श्रावण माह माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय | Chapter -11 Sawan Maas ki Katha

Shravan Maas 11 Adhyay

Shravan Maas 11 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय
Chapter -11

 

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रोटक तथा उदुम्बर व्रत का वर्णन

सनत्कुमार बोले – हे देव ! श्रावण मास (Shravan Maas) के वारों के सभी व्रतों को मैंने आपसे सुना किन्तु आपके वचनामृत का पान करके मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। हे प्रभो ! श्रावण के समान अन्य कोई भी मास नहीं है – ऐसा मुझे प्रतीत होता है अतः आप तिथियों का माहात्म्य बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! मासों में कार्तिक मास श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ माघ कहा गया है, उस माघ से भी श्रेष्ठ वैशाख है और उससे भी श्रेष्ठ मार्गशीर्ष है जो श्रीहरि को अत्यंत प्रिय है। विश्वरूप भगवान् से उत्पन्न होने से ये चारों मास मुझे प्रिय हैं किन्तु बारहों मासों में श्रवण तो साक्षात शिव (Lord Shiv)का रूप है। हे सनत्कुमार ! श्रावण मास (Shravan Maas) में सभी तिथियां व्रत युक्त हैं फिर भी मैं उनमें प्रधान रूप से कुछ उत्तम तिथियों को आपको बता रहा हूँ। सर्वप्रथम मैं तिथि तथा वार से मिश्रित व्रत आपको बताता हूँ।

श्रावण मास (Shravan Maas) में जब प्रतिपदा तिथि में सोमवार हो तो उस महीने में पाँच सोमवार पड़ते हैं। उस श्रावण मास (Shravan Maas) में मनुष्यों को रोटक नामक व्रत करना चाहिए। यह रोटक नामक व्रत साढ़े तीन महीने का भी होता है, यह लक्ष्मी की वृद्धि करने वाला तथा सभी मनोरथों की सिद्धि करने वाला है। हे मुने ! मैं उसका विधान बताऊंगा, आप सावधान होकर सुनिए। श्रावण मास (Shravan Maas) के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा तिथि को जब सोमवार हो तब विद्वान् प्रातःकाल यह संकल्प करें – मैं आज से आरम्भ करके रोटक व्रत करूँगा, हे सुरश्रेष्ठ ! हे जगद्गुरो ! मुझ पर कृपा कीजिए।

उसके बाद अखंडित बिल्वपत्रों, तुलसीदलों, नीलोत्पल, कमलपुष्पों, कहलारपुष्पों, चम्पा तथा मालती के पुष्पों, कोविंद पुष्पों, आक के पुष्पों, उस ऋतु तथा काल में होने वाले नानाविध अन्य सुन्दर पुष्पों, धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकार के फलों से शूलधारी महादेव की प्रतिदिन पूजा करनी चाहिए। विशेष रूप से रोटकों का प्रधान नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। पुरुष के आहार प्रमाण के समान पाँच रोटक बनाने चाहिए। बुद्धिमान को चाहिए कि उनमें से दो रोटक ब्राह्मणों को दें, दो रोटक का स्वयं भोजन करें और एक रोटक देवता को नैवेद्य के रूप में अर्पित करें। बुद्धिमान को चाहिए कि शेषपूजा करने के अनन्तर अर्घ्य प्रदान करें।
केला, नारियल, जंबीरी नीबू, बीजपूरक, खजूर, ककड़ी, दाख, नारंगी, बिजौरा नीबू, अखरोट, अनार तथा अन्य और जो भी ऋतु में होने वाले फल हों – वे सब अर्घ्यदान में प्रशस्त हैं। उस अर्घ्यदान का फल सुनिए। सातों समुद्र सहित पृथ्वी का दान करके मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वही फल विधानपूर्वक इस व्रत को करके वह पा जाता है। विपुल धन की इच्छा रखने वालों को यह व्रत पाँच वर्ष तक रखना चाहिए। इसके बाद रोटक नामक व्रत का उद्यापन कर देना चाहिए। उद्यापन – कृत्य के लिए सोने तथा चाँदी के दो रोटक बनाए। प्रथम दिन अधिवासन करके प्रातःकाल शिव (Lord Shiv) मन्त्र के द्वारा घृत तथा उत्तम बिल्वपत्रों से हवन करें। हे तात ! इस विधि से व्रत के संपन्न किए जाने पर मनुष्य सभी वांछित फलों को प्राप्त कर लेता है। हे सनत्कुमार ! अब मैं द्वितीया के शुभ व्रत का वर्णन करूँगा जिसे श्रद्धापूर्वक करके मनुष्य लक्ष्मीवान तथा पुत्रवान हो जाता है। औदुम्बर नामक वह व्रत पाप का नाश करने वाला है।

शुभ सावन का महीना आने पर द्वितीया तिथि को प्रातःकाल संकल्प करके बुद्धिमान को विधिपूर्वक व्रत करना चाहिए। इस व्रत को करने वाला स्त्री हो या पुरुष – वह सभी संपदाओं का पात्र हो जाता है। इस व्रत में प्रत्यक्ष गूलर के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए किन्तु गूलर वृक्ष न मिलने पर दीवार पर वृक्ष का आकार बनाकर इन चार नाम मन्त्रों से उसकी पूजा करनी चाहिए – हे उदुंबर ! आपको नमस्कार है, हे हेमपुष्पक ! आपको नमस्कार है। जंतुसहित फल से युक्त तथा रक्त अण्डतुल्य फलवाले आपको नमस्कार है। इसके अधिदेवता शिव (Lord Shiv) तथा शुक्र की भी पूजा गूलर के वृक्ष में करनी चाहिए। इसके तैंतीस फल लेकर तीन बराबर भागों में बाँट लेना चाहिए। इनमें से ग्यारह फल ब्राह्मण को प्रदान करें, ग्यारह फल देवता को अर्पण करें और ग्यारह फलों का स्वयं भोजन करें।

उस दिन अन्न का आहार नहीं करना चाहिए। शिव (Lord Shiv) तथा शुक्र का विधिवत पूजन करके रात में जागरण करना चाहिए। हे तात ! इस प्रकार ग्यारह वर्ष तक व्रत का अनुष्ठान करने के बाद व्रत की संपूर्णता के लिए उद्यापन करना चाहिए। सुवर्णमय फल, पुष्प तथा पात्र सहित एक गूलर का वृक्ष बनाए और उसमें शिव (Lord Shiv) तथा शुक्र की प्रतिमा का पूजन करें, उसके बाद प्रातःकाल होम करें। गूलर के शुभ, कोमल तथा छोटे-छोटे एक सौ आठ फलों से तथा गूलर की समिधाओं से तिल तथा घृत सहित होम करें। इस प्रकार होमकृत्य समाप्त करके आचार्य की पूजा करें, उसके बाद सामर्थ्यानुसार एक सौ अन्यथा दस ब्राह्मणों को ही भोजन कराएं।

हे वत्स ! इस प्रकार व्रत किए जाने पर जो फल होता है, उसे सुनिए. जिस प्रकार यह गूलर का वृक्ष बहुत जंतुयुक्त फलो वाला होता है, उसी प्रकार व्रतकर्ता भी अनेक पुत्रों वाला होता है और उसके वंश की वृद्धि होती है। यह व्रत करने वाला सुवर्णमय पुष्पों से युक्त वृक्ष की भाँति लक्ष्मीप्रद हो जाता है। हे सनत्कुमार ! आज तक मैंने किसी को भी यह व्रत नहीं बताया था। गोपनीय से गोपनीय इस व्रत को मैंने आपके समक्ष कहा है। इसके विषय में संशय नहीं करना चाहिए और भक्तिपूर्वक इस व्रत का आचरण करना चाहिए।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसानत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “प्रति पदरोटक व्रतद्वितीयोदुम्बर व्रत कथन” नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य दसवाँ अध्याय | Chapter -10 Sawan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 10 Adhyay

Shravan Maas 10 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य दसवाँ अध्याय
Chapter -10

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार को किए जाने वाले कृत्यों का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं आपसे शनिवार व्रत की विधि का वर्णन करूँगा, जिसका अनुष्ठान करने से मंदत्व नहीं होता है। श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार के दिन नृसिंह, शनि तथा अंजनीपुत्र हनुमान – इन तीनों देवताओं का पूजन करना चाहिए। दीवार पर अथवा स्तंभ पर नृसिंह की सुन्दर प्रतिमा बनाकर हल्दीयुक्त चन्दन से और नीले-लाल तथा पीले सुन्दर पुष्पों से लक्ष्मी सहित जगत्पति नृसिंह का भली-भांति पूजन करके उन्हें खिचड़ी का नैवेद्य तथा कुंजर नामक शाक का भोग अर्पण करना चाहिए। उसी को स्वयं भी खाना चाहिए और ब्राह्मणों को भी खिलाना चाहिए। तिल का तेल तथा घृत स्नान भगवान् नृसिंह को प्रिय है। शनिवार के दिन तिल सभी कार्यों के लिए प्रशस्त है।

शनिवार के दिन तिल के तेल से ब्राह्मणों तथा सुवासिनी स्त्रियों को उबटन लगाना चाहिए तथा कुटुंब सहित स्वयं भी संपूर्ण शरीर में तेल लगाकर स्नान करना चाहिए तथा उड़द का भोजन ग्रहण करना चाहिए इससे भगवान् नृसिंह प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार श्रावण मास (Shravan Maas) में चारों शनिवारों में इस व्रत को करना चाहिए। जो ऐसा करता है उसके घर में स्थिर लक्ष्मी का वास रहता है और धन धान्य की समृद्धि होती है। पुत्रहीन व्यक्ति पुत्र वाला हो जाता है और इस लोक में सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है। नृसिंह की कृपा से मनुष्य की चारों दिशाओं में व्याप्त रहने वाली उत्तम कीर्ति होती है। हे सौम्य ! मैंने आपसे नृसिंह का यह उत्तम व्रत कहा।

हे सनत्कुमार ! अब शनि की प्रसन्नता के लिए जो करना चाहिए उसे सुनिए। एक लंगड़े ब्राह्मण और उसके अभाव में किसी ब्राह्मण के शरीर में तिल का तेल लगाकर उसे उष्ण जल से स्नान कराना चाहिए और श्रद्धापूर्वक नृसिंह के लिए बताए गए अन्न अर्थात खिचड़ी उसे खिलानी चाहिए। उसके बाद तेल, लोहा, काला तिल, काला उड़द, काला कम्बल प्रदान करना चाहिए। इसके बाद व्रती यह कहे कि मैंने यह सब शनि की प्रसन्नता के लिए किया है, शनिदेव मुझ पर प्रसन्न हों। उसके बाद तिल के तेल से शनि का अभिषेक कराना चाहिए। उनके पूजन में तिल तथा उड़द के अक्षत (चावल) प्रशस्त माने गए हैं।

हे मुने ! अब मैं शनि का ध्यान बताऊँगा, आप ध्यानपूर्वक सुनिए। शनैश्चर कृष्ण वर्ण वाले हैं, मंद गति वाले हैं, काश्यप गोत्र वाले हैं, सौराष्ट्र देश में पैदा हुए हैं, सूर्य पुत्र हैं, वर देने वाले हैं, दंड के समान आकार वाले मंडल में स्थित हैं, इंद्रनीलमणितुल्य कांति वाले हैं। हाथों में धनुष-बाण-त्रिशूल धारण किए हुए हैं, गीध पर आरूढ़ हैं, यम इनके अधिदेवता हैं, ब्रह्मा इनके प्रत्यधिदेवता हैं, ये कस्तूरी-अगुरु का गंध तथा गुग्गुल का धूप ग्रहण करते हैं, इन्हें खिचड़ी प्रिय है, इस प्रकार ध्यान की विधि कही गई है। इनके पूजन के लिए लौहमयी सुन्दर प्रतिमा बनानी चाहिए। हे द्विजश्रेष्ठ ! इनके निमित्त की गई पूजा में कृष्ण अर्थात काली वस्तु का दान करना चाहिए। ब्राह्मण को काले रंग के दो वस्त्र देने चाहिए और काले बछड़े सहित काली गौ प्रदान करनी चाहिए। विधिपूर्वक पूजा करके इस प्रकार प्रार्थना तथा स्तुति करनी चाहिए।

