माँ तारा महाविद्या | Maa Tara Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

tara devi

tara devi

सयोनिं चन्दनेनाष्टदलं पदं लिखेत् तत: ।
म्रद्वासनं समासाध मायां पूर्वदले लिखेत् ।।
बीजं द्वितीयं याम्ये फट्-उत्तरे पश्चिय मेतुठम् ।
मध्ये बीजं लिखेत् तारं भूतशुद्धिमथाचरेत् ।।

भगवती काली को ही नीलरुपा होने के कारण तारा (Tara) भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा (Tara) नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं, इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है। महाविद्याओं में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं। भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा करती हैं, इसलिये उग्रतारा हैं। बृहन्नील-तन्त्रादि ग्रन्थों में भगवती तारा के स्वरुप की विशेष चर्चा है। हयग्रीवा का वध करने के लिए इन्हें नील-विग्रह प्राप्त हुआ था। ये शवरूप शिव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में आरुढ़ है। भगवती तारा नीलवर्ण वाली, नीलकमलों के समान तीन नेत्रों वाली तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करने वाली हैं। ये व्याघ्र चर्म से विभूषिता तथा कण्ठ में मुण्डमाला धारण करने वाली हैं।

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शत्रुनाश, वाक-शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिए तारा (Tara) अथवा उग्रतारा की साधना की जाती है। रात्रि देवी की स्वरुपा शक्ति तारा (Tara) महाविद्याओं में अद्भुत प्रभाव वाली और सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी कही गयीं हैं। भगवती तारा (Tara) के तीन रूप हैं – तारा, एकजटा और नीलसरस्वती। तीनों रुपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं, किन्तु भिन्न होते हुए सबकी शक्ति समान और एक है। भगवती तारा की उपासना मुख्य रुप से तन्त्रोक्त पद्धति से होती है, जिसे आगमोक्त पद्धति भी कहते हैं। इनकी उपासना से सामान्य व्यक्ति भी बृहस्पति के समान विद्वान हो जाता है।

भारत में सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा (Tara) की आराधना की थी। इसलिये तारा (Tara) को वसिष्ठाराधिता तारा (Tara) भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले भगवती तारा (Tara) की आराधना वैदिक रीति से करनी प्रारंभ की, जो सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक-पद्धति के द्वारा जिसे ‘चिनाचारा’ कहा जाता है, उपासना करें। जब वसिष्ठ ने तांत्रिक पद्धति का आश्रय लिया, तब उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। यह कथा “आचार” तन्त्र में वसिष्ठ मुनि की आराधना उपाख्यान में वर्णित हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि पहले चीन, तिब्बत, लद्दाख आदि में तारा (Tara) की उपासना प्रचलित थी।

तारा (Tara) का प्रादुर्भाव मेरु-पर्वत के पश्चिम भाग में ‘चोलना’ नाम की नदी के या चोलत सरोवर के तट पर हुआ था, जैसा कि स्वतंत्र तंत्र में वर्णित है –

मेरो: पश्चिमकूले नु चोत्रताख्यो ह्रदो महान् ।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती ।।

‘महाकाल-संहिता’ के काम-कलाखण्ड में तारा-रहस्य वर्णित है, जिसमें तारा रात्रि में तारा की उपासना का विशेष महत्त्व है। चैत्र-शुक्ल नवमी की रात्रि ‘तारारात्रि’ कहलाती है –

चैत्रे मासि नवम्यां तु शुक्लपक्षे तु भूपते ।
क्रोधरात्रिर्महेशानि तारारूपा भविष्यति ।। (पुरश्चर्यार्णव भाग – 3)

बिहार के सहरसा जिले में प्रसिद्ध ‘महिषी’ ग्राम में उग्रतारा का सिद्धपीठ विद्यमान है। वहाँ तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वती की तीनों मूर्त्तियाँ एक साथ हैं। मध्य में बड़ी मूर्त्ति तथा दोनो तरफ छोटी मूर्तियाँ हैं। महर्षि वसिष्ठ ने यहीं तारा की उपासना कर के सिद्धि प्राप्त की थी। तन्त्र शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘महाकाल-संहिता’ के गुह्य-काली-खण्ड में महाविद्याओं की उपासना का विस्तृत वर्णन है, उसके अनुसार तारा का रहस्य अत्यन्त चमत्कारजनक हैं।

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माँ काली महाविद्या | Maa Kali Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

kali devi

kali devi

अथ काली मन्वक्ष्ये सद्दोवाक्सिद्धिपायकान्
आरावितैर्य: सर्वेष्टं प्राप्नुवन्ति जना भुवि।

