूजन करते हैं, उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं। जो मनुष्य भगवान श्रीहरि का दूर्वादल ज्ञे पूजन करते हैं, वे पूजा के फल से सौ गुना ज्यादा फल पाते हैं। जो भगवान का शमीपत्र से पूजन करते हैं, वे भयानक यमराज के मार्ग को सुगमता से पार कर जाते हैं। जो मनुष्य चंपक पुष्प से भगवान विष्णु का पूजन करते हैं, वे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। जो मनुष्य स्वर्ण का बना हुआ केतकी पुष्प भगवान को अर्पित करते हैं, उनके करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य पीले और रक्त वर्ण कमल के सुगंधित पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं, उन्हें श्वेत दीप में स्थान मिलता है। इस प्रकार रात्रि में भगवान का पूजन करके प्रातःकाल शुद्ध जल की नदी में स्नान करना चाहिए। स्नान करने के उपरांत भगवान की स्तुति करते हुए घर आकर भगवान का पूजन करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा देकर आदर सहित उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विदा करना चाहिए। इसके बाद गुरु की पूजा करनी चाहिए और ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर नियम को छोड़ना चाहिए। जो मनुष्य रात्रि स्नान करते हैं, उन्हें दही और शहद दान करना चाहिए। जो मनुष्य फल की आशा करते हैं, उन्हे फल दान करना चाहिए। तेल की जगह घी और घी की जगह दूध, अन्नों में चावल दान करना चाहिए। जो मनुष्य इस व्रत में भूमि पर शयन करते हैं, उन्हें सब वस्तुओं सहित शैया दान करना चाहिए। जो मौन धारण करते हैं, उन्हें स्वर्ण सहित तिल दान करना चाहिए। जो मनुष्य कार्तिक माह में खड़ाऊं धारण नहीं करते, उन्हें खड़ाऊं दान करने चाहिए। जो इस माह में नमक त्यागते हैं, उन्हें शक्कर दान करनी चाहिए। जो मनुष्य नित्य प्रति देव मंदिरों में दीपक जलाते हैं, उन्हें स्वर्ण या तांबे के दीपक को घी तथा बत्ती सहित दान करना चाहिए। जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें उस दिन से उस वस्तु को पुनः ग्रहण करना चाहिए। जो मनुष्य प्रबोधिनी एकादशी के दिन विधानपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनंत सुख की प्राप्ति होती है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं। जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत को बिना किसी बाधा के पूर्ण कर लेते हैं, उन्हें दुबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। जिन मनुष्यों का व्रत खंडित हो जाता है, उन्हें दुबारा प्रारंभ कर लेना चाहिए। जो मनुष्य इस एकादशी के माहात्म्य को सुनते व पढ़ते हैं अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।”

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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Ashwin Papamkusha Ekadashi Vrat Katha |आश्विन शुक्ल पक्ष पापांकुशा एकादशी

ashvin ekadashi

।। आश्विन मास शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
पापांकुशा एकादशी

Ashwin Papamkusha Ekadashi Vrat Katha

 

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पापांकुशा एकादशी की कथा सुनने के लिए
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पापांकुशा एकादशी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहते हैं। इस एकादशी का महत्त्व स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को बताया था। इस एकादशी पर भगवान ‘पद्मनाभ‘ की पूजा की जाती है। पापरूपी हाथी को इस व्रत के पुण्यरूपी अंकुश से वेधने के कारण ही इसका नाम ‘पापांकुशा एकादशी‘ (Papamkusha Ekadashi) हुआ है। इस दिन मौन रहकर भगवद स्मरण तथा भोजन का विधान है। इस प्रकार भगवान की अराधना करने से मन शुद्ध होता है तथा व्यक्ति में सद्-गुणों का समावेश होता है।