आराधना से संतुष्ट होकर जिन्होंने नष्ट राज्य वाले राजा नील को उनका महान राज्य पुनः प्रदान कर दिया, वे शनिदेव मुझ पर प्रसन्न हों। नील अंजन के समान वर्ण वाले, मंद गति से चलने वाले और छाया देवी तथा सूर्य से उत्पन्न होने वाले उन शनैश्चर को मैं नमस्कार करता हूँ। मंडल के कोण में स्थित आपको नमस्कार है, पिंगल नाम वाले आप शनि को नमस्कार है। हे देवेश ! मुझ दीन तथा शरणागत पर कृपा कीजिए. इस प्रकार स्तुति के द्वारा प्रार्थना करके बार-बार प्रणाम करना चाहिए। तीन वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य – के लिए शनि के पूजन में “शन्नो देवी.” इस वैदिक मन्त्र का प्रयोग बताया गया है और शूद्रों के लिए पूजन में नाम मन्त्र का प्रयोग बताया गया है।

जो व्यक्ति दत्तचित्त होकर इस विधि से शनिदेव का पूजन करेगा उसे स्वप्न में भी शनि का भय नहीं होगा। हे विप्र ! जो मनुष्य श्रावण मास (Shravan Maas) में प्रत्येक शनिवार के दिन भक्तिपूर्वक इस विधि से इस व्रत को करेंगे, उन्हें शनैश्चर के द्वारा लेश मात्र भी कष्ट नहीं होगा। जन्म राशि से पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नौवें अथवा बारहवें स्थान में स्थित शनि सदा कष्ट पहुंचाता है। शनि की शान्ति के लिए “शमाग्नि.” इस मन्त्र का जप कराना बताया गया है। उसकी प्रसन्नता के लिए इंद्रनीलमणि का दान करना चाहिए।
हे सनत्कुमार ! इसके बाद अब मैं हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए विधि का वर्णन करूँगा। हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार को रूद्र मन्त्र के द्वारा तेल से उनका अभिषेक करना चाहिए। तेल में मिश्रित सिंदूर का लेप उन्हें समर्पित करना चाहिए। जपाकुसुम की मालाओं से आक-धतूर की मालाओं से मंदार पुष्प की मालाओं से, बटक-बड़ का पेड़, के नैवेद्य से तथा अन्य उपचारों से भी यथा विधि अपने सामर्थ्यानुसार श्रद्धा भक्ति से युक्त होकर अंजनी पुत्र हनुमान जी की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि हनुमान जी कि प्रसन्नता के लिए उनके बारह नामों का जप करें। हनुमान, अंजनीसूनु, वायुपुत्र, महाबल, रामेष्ट, फाल्गुन-सखा, पिंगाक्ष, अमितविक्रम, उदधिक्रमण, सीताशोकविनाशक, लक्ष्मणप्राणदाता और दशग्रीवदर्पहा – ये बारह नाम हैं।

जो मनुष्य प्रातःकाल उठाकर इन बारहों नामों को पढता है, उसका अमंगल नहीं होता और उसे सभी संपदा सुलभ प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार श्रावण मास (Shravan Maas) में शनिवार के दिन वायुपुत्र हनुमान जी की आराधना करके मनुष्य वज्रतुल्य शरीर वाला, निरोग तथा बलवान हो जाता है। अंजनीपुत्र की कृपा से वह कार्य करने में वेगवान तथा बुद्धि-वैभव से युक्त हो जाता है उसके बाद शत्रु नष्ट हो जाते हैं, मित्रों की वृद्धि होती है। वह वीर्यशाली तथा कीर्तिमान हो जाता है। यदि साधक हनुमान जी के मंदिर हनुमत्कवच का पाठ करे तो वह अणिमा आदि आठों सिद्धियों का स्वामित्व प्राप्त कर लेता है और यक्ष, राक्षस तथा वेताल उसे देखते ही कंपित तथा भयभीत होकर वेगपूर्वक दसों दिशाओं में भाग जाते हैं।
हे सत्तम ! शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष का आलिंगन तथा पूजन करना चाहिए। शनिवार को छोड़कर अन्य किसी दिन पीपल के वृक्ष का स्पर्श नहीं करना चाहिए। शनिवार के दिन उसका आलिंगन सभी संपदाओं को प्राप्त कराने वाला होता है। प्रत्येक मास में सातों वारों में पीपल का पूजन फलदायक है किन्तु श्रावण में यह पूजन अधिक फलप्रद है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “शनैश्चर नृसिंह हनुमत्पूजनादि शनैश्चर कृत्यकथन” नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य नवाँ अध्याय | Chapter -9 Sawan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 09 Adhyay

Shravan Maas 09 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य नवाँअध्याय
Chapter -9

 

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शुक्रवार – जीवन्तिका व्रत की कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार – इसके बाद अब मैं शुक्रवार व्रत का आख्यान कहूँगा, जिसे सुनकर मनुष्य संपूर्ण आपदा से मुक्त हो जाता है। लोग इससे संबंधित एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। पांड्य वंश में उत्पन्न एक सुशील नामक राजा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी उसे पुत्र प्राप्ति नहीं हो सकी। उसकी सर्वगुणसंपन्न सुकेशी नामक भार्या थी। जब उसे संतान न हुई तब वह बड़ी चिंता में पड़ गई तब स्त्री-स्वभाव के कारण अति साहसयुक्त मनवाली उसने मासिक धर्म के समय प्रत्येक महीने में वस्त्र के टुकड़ों को अपने उदर पर बाँधकर उदर को बड़ा बना लिया और अपनी प्रसूति का अनुकरण करने वाली किसी अन्य गर्भिणी स्त्री को ढूंढने लगी।

भावी देवयोग से उसके पुरोहित की पत्नी गर्भिणी थी तब कपट करने वाली राजा की पत्नी ने किसी प्रसव कराने वाली को इस कार्य में लगा दिया और उसे एकांत में बहुत धन देकर वह रानी चली गई। उसके बाद रानी को गर्भिणी जानकार राजा ने उसका पुंसवन और अनवलोभन संस्कार किया। आठवाँ महीना होने पर सीमन्तोन्नयन-संस्कार के समय राजा अत्यंत हर्षित हुए। इसके बाद उस पुरोहित पत्नी का प्रसवकाल सुनकर वह रानी भी उसी के समान सभी प्रसव संबंधी चेष्टाएँ करने लगी। पुरोहित की पत्नी चूँकि पहली बार गर्भवती थी, अतः प्रसूति कार्य के प्रति वह अनभिज्ञ थी और केवल प्रसव कराने वाली दाई के ही कहने में स्थित थी तब उस दाई ने पुरोहित पत्नी के साथ छल करते हुए उसके नेत्रों पर पट्टी बाँध दी और प्रसव के समय उसके पैदा हुए पुत्र को किसी के हाथ से रानी के पास पहुंचा दिया।

इस बात को कोई भी नहीं जान सका। उसके बाद रानी ने उस पुत्र को लेकर यह घोषित कर दिया कि मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। इन सब के बाद दाई ने पुरोहित की पत्नी के आँखों की पट्टी खोल दी। दाई अपने साथ माँस का एक पिंड लाई थी और उसने वह उसे दिखा दिया फिर उसके सामने आश्चर्य तथा दुःख प्रकट करने लगी कि यह कैसा अनिष्ट हो गया और कहने लगी कि अपने पुरोहित पति से इसकी शान्ति जरूर करवा लेना। कहने लगी कि संतान नहीं हुई कोई बात नहीं पर तुम जीवित हो यह अच्छी बात है। इस पर पुरोहित पत्नी को अपने प्रसव के स्पर्श चिंतन से बहुत संदेह हुआ।

ईश्वर बोले – राजा ने पुत्र जन्म का समाचार सुन जातकर्म संस्कार कराया और ब्राह्मणों को हाथी, घोड़े तथा रथ आदि प्रदान किए। राजा ने कारागार में पड़े सभी कैदियों को प्रसन्नतापूर्वक मुक्त करा दिया। उसके बाद राजा ने सूतक के अंत में नामकर्म तथा अन्य सभी संस्कार किये, उन्होंने पुत्र का नाम प्रियव्रत रखा।

हे सनत्कुमार श्रावण मास (Shravan Maas) के आने पर पुरोहित की पत्नी ने शुक्रवार के दिन भक्तिपूर्वक देवी जीवंतिका का पूजन किया। दीवार पर अनेक बालकों सहित देवी जीवंतिका की मूर्त्ति लिखकर पुष्प तथा माला से उनकी पूजा करके गोधूम की पीठि के बनाए गए पांच दीपक उनके सम्मुख उसने जलाए और स्वयं भी गोधूम का चूर्ण भक्षण किया और उनकी मूर्ति पर चावल फेंका और कहा – हे जीवन्ति ! हे करुणार्णवे ! जहां भी मेरा पुत्र विद्यमान हो आप उसकी रक्षा करना – यह प्रार्थना करके उसने कथा सुनकर यथाविधि नमस्कार किया तब जीवंतिका की कृपा से वह बालक दीर्घायु हो गया और वे देवी उसकी माता की श्रद्धा भक्ति के कारण दिन-रात उस बालक की रक्षा करने लगी।

इस प्रकार कुछ समय बीतने पर राजा की मृत्यु हो गई तब पितृभक्त उनके पुत्र ने उनकी पारलौकिक क्रिया संपन्न की। इसके बाद मंत्रियों तथा पुरोहितों ने प्रियव्रत को राज्य पर अभिषिक्त किया तब कुछ वर्षों तक प्रजा का पालन करके तथा राज्य भोगकर वह पितरों के ऋण से मुक्ति के लिए गया जाने की तैयारी करने लगा। राज्य का भार वृद्ध मंत्रियों पर भक्तिपूर्वक सौंपकर और स्वयं के राजा होने का भाव त्यागकर उसने कार्पटिक का भेष धारण कर लिया और गया के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में किसी नगर में किसी गृहस्थ के घर में उन्होंने निवास किया। उस समय उस गृहस्थ की पत्नी को प्रसव हुआ था। इसके पहले षष्ठी देवी ने उसके पांच पुत्रों को उत्पन्न होने के पांचवें दिन मार दिया था। यह राजा भी उस समय पांचवें दिन ही वहां गया हुआ था।

रात में राजा के सो जाने पर उस बच्चे को ले जाने के लिए षष्ठी देवी आई। जीवन्तिका देवी ने उस षष्ठी देवी को यह कहकर रोका कि राजा को लांघकर मत जाओ तब जीवन्तिका के रोकने पर वह षष्ठी जैसे आयी थी वह वैसे ही चली गई। इस पकार उस गृहस्वामी ने उस बालक को पांचवें दिन जीवित रूप में प्राप्त किया. ये लोग इतने प्रभाव वाले हैं यह देखकर उस गृहस्थ ने राजा से प्रार्थना की – हे राजन ! आपका निवास आज के दिन मेरे ही घर में हो। हे प्रभो ! आपकी कृपा से मेरा यह छठा पुत्र जीवित रह गया है। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर करुणानिधि उस राजा ने कहा कि मुझे तो गया जाना है तब राजा गया के लिए प्रस्थान कर गए। वहां पिंडदान करते समय विष्णुपद वेदी पर कुछ अद्भुत घटना हुई। उस पिंड को ग्रहण करने के लिए दो हाथ निकलकर आए तब महान विस्मययुक्त राजा संशय में पड़ गए और पुनः पिंडदान कराने वाले ब्राह्मण के कहने पर उन्होंने विष्णुपद पर पिंड रख दिया।

इसके बाद उन्होंने किसी ज्ञानी तथा सत्यवादी ब्राह्मण से इस विषय में पूछा तब उस ब्राह्मण ने उनसे कहा कि ये दोनों हाथ आपके पितर के थे। इसमें संदेह हो तो घर जाकर अपनी माता से पूछ लीजिए, वह बता देगी तब राजा चिंतित तथा दुखी हुए और मन में अनेक बातें सोचने-विचारने लगे। वे यात्रा करके पुनः वहां गए जहां वह बालक जीवित हुआ था। उस समय भी उस स्त्री को पुत्र उत्पन्न हुआ था और वह उसका पांचवां दिन था। वह जो दूसरा पुत्र हुआ था उसे लेने रात में फिर वही षष्ठी देवी आई तब जीवन्तिका के दुबारा रोके जाने पर उस षष्ठी देवी ने उनसे कहा – इसका ऐसा क्या कृत्य है अथवा क्या इसकी माता तुम्हारा व्रत करती है जो तुम रात-दिन इसकी रक्षा करती हो? तब षष्ठी का यह वचन सुनकर जीवन्ति ने धीरे से मुस्कुराकर इसका सारा कारण बताया।

उस समय राजा शयन का बहाना बनाकर वास्तविकता जानने के लिए जाग रहा था। अतः उन्होंने जीवन्ति और षष्ठी – दोनों की बातचीत सुन ली। जीवन्ति ने कहा – हे षष्ठी ! श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्रवार को इसकी माता मेरे पूजन में रत रहती है और व्रत के संपूर्ण नियम का पालन करती है, वह सब मैं आपको बताती हूँ – वह हरे रंग का वस्त्र तथा कंचुकी नहीं पहनती और हाथ में उस रंग की चूड़ी भी नहीं धारण करती। वह चावल के धोने के जल को कभी नहीं लांघती, हरे पत्तों के मंडप के नीचे नहीं जाती और हरे वर्ण का होने के कारण करेले का शाक भी वह नहीं खाती है। यह सब वह मेरी प्रसन्नता के लिए करती है अतः मैं उसके पुत्र को किसी को मरने नहीं दूंगी।