दस महाविद्याओं में माँ  काली (Kali) का प्रथम स्थान है। महाभागवत के अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं और उन्हीं के उग्र तथा सौम्य दो रुपों से अनेक रुप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं। उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं।

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महाकाल की प्रियतमा काली (Maa Kali) ही अपने दक्षिण और वाम रुपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्यात हुईं। बृहन्नीलतन्त्र के अनुसार रक्त और कृष्ण भेद से काली ही दो रुपों में अधिष्ठित हैं। कृष्णा का नाम “दक्षिणा” और रक्तवर्णा का नाम “सुन्दरी” है। 

कालिका पुराण में कथा आती है कि एक बार हिमालय पर अवस्थित मतंग मुनि के आश्रम में जाकर देवताओं ने महामाया की स्तुति की। स्तुति से प्रसन्न होकर मतंग – वनिता के रुप में भगवती ने देवताओं को दर्शन दिया और पूछा कि तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी समय देवी के शरीर से काले पहाड़ के समान वर्ण वाली एक ओर दिव्य नारी का प्राकट्य हुआ। उस महातेस्विनी ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि “ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।” वे काजल के समान कृष्णा थीं, इसलिये उनका नाम ‘काली’ (Maa Kali) पड़ा।

दुर्गा सप्तशती (Durga Saptshati) के अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भ के अत्याचार से व्यथित होकर देवताओं ने हिमालय पर जाकर देवी सूक्त से देवी की स्तुति की, तब गौरी की देह से कौशिकी का प्राकट्य हुआ। कौशिकी के अलग होते ही अम्बा पार्वती का स्वरुप कृष्ण हो गया, जो “काली” (Maa Kali) नाम से विख्यात हुई। काली (Maa Kali) को नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहते हैं। 

नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार एक बार काली (Maa Kali) के मन में आया कि वे पुन: गौरी हो जायँ। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गईं। शिवजी ने नारद जी से उनका पता पूछा। नारद जी ने उनसे सुमेरु के उत्तर में देवी के प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात कही। शिवजी की प्रेरणा से नारद जी वहाँ गये। उन्होंने देवी से शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो गईं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और उससे छाया विग्रह त्रिपुरभैरवी का प्राकट्य हुआ। 

प्राय: दो रुपों में काली उपासना का प्रचलन है। भव-बन्धन-मोचन में काली की उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जाती है। शक्ति-साधना के दो पीठों में काली की उपासना श्याम-पीठ पर करने योग्य है। भक्ति मार्ग में तो किसी भी रूप में उन महामाया की उपासना फलप्रदान है, पर सिद्धि के लिए उनकी उपासना वीर भाव से की जाती है। साधना के द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धि का नाश होकर साधक में पूर्ण शिशुत्व का उदय हो जाता है, तब काली का श्रीविग्रह साधक के समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय भगवती काली की छबि अवर्णनीय होती है। कज्जल के पहाड़ के समान, दिग्वसना, मुक्तकुन्तला, शव पर आरुढ़, मुण्डमाला धारिणी भगवती काली का प्रत्यक्ष दर्शन साधक को कृतार्थ कर देता है। तान्त्रिक-मार्ग में यद्यपि काली की उपासना दीक्षागम्य है, तथापि अनन्य शरणागति के द्वारा उनकी कृपा किसी को भी प्राप्त हो सकती है। मूर्त्ति, मन्त्र अथवा गुरु द्वारा उपदिष्ट किसी भी आधार पर भक्ति भाव से, मन्त्र-जाप, पूजा, होम और पुरश्चरण करने से भगवती काली प्रसन्न हो जाती हैं। उनकी प्रसन्नता से साधक को सहज ही सम्पूर्ण अभीष्टों की प्राप्ति हो जाती है।

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माँ छिन्नमस्ता महाविद्या | Maa Chinnamasta Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

chinnamasta devi

chinnamasta devi

त्रिकोणं विन्यसेदादौ तन्मध्ये मण्डलत्रयम् ।
तन्मध्ये विन्यसेद योनि द्वारत्रयसमन्विताम् ।।
बहिरष्टदलं पदं भूबिम्बत्रितयं पुन: ।

परिवर्तनशील जगत के अधिपति कबन्ध है और उसकी शक्ति ही छिन्नमस्ता (Chinnamasta) है। विश्व की वृद्धि-ह्रास तो सदैव होती रहती है। जब ह्रास की मात्रा कम और विकास की मात्रा अधिक होती है, तब भुवनेश्वरी का प्राकट्य होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है, तब छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का प्राधान्य होता है।

