Phalgun Amalaki Ekadashi Vrat Katha | फाल्गुन शुक्ला आमलकी एकादशी कथा

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।। फाल्गुन शुक्ला एकादशी व्रत कथा ।।
आमलकी एकादशी

Phalgun Amalaki Ekadashi Vrat Katha

 

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मांधाता बोले कि हे वशिष्ठ जी ! यदि आप मुझ पर कृपा करें तो किसी ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो।

महर्षि वशिष्ट बोले कि हे राजन् सब व्रतों से उत्तम और अंत में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत का मैं वर्णन करता हूं। यह एकादशी फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में होती है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का फल एक हजार गोदान के फल के बराबर होता है। अब मैं आपसे एक पौराणिक कथा कहता हूं, आप ध्यान पूर्वक सुनिए।

एक वैदिश नाम का नगर था। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गुंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर में कोई नहीं था। उस नगर में चैतरथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह अत्यंत विद्वान तथा धर्मी था। उस नगर में कोई भी व्यक्ति दरिद्र व कंजूस नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और आबाल-वृद्ध, स्त्री, पुरुष एकादशी का व्रत किया करते थे।

एक समय फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा प्रजा तथा बाल – वृद्ध सबने हर्ष पूर्वक व्रत किया।

राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप – दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से धात्री आंवले का पूजन करने लगे और इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे धात्री ! तुम ब्रह्म स्वरूप हो, तुम ब्रह्मा जी द्वारा उत्पन्न हो और समस्त पापों का नाश करने वाले हो, तुम को नमस्कार है। अब तुम मेरा अर्घ्य स्वीकार करो। तुम श्री रामचंद्र जी द्वारा सम्मानित हो मैं आपकी प्रार्थना करता हूं। अतः आप मेरे समस्त पापों का नाश करो। उस मंदिर में सबने रात्रि को जागरण किया।

रात के समय वहां एक बहेलिया आया जो अत्यंत पापी तथा दुराचारी था। वह अपने कुटुंब का पालन जीव हिंसा करके किया करता था। भूख तथा प्यास से अत्यंत व्याकुल वह बहेलिया इस जागरण को देखने के लिए मंदिर के एक कोने में बैठ गया और विष्णु भगवान् तथा एकादशी माहात्म्य की कथा सुनने लगा। इस प्रकार से अन्य मनुष्यों की भांति उसने भी सारी रात जागकर बिता दी। प्रातः काल होते ही सब लोग अपने – अपने घर चले गए तो बहेलिया भी अपने घर चला गया। घर जाकर उसने भोजन किया। कुछ समय बीतने के पश्चात बहेलिये की मृत्यु हो गई। मगर उस आमलकी एकादशी के व्रत तथा जागरण से उसने राजा विदूरथ के घर जन्म लिया और उसका नाम व वसुरथ रखा गया। युवा होने पर वह चतुरंगिणी सेना के सहित तथा धन-धान्य से युक्त होकर दस हजार ग्रामों का पालन करने लगा। वह तेज में सूर्य के समान, कांति में चंद्रमा के समान, वीरता में भगवान विष्णु के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान था। वह अत्यंत धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर एवं विष्णु भक्त था। वह प्रजा का समान भाव से पालन करता था। दान देना उसका मुख्य कर्तव्य था।

एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए गया। दैवयोग से वह मार्ग भूल गया और दिशा ज्ञान न रहने के कारण उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया। थोड़ी देर बाद पहाड़ी मलेच्छ वहां पर आ गए और राजा को अकेला देखकर मारो – मारो शब्द करते हुए राजा की ओर दौड़े। मलेच्छ कहने लगे कि इसी दुष्ट राजा ने हमारे माता – पिता, पुत्र आदि अनेक संबंधियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया है। अतः इसको अवश्य मारना चाहिए। ऐसा कहकर वे मलेच्छ उस राजा को मारने दौड़े और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र उसके ऊपर फेंके। वे सब अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरते ही नष्ट हो जाते और उनका वार पुष्प के समान प्रतीत होता। अब उन मनुष्यों के अस्त्र-शस्त्र उल्टा उन्हीं पर प्रहार करने लगे जिससे वे मूर्छित होकर गिरने लगे। उसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य स्त्री उत्पन्न हुई। वह स्त्री अत्यंत सुंदर होते हुए भी उसकी भृकुटी टेढ़ी थी। उसकी आंखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी। जिससे वह दूसरे काल के समान प्रतीत होती थी। वह स्त्री मलेच्छों को मारने दौड़ी और थोड़ी ही देर में उसने सब मनुष्यों को काल के गाल में पहुंचा दिया। जब राजा सोकर उठा तो उसने मलेच्छों को मरा हुआ देखकर कहा कि इन शत्रुओं को किसने मारा है ? इस वन में मेरा कौन हितैषी रहता है ?

