माघ मास का माहात्म्य नवाँ अध्याय | Chapter 9 Magha Puran ki Katha

Chapter 9

Magh mass Nowa adhyay

माघ मास का माहात्म्य नवाँ अध्याय

Chapter 9

 

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यमदूत कहने लगे मध्याहन के समय आया अतिथि, मूर्ख, पंडित, वेदपाठी या पापी कोई भी हो ब्रह्म के समान है। जो रात्रि के थके हुए भूखे ब्राह्मण को अन्न-जल देता है, मध्याहन के समय जिसके घर आता हुआ अतिथि निराश नहीं जाता वह स्वर्ग का वासी होता है। अतिथि बराबर कोई धन-सम्पत्ति तथा हित नहीं है। बहुत से राजा और मुनि अतिथि सत्कार से ब्रह्म लोक को प्राप्त हुए हैं।

जो एक समय आलस्य से भी अतिथि को भोजन करा दे वह यमद्वार नहीं देखता। केशरी ध्वज से वैवस्वत देव ने कहा था कि जो कोई इस कर्मभूमि मृत्युलोक से स्वर्गलोक जाने की इच्छा रखता हो वह अन्न का दान करे। दूत कहता है कि यमराज कहते हैं अन्न के बराबर दूसरा ओर कोई दान नहीं है। जो गर्मियों में जल, सर्दी में ईंधन और सदैव अन्न का दान करते हैं वह कभी यम के दुख नहीं उठाते। जो अपने किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह नर्क को नहीं देखता और प्रायश्चित न करने वाला मनुष्य नरक में जाता है। जो काया, वाचा और मन से किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह देव और गंधर्वों से शोभित स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।

जो नित्य ही व्रत, तप, तीर्थ करते हैं और जितेन्द्रिय हैं वह भयंकर यम को नही देखते हैं। नित्य धर्म करने वाला दूसरे का अन्न, भोजन और दान त्याग दे। नित्य स्नान करने से बड़े-बड़े पाप का नाश होकर यम को नहीं देखता। बिना स्नान पवित्रता कैसे हो सकती है? जो मनुष्य पर्व के समय चलते जल में स्नान करते हैं वह बुरी योनि नहीं पाते, न ही नरक में जाते हैं।
माघ मास में प्रात: स्नान करने वाले मनुष्यों को नियमपूर्वक तिल, पात्र और तिल कमल का दान करना चाहिए। यमदूत कहते हैं कि हे विकुंडल! पृथ्वी, सोना, गौ आदि परम दान करने वाला स्वर्ग से नहीं लौटता।

बुद्धिमान, पुण्य तिथियों, व्यतिपात, संक्रांति आदि को थोड़ा-सा दान करके भी बुरी गति को नहीं प्राप्त होता। सत्यवादी, मौन रहने वाला, मीठा बोलने वाला, क्षमाशील, नीतिवान, किसी की निंदा न करने वाला, सब प्राणियों पर दया करने वाला, पराये धन को तृण के समान समझने वाला मनुष्य कभी नर्क को नहीं भोगता।

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माघ मास का माहात्म्य आठवाँ अध्याय | Chapter 8 Magha Puran ki Katha

Chapter 8

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माघ मास का माहात्म्य आठवाँ अध्याय

Chapter 8

 

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यमदूत कहने लगा कि तुमने बड़ी सुंदर वार्ता पूछी है। यद्यपि मैं पराधीन हूँ फिर भी तुम्हारे स्नेहवश अपनी बुद्धि के अनुसार बतलाता हूँ। जो प्राणी काया, वाचा और मनसा से कभी दूसरों को दुख नहीं देते वे यमलोक में नहीं जाते। हिंसा करने वाले, वेद, यज्ञ, तप और दान से भी उत्तम गति को नहीं पाते। अहिंसा सबसे बड़ा धर्म, तप और दान ऋषियों ने बताया है। जो मनुष्य जल या पृथ्वी पर रहने वाले जीवों को अपने भोजन के लिए मारते हैं वे कालसूत्र नामक नर्क में पड़ते हैं और वहाँ पर अपना माँस खाते हैं और रक्त-पीप पान करते हैं तथा पीप की कीच में उनको कीड़े काटते हैं। हिंसक, जन्मांध, काने-कुबड़े, लूले, लंगड़े, दरिद्र और अंगहीन होते हैं। इस कारण इस लोक तथा परलोक में सुख की इच्छा करने वाले को काया, वाचा तथा मन में दूसरों का द्रोह नहीं करना चाहिए।