यह सब सुनकर राजा प्रियव्रत अपने नगर को चले गए। उनके देश के सभी नागरिक स्वागत के लिए आए तब राजा ने अपनी माता से पूछा – हे मातः ! क्या तुम जीवन्तिका देवी का व्रत करती हो? इस पर उसने कहा कि मैं तो इस व्रत को जानती भी नहीं हूँ। उसके बाद राजा ने गया यात्रा का समुचित फल प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों तथा सुवासिनी स्त्रियों को भोजन कराने की इच्छा से उन्हें निमंत्रित किया और व्रत की परीक्षा लेने के लिए सुवासिनियों को वस्त्र, कंचुकी तथा कंकण भेजकर कहलाया कि आप सभी को भोजन के लिए राजभवन में आना है तब पुरोहित की पत्नी ने दूत से कहा कि मैं हरे रंग की कोई भी वस्तु कभी ग्रहण नहीं करती हूँ। राजा के पास आकर दूत ने उसके द्वारा कही गई बात राजा को बता दी तब राजा ने उसके लिए सभी रक्तवर्ण के शुभ परिधान भेजे।

वह सब धारण करके वह पुरोहित पत्नी भी राजभवन में आयी। राजभवन के पूर्वी द्वार पर चावलों के धोने का जल पड़ा देखकर और वहां हरे रंग का मंडप देखकर वह दूसरे द्वार से गई तब राजा ने पुरोहित की पत्नी को प्रणाम करके इस नियम का संपूर्ण कारण पूछा। इस पर उसने इसका कारण शुक्रवार का व्रत बताया। उस प्रियव्रत को देखकर उसके दोनों स्तनों में से बहुत दूध निकलने लगा। दोनों वक्ष स्थलों ने उस राजा को दुग्ध की धाराओं से पूर्ण रूप से सिंचित कर दिया तब गया में विष्णुपदी पर निकले दोनों हाथों, जीवंतिका तथा षष्ठी दोनों देवियों के वार्तालाप तथा पुरोहित पत्नी के स्तनों से दूध निकलने के द्वारा राजा को विश्वास हो गया कि मैं इसी का पुत्र हूँ।

उसके बाद पालन-पोषण करने वाली माता के पास जाकर विनम्रतापूर्वक उन्होंने कहा – हे मातः ! डरो मत, मेरे जन्म का वृत्तांत सत्य-सत्य बता दो। यह सुनकर सुन्दर केशों वाली रानी ने सब कुछ सच-सच बता दिया तब प्रसन्न होकर उन्होंने जन्म देने वाले अपने माता-पिता को नमस्कार किया और संपत्ति से वृद्धि को प्राप्त कराया। वे दोनों भी परम आनंदित हुए. एक दिन राजा प्रियव्रत ने रात में देवी जीवन्ति से प्रार्थना की – हे जीवन्ति ! मेरे पिता तो ये हैं तो फिर गया में वे दोनों हाथ कैसे निकल आए थे? तब देवी ने स्वप्न में आकर संशय का नाश करने वाला वाक्य कहा – हे प्रियव्रत ! मैंने तुम्हें विश्वास दिलाने के लिए ही यह माया की थी, इसमें संदेह नहीं है।

हे सनत्कुमार ! यह सब मैंने आपको बता दिया। श्रावण मास (Shravan Maas) में शुक्रवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “शुक्रवारजीवन्तिका व्रत कथन” नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ” ॥

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श्रावण माह माहात्म्य आठवाँ अध्याय | Chapter -8 Sawan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 08 Adhyay

Shravan Maas 08 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य आठवाँ अध्याय
Chapter -8

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) में किए जाने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं समस्त पापों का नाश करने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णन करूँगा जिसे श्रद्धापूर्वक करके मनुष्य परम सिद्धि प्राप्त करता है। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मणों के राजा के रूप में अभिषिक्त किया। किसी समय उसने रूप तथा यौवन से संपन्न तारा नामक गुरु पत्नी को देखा। उसकी रूप संपदा से मोहित होकर वह काम के वशीभूत हो गया और उसे उसने अपने घर में रख लिया। इस प्रकार बहुत दिन बीतने पर उसे बुध नामक एक पुत्र हुआ जो बुद्धिमान, सौंदर्यशाली तथा सभी शुभ लक्षणों से युक्त था।

गुरु बृहस्पति को ज्ञात हुआ कि तारा, चन्द्रमा के घर में स्थित है तब उन्होंने चन्द्रमा से कहा कि मेरी पत्नी को वापिस कर दो, अनेक तरह से समझाने पर भी जब चन्द्रमा ने तारा को वापिस नहीं दिया तब बृहस्पति ने देवताओं की सभा में जाकर देवराज इंद्र को यह वृत्तांत बतलाया और कहा – हे शक्र ! आप देवताओं के राजा हैं अतः अपनी आज्ञा से आप उसे दिलाएं अन्यथा उस चन्द्रमा के द्वारा किया गया पाप आप को ही निसंदेह लगेगा क्योंकि शास्त्र निर्णय के अनुसार प्रजा के द्वारा किए गए पाप को राजा भोगता है। पुराण में भी ऐसा कहा गया है कि दुर्बल का बल राजा होता है। गुरु का यह वचन सुनकर चन्द्रमा ने कहा – मैं आपकी आज्ञा से तारा को तो दे दूँगा किन्तु इस पुत्र को नहीं दूँगा। शास्त्र के अनुसार विचार करके देवताओं ने उस बुध को चन्द्रमा को दे दिया।

इसके बाद गुरु को उदास देखकर देवताओं ने उन दोनों को वर प्रदान किया – हे चंद्र ! अब तुम घर जाओ, यह तुम्हारा भी पुत्र है और बृहस्पति का भी है। यह तुम्हारा पुत्र ग्रहों में प्रतिष्ठित होगा। हे सुराचार्य ! आप यह दुसरा भी शुभ वर ग्रहण कीजिए कि जो बुद्धिमान व्यक्ति आप दोनों – बुध-गुरु – का व्रत मिलाकर करेगा उसकी संपूर्ण सिद्धि होगी, यह सत्य है, इसमें संदेह नहीं। शंकर जी के लिए अत्यंत प्रिय इस श्रावण मास (Shravan Maas) के आने पर जो लोग बुधवार तथा बृहस्पतिवार को पूजन व्रत करेंगे उन्हें सिद्धि प्राप्त होगी।
इस व्रत में दही तथा भात का नैवेद्य व्रत सिद्धि में मूल हेतु है। स्थान भेद से आप दोनों की मूर्ति लिखकर पूजन करने से भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होता है। यदि कोई हिंडोले के ऊपरी स्थान पर आप दोनों कि मूर्ति लिखकर पूजन करे तो वह सर्वगुणसंपन्न तथा दीर्घायु पुत्र प्राप्त करेगा। यदि मनुष्य कोषागार में मूर्ति को लिखकर पूजन करता है तो उसके कोष बढ़ते हैं और वे कभी क्षय को प्राप्त नहीं होते। इसी प्रकार पाकालय में पूजन करने से पाकवृद्धि और देवालय में पूजन करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है। शय्यागार में लिखकर पूजन करने से स्त्री का वियोग कभी नहीं होता है। धान्यागार में लिखकर पूजन करने से धान्य की वृद्धि होती है। इस प्रकार मनुष्य उन-उन फलों को प्राप्त करता है।

इस प्रकार सात वर्ष तक करने के बाद उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन से पहले दिन अधिवासन करके रात्रि में जागरण करना चाहिए। सुवर्ण कि प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक सोलह उपचारों से पूजन करने के पश्चात् तिल, घृत, चारु और अपामार्ग तथा अश्वत्थ से युक्त समिधाओं से होम करना चाहिए, अंत में पूर्णाहुति देनी चाहिए। उसके बाद मामा व भांजे को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को तथा अन्य लोगों को भी भोजन कराना चाहिए. स्वयं भी भोजन करना चाहिए। इस विधि से सात वर्ष तक करने पर मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है। जो इसे विद्या कि कामना से करता है, वह वेद व शास्त्र के अर्थों को जाने वाला हो जाता है। बुध बुद्धि प्रदान करते हैं और गुरु बृहस्पति गुरुता प्रदान करते हैं।

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! आपने जो यह कहा है कि इस अवसर पर मामा तथा भांजे को भोजन करना चाहिए, यदि बताने योग्य हो तो इसका कारण बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में अत्यंत दीन तथा दरिद्र कोई दो ब्राह्मण थे, वे दोनों मामा-भानजे थे। उदार पूर्ति हेतु परिश्रमपूर्वक भ्रमण करते हुए वे दोनों किसी नगर में अन्न माँगने के लिए गए थे। उन्होंने घर-घर में श्रावण मास (Shravan Maas) में प्रत्येक वार को उस वार का व्रत होते हुए देखा किन्तु कहीं भी बुध-गुरु का व्रत नहीं देखा तब उन्होंने बहुत देर तक परस्पर विचार किया कि सभी वारों का व्रत तो सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है किन्तु बुध-गुरु का कहीं नहीं अतः चूँकि यह व्रत अनुच्छिष्ट है इसलिए हम दोनों को चाहिए कि इस शुभ व्रत का अनुष्ठान आदरपूर्वक करें। किन्तु हे सनत्कुमार ! इसकी विधि ना जानने के कारण वे दोनों संशय में पड़ गए तब रात्रि में उन्हें स्वप्न में इस व्रत की विधि दृष्टोगोचर हो गई। इसके बाद उन्होंने उसकी विधि के अनुसार व्रत को किया जिससे उन्होंने अपार संपदा प्राप्त की।

प्रतिदिन उनकी संपत्ति बढ़ने लगी और सभी लोगों को ज्ञात भी हो गयी। इस प्रकार सात वर्ष तक करके वे पुत्र व पौत्र आदि से संपन्न हो गए। उसके बाद उनके ऊपर प्रसन्न होकर बुध व गुरु प्रकट हुए और उन्होंने उन दोनों को यह वर दिया – आप दोनों ने हम दोनों के निमित्त इस व्रत को प्रवर्तित किया है अतः आज से कोई भी इस शुभ व्रत को करे उसे व्रत की समाप्ति पर मामा तथा भानजे को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से उसे सभी कामनाओं की परम सिद्धि हो जाती है और अंत में चंद्र सूर्य पर्यन्त उसका हमारे लोक में वास होता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रवण मास माहात्म्य में “बुधगुरुव्रत कथन” नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य सातवाँ अध्याय | Chapter -7 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Maas 07 Adhyay

Shravan Maas 07 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य सातवाँ अध्याय
Chapter -7

 

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मंगलागौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं अत्युत्तम भौम व्रत का वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठान करने मात्र से वैधव्य नहीं होता है। विवाह होने के पश्चात पाँच वर्षों तक यह व्रत करना चाहिए। इसका नाम मंगला गौरी व्रत है. यह पापों का नाश करने वाला है। विवाह के पश्चात प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष में पहले मंगलवार को यह व्रत आरंभ करना चाहिए। केले के खम्भों से सुशोभित एक पुष्प मंडल बनाना चाहिए और उसे अनेक प्रकार के फलों तथा रेशमी वस्त्रों से सजाना चाहिए। उस मंडप में अपने सामर्थ्य के अनुसार देवी की सुवर्णमयी अथवा अन्य धातु की बनी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। उस प्रतिमा को सोलह उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों से सोलह चावलों से तथा सोलह चने की दालों से मंगला गौरी नामक देवी की पूजा करनी चाहिए और सोलह बत्तियों से सोलह दीपक जलाने चाहिए। दही तथा भात का नैवेद्य भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। देवी के पास ही पत्थर का सील तथा लोढ़ा स्थापित करना चाहिए। पाँच वर्ष तक इस प्रकार से करने के पश्चात उद्यापन करना चा माता को वायन प्रदान करना चाहिए जिसकी विधि आप सुनिए – अपने सामर्थ्य अनुसार एक पल प्रमाण सुवर्ण की अथवा उसके आधे प्रमाण की अथवा उसके भी आधे प्रमाण की मंगला गौरी की प्रतिमा निर्मित करानी चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार स्वर्ण आदि के बने तंडुलपूरित पात्र पर वस्त्र तथा रमणीय कंचु की ओढ़नी रखकर उन दोनों के ऊपर देवी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। पास में चाँदी से निर्मित सिल तथा लोढ़ा रखकर माता को वायन प्रदान करना चाहिए। इसके बाद सोलह सुवासिनियों को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए। हे विप्र ! इस विधि से व्रत करने पर सात जन्मों तक सौभाग्य बना रहता है और पुत्र, पुत्र आदि के साथ संपदा विद्यमान रहती है।