ऐसा विचार कर ही रहा था कि आकाशवाणी हुई – हे राजा इस संसार में विष्णु भगवान के अतिरिक्त कौन तेरी सहायता कर सकता है। इस आकाशवाणी को सुनकर राजा अपने राज्य में आ गया और सुख पूर्वक राज्य करने लगा। महर्षि वशिष्ठ बोले कि हे राजन् ! यह आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था। जो मनुष्य इस आमलकी एकादशी का व्रत करते हैं, वह प्रत्येक कार्य में सफल होते हैं और अंत में विष्णु लोक को जाते हैं।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

 

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Phalgun Vijaya Ekadashi Vrat Katha | फाल्गुन कृष्णा विजया एकादशी व्रत कथा

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।। फाल्गुन कृष्णा एकादशी व्रत कथा ।।
विजया एकादशी

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धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि हे जनार्दन ! फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसकी विधि क्या है ? सो सब कृपा पूर्वक कहिए।

श्रीभगवान् बोले कि हे राजन् ! फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया एकादशी है। इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य को विजय प्राप्त होती है। यह सब व्रतों से उत्तम व्रत है। इस विजया एकादशी के माहात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नाश को प्राप्त हो जाते हैं।

एक समय देव ऋषि नारद जी ने जगतपिता ब्रह्मा जी से कहा कि महाराज आप मुझसे फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का विधान कहिए।

ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे नारद ! विजया एकादशी का व्रत पुराने तथा नए पापों को नाश करने वाला है। इस विजया एकादशी की विधि मैंने आज तक किसी से भी नहीं कहीं। यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करती है। त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी को जब 14 वर्ष का वनवास हो गया, तब वे श्री लक्ष्मण जी तथा श्री सीता जी के सहित पंचवटी में निवास करने लगे। वहां पर दुष्ट रावण ने जब सीता जी का हरण किया तब इस समाचार से श्री रामचंद्र जी तथा लक्ष्मण अत्यंत व्याकुल हुए और श्री सीता जी की खोज में चल दिए। घूमते – घूमते जब वह मरणासन्न जटायु के पास पहुंचे तो जटायु उन्हें सीता जी का वृत्तांत सुनाकर स्वर्ग लोक चला गया। कुछ आगे जाकर उनकी सुग्रीव से मित्रता हुई और बाली का वध किया। हनुमान जी ने लंका में जाकर सीता जी का पता लगाया और उनसे श्री रामचंद्र जी एवं सुग्रीव की मित्रता का वर्णन किया। वहां से लौटकर हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के पास आए और सब समाचार कहे। श्री रामचंद्र जी ने वानर सेना सहित सुग्रीव की सम्मति से लंका को प्रस्थान किया।

जब श्री रामचंद्र जी समुद्र के किनारे पहुंचे तब उन्होंने मगरमच्छ आदि से युक्त उस अगाध समुद्र को देखकर लक्ष्मण जी से कहा कि इस समुद्र को हम किस प्रकार से पार कर सकेंगे।

श्री लक्ष्मण जी कहने लगे कि हे पुराण पुरुषोत्तम, आप आदि पुरुष हैं, सब कुछ जानते हैं। यहां से आधा योजन दूर पर कुमारी द्वीप में वकदालभ्य नाम के मुनि रहते हैं, उन्होंने अनेकों ब्रह्मा देखे हैं, आप उनके पास जाकर इसका उपाय पूछिये।

लक्ष्मण जी के इस प्रकार के वचन सुनकर श्री रामचंद्र जी वकदालभ्य ऋषि के पास गए और उनको प्रणाम करके बैठ गए।

मुनि ने भी उनको मनुष्य रूप धारण किए हुए पुराण पुरुषोत्तम समझकर उनसे पूछा कि हे राम ! आपका आना कैसे हुआ ?