जो हिंसा नहीं करते उनको किसी प्रकार का भय नहीं होता। जिस तरह सीधी और टेढ़ी दोनों प्रकार की बहने वाली नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं वैसे ही सब धर्म अहिंसा में प्रवेश कर जाते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा यति सभी अपने-अपने धर्म का पालन करने और जितेन्द्रिय रहने से ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। जो जलाशय आदि बनाते हैं और सदैव पांचों यज्ञ करते हैं वे यमपुरी में नहीं जाते। जो इंद्रियों के वशीभूत नहीं हैं, वेदवादी और नित्य ही अग्नि अर्थात हवन आदि का पूजन करते हैं वे स्वर्ग को जाते हैं। युद्ध भूमि में जो शूरवीर मर जाते हैं वे सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं। जो अनाथ, स्त्री, शरण में आए हुए तथा ब्राह्मण की रक्षा के लिए प्राण देते हैं वे कभी स्वर्ग से नहीं लौटते।

जो मनुष्य लूले-लंगड़े, वृद्ध, अनाथ तथा गरीबों का पालन करते हैं वह भी स्वर्ग में जाते हैं। जो मनुष्य गौओं के लिए पानी का आश्रय करते हैं तथा कुंआ, तालाब और बावड़ी बनवाते हैं वे सदैव स्वर्ग में निवास करते हैं। जैसे-जैसे जीव इनमें पानी पीते हैं वैसे ही उनका धर्म बढ़ता है। जल से ही मनुष्य के प्राण हैं इसलिए जो प्याऊ आदि लागते हैं वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। बड़े-बड़े यज्ञ भी वह फल नहीं देते जो अधिक छाया वाले वृक्ष मार्ग में लगाने से देते हैं। जो मनुष्य वृक्ष रोपण करता है वह सदैव दानी और यज्ञ करने वाला होता है। जो अच्छे फल और अच्छी छाया वाले मार्ग के वृक्षों को काटता है वह नर्कगामी होता है। तुलसी का पौधा लगाने वाला सब पापों से छूट जाता है। जिस घर में तुलसीवन है वह घर तीर्थ के समान है और उस घर में कभी यमदूत नहीं जाते। तुलसी की सुगंध से पितरों का चित्त आनंदित हो जाता है और वे विमान में बैठकर विष्णुलोक को जाते हैं।

नर्मदा नदी का दर्शन, गंगा का स्नान और तुलसीदल का स्पर्श यह सब बराबर-बराबर फल देने वाले हैं। हर एक द्वादशी को ब्रह्मा भी तुलसी का पूजन करते हैं। रत्न, सोना, फूल तथा मोती की माला के दान का इतना पुण्य नहीं जितना तुलसी की माला के दान का है। जो फल आम के हजार और पीपल के सौ वृक्षों को लगाने से होता है वह तुलसी के एक पौधे के लगाने से होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि नदी, वासुदेव आदि देवता सब ही तुलसी में वास करते हैं। जो एक बार, दो या तीन बार रेवा नदी से उत्पन्न शिव मूर्त्ति की पूजा करता है अथवा स्फुटिक रत्न के पत्थर से आप निकले हुए, तीर्थ में पर्वत या वन में रखी हुई शिव की मूर्त्ति की पूजा करता है और सदैव “ऊँ नम: शिवाय” मंत्र का जाप करता है, यमलोक की कथा भी नहीं सुनता। प्रसंग, शत्रुता, अभिमान से शिव पूजा के समान पापों को नष्ट करने वाला तथा कीर्त्ति देने वाला तीन लोक में और कोई काम नहीं हैं।