सनत्कुमार बोले – सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया था और किसको इसका फल प्राप्त हुआ? हे शम्भो ! जिस तरह से मुझे इसके प्रति निष्ठा हो जाए, कृपा करके वैसे ही बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में कुरु देश में श्रुतकीर्ति नामक एक विद्वान्, कीर्तिशाली, शत्रुओं का नाश करने वाला, चौसंठ कलाओं का ज्ञाता तथा धनुर्विद्या में कुशल राजा हुआ था। पुत्र के अतिरिक्त अन्य सभी शुभ चीजें उस राजा के पास थी। अतः वह राजा संतान के विषय में अत्यंत चिंतित हुआ और जप-ध्यानपूर्वक देवी की आराधना करने लगा तब उसकी कठोर तपस्या से देवी प्रसन्न हो गई और उस से यह वचन बोली – हे सुव्रत ! वर माँगों।

श्रुतकीर्ति बोला – हे देवी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सुन्दर पुत्र दीजिए। हे देवी ! आपकी कृपा से अन्य किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है। उसका यह वचन सुनकर पवित्र मुसकान वाली देवी ने कहा – हे राजन ! तुमने अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है, फिर भी कृपा वश मैं तुम्हें अवश्य दूंगी। किन्तु हे राजेंद्र ! सुनिए, यदि परम गुणी पुत्र चाहते हो तो वह केवल सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा और यदि रूप तथा विद्या से विहीन पुत्र चाहते हो तो दीर्घजीवी होगा। देवी का यह वचन सुनकर राजा चिंतित हो उठा और पुनः अपनी पत्नी से परामर्श कर के उसने गुणवान तथा सभी शुभ लक्षणों से संपन्न सोलह वर्ष की आयु वाला पुत्र माँगा तब देवी ने भक्ति संपन्न राजा से कहा – हे नृपनन्दन ! मेरे मंदिर के द्वार पर आम का वृक्ष है, उसका एक फल लाकर मेरी आज्ञा से अपनी भार्या को उसे भक्षण करने हेतु प्रदान करो। जिससे वह शीघ्र ही गर्भ धारण करेगी, इसमें संदेह नहीं है।

प्रसन्न होकर राजा ने वैसा ही कियाऔर उसकी पत्नी ने गर्भ धारण कर लिया। दसवें महीने में उसने देवतुल्य सुन्दर पुत्र को जन्म दिया तब हर्ष तथा शोक से युक्त राजा ने बालक का जातकर्म आदि संस्कार किया और शिव (Lord Shiv) का स्मरण करते हुए उसका नाम चिरायु रखा। इसके बाद पुत्र के सोलह वर्ष के होने पर पत्नी सहित राजा चिंता में पड़ गए और वे विचार करने लगे कि यह पुत्र बड़े कष्ट से प्राप्त हुआ है और मैं इसकी दुःखद मृत्यु अपने ही सामने कैसे देख सकूंगा, ऐसा विचार कर के राजा ने पुत्र को उसके मामा के साथ काशी भेज दिया। प्रस्थान के समय राजा की पत्नी ने अपने भाई से कहा कि कार्पटिक का वेश धारण कर के आप मेरे पुत्र को काशी ले जाइए। मैंने भगवान् मृत्युंजय से पूर्व में पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और कहा था कि – “हे विश्वेश ! आप जगत्पति की यात्रा के लिए मैं उस पुत्र को अवश्य भेजूंगी”। अतः आप मेरे पुत्र को आज ही ले जाइए और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा कीजिएगा। अपनी बहन की यह बात सुनकर भांजे के साथ वह चल पड़ा।

कई दिनों तक चलते-चलते वह ‘आनंद’ नामक नगर में पहुंचा। वहाँ सभी प्रकार की समृद्धियों से संपन्न वीरसेन नाम वाला राजा रहता था। उस राजा की एक सर्वलक्षण संपन्न, युवावस्था प्राप्त, मनोहर तथा रूपलावण्यमयी मंगलागौरी नामक कन्या थी। सभी उपमानों को तुच्छ कर के सौंदर्य-अभिवृद्धि को प्राप्त वह कन्या किसी समय सखियों के साथ नगर के उपवन में क्रीड़ा करने के लिए गई हुई थी। उसी समय वह चिरायु तथा उसका मामा वे दोनों भी वहाँ पहुँच गए और उन कन्याओं को देखने की लालसा से वहीँ विश्राम करने लगे। इसी बीच विनोदपूर्वक क्रीड़ा करती हुई उन कन्याओं में से किसी एक ने कुपित होकर राजकुमारी को रांडा – यह कुवचन कह दिया तब उस अशुभ वचन को सुनकर राजकुमारी ने कहा – “तुम अनुचित बात क्यों बोल रही हो, मेरे कुल में तो इस प्रकार की कोई नहीं है। मंगला गौरी की कृपा से तथा उनके व्रत के प्रभाव से विवाह के समय जिस के सर पर मेरे हाथ से अक्षत पड़ेंगे, हे सखी ! वह यदि अल्प आयु वाला होगा तो भी चिरंजीवी हो जाएगा।” इसके बाद वह सभी कन्याएं अपने-अपने घर चली गई।

उसी दिन राजकुमारी का विवाह था। बाह्लीक देश के दृढ़धर्मा नामक राजा के सुकेतु नाम वाले पुत्र के साथ उसका विवाह निश्चित किया गया था। वह सुकेतु विद्याहीन, कुरूप तथा बहरा था तब सुकेतु के साथ आए हुए उन लोगों ने विचार किया कि इस समय कोई दूसरा श्रेष्ठ वर ले जाना चाहिए और विवाह संपन्न हो जाने के बाद वहाँ सुकेतु पहुँच जाए। उन लोगों ने चिरायु के मामा के पास जाकर याचना की कि आप इस बालक को हमें दे दीजिए, जिस से हमारा कार्य सिद्ध हो जाए। इस पृथ्वी पर परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। उनकी बात सुनकर चिरायु का मामा मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसने उपवन में पहले ही कन्या मंगला गौरी की बात सुन ली थी फिर भी उसने एक बार कहा कि आप लोग इसे किसलिए मांग रहे हैं? कार्य की सिद्धि हेतु वस्त्र, अलंकार आदि मांगे जाते हैं, वर तो कहीं भी नहीं माँगा जाता तथापि आप लोगों का सम्मान रखने के लिए मैं इसे दे रहा हूँ।
इसके बाद चिरायु को वहाँ ले जाकर उन लोगों ने विवाह संपन्न कराया. सप्तपदी आदि के हो जाने पर रात्रि में शिव-पार्वती की प्रतिमा के समक्ष उस चिरायु ने हर्षयुक्त होकर मंगलागौरी के साथ शयन किया। उसी दिन चिरायु के सोलह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और अर्धरात्रि में साक्षात काल सर्परूप में वहाँ आ गया. इसी बीच संयोगवश राजकुमारी जाग गई। उसने उस महासर्प को वहाँ देखा और वह भय से व्याकुल होकर कांपने लगी तभी उस कन्या ने धैर्य धारण सोलह उपचारों से सर्प की पूजा की और पीने के लिए उसे दूध दिया। उसने दीनता भरी वाणी में उस सर्प की प्रार्थना तथा स्तुति की। मंगलागौरी प्रार्थना करने लगी कि मैं उत्तम व्रत को करुँगी जिससे मेरे पति जीवित रहें, ये जिस तरह से चिरकाल तक जीवित रहें, आप वैसा कीजिए।

इतने में सर्प वहाँ स्थित एक कमण्डलु में प्रवेश कर गया और उस मंगलागौरी ने अपनी कंचुकी से उस कमण्डलु का मुँह बाँध दिया। इसी बीच उसका पति अंगड़ाई लेकर जाग गया और अपनी पत्नी से बोला – हे प्रिये ! मुझे भूख लगी है तब वह अपनी माता के पास जाकर खीर, लड्डू आदि ले आई और उसके द्वारा दिए भोज्य पदार्थ को उसने प्रसन्न मन होकर खाया। भोजन के पश्चात् हाथ धोते समय उसके हाथ से अँगूठी गिर पड़ी। ताम्बूल खाकर वह पुनः सो गया। इसके बाद मंगलागौरी कमण्डलु को फेंकने के लिए जाने लगी। विधि की कैसी गति है कि उस कमण्डलु में से बाहर की ओर जगमग करती हुई हारकान्ति को देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई। घट में स्थित उस हार को उसने अपने कंठ में धारण कर लिया। इसके बाद कुछ रात शेष रहते ही चिरायु का मामा आकर उसे ले गया। इसके बाद वर पक्ष के लोग सुकेतु को वहाँ ले आए। उसे देख मंगलागौरी ने कहा कि यह मेरा पति नहीं है तब उन सभी ने उससे कहा – हे शुभे ! तुम यह क्या बोल रही हो? यहाँ तुम्हारा कोई परिचायक हो तो उसे हम लोगों को बताओ।

मंगलागौरी बोली – जिसने रात्रि में नौ रत्नों से बानी अँगूठी दी है, उसकी अंगुली में इसे डालकर परिचायक निशानी देख लें। मेरे पति ने रात्रि में मुझे जो हार दिया था, उसके रत्नों का समुदाय कैसा है, इस बात को यह बताए, यह तो कोई अन्य ही है। इसके अतिरिक्त रात्रि में आम सींचते समय उनका पैर कुमकुम से लिप्त हो गया था, वह मेरी जांघ पर अब भी विद्यमान है, उसे आप लोग शीघ्र देख लें। साथ ही रात में परस्पर भाषण तथा भोजन आदि जो कुछ किया गया था, उसे भी यह बता दें तब यह निश्चय ही मेरा पति है।

इस प्रकार उसका वचन सुनकर सभी ठीक है-ठीक है कहने लगे किन्तु जब एक भी बात न मिली तब सभी ने सुकेतु को उसका पति होने से निषिद्ध कर दिया और वर पक्ष वाले जिस तरह से आए थे उसी तरह से चले गए। उसके बाद अपने वंश को बढ़ाने वाले, महान यश से संपन्न तथा परम मनस्वी मंगलागौरी के पिता ने अन्न, पान आदि का सत्र चलाया। उन्होंने वर पक्ष का वृत्तांत कानों-कान सुन लिया कि स्वरुप से कुरूप होने के कारण लोगों के द्वारा किसी अन्य को वर के रूप में आदरपूर्वक लाया गया था तब उन्होंने अपनी कन्या को परदे के भीतर बिठा दिया। उसके बाद एक वर्ष बीतने पर यात्रा करके चिरायु अपने मामा के साथ यह देखने आया कि विवाह के बाद वहाँ क्या हुआ? तब उसे गवाक्ष के भीतर से देखकर वह मंगलागौरी अत्यंत प्रसन्न हुई और माता-पिता से बोली कि मेरे पति आ गए हैं।

राजा ने अपने सुहृज्जनों को बुलाकर पूर्व में कहे गए सभी परिचायकों को निशानी को देखकर मंद मुस्कान वाली अपनी कन्या चिरायु को सौंप दी। राजा ने शिष्टजनों को साथ लेकर विवाह का उत्सव कराया। इसके बाद राजा वीरसेन ने वस्त्र, आभूषण आदि, सेना, घोड़े, रथ और अन्य भी बहुत-सी सामग्रियां देकर उन्हें विदा किया।

उसके बाद कुल को आनंदित करने वाला वह चिरायु पत्नी तथा मामा को साथ लेकर सेना के साथ अपने नगर पहुँचा। लोगों के मुख से उसे आया हुआ सुनकर उसके माता-पिता को विशवास नहीं हुआ, उन्होंने सोचा कि प्रारब्ध अन्यथा कैसे हो सकता है! इतने में वह अपने माता-पिता के पास आ गया और स्नेह से परिपूर्ण वह चिरायु भक्तिपूर्वक उनके चरणों में गिर पड़ा, तब अपने पुत्र का मस्तक सूंघ कर उन दोनों ने परम आनंद प्राप्त किया। पुत्रवधु मंगलागौरी ने भी सास-ससुर को प्रणाम किया. तब सास उसे अपनी गोद में बिठाकर सारा वृत्तांत शीघ्रतापूर्वक पूछने लगी।