रामचंद्र जी कहने लगे कि हे ऋषि मैं अपनी सेना सहित यहां आया हूं और राक्षसों को जीतने के लिए लंका जा रहा हूं। आप कृपा करके समुद्र पार करने का कोई उपाय बतलाइए, मैं इसी कारण आपके पास आया हूं।

वकदालभ्य ऋषि बोले कि हे राम ! फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष एकादशी का उत्तम व्रत करने से निश्चय ही आपकी विजय होगी, साथ ही आप समुद्र भी अवश्य पार कर लेंगे।

इस व्रत की विधि यह है कि दशमी के दिन स्वर्ण, चांदी, तांबा या मिट्टी का एक घड़ा बनावे। उस घड़े को जल से भरकर तथा पंच पल्लव रख वेदिका पर स्थापित करें। उस घड़े के नीचे सतनाजा और ऊपर जौं रखें। उस पर श्रीनारायण भगवान की स्वर्ण की मूर्ति स्थापित करें। एकादशी के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर धूप – दीप, नैवेद्य, नारियल आदि से भगवान का पूजन करें। तत्पश्चात दिन घड़े के सामने बैठकर व्यतीत करें और रात्रि को भी उसी प्रकार बैठे रहकर जागरण करें। द्वादशी के दिन नित्य नियम से निवृत्त होकर उस घड़े को ब्राह्मण को दे देवें।

हे राम ! यदि तुम भी इस व्रत को सेनापतियों सहित करोगे तो तुम्हारी विजय अवश्य होगी।

श्री रामचंद्र जी ने ऋषि के कथन अनुसार इस व्रत को किया और इसके प्रभाव से दैत्यों पर विजय पाई। अतः हे राजन ! जो कोई मनुष्य विधि पूर्वक इस व्रत को करेगा। दोनों लोकों में उसकी अवश्य विजय होगी।

श्री ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था कि हे पुत्र ! जो कोई इस व्रत के महत्व को पढ़ता या सुनता है उसको वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

 

 

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Magh Jaya Ekadashi Vrat KathaVidhi hindi | माघ शुक्ला जया एकादशी व्रत कथा

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।। माघ शुक्ला एकादशी व्रत कथा ।।
जया एकादशी

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धर्मराज युधिष्ठिर बोले हे भगवन ! आपने माघ के कृष्ण पक्ष की षटतिला एकादशी का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है। आप स्वेदज, अंडज, उद्भिज और जरायुज चारों प्रकार के जीवों के उत्पन्न, पालन तथा नाश करने वाले हैं। अब आप कृपा करके माघ शुक्ला एकादशी का वर्णन कीजिए। इसका क्या नाम है इसके व्रत की क्या विधि है और इसमें कौन से देवता का पूजन किया जाता है ?

श्री कृष्ण कहने लगे कि हे राजन ! इस एकादशी का नाम जया एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य ब्रहमहत्यादि पापों से छूट कर मोक्ष को प्राप्त होता है तथा इसके प्रभाव से भूत, पिशाच आदि योनियों से मुक्त हो जाता है। इस व्रत को विधिपूर्वक करना चाहिए। अब मैं तुमसे पदम पुराण में वर्णित इसकी महिमा की एक कथा कहता हूं।