व्रत विधि

इस एकादशी व्रत का नियम पालन दशमी तिथि की रात्रि से ही शुरू करना चाहिए तथा ब्रह्मचर्य का पालन करें। एकादशी के दिन सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु की शेषशय्या पर विराजित प्रतिमा के सामने बैठकर व्रत का संकल्प लें। इस दिन यथा संभव उपवास करें। उपवास में अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। संभव न हो तो व्रती एक समय फलाहार कर सकता है। इसके बाद भगवान ‘पद्मनाभ’ की पूजा विधि-विधान से करनी चाहिए। यदि व्रत करने वाला पूजन करने में असमर्थ हों तो पूजन किसी योग्य ब्राह्मण से भी करवाया जा सकता है। भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए। स्नान के बाद उनके चरणामृत को व्रती अपने और परिवार के सभी सदस्यों के अंगों पर छिड़के और उस चरणामृत का पान करे। इसके बाद भगवान को गंध, पुष्प, धूप, दीपक, नैवेद्य आदि पूजन सामग्री अर्पित करें। ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ का जप एवं उनकी कथा सुनें। रात्रि को भगवान विष्णु की मूर्ति के समीप हो शयन करना चाहिए और दूसरे दिन यानी द्वादशी के दिन वेदपाठी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देकर आशीर्वाद प्राप्त लेना चाहिए। इस प्रकार पापांकुशा एकादशी का व्रत करने से दिव्य फलों की प्राप्ति होती है।

व्रत कथा

प्राचीन काल में विंध्य पर्वत पर ‘क्रोधन’ नामक एक महाक्रूर बहेलिया रहता था। उसने अपनी सारी ज़िंदगी, हिंसा, लूट-पाट, मद्यपान तथा मिथ्या भाषण आदि में व्यतीत कर दी। जब जीवन का अंतिम समय आया, तब यमराज ने अपने दूतों से कहा कि वे क्रोधन को ले आयें। यमदूतों ने क्रोधन को बता दिया कि कल तेरा अंतिम दिन है। मृत्यु के भय से भयभीत वह बहेलिया महर्षि अंगिरा की शरण में उनके आश्रम जा पहुँचा। महर्षि ने उसके अनुनय-विनय से प्रसन्न होकर उस पर कृपा करके उसे अगले दिन ही आने वाली आश्विन शुक्ल एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करने को कहा। इस प्रकार वह महापातकी व्याध पापांकुशा एकादशी का व्रत-पूजन कर भगवान की कृपा से विष्णु लोक को गया। उधर यमदूत इस चमत्कार को देख हाथ मलते रह गए और बिना क्रोधन के यमलोक वापस लौट गए।

एक अन्य कथा

एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि “आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या महत्त्व है और इस अवसर पर किसकी पूजा होती है एवं इस व्रत का क्या लाभ है?”

युधिष्ठिर की मधुर वाणी को सुनकर गुणातीत श्रीकृष्ण भगवान बोले- “

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- “हे कुंतीनंदन! आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पापांकुशा है। इसका व्रत करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा व्रत करने वाला अक्षय पुण्य का भागी होता है।

इस एकादशी के दिन इच्छित फल की प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। इस पूजन के द्वारा मनुष्य को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। हे अर्जुन! जो मनुष्य कठिन तपस्याओं के द्वारा फल की प्राप्ति करते हैं, वह फल इस एकादशी के दिन क्षीर-सागर में शेषनाग पर शयन करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार कर देने से मिल जाता है और मनुष्य को यम के दुख नहीं भोगने पड़ते। हे पार्थ! जो विष्णुभक्त शिवजी की निंदा करते हैं अथवा जो शिवभक्त विष्णु भगवान की निंदा करते हैं, वे नरक को जाते हैं।

हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ का फल इस एकादशी के फल के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होता अर्थात इस एकादशी व्रत के समान संसार में अन्य कोई व्रत नहीं है।