हे महामुने ! तब पुत्रवधु ने भी मंगलागौरी के उत्तम व्रत माहात्म्य तथा जो कुछ घटित हुआ था वह सब वृत्तांत बताया। हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे इस मंगलागौरी व्रत का वर्णन कर दिया। जो कोई भी इसका श्रवण करता है अथवा जो इसे कहता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! इस प्रकार शिवजी ने सनत्कुमार को यह मंगलागौरी व्रत बताया और उन्होंने सभी कार्यों को पूर्ण करने वाले इस व्रत को सुनकर महान आनंद प्राप्त किया।

॥इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण माहात्म्य में “मंगलागौरी व्रत कथन” नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥

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श्रावण माह माहात्म्य छठवाँ अध्याय | Chapter -6 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 06 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य छठवाँ अध्याय
Chapter -6

 

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सोमवार व्रत विधान

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! मैनें रविवार का हर्षकारक माहात्म्य सुन लिया, अब आप श्रावण मास (Shravan Maas) में सोमवार का माहात्म्य मुझे बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! सूर्य मेरा नेत्र है, उसका माहात्म्य इतना श्रेष्ठ है तो फिर उमासहित (सोम) मेरे नाम वाले उस सोमवार का कहना ही क्या! उसका जो माहात्म्य मेरे लिए वर्णन के योग्य है, उसे मैं आपसे कहता हूँ। सोम चन्द्रमा का नाम है और यह ब्राह्मणों का राजा है, यज्ञों का साधन भी सोम है। उस सोम के नाम के कारणों को आप सावधान होकर मुझसे सुनिए क्योंकि यह वार मेरा ही स्वरुप है, अतः इसे सोम कहा गया है। इसीलिए यह समस्त राज्य का प्रदाता तथा श्रेष्ठ है। व्रत करने वाले को यह संपूर्ण राज्य का फल देने वाला है।

हे विप्र ! उसकी विधि सुनिए, मैं आपको विस्तारपूर्वक बता रहा हूँ। बारहों महीनों में सोमवार अत्यंत श्रेष्ठ है। उन मासों में यदि सोमवार व्रत करने में असमर्थ हो तो श्रावण मास (Shravan Maas) में इसे अवश्य करना चाहिए। इस मास में इस व्रत को करके मनुष्य वर्ष भर के लिए व्रत का फल प्राप्त करता है। श्रावण में शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को यह संकल्प करें कि “मैं विधिवत इस व्रत को करूँगा/करुँगी, शिवजी मुझ पर प्रसन्न हों” । इस प्रकार चारों सोमवार के दिन और यदि पांच हो जाए तो उसमें भी प्रातःकाल यह संकल्प करें और रात्रि में शिवजी का पूजन करें। सोलह उपचारों से सांयकाल में भी शिवजी की पूजा करें और एकाग्रचित्त होकर इस दिव्य कथा का श्रवण करें।

हे सनत्कुमार ! इस सोमवार की कही जाने वाली विधि को अब मुझसे सुनिए। श्रावण मास (Shravan Maas) के प्रथम सोमवार को इस श्रेष्ठ व्रत को प्रारम्भ करे। मनुष्य को चाहिए कि अच्छी तरह स्नान कर के पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण कर ले और काम, क्रोध, अहंकार, द्वेष, निंदा आदि का त्याग कर के मालती, मल्लिका आदि श्वेत पुष्पों को लाएं। इनके अतिरिक्त अन्य विविध पुष्पों से तथा अभीष्ट पूजनोपचारों के द्वारा “त्र्यम्बक” – इस मूल मन्त्र से शिवजी की पूजा करें। उसके बाद कहें – मैं शव, भावनाश, महादेव, उग्र, उग्रनाथ, भाव, शशिमौलि, रूद्र, नीलकंठ, शिव (Lord Shiv) तथा भवहारी का ध्यान करता हूँ।

इस प्रकार अपने विभव के अनुसार मनोहर उपचारों से देवेश शिव (Lord Shiv) का विधिवत पूजन करें, जो इस व्रत को करता है उसके पुण्य फल को सुनिए। जो लोग सोमवार के दिन पार्वती सहित शिव (Lord Shiv) की पूजा करते हैं, वे पुनरावृत्ति से रहित अक्षय लोक प्राप्त करते हैं। हे सनत्कुमार ! इस मास में नक्तव्रत से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसे मैं संक्षेप में कहता हूँ। देवताओं तथा दानवों से भी अभेद्य सात जन्मों का अर्जित पाप नक्तभोजन से नष्ट हो जाता है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए अथवा इस अत्युत्तम व्रत को उपवासपूर्वक करें। इसे करने से पुत्र कि इच्छा रखने वाला मनुष्य पुत्र प्राप्त करता है और धन चाहने वाला धन प्राप्त करता है। वह जिस-जिस अभीष्ट की कामना करता है, उसे पा जाता है। इस लोक में दीर्घकालिक वांछित सुखोपभोगों को भोगकर अंत में श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ होकर वह रुद्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। चित्त चंचल है, धन चंचल है और जीवन भी चंचल है – ऐसा समझकर प्रयत्नपूर्वक व्रत का उद्यापन करना चाहिए। चांदी के वृषभ पर विराजमान सुवर्ण निर्मित शिव (Lord Shiv) तथा पार्वती जी की प्रतिमा अपने सामर्थ्य के अनुसार बनानी चाहिए, इसमें धन की कृपणता नहीं करनी चाहिए।

उसके बाद एक दिव्य तथा शुभ लिंगतोभद्र-मंडल बनाए तथा उसमें दो श्वेत वस्त्रों से युक्त एक घट स्थापित करें। घट के ऊपर तांबे अथवा बांस का बना हुआ पात्र रखें और उसके ऊपर उमासहित शिव (Lord Shiv) को स्थापित करें। उसके बाद श्रुति, स्मृति तथा पुराणों में कहे गए मन्त्रों से शिव (Lord Shiv) की पूजा करें। पुष्पों का मंडप बनाएं तथा उसके ऊपर सुन्दर चंदोवा लगाएं। उसमें गीतों तथा बाजों की मधुर ध्वनि के साथ रात में जागरण करें। उसके बाद बुद्धिमान मनुष्य अपने गृह्यसूत्र में निर्दिष्ट विधान के अनुसार अग्नि-स्थापन करे और फिर शव आदि ग्यारह श्रेष्ठ नामों से पलाश की समिधाओं से एक सौ आठ आहुति प्रदान करें, यव, व्रीहि, तिल, आदि की आहुति “आप्यायस्व.” – इस मन्त्र से दें और बिल्वपत्रों की आहुति “त्र्यम्बक.” अथवा षडक्षर मन्त्र – “ॐ नमः शिवाय” – से प्रदान करें।

उसके बाद स्विष्टकृत होम करके पूर्णाहुति देकर आचार्य का पूजन करें और बाद में उन्हें गौ प्रदान करें। उसके बाद ग्यारह श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा उन्हें वंशपात्र सहित ग्यारह घाट प्रदान करें। इसके बाद पूजित देवता को तथा देवता को अर्पित सभी सामग्री आचार्य को दे और तत्पश्चात प्रार्थना करें – “मेरा व्रत परिपूर्ण हो और शिवजी मुझ पर प्रसन्न हों” । उसके बाद बंधुओं के साथ हर्षपूर्वक भोजन करें। इसी विधान से जो मनुष्य इस व्रत को करता है वह जिस-जिस अभिलषित वस्तु की कामना करता है, उसे प्राप्त कर लेता है और अंत में शिव (Lord Shiv) लोक को प्राप्त होकर उस लोक में पूजित होता है। हे सनत्कुमार ! सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने इस मंगलकारी सोमवार व्रत को किया था। श्रेष्ठ, आस्तिक तथा धर्मपरायण राजाओं ने भी इस व्रत को किया था। जो इस व्रत का नित्य श्रवण करता है वह भी उस व्रत के करने का फल प्राप्त करता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “सोमवार व्रत कथन” नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय | Chapter -5 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 05 Adhyay

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श्रावण माह माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय
Chapter -5

 

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श्रावण मास (Shravan Maas) में किए जाने वाले विभिन्न व्रतानुष्ठान और रविवार व्रत वर्णन में सुकर्मा द्विज की कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! करोड़ पार्थिव लिंगों के माहात्म्य तथा पुण्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। जब मात्र एक लिंग का माहात्म्य नहीं कहा जा सकता तो फिर करोड़ लिंगों के विषय में कहना ही क्या ! मनुष्य को चाहिए की करोड़ लिंग निर्माण असमर्थता में एक लाख लिंग बनाए या हजार लिंग या एक सौ लिंग ही बनाए, यहां तक कि एक लिंग बनाने से भी मेरी सन्निधि मिल जाती है। षडाक्षर मन्त्र से सोलह उपचारों के द्वारा भक्तिपूर्ण मन से भगवान् शिव (Lord Shiv) कि पूजा करनी चाहिए। ग्रह यज्ञ के साथ उद्यापन करना चाहिए, उसके बाद होम करना चाहिए और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

हे सनत्कुमार ! इस अनुष्ठान को करने वाले की अकाल मृत्यु नहीं होगी। यह व्रत बांझपन को दूर करने वाला, सभी विपत्तियों का नाश करने वाला तथा सभी संपत्तियों कि वृद्धि करने वाला है। मृत्यु के पश्चात वह मनुष्य कल्पपर्यन्त मेरे समीप कैलाशवास करता है। जो मनुष्य श्रावण मास (Shravan Maas) में पंचामृत से शिवजी का अभिषेक करता है वह सदा पंचामृत का पान करने वाला, गोधन से संपन्न, अत्यंत मधुर भाषण करने वाला तथा त्रिपुर के शत्रु भगवान् शिव (Lord Shiv) को प्रिय होता है। जो इस मास में अनोदान व्रत करने वाला तथा हविष्यान्न ग्रहण करने वाला होता है, वह व्रीहि आदि सभी प्रकार के धान्यों का अक्षय निधिस्वरूप हो जाता है। पत्तल पर भोजन करने वाला श्रेष्ठ मनुष्य सुवर्णपात्र में भोजन करने वाला तथा शाक को त्याग करने से शाककर्ता हो जाता है।

श्रावण मास (Shravan Maas) में केवल भूमि पर सोने वाला कैलाश में निवास प्राप्त करता है। इस मास में एक भी दिन प्रातःस्नान करने से मनुष्य को एक वर्ष स्नान करने के फल का भागी कहा गया है। इस मास में जितेन्द्रिय होने से इन्द्रियबल प्राप्त होता है। इस मास में स्फटिक, पाषाण, मृत्तिका, मरकतमणि, पिष्ट(पीठी), धातु, चन्दन, नवनीत आदि से निर्मित अथवा अन्य किसी भी शिवलिंग में साथ ही किसी स्वयं आविर्भूत न हुए लिंग में श्रेष्ठ पूजा करने वाला मनुष्य सैकड़ों ब्रह्महत्या को भस्म कर डालता है।

किसी तीर्थक्षेत्र में सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के अवसर पर एक लाख जप से जो सिद्धि होती है, वह इस मास में एक बार के जप से ही हो जाती है। अन्य समय में जो हजार नमस्कार और प्रदक्षिणाएँ की जाती हैं, उनका जो फल होता है, वह इस मास में एक बार करने से ही प्राप्त हो जाता है। मुझको प्रिय इस श्रावण मास (Shravan Maas) में वेद पारायण करने पर सभी वेद मन्त्रों की पूर्ण रूप से सिद्धि हो जाती है। श्रद्धायुक्त होकर इस मास में एक हजार बार पुरुष-सूक्त का पाठ करना चाहिए अथवा कलियुग में उसका चौगुना पाठ करना चाहिए अथवा वर्ण संख्या का सौ गुना पाठ करना चाहिए अथवा वह करने में असमर्थ हो तो आलस्यहीन होकर मात्र एक सौ पाठ करने चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

गुरुपत्नी के साथ संसर्गजन्य पाप के लिए यही महान प्रायश्चित है। इसके समान पुण्यप्रद, पवित्र तथा पापनाशक कुछ भी नहीं है। पुरुषसूक्त के जप के बिना इस मास में एक भी दिन व्यतीत नहीं करना चाहिए। जो मनुष्य इस फल को अर्थवाद कहता है वह नरकगामी होता है। इस महीने में समिधा, चारु, तिल और घृत से ग्रहयज्ञ होम करना चाहिए। शिव (Lord Shiv) के रूपों का भली-भाँति ध्यान आदि करके धुप, गंध, पुष्प, नैवेद्य आदि से पूजन करना चाहिए और अपने सामर्थ्य के अनुसार कोटिहोम, लक्षहोम अथवा दस सहस्त्र होम करना चाहिए।

व्याहृतियों – ॐ भूः, ॐ भुवः, ॐ स्वः –के साथ तिलों के द्वारा भी यह ग्रहयज्ञ नामक होम किया जाता है। हे सनत्कुमार ! इसके बाद अब मैं वारों के व्रतों का वर्णन करूंगा, आप सुनिए।