देवराज इंद्र स्वर्ग में राज करते थे और अन्य सब देवगण सुखपूर्वक स्वर्ग में रहते थे। एक समय इंद्र अपनी इच्छा अनुसार नंदनवन में अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे और गंधर्व गान कर रहे थे। उन गंधर्वों में प्रसिद्ध पुष्पदंत तथा उसकी कन्या पुष्पवती और चित्रसेन तथा उसकी स्त्री मालिनी भी थे। मालिनी का पुत्र पुष्पवान और उसका पुत्र माल्यवान भी उपस्थित थे। पुष्पवती गंधर्व कन्या माल्यवान को देखकर उस पर मोहित हो गई और माल्यवान पर काम – बाण चलाने लगी। उसने अपने रूप, लावण्य और हाव-भाव से माल्यवान को अपने वश में कर लिया। हे राजन ! वह पुष्पवती अत्यंत सुंदर थी। अब वह इंद्र को प्रसन्न करने के लिए गान करने लगे परंतु परस्पर मोहित हो जाने के कारण उनका चित्त भ्रमित हो गया था। इनके ठीक प्रकार न गाने तथा ताल स्वर ठीक न होने से इंद्र इनके प्रेम को समझ गया और उसने इसमें अपना अपमान समझकर उनको शाप दे दिया।

उसने कहा कि मूर्खों तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है इसलिए तुम्हें धिक्कार है। अब तुम दोनों स्त्री पुरुष के रूप में मृत्युलोक में जाकर पिशाच रूप धारण करो और अपने कर्म का फल भोगो।

इंद्र का ऐसा शाप सुनकर वह अत्यंत दुखी हुए और हिमालय पर्वत पर दुःखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उन्हें गंध, रस तथा स्पर्श आदि का कुछ भी ज्ञान नहीं था। वहां उनको महान दुःख मिल रहे थे। उन्हें एक क्षण के लिए भी निद्रा नहीं आती थी। उस जगह अत्यंत शीत था इससे उनके रोमांच खड़े रहते और दांत मारे शीत के बजते रहते।

एक दिन उसने अपनी स्त्री से कहा कि पिछले जन्म में हमने ऐसे कौन से पाप किए थे, जिससे हमको यह दुःखदाई पिशाच योनि प्राप्त हुई। इस पिशाच योनि से तो नर्क के दुख सहना ही उत्तम है। अतः हमें अब किसी प्रकार का पाप नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार विचार करते हुए वह अपने दिन व्यतीत कर रहे थे। दैवयोग से तभी माघ मास में शुक्ल पक्ष की जया नामक एकादशी आई। उस दिन उन्होंने कुछ भी भोजन नहीं किया और ना कोई पाप कर्म ही किया। केवल फल – फूल खाकर ही दिन व्यतीत किया और सायं समय महान दुःख से पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए। उस समय सूर्य भगवान अस्त हो रहे थे। उस रात को अत्यंत ठंड थी। इस कारण वे दोनों शीत के मारे अति दुखित होकर मृतक के समान आपस में चिपके हुए पड़े रहे। उस रात्रि उनको निद्रा भी नहीं आई।

हे राजन ! जया एकादशी के उपवास और रात्रि के जागरण से दूसरे दिन प्रभात होते ही उनकी पिशाच योनि छूट गई। अत्यंत सुंदर गंधर्व और अप्सरा की देह धारण कर सुंदर वस्त्र आभूषणों से अलंकृत होकर उन्होंने स्वर्ग लोक को प्रस्थान किया। उस समय आकाश में देवता तथा गंधर्व उनकी स्तुति करते हुए पुष्प वर्षा करने लगे। स्वर्ग लोक में जाकर इन दोनों ने देवराज इंद्र को प्रणाम किया।

इंद्र इनको पहले रूप में देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुआ और पूछने लगा कि तुमने अपनी पिशाच योनि से किस प्रकार छुटकारा पाया, सो सब बतलाओ।

माल्यवान बोले की हे देवेंद्र ! भगवान विष्णु की कृपा और जया एकादशी के व्रत के प्रभाव से ही हमारी पिशाच योनि छूट गई है!