जो शिवालय स्थापित करते हैं वे शिवलोक में जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का मंदिर बनाकर मनुष्य बैकुंठवासी होता है। जो भगवान की पूजा के लिए फूलों का बाग लगाते हैं वे धन्य हैं। जो माता-पिता, देवता और अतिथियों का सदैव पूजन करते हैं वे ब्रह्म लोक को प्राप्त होते हैं।

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माघ मास का माहात्म्य सातवाँ अध्याय | Chapter 7 Magha Puran ki Katha

Chapter 7

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माघ मास का माहात्म्य सातवाँ अध्याय

Chapter 7

 

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चित्रगुप्त ने उन दोनों के कर्मों की आलोचना करके दूतों से कहा कि बड़े भाई कुंडल को घोर नरक में डालो और दूसरे भाई विकुंडल को स्वर्ग में ले जाओ जहां उत्तम भोग हैं तब एक दूत तो कुंडल को नरक में फेंकने के लिए ले गया और दूसरा दूत बड़ी नम्रता से कहने लगा कि हे विकुंडल! चलो तुम अच्छे कर्मों से स्वर्ग को प्राप्त होकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगों तब विकुंडल बड़े विस्मय के साथ मन में संशय धारकर दूत से कहने लगा कि हे यमदूत! मेरे मन में बड़ी भारी शंका उत्पन्न हो गई है अतएव मैं तुमसे कुछ पूछता हूँ कृपा कर के मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। हम दोनों भाई एक ही कुल में उत्पन्न हुए, एक जैसे ही कर्म करते रहे, दोनों भाइयों ने कभी कोई शुभ कार्य नहीं किया फिर एक को नरक क्यों और दूसरे को स्वर्ग किस कारण प्राप्त हुआ?

मैं अपने स्वर्ग में आने का कोई कारण नहीं देखता तब यमदूत कहने लगा कि हे विकुंडल! माता-पिता, पुत्र, पत्नी, भाई, बहन से सब संबंध जन्म के कारण होते हैं और जन्म, कर्म को भोगने के लिए ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक वृक्ष पर अनेक पक्षियों का आगमन होता है उसी तरह इस संसार में पुत्र, भाई, माता, पिता का भी संगम होता है। इनमें से जो जैसे-जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है। तुम्हारा भाई अपने पाप कर्मों से नरक में गया तुम अपने पुण्य कर्म के कारण स्वर्ग में जा रहे हो तब विकुंडल ने आश्चर्य से पूछा कि मैंने तो आजन्म कोई धर्म का कार्य नहीं किया सदैव पापों में ही लगा रहा। मैं अपने पुण्य के कर्म को नहीं जानता, यदि तुम मेरे पुण्य के कर्म को जानते हो तो कृपा कर के बताइए तब देवदूत कहने लगा कि मैं सब प्राणियों को भली-भाँति जानता हूँ, तुम नहीं जानते।

सुनो, हरिमित्र का पुत्र सुमित्र नाम का ब्राह्मण था जिसका आश्रम यमुना नदी के दक्षिणोत्तर दिशा में था। उसके साथ जंगल में ही तुम्हारी मित्रता हो गई और उसके साथ तुमने दो बार माघ मास में श्री यमुना जी में स्नान किया था। पहली बार स्नान करने से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो गए और दूसरी बार स्नान करने से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ। सो हे वैश्यवर! तुमने दो बार माघ मास (Magh Maas) में स्नान किया इसी के पुण्य के फल से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ और तुम्हारा भाई नरक को प्राप्त हुआ। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार वह भाई के दुखों से अति दुखित होकर नम्रतापूर्वक मीठे वचनों से दूतों से कहने लगा कि हे दूतों! सज्जन पुरुषों के साथ सात पग चलने से मित्रता हो जाती है और यह कल्याणकारी होती है। मित्र प्रेम की चिंता न करते हुए तुम मुझको इतना बताने की कृपा करो कि कौन-से कर्म से मनुष्य यमलोक को प्राप्त नहीं होता क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो।

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माघ मास का माहात्म्य छठवाँ अध्याय | Chapter 6 Magha Puran ki Katha

Chapter 6

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माघ मास का माहात्म्य छठवाँ अध्याय

Chapter 6

 