हे अनघ ! उनमें सर्वप्रथम मैं आपको रविवार का व्रत बताऊंगा। इस संबंध में लोग एक प्राचीन इतिहास को कहते हैं। प्रतिष्ठानपुर में सुकर्मा नामक एक द्विज था, वह दरिद्र, कृपण तथा भिक्षावृत्ति में लगा रहता था। एक बार वह धान्य माँगने के लिए घूमते-घूमते नगर में गया। उसने किसी एक गृहस्थ के घर में मिलकर रविवार का उत्तम व्रत करती हुई स्त्रियों को देखा तब उसे देखकर वे स्त्रियां परस्पर कहने लगी कि इस पूजा विधि को शीघ्रतापूर्वक छिपा लो। इस पर वह विप्र उन स्त्रियों से बोला – हे श्रेष्ठ स्त्रियों ! आप लोग इस व्रत को क्यों छिपा रही हैं? समान चित्त वाले सज्जनों के लिए परमार्थ ही स्वार्थ है। मैं दरिद्र तथा दुखी हूँ, इस श्रेष्ठ व्रत को सुनकर मैं भी इसे करूँगा, अतः आप लोग इस व्रत का विधान व फल अवश्य बताएं।

स्त्रियां बोली – हे द्विज ! इस व्रत के करने में आप उन्माद तथा प्रमाद करेंगे अथवा भूल जाएंगे अथवा इसके प्रति अभक्ति या अनास्था रखने लगेंगे, अतः आपको यह व्रत कैसे बताऊँ ! उनकी यह बात सुनकर उनमें जो एक प्रौढ़ा स्त्री थी वह उस ब्राह्मण से व्रत तथा व्रत कि विधि बताने लगी।

हे ब्राह्मण ! श्रावण मास (Shravan Maas) के शुक्ल पक्ष के प्रथम रविवार को मौन होकर उठ करके शीतल जल से स्नान करें। उसके बाद अपना नित्यकर्म संपन्न करके पान के एक शुभ दल पर रक्त चन्दन से सूर्य के समान पूर्ण गोलाकार बारह परिधियों वाला सुन्दर मंडल बनाएं। उस मंडल में रक्त चंदन से संज्ञा सहित सूर्य का पूजन करें। उसके बाद घुटनों के बल भूमि पर झुककर बारहों मंडलों पर अलग-अलग रक्तचंदन तथा जपाकुसुम से मिश्रित अर्घ्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सूर्य को विधिवत प्रदान करें और लाल अक्षत, जपाकुसुम तथा अन्य उपचारों से पूजन करें। उसके बाद मिश्री से युक्त नारिकेल के बीज का नैवेद्य अर्पित करके आदित्य मन्त्रों से सूर्य कि स्तुति करें और श्रेष्ठ द्वादश मन्त्रों से बारह नमस्कार तथा प्रदक्षिणाएँ करें। उसके बाद छह तंतुओं से बनाए गए सूत्र में छह ग्रंथियां बनाकर देवेश सूर्य को अर्पण करके उसे अपने गले में बांधे और पुनः बारह फलों से युक्त वायन ब्राह्मण को प्रदान करें।

इस व्रत कि विधि को किसी के सामने नहीं सुनाना चाहिए। हे विप्र ! इस विधि से व्रत के किए जाने पर धनहीन व्यक्ति धन प्राप्त कर्ता है, पुत्रहीन पुत्र प्राप्त कर्ता है, कोढ़ी कोढ़ से मुक्त हो जाता है, बंधन में पड़ा व्यक्ति बंधन से छूट जाता है, रोगी व्यक्ति रोग से मुक्त हो जाता है। हे विपेन्द्र ! अधिक कहने से क्या प्रयोजन, साधक जिस-जिस अभीष्ट कि कामना कर्ता है वह इस व्रत के प्रभाव से उसे मिल जाता है।

इस प्रकार श्रावण के चार रविवारों और कभी-कभी पांच रविवारों में इस व्रत को करना चाहिए। इसके बाद व्रत की संपूर्णता के लिए उद्यापन करना चाहिए। हे विपेन्द्र आप भी इसी प्रकार करें, इससे आपकी सभी कामनाओं की सिद्धि हो जाएगी। उसके बाद उन पतिव्रताओं को नमस्कार करके वह ब्राह्मण अपने घर आ गया। उसने जैसा सूना था, उसी विधि से उस संपूर्ण व्रत को किया और अपनी दोनों पुत्रियों को भी वह विधि सुनाई। उस व्रत के सुनाने मात्र से शिवजी के दर्शन से तथा उनके पूजन के प्रभाव से वे कन्याएं देवांगनाओं के सदृश हो गई।

उसी समय से उस ब्राह्मण के घर में लक्ष्मी ने प्रवेश किया और वह अनेक उपायों तथा निमित्तों से धनवान हो गया। किसी दिन उस नगर के राजा ने ब्राह्मण के घर से होकर राजमार्ग से जाते समय खिड़की में कड़ी उन दोनों सुन्दर तथा अनुपमेय कन्याओं को देख लिया। तीनों लोकों में कमल, चन्द्रमा आदि जो भी सुन्दर वस्तुएं हैं, उन्हें वे दोनों कन्याएं अपने शरीर के अवयवों से तिरस्कृत कर रही हैं। उन्हें देखकर राजा मोहित हो गए और क्षण भर के लिए वहीँ खड़े हो गए। ब्राह्मण को शीघ्र बुलाकर उन्होंने दोनों कन्याओं को मांग लिया तब उस ब्राह्मण ने भी हर्षित होकर दोनों कन्याएं राजा को प्रदान कर दी। उस राजा को पति रूप में प्राप्त करके वे कन्याएं भी प्रसन्न हो गई। वे स्वयं इस व्रत को करने लगी और पुत्र, पौत्र आदि से संपन्न हो गई।

हे मुने ! महान ऐश्वर्य देने वाले इस व्रत को मैंने आपसे कह दिया। हे विधिनंदन ! जिस व्रत के श्रवण मात्र से मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है, उसके अनुष्ठान करने के फल का वर्णन कैसे किया जाए।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “प्रकीर्णक-नानाव्रत – रविवार व्रतादि कथन” नामक पांचवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य चौथा अध्याय | Chapter -4 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 04 Adhyay

Shravan Mass 04 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य चौथा अध्याय
Chapter -4

 

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धारणा-पारणा, मासोपवास व्रत और रूद्र वर्तिव्रत वर्णन में सुगंधा का आख्यान

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं धारण-पारण व्रत का वर्णन करूँगा। प्रतिपदा के दिन से आरंभ कर के सर्वप्रथम पुण्याहवाचन कराना चाहिए। इसके बाद मेरी प्रसन्नता के लिए धारण-पारण व्रत का संकल्प करना चाहिए। एक दिन धारण व्रत करें और दूसरे दिन पारण व्रत करें। धारण में उपवास तथा पारण में भोजन होता है। श्रावण मास (Shravan Maas) के समाप्त होने पर सबसे पहले पुण्याहवाचन कराना चाहिए। इसके बाद हे मानद ! आचार्य तथा अन्य ब्राह्मणों का वरन करना चाहिए। तत्पश्चात पार्वती तथा शिव (Lord Shiv) की स्वर्ण निर्मित प्रतिमा को जल से भरे हुए कुम्भ पर स्थापित कर रात में भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए तथा पुराण-श्रवण आदि के साथ रात भर जागरण करना चाहिए।

प्रातःकाल अग्निस्थापन कर के विधिपूर्वक होम करना चाहिए। “त्र्यम्बक” इस मन्त्र से तिलमिश्रित भात की आहुति डालनी चाहिए। उसी प्रकार शिव (Lord Shiv) गायत्री मन्त्र से घृत मिश्रित भात की आहुति डाले और पुनः षडाक्षर मन्त्र से खीर की आहुति प्रदान करें। तदनन्तर पूर्णाहुति देकर होमशेष का समापन करना चाहिए। इसके बाद में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए तथा साथ ही आचार्य की पूजा करनी चाहिए। हे महाभाग ! इस प्रकार से उद्यापन संपन्न कर के मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकों से मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। अतएव इस महाव्रत को अवश्य करना चाहिए।

हे मुने ! अब श्रावण में मास-उपवास की विधि को आदरपूर्वक सुनिए। प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल इस व्रत का संकल्प करें। स्त्री हो या पुरुष मन तथा इन्द्रियों को नियंत्रित कर के इस व्रत को करें। अमावस्या तिथि को लोक का कल्याण करने वाले वृष ध्वज शंकर की अर्चना-पूजा षोडश उपचारों से करें। तदनन्तर अपनी सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र तथा अलंकार आदि से ब्राह्मणों का पूजन करें, उन्हें भोजन कराएं तथा प्रणाम कर के विदा करें। इस प्रकार से किया गया मास-उपवास व्रत मेरी प्रसन्नता कराने वाला होता है। हे सनत्कुमार ! मनुष्यों को सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाले लक्षसङ्ख्यापरिमित रुद्रवर्ती व्रत के विधान को सावधान होकर सुनिए।

अत्यंत आदरपूर्वक कपास के ग्यारह तंतुओं से बत्तियाँ बनानी चाहिए। वे रुद्रवर्ती नामवाली बत्तियाँ मुझे प्रसन्न करने वाली हैं। “मैं श्रावण मास (Shravan Maas) में भक्तिपूर्वक डिवॉन के देव गौरीपति महादेव का इन एक लक्ष संख्यावाली बत्तियों से नीराजन करूँगा” – इस प्रकार श्रावण मास (Shravan Maas) के प्रथम दिन विधिपूर्वक संकल्प कर के महीने भर प्रतिदिन शिवजी का पूजन कर एक हजार बत्तियों से नीराजन करें और अंतिम दिन इकहत्तर हजार बत्तियों से नीराजन करें अथवा प्रतिदिन तीन हजार बत्तियाँ आदरपूर्वक अर्पण करें और अंतिम दिन तेरह हजार बत्तियाँ समर्पित करें अथवा एक ही दिन सभी एक लाख बत्तियों को मेरे समक्ष जलाएं। प्रचुर मात्रा में घृत में भिगोई जो स्निग्ध बत्तियाँ होती हैं, वे मुझे प्रिय हैं। ततपश्चात मुझ विश्वेश्वर का पूजन कर के कथा-श्रवण करें।

सनत्कुमार बोले – हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे जगदानंदकारक ! कृपा करके आप मुझे इस व्रत का प्रबह्व बताएं। हे प्रभो ! इस व्रत को सर्वप्रथम किसने किया तथा इसके उद्यापन में क्या विधि होती है?

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! व्रतों में उत्तम इस रूद्र वर्ति व्रत के विषय में सावधान होकर सुनिए। यह व्रत महापुण्यप्रद, सभी उपद्रवों का नाश करने वाला, प्रीति तथा सौभाग्य देने वाला, पुत्र-पौत्र-समृद्धि प्रदान करने वाला, व्रत करने वाले के प्रति शंकर जी की प्रीति उत्पन्न करने वाला तथा परम पद शिवलोक को देने वाला है। तीनों लोकों में इस रुद्रवर्ती के सामान कोई उत्तम व्रत नहीं है। इस संबंध में लोग यह प्राचीन दृष्टांत देते हैं –क्षिप्रा नदी के रम्य तट पर उज्जयिनी नामक सुन्दर नगरी थी। उस नगरी में सुगंधा नामक एक परम सुंदरी वीरांगना थी। उसने अपने साथ संसर्ग के लिए अत्यंत दुःसह शुल्क निश्चित किया था। एक सौ स्वर्णमुद्रा देकर संसर्ग करने की शर्त राखी थी। उस सुगंधा ने युवकों तथा ब्राह्मणों को भ्रष्ट कर दिया था।. उसने राजाओं तथा राजकुमारों को नग्न कर के उनके आभूषण आदि लेकर उनका बहुत तिरस्कार किया था। इस प्रकार उस सुगंधा ने बहुत लोगों को लूटा था।

उसके शरीर की सुगंध से कोस भर का स्थान सुगन्धित रहता था। वह पृथ्वी तल पर रूप-लावण्य और कांति की मानो निवास स्थली थी। वह छह रागों और छत्तीस रागिनियों के गायन में तथा उनके अन्य बहुत से भेदों की भी गान क्रिया में अत्यंत कुशल थी। वह नृत्य में रम्भा आदि देवांगनाओं को भी तिरस्कृत कर देती थी और अपने एक-एक पग पर अपनी गति से हाथियों तथा हंसों का उपहास करती थी। किसी दिन वह सुगंधा कटाक्षों तथा भौंह चालान के द्वारा काम बाणों को छोड़ती हुई क्रीड़ा करने के विचार से क्षिप्रा नदी के तट पर गई। उसने ऋषियों के द्वारा सेवित मनोरम नदी को देखा। वहां कई विप्र ध्यान में लगे हुए थे तथा कई जप में लीन थे। कई शिवार्चन में रत थे तथा कई विष्णु के पूजन में तल्लीन थे। हे महामुने ! उसने उन ऋषियों के बीच विराजमान मुनि वशिष्ठ को देखा।