तब इंद्र बोले कि हे माल्यवान ! भगवान की कृपा और एकादशी के व्रत करने से न केवल तुम्हारी पिशाच योनि छूट गई वरन् हम लोगों के भी वंदनीय हो गए क्योंकि विष्णु और शिव के भक्त हम लोगों के वंदनीय हैं! अतः आप धन्य हैं! अब आप पुष्पवती के साथ जाकर विहार करो।

श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजा युधिष्ठिर ! इस जया एकादशी के व्रत से बुरी योनि छूट जाती है। जिस मनुष्य ने इस एकादशी का व्रत किया है उसने मानों सब यज्ञ, जप, दान आदि कर लिए। जो मनुष्य जया एकादशी का व्रत करते हैं वे अवश्य ही हजार वर्ष तक स्वर्ग में वास करते हैं।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

 

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Magh Shattila Ekadashi Vrat Katha hindi | माघ कृष्णा षटतिला एकादशी व्रत कथा

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।। माघ कृष्ण एकादशी व्रत कथा ।। षटतिला एकादशी

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एक समय दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा कि महाराज पृथ्वी लोक के मनुष्य ब्रह्म हत्या आदि महान पाप करते हैं, पराए धन की चोरी तथा दूसरे की उन्नति को देखकर ईर्ष्या करते हैं, साथ ही अनेक प्रकार के व्यसनों में फंसे रहते हैं। फिर भी उनको नरक प्राप्त नहीं होता। इसका क्या कारण है ? वह न जाने कौन सा दान पुण्य करते हैं जिससे उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। यह सब कृपापूर्वक आप कहिए। पुलस्त्य मुनि कहने लगे कि हे महाभाग ! आपने मुझसे अत्यंत गंभीर प्रश्न पूछा है। इससे संसार के जीवो का अत्यंत भला होगा। इस भेद को ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इंद्र आदि भी नहीं जानते परंतु मैं आपको यह गुप्त तत्व अवश्य बताऊँगा। माघ मास के लगते ही मनुष्य को स्नानादि करके शुद्ध रहना चाहिए और इंद्रियों को वश में करके तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या और द्वेष आदि का त्याग कर भगवान का स्मरण करना चाहिए। पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उनके कंडे बनाने चाहिए। उन कंडों से 108 बार हवन करना चाहिए और उस दिन मूल नक्षत्र हो और एकादशी तिथि हो तो अच्छे पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करें। स्नान आदि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर सब देवताओं के देव श्री भगवान का पूजन कर और एकादशी का व्रत धारण करें। रात्रि को जागरण करना चाहिए। उसके दूसरे दिन धूप – दीप, नैवेद्य आदि से भगवान का पूजन करके खिचड़ी का भोग लगावे तत्पश्चात पेठा, नारियल, सीताफल या सुपारी सहित अर्घ्य देकर स्तुति करनी चाहिए कि भगवान, आप दीनों को शरण देने वाले हैं। इस संसार सागर में फंसे हुओं का उद्धार करने वाले हैं। हे पुंडरीकाक्ष ! हे विश्वभावन ! हे सुब्रह्मण्य ! हे पूर्वज ! हे जगतपते ! आप लक्ष्मी सहित इस तुच्छ को ग्रहण करें। इसके पश्चात जल से भरा हुआ कुंभ (घड़ा) ब्राह्मण को दान करें तथा ब्राह्मण को श्याम गौ और तिल पात्र देना भी उत्तम है। तिल स्नान और भोजन दोनों ही श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार जो मनुष्य जितने तिलों का दान करता है। उतने ही हजार वर्ष स्वर्ग में वास करता है।