इस एकादशी के समान विश्व में पवित्र तिथि नहीं है। जो मनुष्य एकादशी व्रत नहीं करते हैं, वे सदा पापों से घिरे रहते हैं। जो मनुष्य किसी कारणवश केवल इस एकादशी का भी उपवास करता है तो उसे यम के दर्शन नहीं होते।

इस एकादशी के व्रत को करने से मनुष्य को निरोगी काया तथा सुंदर नारी और धन-धान्य की प्राप्ति होती है और अंत में वह स्वर्ग को जाता है। जो मनुष्य इस एकादशी के व्रत में रात्रि जागरण करते हैं, उन्हें सहज ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

इस एकादशी के व्रत करने वाले मनुष्यों के मातृपक्ष के दस पुरुष, पितृपक्ष के दस पुरुष तथा स्त्री पक्ष के दस पुरुष, भगवान विष्णु का रूप धरकर व सुंदर आभूषणों से परिपूर्ण होकर विष्णु लोक को जाते हैं।

जो मनुष्य आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की पापांकुशा एकादशी का विधानपूर्वक उपवास करते हैं, उन्हें विष्णु लोक की प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य एकादशी के दिन भूमि, गौ, अन्न, जल खड़ाऊं, वस्त्र, छत्र आदि का दान करते हैं, उन्हें यम के दर्शन नहीं होते।

दरिद्र मनुष्य को भी यथाशक्ति कुछ दान देकर कुछ पुण्य अवश्य ही अर्जित करना चाहिए।

जो मनुष्य तालाब, बगीचा, धर्मशाला, प्याऊ आदि बनवाते हैं, उन्हें नरक के कष्ट नहीं भोगने पड़ते। वह मनुष्य इस लोक में निरोगी, दीर्घायु वाले, पुत्र तथा धन-धान्य से परिपूर्ण होकर सुख भोगते हैं तथा अंत में स्वर्ग लोक को जाते हैं। भगवान श्रीहरि की कृपा से उनकी दुर्गति नहीं होती।”

पापांकुशा एकादशी महत्त्व

पापांकुशा एकादशी के दिन भगवान विष्णु की श्रद्धा और भक्ति भाव से पूजा तथा ब्राह्मणों को उत्तम दान व दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन केवल फलाहार ही लिया जाता है। इससे शरीर स्वस्थ व हलका रहता है। इस एकादशी के व्रत रहने से भगवान समस्त पापों को नष्ट कर देते हैं। अर्थात यह एकादशी पापों का नाश करने वाली कही गई है। जनहितकारी निर्माण कार्य प्रारम्भ करने के लिए यह एक उत्तम मुहूर्त है। इस दिन व्रत करने वाले को भूमि, गौ, जल, अन्न, छत्र, उपानह आदि का दान करना चाहिए।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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उपद्रवी स्थान को शुद्ध करने के लिए करें दुर्गा सप्तशती का यह सिद्ध उपाय

navratri puja

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ओम नमः शिवाय,

सज्जनों

बहुत से व्यक्तियों के कुछ इस प्रकार से प्रश्न होते हैं। कि हमारा चलता चलता काम अचानक से रुक गया है और पड़ोस की दुकान वालों का काम अच्छा चलना शुरू हो गया है, डरावने सपने आते हैं, बिना कारण से भय लगता है, कई बार घर में किसी छाया अथवा आकृति का आभास होता है, प्रतिदिन घर में कलह क्लेश होता है, रोजी-रोटी बंद हो गई है, कमाई में बरकत नहीं हो रही है, घर परिवार में कोई खुशियां नहीं है और ना ही कोई खुशी के मौके जीवन में आते हैं, अच्छी डिग्री व योग्यता होने के बावजूद जीवन में सफलता नहीं मिल रही हैं। कई सारे उपाय करने के बावजूद भी कुछ लाभ नहीं मिल रहा है आदि – आदि …….