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भगवती छिन्नमस्तिका (Chinnamasta) का स्वरुप अत्यन्त ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। महाविद्याओं में इनका तीसरा स्थान है। इनके प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार से है – एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं। स्नानोपरान्त क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्ण वर्ण की हो गयी। उस समय उनकी सहचरियों ने भी उनसे कुछ भोजन करने के लिए माँगा। देवी ने उनसे कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद सहचरियों ने जब पुन: भोजन के लिए निवेदन किया, तब देवी ने उनसे कुछ देर ओर प्रतीक्षा के लिए कहा। इस पर सहचरियों ने देवी से विनम्र स्वर में कहा कि “माँ तो अपने शिशुओं को भूख लगने पर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं? “ अपने सहचरियों के मधुर वचन सुनकर कृपामयी देवी ने अपने खड्ग से अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और उनके कबन्ध से रक्त की तीन धाराएँ प्रवाहित हुईं। वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहचरियों की ओर प्रवाहित कर दीं, जिसे पीती हुई दोनों बहुत प्रसन्न हुई लगीं और तीसरी धारा का देवी स्वयं पान करने लगी। तभी से देवी छिन्नमस्ता (Chinnamasta) के नाम से प्रसिद्ध हुईं।

ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता (Chinnamasta) की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं। शत्रु-विजय, समूह- स्तम्भन, राज्य प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष-प्राप्ति के लिए छिन्नमस्ता (Chinnamasta) की उपासना अमोघ है। छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का आध्यात्मिक स्वरुप अत्यन्त महत्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञ शीर्ष की प्रतीक ये देवी श्वेत कमल-पीठ पर खड़ी हुई हैं। दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनि चक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त (रज) गुणों की देवियाँ इनकी सहचरियाँ हैं। ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने-आप में पूर्ण अन्तर्मुखी साधना का संकेत है।

विद्वानों ने इस कथा में सिद्धि की चरम सीमा का निर्देश माना है। योग शास्त्र में तीन ग्रंथियाँ बतायी गयी हैं, जिनके भेदन के बाद योगी को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि कहा गया है। मूलाधार में ब्रह्मग्रंथि, मणिपूर में विष्णूग्रंथि तथा आज्ञाचक्र में रुद्रग्रंथि का स्थान है। इन ग्रंथियों के भेदन से ही अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती है। योगियों का ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्र के नीचे की नाड़ियों में ही काम और रति का मूल है, उसी पर छिन्ना महाशक्ति आरूढ़ है, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होने पर रुद्रग्रंथि का भेदन होता है।

छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनों में समान रुप से प्रचलित है। देवी की दोनो सहचरियाँ रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक है, कमल विश्व प्रपंच है और कामरति चिदानन्द की स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्य की अश्वशिर-विद्या, शाक्तों की हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्यों के छिन्नशीर्ष गणपति का रहस्य भी छिन्नमस्ता (Chinnamasta) से ही संबंधित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ता (Chinnamasta) के ही उपासक थे। इसीलिए इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है। वैरोचन अग्नि को कहते हैं। अग्नि के स्थान मणिपूर में छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ी में इनका प्रवाह होने से इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरव तंत्र में कहा गया है कि इनकी आराधना से साधक जीव भाव से मुक्त होकर शिव भाव को प्राप्त कर लेता है।

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माँ षोडशी महाविद्या | Maa Shodashi Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

shodashi devi

shodashi devi

बिंदु त्रिकोणव सुकोण दशारयुग्म् मन्वस्त्रनागदल संयुत षोडशारम्।
वृत्तत्रयं च धरणी सदनत्रयं च श्री चक्रमेत दुदितं पर देवताया: ।।

षोडशी (Shodashi) माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्री विग्रह वाली सिद्ध देवी है। महाविद्याओं में इनका चौथा स्थान है। सोलह अक्षरों के मंत्र वाली इन देवी का अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्य मंडल की आभा की भांति हैं। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन है। इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अङ्कुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती का श्री विग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता हैं। वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त मंत्र तंत्र इन की आराधना करते हैं। वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ है। भक्तों को ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती है, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।

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प्रशांत हिरण्यगर्भ ही शिव है और उन्हीं की शक्ति षोडशी (Shodashi) है। तंत्र शास्त्रों में षोडशी (Shodashi) देवी को पंचवक्त्र अर्थात् पांच मुखों वाली बताया गया है। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्त्रा कहा जाता है। देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पाँचों रूपों की प्रतीक है। पाँचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी उन्हीं रंगो के हैं। देवी के 10 हाथों में क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अङ्कुश, घण्टा, नाग और अग्नि है। इनके षोडश कलाएँ पूर्ण रूप से विकसित है, अतएव ये षोडशी (Shodashi) कहलाती हैं।