  1.  तिल स्नान
  2.  तिल का उबटन
  3.  तिल का हवन
  4.  तिल का तर्पण
  5.  तिल का भोजन और
  6.  तिलों का दान
यह तिल के छह प्रकार के प्रयोग होने के कारण यह षटतिला एकादशी कहलाती है। इस व्रत के करने से अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। इतनी कथा कहकर पुलस्त्य ऋषि कहने लगे कि अब मैं इस षटतिला एकादशी की कथा तुमसे कहता हूं। एक समय नारद जी ने भगवान श्री विष्णु से यही प्रश्न किया था और भगवान ने जो षटतिला एकादशी का महत्व नारदजी से कहा सो मैं तुमसे कहता हूं। नारद जी कहने लगे कि हे भगवन ! षटतिला एकादशी का क्या पुण्य होता है और इसकी क्या कथा है सो मुझसे कहिए। भगवान कहने लगे कि हे नारद ! मैं तुमसे आंखों देखी सत्य घटना कहता हूं, तुम ध्यानपूर्वक सुनो। प्राचीन काल में मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदैव व्रत किया करती थी। एक समय वह एक मास तक व्रत करती रही, इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया यद्यपि वह अत्यंत बुद्धिमान थी तथापि उसने कभी देवताओं या ब्राह्मणों के निमित्त अन्न का दान नहीं किया था। इससे मैंने सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत आदि से अपना शरीर शुद्ध कर लिया है। अब इसको विष्णु लोक तो मिल ही जाएगा परंतु इसने कभी अन्नदान नहीं किया है। इससे इसकी तृप्ति होनी कठिन है। ऐसा विचार कर मैं एक भिखारी बनकर मृत्युलोक में उस ब्राह्मणी के पास गया और उससे भिक्षा मांगी। वह ब्राह्मणी बोली कि महाराज आप यहां किसलिए आए हैं ? मैंने कहा कि मुझे भिक्षा चाहिए। इस पर उसने एक मिट्टी का ढे़ला मेरे भिक्षा पात्र में डाल दिया। मैं उसे लेकर स्वर्ग में लौट आया। कुछ समय पश्चात वह ब्राह्मणी भी शरीर त्यागकर स्वर्ग में आ गई। उस ब्राह्मणी को मिट्टी का दान करने से स्वर्ग में सुंदर महल मिला परंतु उसने अपने घर को अन्नादि सब सामग्रियों से शून्य पाया। घबरा कर वह मेरे पास आई और कहने लगी कि हे भगवन ! मैंने अनेकों व्रत आदि से आपकी पूजा की परंतु फिर भी मेरा घर अन्नादि सब वस्तुओं से शून्य है। इसका क्या कारण है ? मैंने कहा कि पहले तुम अपने घर जाओ, जब देव स्त्रियां तुम्हें देखने के लिए आएंगी तो पहले उनसे षटतिला एकादशी का पुण्य और विधि सुन लेना तब द्वार खोलना जब मेरे ऐसे वचन सुनकर वह अपने घर गई। जब देव स्त्रियां आईं और द्वार खोलने के लिए कहा तो ब्राह्मणी बोली कि आप मुझे देखने के लिए आई है तो षटतिला एकादशी का माहात्म्य कहिए। उनमें से एक देव स्त्री कहने लगी कि मैं कहती हूं। जब ब्राह्मणी ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना तो फिर उसने द्वार खोला। देवांगनाओं ने उसको देखा कि न तो वह गांधर्वी और न आसुरी है वरन् पहले जैसी मानुषी है। तब ब्राह्मणी ने भी उनके कथन अनुसार षटतिला एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से वह सुंदर और रूपवती हो गई तथा उसका घर अन्नादि समस्त सामग्रियों से युक्त हो गया। अतः मनुष्य को मूर्खता त्यागकर षटतिला एकादशी का व्रत और लोभ न करके तिल आदि का दान करना चाहिए। इससे दुर्भाग्य, दरिद्रता तथा अनेक कष्ट दूर होकर उसको मोक्ष की प्राप्ति होती है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