सज्जनों कई बार कुछ ईर्ष्या व द्वेष से ग्रसित व्यक्ति किसी तांत्रिक अथवा अशुभ शक्तियों का संचालन करने वाले व्यक्तियों के पास जाकर जिससे वह ईर्ष्या – द्वेष और नफरत करते हैं। उसके काम धंधे को बंधवा देते हैं या उनके घर परिवार में तंत्र प्रयोग के द्वारा अशुभ शक्तियां भेजकर पारिवारिक सुख – समृद्धि, स्वास्थ्य आदि को खराब कर देते हैं। यदि किसी व्यक्ति के संग इसी प्रकार की गतिविधि हो रखी है और उस व्यक्ति को लगता है कि अवश्य ही मेरे यहां इस प्रकार की परेशानियां चल रही हैं तो आज हमारे द्वारा श्री दुर्गा सप्तशती (Durga Saptashati) के 12 वें अध्याय के 19 में मंत्र की सिद्धि के बारे में बताया जाएगा। इस मंत्र के प्रयोग से मां भगवती जगदंबा की कृपा से किसी भी प्रकार की तंत्र क्रिया, बंधन क्रिया व अशुभ शक्तियों का समूल विनाश होता है। इस मंत्र का विधिवत अनुष्ठान करने से रोजी-रोटी व किसी भी प्रकार का बंधन खुलता है। ऊपरी अथवा अंदरूनी हवाओं, भूत – प्रेत, ब्लैक मैजिक व अशुभ तंत्र बाधा का समूल नाश होता है।

मंत्र – ॐ ह्रीं दुर्वत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम

रक्षो भूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ह्रीं ॐ।।

इस मंत्र का एक दिन में 11000 जाप करके सिद्ध कर लें अथवा नवरात्रि या गुप्त नवरात्रि में प्रतिदिन जाप करके मंत्र को सिद्ध कर लें। तत्पश्चात इस मंत्र का दशांश हवन, हवन का दशांश मार्जन व मार्जन का दशांश तर्पण करें। इसके बाद 8 खेजड़ी (शमी) की लकड़ी, 8 खैर की लकड़ी, 8 लोहे की कील, 8 पीली कौड़ी, 8 हल्दी की गांठ, 8 डोडे वाली लौंग लेकर ऊपर बताए मंत्र से अभिमंत्रित करके उपद्रवी स्थान की 8 दिशाओं में गाड़ दें।

ध्यान रहे की यह पूरी प्रक्रिया मंत्र बोलते हुए अग्नि कोण से दक्षिण दिशा की तरफ से शुरू करनी है तथा एक हाथ का गड्ढा खोदकर दबानी चाहिए। कौड़ी चित्त (कट वाला हिस्सा ऊपर) करके रखनी चाहिए। इस विधिपूर्वक भगवती के मंत्र का प्रयोग करने से वह स्थान सभी प्रकार की बाधाओं से रहित होकर श्रेष्ठ फलदाई हो जाता है। भगवती की कृपा बनाए रखने के लिए प्रत्येक नवरात्रि में सप्तशती का पाठ अथवा सप्तशती के मंत्रों से अपने घर पर यज्ञ करें।

नोट  यह प्रयोग अनेक बार करके अनुभूत किया गया है।

Adhik Maas Parma Ekadashi | पुरुषोत्तम मास कृष्ण पक्ष परमा एकादशी व्रत कथा

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।। पुरुषोत्तम – अधिक मास कृष्ण पक्ष एकादशी व्रत कथा ।।
कामदा  | परमा एकादशी

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कामदा / परमा एकादशी की कथा
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अर्जुन ने कहा – “हे कमलनयन! अब आप अधिक (लौंद) मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम तथा उसके व्रत का विधान बताने की कृपा करें। इसमें किस देवता का पूजन किया जाता है तथा इसके व्रत से किस फल की प्राप्ति होती है?”