षोडशी (Shodashi) को श्री विद्या भी माना जाता है। इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महा त्रिपुरा सुंदरी, बालपञ्चदशी आदि अनेक नाम है। इन्हें आद्यशक्ति माना जाता है। अन्य विद्याएँ भोग या मोक्ष में से एक ही देती है। ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। इनके स्थूल, सूक्ष्म पर तथा तुरीय चार रूप हैं।

एक बार पराम्बा पार्वती जी ने भगवान् शिव से पूछा- भगवान्! आपके द्वारा प्रकाशित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधी व्याधि, शोक संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जायँगे, किंतु गर्भवास और मरण के असह्य दुःख की निवृत्ति तो इससे नहीं होगी। कृपा करके इस दुःख से निवृति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई उपाय बतलाइये। परमकल्याणी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान् शंकर ने षोडशी (Shodashi) श्री विद्या-साधना-प्रणाली को प्रकट किया। भगवान शङ्कराचार्य ने श्री विद्या के रूप में इन्हीं षोडशी (Shodashi) देवी की उपासना की थी। इसलिये आज भी सभी शाङ्कर पीठों में भगवती षोडशी (Shodashi) राजराजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी की श्री यंत्र के रूप में आराधना चली आ रही है। भगवान् शङ्कराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में षोडशी श्री विद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि अमृत के समुद्र में एक माणिक द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के परकोटे हैं, उस वन में चिन्ता माणि से निर्मित महल से ब्रह्ममय सिंहासन है, जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक है। सदाशिव ने नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी (Shodashi) त्रिपुरा सुंदरी का जो ध्यान करते हैं, वे धन्य है। भगवती के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। भैरवयामल तथा शक्ति लहरी में इनकी उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है। दुर्वासा इनके परमाधारक थे। इनकी उपासना श्री चक्र में होती है।

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माँ भुवनेश्वरी महाविद्या | Maa Bhuvaneshwari Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

bhuvaneshwari devi

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पद्ममष्टदल बाहे वृत्तं षोडशभिर्दलं: ।
विलिखेत् कर्णिकामध्ये षटकोणमतिसुन्दरम् ।।
चतुरस्त्रं चतुर्द्वारमेवं मण्डलमालिखेत् ।।

देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हृल्लेखा (ह्णीं) मंत्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा- आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) भगवान् शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी है। जगदम्बा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगक्रांति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पाँचवे स्थान परिगणित है। देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के सात शेष रहता है, तब ईश्वर रात्रि की अधिष्ठात्री देवी भुनेश्वरी (Bhuvaneshwari) कहलाती है। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियन्त्रण का प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्ति का प्रतीक है। इस प्रकार सर्वरूपा मूल प्रकृति की भुनेश्वरी (Bhuvaneshwari) है, जो विश्व को वमन करने के कारण वामा, शिवमयी होने में ज्येष्ठा तथा कर्म-नियन्त्रण, फलदान और जीवो को दंडित करने के कारण रौद्री कही जाती है। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) कहलाता है। भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) के संग से ही भुवनेश्वर सदा शिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।

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महानिर्वाण तंत्र के अनुसार संपूर्ण महाविद्याएँ भगवती भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) की सेवा में सदा संलग्न रहती है। सात करोड़ महामंत्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान है। काली तत्व के निर्गत होकर कमला तत्वतक की दस स्थितियाँ हैं, जिनमें अव्यक्त भुवनेश्चरी व्यक्त होकर ब्रह्मांड का रूप धारण कर सकती है तथा प्रलय में कमला से अर्थात् व्यक्त जगत् से क्रमशः लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती है। इसलिये इन्हें काल की जन्म दात्री भी कहा जाता है।

दुर्गा सप्तशती (Durga Saptshati) के ग्यारहवें अध्याय के मंगलाचरण में भी कहा गया है कि मैं भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) देवी का ध्यान करता हूँ। उनके श्री अंगों की शोभा प्रातःकाल के सूर्यदव के समान अरुणाभ है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की घटा छायी रहती है। उनके हाथों में पाश, अङ्कुश, एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं।