 

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Pausha Putrada Ekadashi Vrat Katha hindi | पौष शुक्ला पुत्रदा एकादशी व्रत कथा

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पुत्रदा एकादशी

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पुत्रदा एकादशी की कथा सुनने के लिए
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युधिष्ठिर ने पूछा कि हे भगवन ! आपने सफला एकादशी का माहात्म्य विधिवत् बताकर बड़ी कृपा की। अब कृपा करके यह बतलाइये कि पौष शुक्ला एकादशी का क्या नाम है उसकी विधि क्या है और इसमें कौन से देवता की पूजा की जाती है ?

श्रीकृष्ण बोले हे राजन् ! इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। इसमें भी नारायण भगवान की पूजा की जाती है। इस चर और अचर संसार में पुत्रदा एकादशी के व्रत के समान कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और लक्ष्मीवान होता है। इसकी मैं एक कथा कहता हूं सो तुम ध्यान से सुनो।

भद्रावती नामक नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके कोई पुत्र नहीं था। उसकी स्त्री का नाम शैव्या था। वह निपुत्री होने के कारण सदैव चिंतित रहा करती थी। राजा के पितर भी रो-रोकर पिंड लिया करते थे और सोचा करते थे कि इसके बाद हमको कौन पिंड देगा। राजा को भाई, बांधव, धन, हाथी, घोड़े, राज्य और मंत्री इन सब में से किसी चीज से भी संतोष नहीं होता था। इसका एकमात्र कारण पुत्र का ना होना था। वह सदैव यही विचार किया करता था कि मेरे मरने के बाद मुझको कौन पिंड दान देगा। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं का ऋण मैं कैसे चुका सकूंगा। जिस घर में पुत्र ना हो उसमें सदैव ही अंधेरा रहता है। इसलिए मुझे पुत्र की उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जिस मनुष्य ने पुत्र का मुख देखा है वह धन्य है। उसको इस लोक में यश और परलोक में शांति मिलती है अर्थात उनके दोनों लोक सुधर जाते हैं। पूर्व जन्म के कर्म से ही इस जन्म में पुत्र धन आदि प्राप्त होते हैं। राजा इसी प्रकार रात-दिन चिंता में लगा रहता था।

एक समय राजा ने अपने शरीर को त्याग देने का विचार किया परंतु आत्मघात को महान पाप समझकर उसने ऐसा नहीं किया। एक दिन राजा ऐसा ही विचार करता हुआ अपने घोड़े पर चढ़कर वन को चल दिया और पक्षियों व वृक्षों को देखने लगा। उसने देखा कि वन में व्याघ्र, सूअर, सिंह, बंदर, सर्प आदि सब भ्रमण कर रहे हैं। हाथी अपने बच्चों और हथिनियों के बीच में घूम रहा है। इस वन में कहीं तो गीदड़ अपने कर्कश स्वर में बोल रहे हैं, कहीं उल्लू ध्वनि कर रहे हैं। वन के दृश्यों को देखकर राजा सोच-विचार में लग गया। इसी प्रकार उसको दो पहर बीत गए। वह सोचने लगा कि मैंने कई यज्ञ किए फिर भी मुझ को यह दुख क्यों प्राप्त हुआ ?

राजा प्यास के मारे अत्यंत दुखी हो गया और पानी की तलाश में इधर-उधर फिरने लगा। थोड़ी दूर पर राजा ने एक सरोवर देखा। उस सरोवर में कमल खिल रहे थे तथा सारस, हंस, मगरमच्छ आदि विहार कर रहे थे। उस सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम बने हुए थे। उस समय राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे।

राजा शुभ शकुन समझकर घोड़े से उतरकर मुनियों को दंडवत करके उनके सामने बैठ गया।

राजा को देखकर मुनियों ने कहा कि हे राजन् ! हम तुमसे अत्यंत प्रसन्न है, तुम्हारी क्या इच्छा है सो कहो।

राजा ने उनसे पूछा कि महाराज आप कौन हैं और किस लिए यहां आए हैं सो कहिए ?

मुनि कहने लगे कि हे राजन् ! आज संतान देने वाली पुत्रदा एकादशी है, हम लोग विश्वदेव हैं और इस सरोवर पर स्नान करने के लिए आए हैं।

इस पर राजा कहने लगा कि महाराज मेरे भी कोई संतान नहीं है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो एक पुत्र का वरदान दीजिए।

मुनि बोले कि हे राजन् ! आज पुत्रदा एकादशी है आप अवश्य ही इसका व्रत करें, भगवान की कृपा से अवश्य ही आपके पुत्र होगा।

मुनि के वचन के अनुसार राजा ने उस दिन एकादशी का व्रत किया और द्वादशी को उसका पारण किया। इसके पश्चात मुनियों को प्रणाम करके राजा अपने महल में वापस आ गया।

कुछ समय के बाद रानी ने गर्भधारण किया और नौ महीने के पश्चात उसके एक पुत्र हुआ। वह राजकुमार अत्यंत शूरवीर, धनवान, यशस्वी और प्रजापालक हुआ।

श्री कृष्ण भगवान बोले कि हे राजन् ! पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत करना चाहिए! जो मनुष्य इस माहात्म्य में को पढ़ता या सुनता है, उसको अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय ।।