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – “हे अर्जुन! इस एकादशी का नाम परम है। इसके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा मनुष्य को इहलोक में सुख तथा परलोक में सद्गति प्राप्त होती है। इसका व्रत पूर्व में कहे विधानानुसार करना चाहिए और भगवान विष्णु का धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए।

इस एकादशी की पावन कथा जो कि महर्षियों के साथ काम्पिल्य नगरी में हुई थी, वह मैं तुमसे कहता हूं। ध्यानपूर्वक श्रवण करो- काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नाम का एक अत्यंत धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री अत्यंत पवित्र तथा पतिव्रता थी। किसी पूर्व पाप के कारण वह दंपती अत्यंत दरिद्रता का जीवन व्यतीत कर रहे थे।

ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर भी भिक्षा नहीं मिलती थी। उस ब्राह्मण की पत्नी वस्त्रों से रहित होते हुए भी अपने पति की सेवा करती थी तथा अतिथि को अन्न देकर स्वयं भूखी रह जाती थी और पति से कभी किसी वस्तु की मांग नहीं करती थी। दोनों पति-पत्नी घोर निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रहे थे।

एक दिन ब्राह्मण अपनी स्त्री से बोला- ‘हे प्रिय! जब मैं धनवानों से धन की याचना करता हूँ तो वह मुझे मना कर देते हैं। गृहस्थी धन के बिना नहीं चलती, इसलिए यदि तुम्हारी सहमति हो तो मैं परदेस जाकर कुछ काम करूं, क्योंकि विद्वानों ने कर्म की प्रशंसा की है।’

ब्राह्मण की पत्नी ने विनीत भाव से कहा- ‘हे स्वामी! मैं आपकी दासी हूं। पति अच्छा और बुरा जो कुछ भी कहे, पत्नी को वही करना चाहिए। मनुष्य को पूर्व जन्म में किए कर्मों का फल मिलता है। सुमेरु पर्वत पर रहते हुए भी मनुष्य को बिना भाग्य के स्वर्ण नहीं मिलता। पूर्व जन्म में जो मनुष्य विद्या और भूमि दान करते हैं, उन्हें अगले जन्म में विद्या और भूमि की प्राप्ति होती है। ईश्वर ने भाग्य में जो कुछ लिखा है, उसे टाला नहीं जा सकता।

यदि कोई मनुष्य दान नहीं करता तो प्रभु उसे केवल अन्न ही देते हैं, इसलिए आपको इसी स्थान पर रहना चाहिए, क्योंकि मैं आपका विछोह नहीं सह सकती। पति बिना स्त्री की माता, पिता, भाई, श्वसुर तथा सम्बंधी आदि सभी निंदा करते हैं, हसलिए हे स्वामी! कृपा कर आप कहीं न जाएं, जो भाग्य में बदा होगा, वह यहीं प्राप्त हो जाएगा।’

स्त्री की सलाह मानकर ब्राह्मण परदेश नहीं गया। इसी प्रकार समय बीतता रहा। एक बार कौण्डिन्य ऋषि वहां आए।

ऋषि को देखकर ब्राह्मण सुमेधा और उसकी स्त्री ने उन्हें प्रणाम किया और बोले- ‘आज हम धन्य हुए। आपके दर्शन से आज हमारा जीवन सफल हुआ।’ ऋषि को उन्होंने आसन तथा भोजन दिया। भोजन देने के बाद पतिव्रता ब्राह्मणी ने कहा- ‘हे ऋषिवर! कृपा कर आप मुझे दरिद्रता का नाश करने की विधि बतलाइए। मैंने अपने पति को परदेश में जाकर धन कमाने से रोका है। मेरे भाग्य से आप आ गए हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब मेरी दरिद्रता शीघ्र ही नष्ट हो जाएगी, अतः आप हमारी दरिद्रता नष्ट करने के लिए कोई उपाय बताएं।

ब्राह्मणी की बात सुन कौण्डिन्य ऋषि बोले- ‘हे ब्राह्मणी! मल मास की कृष्ण पक्ष की परम एकादशी के व्रत से सभी पाप, दुख और दरिद्रता आदि नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह धनवान हो जाता है। इस व्रत में नृत्य, गायन आदि सहित रात्रि जागरण करना चाहिए।