इस प्रकार बृहन्नीलतन्त्र की यह धारणा पुराणों के विवरणों से भी पुष्ट होती है कि प्रकारान्त से काली और भुवनेशी दोनों में अभेद है। अवयव प्रकृति भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) ही रक्तवर्णा काली है। देवी की भागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य का अत्याचार से संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्व कारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) तत्काल प्रकट हो गयीं। वे अपने हाथों में बाण, कमल-पुष्प तथा शाक-मूल लिये हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रु जल की सहस्त्रों धाराएँ प्रकट कीं। इस जलसे भूमंडल के सभी प्राणी तुप्त हो गये। समुद्रों तथा सरिताओं अगाध जल भर गया और समस्त औषधियाँ सिचं गयीं। अपने हाथ में लिए गये शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुनेश्वरी (Bhuvaneshwari) ही शताक्षी तथा शाकम्भरी नाम से विख्यात हुई । इन्होंने ही दुर्गामासुर को युद्ध में मार कर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पूनः सौंपा था। उसके बाद भगवती भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ।

भगवती भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) की उपासना पुत्र -प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रदा है।

रुद्रयामल में इनका कवच, नीलसरस्वती तंत्र में इनका हृदय तथा महा तंत्रार्णव में इनका सहस्त्र नाम संकलित है।

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माँ धूमावती महाविद्या | Maa Dhumavati Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

dhumavati devi

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अनुक्तकल्पे यन्त्रं तु लिखेत पद्दद्लाष्टकम्।
षट्कोण-कर्णिक तत्र वेदद्वारोपशोभितम् ।।

धूमावती (Dhumavati Devi) देवी महाविद्याओं में सातवें स्थान पर परिगणित हैं। इनके सन्दर्भ कथा आती है कि एक बार भगवती पार्वती भगवान् शिव के साथ कैलास पर्वत पर बैठी हुई थीं। उन्होंने महादेव से अपनी क्षुधा का निवारण करने का निवेदन किया। कई बार माँगने पर भी जब भगवान् शिव ने उस ओर ध्यान नहीं दिया, तब उन्होंने महादेव को उठाकर निगल लिया। उनके शरीर से धूम राशि निकली। शिवजी ने उस समय पार्वती जी से कहा कि “आपकी सुन्दर मूर्त्ति धूएँ से ढक जाने के कारण धूमावती या धूम्रा कही जाएगी।” धूमावती (Dhumavati) महाशक्ति अकेली हैं तथा स्वयं नियंत्रिका है। इसका कोई स्वामी नहीं है, इसलिये इसे विधवा कहा गया है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार इन्होंने ही प्रतिज्ञा की थी ‘जो मुझे युद्ध में जीत लेगा तथा मेरा गर्व दूर कर देगा, वही मेरा पति होगा। ऐसा कभी नहीं हुआ, अत: यह कुमारी हैं,’ ये धन या पतिरहित हैं अथवा अपने पति महादेव को निगल जाने के कारण विधवा हैं।

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नारदपांचरात्र के अनुसार इन्होंने अपने शरीर से उग्रचण्डिका को प्रकट किया था, जो सैकड़ों गीदड़ियों की तरह आवाज करने वाली थी, शिव को निगलने का तात्पर्य है, उनके स्वामित्व का निषेध। असुरों के कच्चे माँस से इनकी अंगभूता शिवाएँ तृप्त हुईं, यही इनकी भूख का रहस्य है। इनके ध्यान में इन्हें विवर्ण, चंचल, काले रंगवाली, मैले कपड़े धारण करने वाली, खुले केशों वाली, विधवा, काकध्वज वाले रथ पर आरूढ़, हाथ में सूप धारण किये, भूख-प्यास से व्याकुल तथा निर्मम आँखों वाली बताया गया है। स्वतन्त्र तन्त्र के अनुसार सती ने जब दक्ष यज्ञ में योगाग्नि के द्वारा अपने-आपको भस्म कर दिया, तब उस समय जो धुआँ उत्पन्न हुआ उससे धूमावती-विग्रह का प्राकट्य हुआ था।

धूमावती (Dhumavati) की उपासना विपत्ति-नाश, रोग-निवारण, युद्ध-जय, उच्चाटन तथा मारण आदि के लिये की जाती है। शाक्त प्रमोद में कहा गया है कि इनके उपासक पर दुष्टाभिचार का प्रभाव नहीं पड़ता है। संसार में रोग-दु:ख के कारण चार देवता हैं। ज्वर, उन्माद तथा दाह रुद्र के कोप से, मूर्च्छा, विकलांगता यम के कोप से, धूल, गठिया, लकवा, वरुण के कोप से तथा शोक, कलह, क्षुधा, तृषा आदि निर्ऋति के कोप से होते हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार धूमावती (Dhumavati) और निर्ऋति एक हैं। यह लक्ष्मी की ज्येष्ठा है, अत: ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न व्यक्ति जीवन भर दु:ख भोगता है।