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पूर्व समय में सतयुग के उत्तम निषेध नामक नगर में हेमकुंडल नाम वाला कुबेर के सदृश धनी वैश्य रहता था। जो कुलीन, अच्छे काम करने वाला, देवता, अग्नि और ब्राह्मण की पूजा करने वाला, खेती का काम करता था। वह गौ, घोड़े, भैंस आदि का पालन करता था। दूध, दही, छाछ, गोबर, घास, गुड़, चीनी आदि अनेक वस्तु बेचा करता था जिससे उसने बहुत सा धन इकठ्ठा कर लिया था। जब वह बूढ़ा हो गया तो मृत्यु को निकट समझकर उसने धर्म के कार्य करने प्रारंभ कर दिए। भगवान विष्णु का मंदिर बनवाया। कुंआ, तालाब, बावड़ी, आम, पीपल आदि वृक्ष के तथा सुंदर बाग-बगीचे लगवाए। सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह दान करता, गाँव के चारों तरफ जल की प्याऊ लगवाई। उसने सारे जन्म भर जितने भी पाप किए थे उनका प्रायश्चित करता था। इस प्रकार उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम उसने कुंडल और विकुंडल रखा।

जब दोनों लड़के युवावस्था के हुए तो हेमकुंडल वैश्य गृहस्थी का सब कार्य सौंपकर तपस्या के निमित्त वन में चला गया और वहाँ विष्णु की आराधना में शरीर को सुखाकर अंत में विष्णु लोक को प्राप्त हुआ। उसके दोनों पुत्र लक्ष्मी के मद को प्राप्त होकर बुरे कर्मों में लग गए। वेश्यागामी वीणा और बाजे लेकर वेश्याओं के साथ गाते-फिरते थे। अच्छे सुंदर वस्त्र पहनकर सुगंधित तेल आदि लगाकर, भांड और खुशामदियों से घिरे हुए हाथी की सवारी और सुंदर घरों में रहते थे। इस प्रकार ऊपर बोए बीज के सदृश वह अपने धन को बुरे कामों में नष्ट करते थे। कभी किसी सत पात्र को दान आदि नहीं करते थे न ही कभी हवन, देवता या ब्रह्माजी की सेवा तथा विष्णु का पूजन ही करते थे।

थोड़े दिनों में उनका सब धन नष्ट हो गया और वह दरिद्रता को प्राप्त होकर अत्यंत दुखी हो गए। भाई, जन, सेवक, उपजीवी सब इनको छोड़कर चले गए तब इन्होंने चोरी आदि करना आरंभ कर दिया और राजा के भय से नगर को छोड़कर डाकुओं के साथ वन में रहने लगे और वहाँ अपने तीक्ष्ण बाणों से वन के पक्षी, हिरण आदि पशु तथा हिंसक जीवों को मारकर खाने लगे। एक समय इनमें से एक पर्वत पर गाय जिसको सिंह मारकर खा गया और दूसरा वन को गया जो काले सर्प के डसने से मर गया तब यमराज के दूत उन दोनों को बाँधकर यम के पास लाए और कहने लगे कि महाराज इन दोनों पापियों के लिए क्या आज्ञा है?

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माघ मास का माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय | Chapter 5 Magha Puran ki Katha

Chapter 5

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माघ मास का माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय

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दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ। भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक ब्राह्मणी थी जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी। वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी। वह जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता, सुशील, दानशीलता तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी। वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी। वह वल्कल धारण करती थी और संतोष से अपना जीवन व्यतीत करती थी। उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गई।

माघ(Magh Maas) स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुंद और उपसुंद दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्मा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा के रूप में ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। वह अत्यंत रुपवती, गान विद्या में अति प्रवीण तथा मुकुट कुंडल से शोभायमान थी। उसका रूप, यौवन और सौंदर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गये। वह तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके वन में बैठी थी तब सुंद व उपसुंद के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान उस रुपवती को देखकर अपने राजा सुंद और उपसुंद से उसके रुप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऐसी परम सुंदरी स्त्री हमने कभी नहीं देखी, आप भी चलकर देखें तब वह दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहाँ पर आए जहाँ पर वह सुंदरी बैठी हुई थी और मदिरा के पान विह्वल होकर काम-क्रीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री-रत्न को प्राप्त करने के लिए विवादग्रस्त हुए और फिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त हो गए।