।। श्री एकादशी मैया की जय ।।

 

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Vaishakh Varuthini Ekadashi Vrat Katha hindi | वैशाख कृष्णा वरुथिनी एकादशी

Vaishakh maas ekadashi

Vaishakh maas ekadashi

।। वैशाख कृष्णा एकादशी व्रत कथा ।।
वरुथिनी एकादशी

Varuthini Ekadashi Vrat Katha

 

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वरूथिनी एकादशी की कथा सुनने के लिए
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धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि हे भगवन् ! वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है, उसकी क्या विधि है तथा उसके करने से क्या फल मिलता होता है ? आप विस्तार पूर्वक मुझसे कहिए, मैं आपको नमस्कार करता हूं।

श्री कृष्ण कहने लगे कि हे राजेश्वर ! इस एकादशी का नाम वरुथिनी है। यह सौभाग्य देने वाली, सब पापों को नष्ट करने वाली तथा अंत में मोक्ष देने वाली है। इस व्रत को यदि कोई अभागिनी स्त्री करें तो उसको सौभाग्य मिलता है। इसी वरुथिनी एकादशी के प्रभाव से राजा मांधाता स्वर्ग को गया था। वरुथिनी एकादशी का फल दस हजार वर्ष तक तप करने के बराबर होता है। कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय एक मन स्वर्ण दान करने से जो फल प्राप्त होता है वही फल वरुथिनी एकादशी के व्रत करने से मिलता है।

वरुथिनी एकादशी के व्रत को करने से मनुष्य इस लोक में सुख भोग कर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि हाथी का दान घोड़े के दान से श्रेष्ठ है। हाथी के दान से भूमि दान, भूमि के दान से तिलों का दान, तिलों के दान से स्वर्ण का दान तथा स्वर्ण के दान से अन्न का दान श्रेष्ठ है। अन्न दान के बराबर कोई दान नहीं। अन्न दान से देवता, पितर, और मनुष्य तीनों तृप्त हो जाते हैं। शास्त्रों में इसको कन्यादान के बराबर माना जाता है। वरुथिनी एकादशी के व्रत से अन्न दान तथा कन्यादान दोनों के बराबर फल मिलता है। जो मनुष्य लोग के वश होकर कन्या का धन लेते हैं वे प्रलय काल तक नरक में वास करते हैं या उनको अगले जन्म में बिलाव का जन्म लेना पड़ता है। जो मनुष्य प्रेम एवं धन सहित कन्या का दान करते हैं। उनके पुण्य को चित्रगुप्त भी लिखने में असमर्थ हैं। जो मनुष्य इस वरुथिनी एकादशी का व्रत करते हैं। उनको कन्यादान का फल मिलता है।
वरुथिनी एकादशी का व्रत करने वालों को दशमी के दिन निम्नलिखित वस्तुओं को त्याग देना चाहिए।

  1.  कांसे के बर्तन में भोजन करना
  2.  माँस (उड़द की दाल)
  3.  मसूर की दाल
  4.  चने का शाक
  5.  कोदों का शाक
  6.  मधु (शहद)
  7.  दूसरे का अन्न
  8. दूसरी बार भोजन करना
  9.  स्त्री प्रसंग।

व्रत वाले दिन जुआ नहीं खेलना चाहिए तथा शयन भी नहीं करना चाहिए। उस दिन पान खाना, दातुन करना, दूसरे की निंदा करना तथा चुगली करना एवं पापी मनुष्यों के साथ बातचीत सब त्याग देना चाहिए। उस दिन क्रोध, मिथ्या भाषण का त्याग करना चाहिए। इस व्रत में नमक, तेल अथवा अन्न वर्जित है। हे राजन् ! जो मनुष्य विधिवत इस एकादशी को करते हैं उनको स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। अतः मनुष्य को पापों से डरना चाहिए। इस व्रत के माहात्म्य को पढ़ने से एक हजार गोदान दान का फल मिलता है। इसका फल गंगा स्नान के फल से भी अधिक है।

।। बोलिए श्री विष्णु भगवान की जय श्री एकादशी माता की जय ।।

 

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