तन्त्र ग्रन्थों के अनुसार धूमावती (Dhumavati) उग्रतारा ही हैं, जो धूम्रा होने धूमावती (Dhumavati) कही जाती हैं। दुर्गासप्तशती (Durga Saptshati) में वाभ्रवी और तामसीनाम से इन्हीं की चर्चा की गयी है। ये प्रसन्न होकर रोग और शोक को नष्ट कर देती हैं तथा कुपित होने पर समस्त सुखों और कामनाओं को नष्ट कर देती हैं। इनकी शरणागति से विपत्तिनाश तथा सम्पन्नता प्राप्त होती है। ऋग्वेदोक्त रात्रिसूक्त में इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है। सुतरा का अर्थ सुखपूर्वक तारनेयोग्य है। तारा या तारिणी को इनका पूर्वरूप बतलाया गया है। इसलिए आगमों में इन्हें अभाव और संकट को दूर कर सुख प्रदान करने वाली भूति कहा गया है। धूमावती (Dhumavati) स्थिरप्रज्ञता की प्रतीक है। इनका काकध्वज वासनाग्रस्त मन है, जो निरन्तर अतृप्त रहता है। जीव की दीनावस्था भूख, प्यास, कलह, दरिद्रता आदि इसकी क्रियाएँ हैं, अर्थात वेद की शब्दावली में धूमावती (Dhumavati) कद्रु है, जो वृत्रासुर आदि को पैदा करती है।

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माँ त्रिपुरभैरवी महाविद्या | Maa Tripura Bhairavi Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

Tripura Bhairavi devi

Tripura Bhairavi devi

पद्ममष्टदलोपेतं नवयोन्याढयकर्णिकम्।
चतुद्वासमायुक्तं  भुग्रहं विलिखेत्तत:।।

क्षीयमान विश्व के अधिष्ठान दक्षिणामूर्ति कालभैरव हैं। उनकी शक्ति ही त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) है। ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरी की रथवाहिनी हैं। ब्रह्माण्ड पुराण में इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी के रुप में चित्रित किया गया है। मत्स्यपुराण में इनके त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि रूपों का वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। महाविद्याओं में इनका छठा स्थान है। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) का मुख्य उपयोग घोर कर्म में होता है।

नवरात्रि कैेलेंडर लिस्ट | Navratri Calender List

इनके ध्यान का उल्लेख दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर-वध के प्रसंग में हुआ है। इनका रंग लाल है। ये लाल वस्त्र पहनती हैं, गले में मुण्डमाला धारण करती है और स्तनों पर रक्त का चन्दन लेप करती हैं। ये अपने हाथों में जपमाला, पुस्तक तथा वर और अभय मुद्रा धारण करती हैं। ये कमलासन पर विराजमान हैं। भगवती त्रिपुरभैरवी (Tripra Bhairavi) ने ही मधुपान करके महिष का हृदय विदीर्ण किया था। रुद्रयामल एवं भैरवीकुलसर्वस्व में इनकी उपासना तथा कवच का उल्लेख मिलता है। संकटों से मुक्ति के लिये भी इनकी उपासना करने का विधान है।

घोर कर्म के लिये काल की विशेष अवस्थाजनित मानों को शान्त कर देने वाली शक्ति को ही त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) कहा जाता है। इनका अरुण वर्ण विमर्श का प्रतीक है। इनके गले में सुशोभित मुण्डमाला ही वर्णमाला है। देवी के रक्तलिप्त पयोधर रजोगुणसम्पन्न सृष्टि-प्रक्रिया के प्रतीक हैं। अक्षजपमाला वर्णसमाम्नाय की प्रतीक है। पुस्तक ब्रह्मविद्या है, त्रिनेत्र वेदत्रयी हैं तथा स्मिति हास करुणा है।

आगम ग्रन्थों के अनुसार त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) एकाक्षररूप (प्रणव) हैं। इनसे सम्पूर्ण भुवन प्रकाशित हो रहे हैं तथा अन्त में इन्हीं में लय हो जाएंगे। “अ” से लेकर विसर्ग तक सोलह वर्ण भैरव कहलाते हैं तथा ‘क’ से ‘क्ष’ तक के वर्ण योनि अथवा भैरवी कहे जाते हैं। स्वच्छन्दोद्योत के प्रथम पटल में इस पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। यहाँ पर त्रिपुरभैरवी को योगीश्वरी रूप में उमा बतलाया गया है। इन्होंने भगवान् शंकर को पतिरुप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का दृढ़ निर्णय लिया था। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनकी तपस्या को देखकर दंग रह गये। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् शंकर की उपासना में निरत उमा का दृढ़ निश्चयी स्वरुप ही त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) का परिचायक है। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) की स्तुति में कहा गया है कि भैरवी सूक्ष्म वाक् तथा जगत् के मूल कारण की अधिष्ठात्री है।