उन दोनों का मरा हुआ देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा कालरात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा के सामने आई तो ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से कहा कि हे चन्द्रवती मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया। जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो। सो हे राजन! वह ब्राह्मणी अब भी सूर्य के रथ पर माघ मास(Magh Maas) स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इसलिए श्रद्धावान पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास(Magh Maas) में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

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माघ मास का माहात्म्य चौथा अध्याय | Chapter 4 Magha Puran ki Katha

Chapter 4

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माघ मास का माहात्म्य चौथा अध्याय

Chapter 4

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श्री वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! अब मैं माघ के उस माहात्म्य को कहता हूँ जो कार्तवीर्य के पूछने पर दत्तात्रेय ने कहा था।

जिस समय साक्षात विष्णु के रुप श्री दत्तात्रेय सत्य पर्वत पर रहते थे तब महिष्मति के राजा सहस्रार्जुन ने उनसे पूछा कि हे योगियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेयजी! मैंने सब धर्म सुने। अब आप कृपा करके मुझे माघ मास का माहात्म्य (Magh Maas Mahatmya) कहिए। तब दत्तात्रेय जी बोले – जो नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा था वही माघ माहात्म्य (Magh Maas Mahatmya) मैं तुमसे कहता हूँ। इस कर्म भूमि भारत में जन्म लेकर जिसने माघ स्नान नहीं किया उसका जन्म निष्फल गया।

भगवान की प्रसन्नता, पापों के नाश और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए माघ स्नान अवश्य करना चाहिए। यदि यह पुष्ट व शुद्ध शरीर माघ स्नान के बिना ही रह जाए तो इसकी रक्षा करने से क्या लाभ! जल में बुलबुले के समान, मक्खी जैसे तुच्छ जंतु के समान यह शरीर माघ स्नान के बिना मरण समान है। विष्णु भगवान की पूजा न करने वाला ब्राह्मण, बिना दक्षिणा के श्राद्ध, ब्राह्मण रहित क्षेत्र, आचार रहित कुल ये सब नाश के बराबर हैं।

गर्व से धर्म का, क्रोध से तप का, गुरुजनों की सेवा न करने से स्त्री तथा ब्रह्मचारी, बिना जली अग्नि से हवन और बिना साक्षी के मुक्ति का नाश हो जाता है। जीविका के लिए कहने वाली कथा, अपने ही लिए बनाए हुए भोजन की क्रिया, शूद्र से भिक्षा लेकर किया हुआ यज्ञ तथा कंजूस का धन, यह सब नाश के कारण हैं। बिना अभ्यास और आलस्य वाली विद्या, असत्य वाणी, विरोध करने वाला राजा, जीविका के लिए तीर्थयात्रा, जीविका के लिए व्रत, संदेहयुक्त मंत्र का जप, व्यग्र चित्त होकर जप करना, वेद न जानने वाले को दान देना, संसार में नास्तिक मत ग्रहण करना, श्रद्धा बिना धार्मिक क्रिया, यह सब व्यर्थ है और जिस तरह दरिद्र का जीना व्यर्थ है उसी तरह माघ स्नान के बिना मनुष्य का जीना व्यर्थ है। ब्रह्मघाती, सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, गुरु-पत्नीगामी और इन चारों की संगति करने वाला माघ स्नान से पवित्र होता है।

जल कहता है कि सूर्योदय से पहले जो मुझसे स्नान करता है मैं उसके बड़े से बड़े पापों को नष्ट करता हूँ। महापातक भी स्नान करने से भस्म हो जाते हैं। माघ मास(Magh Maas) के स्नान का जब समय आ जाता है तो सब पाप अपने नाश के भय से काँप जाते हैं।