उनके दर्शन के प्रभाव से उसकी बुद्धि धर्म में प्रवृत्त हो गई. जीवन तथा विशेष रूप से विषयों से उसकी विरक्ति हो गई।वह अपना सिर झुकाकर बार-बार मुनि को प्रणाम कर के अपने पाऊँ की निवृत्ति के लिए मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से कहने लगी –

सुगंधा बोली – हे अनाथनाथ ! हे विप्रेन्द्र ! हे सर्वविद्याविशारद ! हे योगीश ! मैनें बहुत-से पाप किए हैं, अतः हे प्रभो ! उन समस्त पापों के नाश के लिए मुझे उपाय बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! उस सुगंधा के इस प्रकार कहने पर वे दीन वत्सल मुनि वशिष्ठ अपनी ज्ञान दृष्टि से उसके कर्मों को जानकर आदरपूर्वक कहने लगे।

वशिष्ठ बोले – तुम सावधान होकर सुनो ! जिस पुण्य से तुम्हारे पाप का पूर्ण रूप से नाश हो जाएगा, वह सब मैं तुम से अब कह रहा हूँ। हे भद्रे ! तीनों लोकों में विख्यात वाराणसी में जाओ, वहां जाकर तीनों लोकों में दुर्लभ, महान पुण्य देने वाले तथा शिव (Lord Shiv) के लिए अत्यंत प्रीतिकर रुद्रवर्ती नामक व्रत को उस क्षेत्र में करो। हे भद्रे ! इस व्रत को कर के तुम परमगति प्राप्त करोगी।

ईश्वर बोले – तब उसने अपना धन लेकर सेवक तथा मित्र सहित काशी में जाकर वशिष्ठ के द्वारा बताए गए विधान के अनुसार व्रत किया। इस प्रकार उस व्रत के प्रभाव से वह सशरीर उस शिवलिंग में विलीन हो गई। हे सनत्कुमार ! इस प्रकार जो स्त्री इस परम दुर्लभ व्रत को करती है, वह जिस-जिस अभीष्ट पदार्थ की इच्छा करती है, उसे निःसंदेह प्राप्त करती है।
हे सुव्रत ! अब आप माणिक्यवर्तियों का माहात्म्य सुनिए ! हे विपेन्द्र ! उन माणिक्यवर्तियों के व्रत से स्त्री मेरे अर्ध आसन की अधिकारिणी हो जाती है और महाप्रलयपर्यन्त वह मेरे लिए प्रिय रहती है। अब मैं इस व्रत की सम्पूर्णता के लिए उद्यापन का विधान बताऊँगा। चांदी की बनी हुई नंदीश्वर की मूर्ति पर आसीन सुवर्णमय भगवान् शिव (Lord Shiv)की पार्वती सहित प्रतिमा को कलश पर स्थापित करना चाहिए और विधि के साथ पूजन कर के रात्रि में जागरण करना चाहिए।

इसके बाद प्रातःकाल नदी में निर्मल जल में विधिपूर्वक स्नान कर के ग्यारह ब्राह्मणों सहित आचार्य का वरण करना चाहिए। तत्पश्चात रुद्रसूक्त से अथवा गायत्री से अथवा मूल मन्त्र से घृत, खीर तथा बिल्वपत्रों का होम करना चाहिए। इसके बाद पूर्णाहुति होम कर के आचार्य आदि की विधिवत पूजा करनी चाहिए तथा सपत्नीक ग्यारह उत्तम विप्रों को भोजन कराना चाहिए।

हे सनत्कुमार ! जो स्त्री इस प्रकार से व्रत करती हैं, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाती हैं। ततपश्चात विधानपूर्वक कथा सुनकर स्थापित की गई समस्त सामग्री ब्राह्मण को दे देनी चाहिए। इससे निश्चित रूप से हजार अश्वमेघ यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमारसंवाद में श्रावणमास माहात्म्य में “धारणापारणामासोपवास-रुद्रवर्तीकथन” नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य तीसरा अध्याय | Chapter -3 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 03 Adhyay

Shravan Mass 03 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य तीसरा अध्याय
Chapter -3

 

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श्रावण माह में की जाने वाली भगवान् शिव (Lord Shiv) की लक्ष पूजा का वर्णन

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! आपने श्रावण मासों का संक्षिप्त वर्णन किया है। हे स्वामिन ! इससे हमारी तृप्ति नहीं हो रही है, अतः आप कृपा कर के विस्तार से वर्णन करें। जिसे सुनकर हे सुरेश्वर ! मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।

ईश्वर बोले – हे योगीश ! जो बुद्धिमान नक्तव्रत के द्वारा श्रावण मास (Shravan Maas) को व्यतीत करता है, वह बारहों महीने में नक्तव्रत करने के फल का भागी होता है। नक्तव्रत में दिन की समाप्ति के पूर्व सन्यासियों के लिए एवं रात्रि में गृहस्थों के लिए भोजन का विधान है। उसमें सूर्यास्त के बाद की तीन घड़ियों को छोड़कर नक्तभोजन का समय होता है। सूर्य के अस्त होने के पश्चात तीन घडी संध्या काल होता है। संध्या वेला में आहार, मैथुन, निद्रा और चौथा स्वाध्याय – इन चारों कर्मों का त्याग कर देना चाहिए। गृहस्थ और यति के भेद से उनकी व्यवस्था के विषय में मुझसे सुनिए। सूर्य के मंद पड़ जाने पर जब अपनी छाया अपने शरीर से दुगुनी हो जाए, उस समय के भोजन को यति के लिए नक्त भोजन कहा गया है। रात्रि भोजन उनके लिए नक्त भोजन नहीं होता है।

तारों के दृष्टिगत होने पर विद्वानों ने गृहस्थ के लिए नक्त कहा है। यति के लिए दिन के आठवें भाग के शेष रहने पर भोजन का विधान है, उसके लिए रात्रि में भोजन का निषेध किया गया है। गृहस्थ को चाहिए कि वह विधिपूर्वक रात्रि में नक्त भोजन करे और यति, विधवा तथा विधुर व्यक्ति सूर्य के रहते नक्तव्रत करें। विधुर व्यक्ति यदि पुत्रवान हो तब उसे भी रात्रि में ही नक्तव्रत करना चाहिए। अनाश्रमी हो अथवा आश्रमी हो अथवा पत्नीरहित हो अथवा पुत्रवान हो – उन्हें रात्रि में नक्तव्रत करना चाहिए।

इस प्रकार बुद्धिमान मनुष्य को अपने अधिकार के अनुसार नक्तव्रत करना चाहिए। इस मास में नक्तव्रत करने वाला व्यक्ति परम गति प्राप्त करता है। “मैं प्रातःकाल स्नान करूँगा, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा, नक्तभोजन करूँगा, पृथ्वी पर सोऊँगा और प्राणियों पर दया करूँगा। हे देव ! इस व्रत को प्रारम्भ करने पर यदि मैं मर जाऊँ तो हे जगत्पते ! आपकी कृपा से मेरा व्रत पूर्ण हो” – ऐसा संकल्प करके बुद्धिमान व्यक्ति को श्रावण मास (Shravan Maas) में प्रतिदिन नक्तव्रत करना चाहिए। इस प्रकार नक्तव्रत करने वाला मुझे अत्यंत प्रिय होता है।

ब्राह्मण के द्वारा अथवा स्वयं ही अतिरुद्र, महारुद्र अथवा रुद्रमंत्र से महीने भर प्रतिदिन अभिषेक करना चाहिए। हे वत्स ! मैं उस व्यक्ति पर प्रसन्न हो जाता हूँ, क्योंकि मैं जलधारा से अत्यंत प्रीति रखने वाला हूँ अथवा रुद्रमंत्र के द्वारा मेरे लिए अत्यंत प्रीतिकर होम प्रतिदिन करना चाहिए। अपने लिए जो भी भोज्य पदार्थ अथवा सुखोपभोग की वस्तु अतिप्रिय हो, संकल्प करके उन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रदान करके स्वयं महीने भर उन पदार्थों का त्याग करना चाहिए।

हे मुने! अब इसके बाद उत्तम लक्षपूजाविधि को सुनिए। लक्ष्मी चाहने वाले अथवा शान्ति की इच्छा वाले मनुष्य को लक्ष विल्वपत्रों या लक्ष दूर्वादलों से शिव (Lord Shiv) की पूजा करनी चाहिए। आयु की कामना करने वाले को चम्पा के लक्ष पुष्पों तथा विद्या चाहने वाले व्यक्ति को मल्लिका या चमेली के लक्ष पुष्पों से श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए। शिव (Lord Shiv)तथा विष्णु की प्रसन्नता तुलसी के दलों से सिद्ध होती है। पुत्र की कामना करने वाले को कटेरी के दलों से शिव (Lord Shiv) तथा विष्णु का पूजन करना चाहिए।

बुरे स्वप्न की शान्ति के लिए धान्य से पूजन करना प्रशस्त होता है। देव के समक्ष निर्मित किए गए रंगवल्ली आदि से विभिन्न रंगों से रचित पद्म, स्वस्तिक और चक्र आदि से प्रभु की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार सभी मनोरथों की सिद्धि के लिए सभी प्रकार के पुष्पों से यदि मनुष्य लक्ष पूजा करे तो शिवजी प्रसन्न होंगे। तत्पश्चात उद्यापन करना चाहिए। मंडप निर्माण करना चाहिए और मंडप के त्रिभाग परिमाण में वेदिका बनानी चाहिए। तदनन्तर पुण्याहवाचन कर के आचार्य का वरण करना चाहिए और उस मंडप में प्रविष्ट होकर गीत तथा वाद्य के शब्दों और तीव्र वेदध्वनि से रात्रि में जागरण करना चाहिए।

वेदिका के ऊपर उत्तम लिंगतोभद्र बनाना चाहिए और उसके बीच में चावलों से सुन्दर कैलाश का निर्माण करना चाहिए। उसके ऊपर तांबे का अत्यंत चमकीला तथा पंचपल्लवयुक्त कलश स्थापित करना चाहिए और उसे रेशमी वस्त्र से वेष्टित कर देना चाहिए। उसके ऊपर पार्वती पति शिव (Lord Shiv) की सुवर्णमय प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। तत्पश्चात पंचामृतपूर्वक धूप, दीप तथा नैवेद्य से उस प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए और गीत, वाद्य, नृत्य तथा वेद, शास्त्र तथा पुराणों के पाठ के द्वारा रात्रि में जागरण करना चाहिए।

इसके बाद प्रातःकाल भली भाँति स्नान कर के पवित्र हो जाना चाहिए और अपनी शाखा में निर्दिष्ट विधान के अनुसार वेदिका निर्माण करना चाहिए। तत्पश्चात मूल मन्त्र से या गायत्री मन्त्र से या शिव (Lord Shiv) के सहस्त्रनामों के द्वारा तिल तथा घृतमिश्रित खीर से होम कराना चाहिए अथवा जिस मन्त्र से पूजा की गई है, उसी से होम करके पूर्णाहुति डालनी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, अलंकार तथा भूषणों से भली-भाँति आचार्य का पूजन करना चाहिए।

तत्पश्चात अन्य ब्राह्मणों का पूजन करना चाहिए और उन्हें दक्षिणा देनी चाहिए। जिस-जिस वस्तु से उमापति शिव (Lord Shiv) की लक्षपूजा की हो उसका दान करना चाहिए। स्वर्णमयी मूर्त्ति बनाकर शिव (Lord Shiv) की पूजा करनी चाहिए। यदि दीपकर्म किया हो तो उस दीपक का दान करना चाहिए। चांदी का दीपक और स्वर्ण की वर्तिका अर्थात बत्ती बनाकर उसे गोघृत से भर कर सभी कामनाओं और अर्थ की सिद्धि के लिए उसका दान करना चाहिए। इसके बाद प्रभु से क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिए और अंत में एक सौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। हे मुने ! जो व्यक्ति इस प्रकार पूजा करता है, मैं उस पर प्रसन्न होता हूँ। उसमें भी जो श्रावण मास (Shravan Maas) में पूजा करता है, उसका अनंत फल मिलता है।