त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) के अनेक भेद हैं; जैसे सिद्धिभैरवी, चैतन्यभैरवी, भुवनेश्वरीभैरवी, कमलेश्वरीभैरवी, कामेश्वरीभैरवी, षट्कूटाभैरवी, नित्याभैरवी, कोलेशीभैरवी, रुद्रभैरवी आदि।

सिद्धिभैरवी उत्तराम्नाय पीठ की देवी हैं। नित्याभैरवी पश्चिमाम्नाय पीठ की देवी हैं, इनके उपासक स्वयं भगवान् शिव हैं। रुद्रभैरवी दक्षिणाम्नाय पीठ की देवी हैं। इनके उपासक भगवान विष्णु हैं। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) के भैरव वटुक हैं। मुण्डमाला तंत्रानुसार त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) को भगवान नृसिंह की अभिन्न शक्ति बताया गया है। सृष्टि में परिवर्तन होता रहता है। इसका मूल कारण आकर्षण-विकर्षण है। इस सृष्टि के परिवर्तन में क्षण-क्षण में होने वाली भावी क्रिया की अधिष्ठातृशक्ति ही वैदिक दृष्टि से त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) कही जाती है। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) की रात्रि का नाम कालरात्रि तथा भैरव का नाम कालभैरव है।

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माँ बगलामुखी महाविद्या | Maa Bagalamukhi Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

bagalamukhi devi

bagalamukhi devi

बिंदु त्रिकोण षट्कोणव्रत्ताष्टदलमेव  च।
वृत्त च षोडशदलं यंत्र च भूपुरात्मकम्।।

व्यष्टिरूप में शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार-शक्ति ही वगला है। पीताम्बराविद्या के नाम से विख्यात बगलामुखी (Bagalamukhi) की साधना प्रायः शत्रुभय से मुक्ति और वाक्-सिद्धि के लिये की जाती है। इनकी उपासना में हरिद्रामाला, पीत-पुष्प एवं पीतवस्त्र का विधान है। महाविद्याओं में इनका आठवाँ स्थान है। इनके ध्यान में बताया गया है कि सुधासमुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मंडप में रत्न मय सिंहासन पर विराज रही हैं। ये पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले पुष्पों की माला धारण करती है। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्रर है।

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स्वतंत्रतंत्र के अनुसार भगवती बगलामुखी (Bagalamukhi) के प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है- सत्य युग में संपूर्ण जगत् को नष्ट करने वाला भयंकर तूफान आया। प्राणियों के जीवन पर आये संकट को देखकर भगवान् महाविष्णु चिंतित हो गये। वे सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर भगवती को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। श्रीविद्याने उस सरोवर से बगला मुखी रूप में प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया तथा विध्वंसकारी तूफान का तुरंत स्तम्भन कर दिया। वगलामुखी महाविद्या भगवान् विष्णु के तेज से युक्त होने के कारण वैष्णवी हैं।

मंगलवारयुक्त चतुर्दशी अर्धरात्रि में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इस विद्या का उपयोग दैवी प्रकोप की शान्ति, धन-धान्य के लिए पौष्टिक कर्म एवं आभिचारिक कर्म के लिए भी होता है। यह भेद केवल प्रधानता के अभिप्राय से है, अन्यथा इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि के लिये की जाती है।

यजुर्वेद की काठकसंहिता के अनुसार दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाली, सुन्दर स्वरूप धारिणी विष्णु पत्नी त्रिलोक जगत की ईश्वरी मानोता कही जाती है। स्तम्भनकारिणी शक्ति व्यक्त और अव्यक्त सभी पदार्थों की स्थिति का आधार पृथ्वी रूपा शक्ति है। बगला उसी स्तम्भनशक्ति की अधिष्ठात्री देवी है। शक्ति रूपा वगला की स्तंभन शक्ति से द्युलोक वृष्ठि प्रदान करता है। उसी से आदित्य मंडल ठहरा हुआ है उसी से स्वर्गलोग भी स्तम्भित है। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में कह कर उसी शक्ति का समर्थन किया तंत्र में वही सतवन शक्ति बगलामुखी के नाम से भी जानी जाती है श्री बगलामुखी ब्रह्मास्त्र ने भी गीता में विष्टभ्याहमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत् कहकर उसी शक्ति का समर्थन किया हैं। तन्त्र में वही स्तम्भनशक्ति बगलामुखी (Bagalamukhi) के नाम से जानी जाती है। श्री बगलामुखी (Bagalamukhi) को ब्रह्मास्त्र के नाम से भी जाना जाता हैं। ऐहिक या पारलौकिक देश अथवा समाज में दुःखद अरिष्टों के दमन और शत्रुओं के शमन में बगलामुखी (Bagalamukhi) के समान कोई मंत्र नहीं है। चिरकाल से साधक इन्हीं महादेवी का आश्रक लेते आ रहे हैं। इनके बडवामुखी, जातवेदमुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी तथा बृहद्भानुमुखी पाँच मंत्र भेद है। कुण्डिकातंत्र में वगलामुखी के जप के विधान पर विशेष प्रकाश डाला गया है। मुंडमाला तंत्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि इन की सिद्धि के लिये नक्षत्रादि विचार और काल शोधन की भी आवश्यकता नहीं है।