जैसे मेघों से मुक्त होकर चंद्रमा प्रकाश करता है वैसे ही श्रेष्ठ मनुष्य माघ मास में स्नान करके प्रकाशमान होते हैं। काया, वाचा, मनसा से किए हुए छोटे या बड़े, नए या पुराने सभी पाप स्नान से नष्ट हो जाते हैं। आलस्य में बिना जाने जो पाप किए हों वह भी नाश को प्राप्त होते हैं। जिस तरह जन्म-जन्मांतर के अभ्यास से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है उसी तरह जन्मान्तर अभ्यास से ही माघ स्नान में मनुष्य की रुचि होती है। यह अपवित्रों को पवित्र करने वाला बड़ा तप और संसार रूपी कीचड़ को धोने की पवित्र वस्तु है।

हे राजन! जो मनवांछित फल देने वाला माघ स्नान नही करते वह सूर्य, चंद्र के समान भोगों को कैसे भोग सकते हैं!

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माघ मास का माहात्म्य तीसरा अध्याय | Chapter 3 Magha Puran ki Katha

Chapter 3

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माघ मास का माहात्म्य तीसरा अध्याय

Chapter 3

 
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तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊँचा और कितना लंबा-चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊँचा ऊपर चोटी में दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है। जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदार और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है। दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस पर्वत को फल और फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और यहाँ पर कंदराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे।

इस प्रकार जब भृगु ऋषि वहाँ पर अपने आश्रम पर रह रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा। वे अत्यंत दुखी थे। उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर! तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है? तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर, स्वर्ग पाकर तथा देवतुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसा है। मेरे दुख और अशांति का यही एक कारण है। न जाने किस पाप का फल है। मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिए।

मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर नारदजी को प्रसन्न किया। नाना स्वरों के नाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया। अनेक प्रकार के नाच ताल से शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए। शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है। कहां ऐसी चंद्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिंता सदैव मेरे हृदय को जलाती है।

विद्याधर के ऐसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फलों को प्राप्त होकर ज्ञानी पुरुष भी मोह को प्राप्त हो जाते हैं। मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यंत दुखदायी हो जाता है। तुमने माघ मास(Magh Maas) की एकादशी का व्रत करके द्वादशी न आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए। एकादशी के दिन उपवास करके द्वादशी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था तब वह अपने कुरुप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमालय पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया।

प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र, शंख, चक्र, गदा, पद्म के धारण करने वाले पीताम्बर पहने, वन माला धारण किए हुए विष्णु का चिंतन करते राजा पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रहकर भगवान का चिंतन किया। इस प्रकार सात जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान, राजा के तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गए और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया। भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुंदर देवताओं का सा रूप दिया जिसको देखकर उर्वशी भी उसको चाहने लगी और राजा कृतकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया।

भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो जहाँ पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूँ। तुम्हारे भाग्य से माघ मास(Magh Maas) आज से पाँचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ल एकादशी से इस व्रत को आरंभ करो। भूमि पर सोना, जितेंद्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर निराहार रहो। सब भोगों को त्यागकर तीनों समय भगवान विष्णु का पूजन करो जब तुम द्वादशी को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख देखकर सभी चकित हो जाएंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे।

माघ मास(Magh Maas) के प्रभाव को जानकर सदा माघ में स्नान करो। पाप दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास(Magh Maas) का स्नान करना चाहिए। स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप! भृगुजी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया और वह मणिग्रीव पर्वत पर आनंद से रहने लगे। भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गए।

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माघ मास का माहात्म्य पहला अध्याय | Chapter 1 Magha Puran ki Katha

Chapter 1

Chapter 1

माघ मास का माहात्म्य पहला अध्याय

Chapter – 1

 
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एक समय श्री सूतजी ने अपने गुरु श्री व्यासजी से कहा कि गुरुदेव कृपा करके आप मुझे से माघ मास का माहात्म्य (Magh Maas Mahatmya) कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ। व्यासजी कहने लगे कि रघुवंश के राजा दिलीप एक समय यज्ञ के स्नान के पश्चात पैरों में जूते और सुंदर वस्त्र पहनकर शिकार की सामग्री से युक्त, कवच और शोभायमान आभूषण पहने हुए अपने सिपाहियों से घिरे हुए जंगल में शिकार खेलने के लिए अपनी नगरी से बाहर निकले। उनके सिपाही जंगल में शिकार के लिए मृग, व्याघ्र, सिंह आदि जंतुओं की तलाश में इधर-उधर फिरने लगे।