यदि अपने लिए अत्यंत प्रिय कोई वस्तु मुझे अर्पण करने के विचार से इस मास में कोई त्यागता है तो अब उसका फल सुनिए। इस लोक में तथा परलोक में उसकी प्राप्ति लाख गुना अधिक होती है। सकाम करने से अभिलषित सिद्धि होती है और निष्काम करने से परम गति मिलती है। इस मास में रुद्राभिषेक करने वाला मनुष्य उसके पाठ की अक्षर-संख्या से एक-एक अक्षर के लिए करोड़-करोड़ वर्षों तक रुद्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। पंचामृत का अभिषेक करने से मनुष्य अमरत्व प्राप्त करता है।

इस मास में जो मनुष्य भूमि पर शयन करता है, उसका फल भी मुझसे सुनिए। हे द्विजश्रेष्ठ ! वह मनुष्य नौ प्रकार के रत्नों से जड़ी हुई, सुन्दर वस्त्र से आच्छादित, बिछे हुए कोमल गद्दे से सुशोभित, देश तकियों से युक्त, रम्य स्त्रियों से विभूषित, रत्ननिर्मित दीपों से मंडित तथा अत्यंत मृदु और गरुडाकार प्रवालमणिनिर्मित अथवा हाथी दाँत की बनी हुई अथवा चन्दन की बनी हुई उत्तम तथा शुभ शय्या प्राप्त करता है। इस मास में ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य की दृढ पुष्टि होती है। ओज, बल, शरीर की दृढ़ता और जो भी धर्म के विषय में उपकारक होते हैं – वह सब उसे प्राप्त हो जाता है। निष्काम ब्रह्मचर्य व्रती को साक्षात ब्रह्मप्राप्ति होती है और सकाम को स्वर्ग तथा सुन्दर देवांगनाओं की प्राप्ति होती है।

इस मास में दिन-रात अथवा केवल दिन में अथवा भोजन के समय मौनव्रत धारण करने वाला भी महान वक्ता हो जाता है। व्रत के अंत में घंटा और पुस्तक का दान करना चाहिए। मौनव्रत के माहात्म्य से मनुष्य सभी शास्त्रों में कुशल तथा वेद-वेदांग में पारंगत हो जाता है तथा बुद्धि में बृहस्पति के समान हो जाता है। मौन धारण करने वाले का किसी से कलह नहीं होता अतः मौनव्रत अत्यंत उत्कृष्ट है।

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसानत्कुमार संवाद में श्रावण मास (Shravan Maas) माहात्म्य में “नक्तव्रतलक्षपूजा-भूमिशयनमौनादिव्रतकथन” नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥

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श्रावण माह माहात्म्य दूसरा अध्याय | Chapter -2 Shravan Maas ki Katha (Kahani)

Shravan Mass 02 Adhyay

Shravan Mass 02 Adhyay

श्रावण माह माहात्म्य दूसरा अध्याय
Chapter -2

 

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श्रावण मास में विहित कार्य

ईश्वर बोले – हे महाभाग ! आपने उचित बात कही है। हे ब्रह्मपुत्र ! आप विनम्र, गुणी, श्रद्धालु तथा भक्तिसंपन्न श्रोता हैं. हे अनघ ! आपने श्रावण मास (Shravan Mass) के विषय में विनम्रतापूर्वक जो पूछा है, उसे तथा जो नहीं भी पूछा है – वह सब अत्यंत हर्ष तथा प्रेम के साथ मैं आपको बताऊँगा। द्वेष ना करने वाला सबका प्रिय होता है और आप उसी प्रकार के विनम्र हैं क्योंकि मैंने आपके अभिमानी पिता ब्रह्मा (Lord Brahma) का पाँचवाँ मस्तक काट दिया था तो भी आप उस द्वेष भाव का त्याग कर मेरी शरण को प्राप्त हुए हैं। अतः हे तात ! मैं आपको सब कुछ बताऊँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए।

हे योगिन ! मनुष्य को चाहिए कि श्रावण मास (Sawan Mass) में नियमपूर्वक नक्तव्रत करे और पूरे महीने भर प्रतिदिन रुद्राभिषेक करे। अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु का इस मास में त्याग कर देना चाहिए। पुष्पों, फलों, दांतों, तुलसी की मंजरी तथा तुलसी दलों और बिल्वपत्रों से शिव जी की लक्ष पूजा करनी चाहिए, एक करोड़ शिवलिंग बनाना चाहिए और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। महीने भर धारण-पारण व्रत अथवा उपवास करना चाहिए। इस मास में मेरे लिए अत्यंत प्रीतिकर पंचामृताभिषेक करना चाहिए।

इस मास में जो-जो शुभ कर्म किया जाता है वह अनंत फल देने वाला होता है। हे मुने ! इस माह में भूमि पर सोये, ब्रह्मचारी रहें और सत्य वचन बोले। इस मास को बिना व्रत के कभी व्यतीत नहीं करना चाहिए। फलाहार अथवा हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। पत्ते पर भोजन करना चाहिए। व्रत करने वाले को चाहिए कि इस मास में शाक का पूर्ण रूप से परित्याग कर दे। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस मास में भक्तियुक्त होकर मनुष्य को किसी ना किसी व्रत को अवश्य करना चाहिए।

सदाचारपरायण, भूमि पर शयन करने वाला, प्रातः स्नान करने वाला और जितेन्द्रिय होकर मनुष्य को एकाग्र किए गए मन से प्रतिदिन मेरी पूजा करनी चाहिए। इस मास में किया गया पुरश्चरण निश्चित रूप से मन्त्रों की सिद्धि करने वाला होता है। इस मास में शिव (Lord Shiv) के षडाक्षर मन्त्र का जप अथवा गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए और शिवजी की प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा वेदपारायण करना चाहिए।

पुरुषसूक्त का पाठ अधिक फल देने वाला होता है। इस मास में किया गया ग्रह यज्ञ, कोटि होम, लक्ष होम तथा अयुत होम शीघ्र ही फलीभूत होता है और अभीष्ट फल प्रदान करता है। जो मनुष्य इस मास में एक भी दिन व्रतहीन व्यतीत करता है, वह महाप्रलय पर्यन्त घोर नरक में वास करता है। यह मास मुझे जितना प्रिय है, उतना कोई अन्य मास प्रिय नहीं है। यह मास सकाम व्यक्ति को अभीष्ट फल देने वाला तथा निष्काम व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करने वाला है।

हे सत्तम ! इस मास के जो व्रत तथा धर्म हैं, उन्हें मुझ से सुनिए। रविवार को सूर्यव्रत तथा सोमवार को मेरी पूजा व नक्त भोजन करना चाहिए। श्रावण मास (Sawan Mass)  के पहले सोमवार से आरम्भ कर के साढ़े तीन महीने का “रोटक” नामक व्रत किया जाता है. यह व्रत सभी वांछित फल प्रदान करने वाला है। मंगलवार को मंगल गौरी (Mangal Gori) का व्रत, बुधवार व बृहस्पतिवार के दिन इन दोनों वारों का व्रत, शुक्रवार को जीवंतिका व्रत और शनिवार को हनुमान (Lord Hanuman) तथा नृसिंह (Lord Narasimha) का व्रत करना बताया गया है। हे मुने ! अब तिथियों में किये जाने वाले व्रतों का श्रवण करें। श्रावण के शुक्ल पक्ष की द्वित्तीया तिथि को औदुम्बर नामक व्रत होता है। श्रावण के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को गौरी व्रत होता है। इसी प्रकार शुक्ल की चतुर्थी तिथि को दूर्वागणपति नामक व्रत किया जाता है। हे मुने ! उसी चतुर्थी का दूसरा नाम विनायकी चतुर्थी भी है। शुक्ल पक्ष में पंचमी तिथि नागों के पूजन के लिए प्रशस्त होती है।

हे मुनिश्रेष्ठ ! इस पंचमी को ‘रौरवकल्पादि’ नाम से जानिए। षष्ठी तिथि को सुपौदन व्रत और सप्तमी तिथि को शीतला व्रत होता है। अष्टमी अथवा चतुर्दशी तिथि को देवी का पवित्रारोपण व्रत होता है। इस माह के शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की दोनों नवमी तिथियों को नक्तव्रत करना बताया गया है। शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को ‘आशा’ नामक व्रत होता है। इस मास में दोनों पक्षों में दोनों एकादशी तिथियों को इस व्रत की कुछ और विशेषता मानी गई है। श्रावण मास (Sharavan Mass) के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को श्रीविष्णु (Lord Vishnu) का पवित्रारोपण व्रत बताया गया है। इस द्वादशी तिथि में भगवान् श्रीधर की पूजा कर के मनुष्य परम गति प्राप्त करता है।

उत्सर्जन, उपाकर्म, सभादीप, सभा में उपाकर्म, इसके बाद रक्षाबंधन, पुनः श्रवणाकर्म, सर्पबलि और हयग्रीव (Hayagriva) का अवतार – ये सात कर्म पूर्णमासी तिथि को करने हेतु बताए गए हैं। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी तिथि को ‘संकष्टचतुर्थी’ व्रत कहा गया है और श्रावण मास (Sawan Mass) के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि के दिन ‘मानवकल्पादि’ नामक व्रत को जानना चाहिए। हे द्विजोत्तम ! कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रीकृष्ण (Lord Krishana) का पूर्णावतार हुआ, इस दिन उनका अवतार हुआ, अतः महान उत्सव के साथ इस दिन व्रत करना चाहिए। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस अष्टमी को मन्वादि तिथि जानना चाहिए।

श्रावण मास (Shravan Mass) की अमावस्या तिथि को पिठोराव्रत कहा जाता है। इस तिथि में कुशों का ग्रहण और वृषभों का पूजन किया जाता है। इस मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर सब तिथियों के पृथक-पृथक देवता हैं। प्रतिपदा तिथि के देवता अग्नि, द्वितीया तिथि के देवता ब्रह्मा, तृतीया तिथि की गौरी और चतुर्थी के देवता गणपति हैं। पंचमी के देवता नाग हैं और षष्ठी तिथि के देवता कार्तिकेय (Lord Kartikeya) हैं। सप्तमी के देवता सूर्य(Lord Surya) और अष्टमी के देवता शिव (Lord Shiv) हैं।

नवमी की देवी दुर्गा(Lord Durga), दशमी के देवता यम (Lord Yam) और एकादशी (Ekadshi) तिथि के देवता विश्वेदेव कहे गए हैं। द्वादशी के विष्णु (Lord Vishnu) तथा त्रयोदशी के देवता कामदेव हैं। चतुर्दशी के देवता शिव(Lord Shiv), पूर्णिमा के देवता चन्द्रमा और अमावस्या के देवता पितर हैं। ये सब तिथियों के देवता कहे गए हैं। जिस देवता की जो तिथि हो उस देवता की उसी तिथि में पूजा करनी चाहिए। प्रायः इसी मास में ‘अगस्त्य’ का उदय होता है। हे मुने ! मैं उस काल को बता रहा हूँ, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए।

सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने के दिन से जब बारह अंश चालीस घडी व्यतीत हो जाती है तब अगस्त्य का उदय होता है। उसके सात दिन पूर्व से अगस्त्य को अर्ध्य प्रदान करना चाहिए। बारहों मासों में सूर्य पृथक-पृथक नामों से जाने जाते हैं। उनमें से श्रावण मास (Sawan Mass) में सूर्य ‘गभस्ति’ नाम वाला होकर तपता है। इस मास में मनुष्यों को भक्ति संपन्न होकर सूर्य की पूजा करनी चाहिए। हे सत्तम ! चार मासों में जो वस्तुएं वर्जित हैं, उन्हें सुनिए। श्रावण मास में शाक तथा भाद्रपद में दही का त्याग कर देना चाहिए। इसी प्रकार आश्विन में दूध तथा कार्तिक में दाल का परित्याग कर देना चाहिए।

यदि इन मासों में इन वस्तुओं का त्याग नहीं कर सके तो केवल श्रावण मास (Shravan Mass) में ही उक्त वस्तुओं का त्याग करने से मानव उसी फल को प्राप्त कर लेता है। हे मानद ! यह बात मैंने आपसे संक्षेप में कही है, हे मुनिश्रेष्ठ! इस मास के व्रतों और धर्मों के विस्तार को सैकड़ों वर्षों में भी कोई नहीं कह सकता। मेरी अथवा विष्णु की प्रसन्नता के लिए सम्पूर्ण रूप से व्रत करना चाहिए। परमार्थ की दृष्टि से हम दोनों में भेद नहीं है। जो लोग भेद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। अतः हे सनत्कुमार ! आप श्रावण मास में धर्म का आचरण कीजिए।

||इस प्रकार ईश्वरसनत्कुमार संवाद के अंतर्गत “श्रावणव्रतोंद्देशकथन” नामक दुसरा अध्याय पूर्ण हुआ||

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