भगवान शंकर ने कुबेरजी को इसी व्रत के करने से धनाध्यक्ष बना दिया था। इसी व्रत के प्रभाव से सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र को पुत्र, स्त्री और राज्य की प्राप्ति हुई थी।’

तदुपरांत कौण्डिन्य ऋषि ने उन्हें एकादशी के व्रत का समस्त विधान कह सुनाया। ऋषि ने कहा- ‘हे ब्राह्मणी! पंचरात्रि व्रत इससे भी ज्यादा उत्तम है। परम एकादशी के दिन प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर विधानपूर्वक पंचरात्रि व्रत आरम्भ करना चाहिए। जो मनुष्य पांच दिन तक निर्जल व्रत करते हैं, वे अपने मा-पिता और स्त्री सहित स्वर्ग लोक को जाते हैं। जो मनुष्य पांच दिन तक संध्या को भोजन करते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं। जो मनुष्य स्नान करके पांच दिन तक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, वे समस्त संसार को भोजन कराने का फल पाते हैं। जो मनुष्य इस व्रत में अश्व दान करते हैं, उन्हें तीनों लोकों को दान करने का फल मिलता है। जो मनुष्य उत्तम ब्राह्मण को तिल दान करते हैं, वे तिल की संख्या के बराबर वर्षो तक विष्णुलोक में वास करते हैं। जो मनुष्य घी का पात्र दान करते हैं, वह सूर्य लोक को जाते हैं। जो मनुष्य पांच दिन तक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हैं, वे देवांगनाओं के साथ स्वर्ग को जाते हैं। हे ब्राह्मणी! तुम अपने पति के साथ इसी व्रत को धारण करो। इससे तुम्हें अवश्य ही सिद्धि और अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

कौण्डिन्य ऋषि के वचनानुसार ब्राह्मण और उसकी स्त्री ने परम एकादशी का पांच दिन तक व्रत किया। व्रत पूर्ण होने पर ब्राह्मण की स्त्री ने एक राजकुमार को अपने यहां आते देखा।

राजकुमार ने ब्रह्माजी की प्रेरणा से एक उत्तम घर जो कि सब वस्तुओं से परिपूर्ण था, उन्हें रहने के लिए दिया। तदुपरांत राजकुमार ने आजीविका के लिए एक गांव दिया। इस प्रकार ब्राह्मण और उसकी स्त्री इस व्रत के प्रभाव से इहलोक में अनंत सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गए।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे अर्जुन! जो मनुष्य परम एकादशी का व्रत करता है, उसे सभी तीर्थों व यज्ञों आदि का फल प्राप्त होता है। जिस प्रकार संसार में दो पैरों वालों में ब्राह्मण, चार पैरों वालों में गौ, देवताओं में देवेंद्र श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार मासों में अधिक (लौंद) मास उत्तम है। इस माह में पंचरात्रि अत्यंत पुण्य देने वाली होती है। इस माह में पद्मिनी और परम एकादशी भी श्रेष्ठ है। इनके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, अतः दरिद्र मनुष्य को एक व्रत जरूर करना चाहिए। जो मनुष्य अधिक मास में स्नान तथा एकादशी व्रत नहीं करते, उन्हें आत्महत्या करने का पाप लगता है। यह मनुष्य योनि बड़े पुण्यों से मिलती है, इसलिए मनुष्य को एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।

हे कुंती पुत्र अर्जुन! जो तुमने पूछा था, वह मैंने विस्तारपूर्वक बतला दिया। अब इन व्रतों को भक्तिपूर्वक करो। जो मनुष्य अधिक (लौंद) मास की परम एकादशी का व्रत करते हैं, वे स्वर्गलोक में जाकर देवराज इन्द्र के समान सुखों का भोग करते हुए तीनों लोकों में पूजनीय होते हैं।”

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी माता की जय ।।

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