उस वन में वनस्थली अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रही थी, कहीं-2 मृगों के झुंड फिरते थे। कहीं गीदड़ अपना भयंकर शब्द कर रहे थे। कहीं गैंडों का समूह हाथियों के समान फिर रहा था। कहीं वृक्षों के कोटरों में बैठे हुए उल्लू अपना भयानक शब्द कर रहे थे। कहीं सिंहों के पदचिन्हों के साथ घायल मृगों के रक्त से भूमि लाल हो रही थी। कहीं दूध से भरी थनों वाली सुंदर भैंसे फिर रही थी, कहीं पर सुगंधित पुष्प, हरी-भरी लताएँ वन की शोभा को बढ़ा रही थी। कहीं बड़े-बड़े पेड़ खड़े थे तो कहीं पर उन पेड़ों पर बड़े-बड़े अजगर और उनकी केंचुलियाँ भी पड़ी हुई थी।

उसी समय राजा के सिपाहियों के बाजे की आवाज सुनकर एक मृग वन में से निकलकर भागने लगा और बड़ी-बड़ी चौकड़ियाँ भरता हुआ आगे बढ़ा। राजा ने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया परन्तु मृग पूरी शक्ति से भागने लगा। मृग कांटेदार वृक्षों के एक जंगल में घुसा और राजा ने भी उसके पीछे वन में प्रवेश किया परंतु दूर जाकर मृग, राजा की दृष्टि से ओझल होकर निकल गया। राजा निर्जन वन में अपने सैनिकों सहित प्यास के मारे अति दुखी हो गया। दोपहर के समय अधिक मार्ग चलने से सैनिक थक गये और घोड़े रुक गए। कुछ देर बाद राजा ने एक बड़ा भारी सुंदर सरोवर देखा जिसके किनारों पर घने वृक्ष थे। इसका जल सज्जनों के हृदय के समान स्वच्छ और पवित्र था।

सरोवर का जल लहरों से बड़ा सुंदर लगता था। जल में अनेक प्रकार के जल-जंतु मछलियाँ आदि स्वच्छंदता से इधर-उधर फिर रही थी। दुष्टों के समान निर्दयी चित्त वाले मगरमच्छ भी थे। किसी-किसी जगह लोभी के समान सिमाल भी पड़ी हुई थी। जैसे विपत्ति में पड़े हुए लोगों को दुखों को हरने वाले दानी पुरुष के समान यह सरोवर अपने जल से सबको सुखी करता था, जैसे मेघ चातक के दुख को हरता है, इस सरोवर को देखकर राजा की थकावट दूर हो गई। रात्रि को राजा ने वहीं विश्राम किया और सैनिक पहरा देने लगे और चारों तरफ फैल गए। 

रात के अंतिम समय में शूकरों के एक झुंड ने आकर सरोवर में पानी पीया और कमल के झुंड के पास आया तब शिकारियों ने सावधान होकर शूकरों पर आक्रमण किया और उनको मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। उस समय सब शिकारी कोलाहल करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा के पास गए और राजा प्रभात हुआ देखकर उनके साथ ही अपनी नगरी की तरफ चल पड़ा। 

जिसका शरीर तपस्या और नियमों के कारण बिलकुल सूख गया था, जो मृगछाला और वल्कल पहने हुए था और नख रोम तथा केश धारण किए हुए था, राजा ने ऐसे घोर तपस्वी को देखकर बड़े आश्चर्य से उसको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। तपस्वी ने राजा से कहा कि हे राजन! इस पुण्य शुभ माघ में इस सरोवर को छोड़कर तुम यहाँ से क्यों जाने की इच्छा करते हो तब राजा कहने लगा कि महात्मन्! मैं तो माघ मास(Magh Maas) में स्नान के फल को कुछ भी नहीं जानता। कृपा करके आप विस्तारपूर्वक मुझको बताइए।  

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सम्पूर्ण माघ मास पुराण कथा और माहात्म्य | Sampuran Magha Maas Mahatmya

Magh Mass Mahatmaya

Magh Mass Mahatmaya

माघ, कार्तिक और वैशाख महापुनीत महीने माने गए हैं। इसमें तीर्थस्नानादि पर या स्वदेश में रहकर नित्यप्रति स्नान-दानादि करने से अनंत फल होता है। स्नान सूर्योदय के समय श्रेष्ठ है। उसके बाद जितना विलंब हो उतना ही निष्फल होता है। स्नान के लिए काशी, प्रयाग आदि तीर्थ उत्तम माने गए  है। वहां न जा सके तो जहां भी स्नान करें, वही उनका स्मरण करें अथवा  

पुष्करादीनि  तीर्थानि गंगाद्याः  सरितस्तथा । 

आगच्छन्तु पवित्राणि स्नान काले सदा मम ।।

हरिद्वारे कुशावर्ते बिलव के नीलपर्वते । 

स्नात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते ।।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका । 

पुरी द्वारावती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः ।।

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।  

नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरू ।।

का उच्चारण करें। अथवा वेग से बहने वाली किसी भी नदी के जल में स्नान करें अथवा रात भर छत पर रखे हुए जल पूर्ण घट से स्नान करें अथवा दिनभर सूर्य किरणों से तपे हुए जल से स्नान करें। 

स्नान के आरंभ में  

आपस्त्वमसि देवेश  ज्योतिषां पतिरेव च । 

पापं नाशय मे देव वाङ्मनः कर्मभिः कृतम् ।।

से जल की ओर 

दु:खदारिद्रयनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च ।

प्रात: स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम् ।।

से ईश्वर की प्रार्थना करें और स्नान करने के पश्चात  

सवित्रे प्रसवित्रे च परं धाम जले मम ।  

त्वत्तेजसा परिभ्रष्टं पापं यातु सहस्त्रधा ।।

से सूर्य को अर्घ्य  देकर हरि का पूजन या स्मरण करे। 

माघस्नान के लिये ब्रह्मचारी, गृहस्थ, संन्यासी और वनवासी- चारों आश्रमों के; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; चारों वर्णों के; बाल, युवा और वृद्ध- तीनों अवस्थाओं के; स्त्री, पुरुष या नपुंसक जो भी हो, सबको आज्ञा है, सभी यथा नियम नित्यप्रति माघ स्नान कर सकते हैं। 

स्नान की अवधि

स्नान की अवधि या तो पौष शुक्ल एकादशी से माघ शुक्ल एकादशी तक या पौष शुक्ल पूर्णिमा से माघ शुक्ल पूर्णिमा तक अथवा मकरार्क में (मकर राशि पर सूर्य आए, उस दिन से कुंभ राशि पर जाने तक) नित्य स्नान करें और उसके अनन्तर यथावकाश मौन रहें। भगवान का भजन या यजन करें। 

ब्राह्मणों को अवारित (बिना रोक) नित्य भोजन कराएं। कंबल, मृगचर्म, रत्न, कपड़े (कुर्ता, चादर, रुमाल, कमीज, टोपी), उपानह्  (जूते), धोती और पगड़ी आदि दें। एक या एकाधिक ३० द्विजदम्पती  (ब्राह्मण-ब्राह्मणी)- के जोड़े को षट्रस भोजन करवाकर 

‘सूर्यो मे प्रीयतां देवो विष्णुमूर्तिनिरंजन:।‘  

से सूर्य की प्रार्थना करें। 

इसके बाद उनको अच्छे वस्त्र, सप्तधान्य और 30 मोदक दे। स्वयं निराहार, शाकाहार, फलाहार या दुग्धाहार व्रत अथवा एकभुक्त व्रत करें। इस प्रकार काम, क्रोध, मद, मोहादि त्याग कर भक्ति, श्रद्धा, विनय- नम्रता, स्वार्थत्याग और विश्वास- भाव के साथ स्नान करें तो अश्वमेधादि के समान फल होता है और सब प्रकार के पाप-ताप तथा दुख दूर हो जाते हैं।

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सम्पूर्ण माघ मास माहात्म्य - माघ पुराण