बगला महाविद्या ऊधर्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं। इस आम्नाय में शक्ति केवल पूज्य मानी जाती है, भोग्य नहीं। श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना गुरु के सान्निध्य में रहकर सतर्कतापूर्वक सफलता की प्राप्ति होने तक करते रहना चाहिये। इसमें ब्रह्मचर्य का पालन और बाहर-भीतर की पवित्रता अनिवार्य है। सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने वगला महाविद्या की उपासना की थी। ब्रह्मा जी ने इस विद्या का उपदेश का सनकादिक मुनियों को किया। सनत्कुमार देवर्षि नारद को और नारद ने संख्यायन नामक परमहंस को इसका उपदेश किया। सांख्यायन ने छत्तीस पटलों में उपनिबद्ध बगला तंत्र का रचना की। बगला मुखी के दूसरे उपासक भगवान् विष्णु और तीसरे उपासक परशुराम हुए तथा परशुरामने यह विद्या विद्या आचार्य द्रोण को बतायी।

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माँ कमला महाविद्या | Maa Kamala Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

Kamala Devi

Kamala Devi

षट्कोणे  वसुपत्रं  च  कमलं भूपुरान्वितम्।
सम्प्रीक्तं कमलायन्त्रं श्रीबीजेन समन्वितम्॥

श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध के आठवें अध्याय में कमला के उद्भव की विस्तृत कथा आयी है। देवताओं एवं असुरों के द्वारा अमृत-प्राप्ति के उद्देश्य से किए गये समुद्र-मंथन के फलस्वरूप इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इन्होंने भगवान् विष्णु को पति रूप में वरण किया था। महाविद्याओं में ये दसवें स्थान पर परिगणित है। भगवती कमला (Kamala) वैष्णवी शक्ति है तथा भगवान् विष्णु की लीला-सहचरी है, अतः इनकी उपासना जगधार-शक्ति की उपासना है। ये एक रूप में समस्त भौतिक या प्राकृतिक संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी है और दूसरे रूप में सच्चिदानमयी लक्ष्मी है, जो भगवान विष्णु से अभिन्न है। देवता, मानव एवं दानव- सभी इनकी कृपा के बिना पङ्गु है। इसलिये आगम और निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, सिद्ध और गंधर्व इनकी कृपा-प्रसाद के लिए लालायति रहते हैं।

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महाविद्या कमला (Kamala) के ध्यान में बताया गया है कि इनकी क्रांति सुवर्ण के समान है। हिमालय के सदृश श्वेत वर्ण के चार हाथी अपनी सूँड़ में चार सुवर्ण कलश लेकर इन्हें स्नान करा रहे हैं। ये अपनी दो भुजाओं में वर एवं अभय मुद्रा तथा दो भुजाओं में दो कमल पुष्प धारण की हैं। इनके सिर पर सुन्दर किरीट तथा तन पर रेशमी परिधान सुशोभित है। ये कमल के आसन सुन्दर पर आसीन है।

समृद्धि की प्रतीक महाविद्या कमला की उपासना स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति तथा नारी-पुत्रादि के सौख्य के लिए की जाती है। कमला (Kamala) को लक्ष्मी तथा षोडशी भी कहा जाता है। भार्गवों के द्वारा पूजित होने के कारण इनका एक नाम भार्गवी है। इनकी कृपा से पृथ्वीपतित्व तथा पुरुषोत्तम दोनों की प्राप्ति हो जाती है। भगवान् आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित कनकधारा स्त्रोत्र और श्रीसूत्क का पाठ, कमल गट्टों की माला पर श्री मंत्र का जप, बिल्वपत्र तथा बिल्वफल के हवन से कमला की विशेष कृपा प्राप्त होती है। स्वतंत्रतंत्र में कोलासुर के वध के लिये इनका प्रादुर्भाव होना बताया गया है। वाराहीतन्त्र के अनुसार प्राचीन काल में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव द्वारा पूजित होने के कारण कमला (Kamala) का एक नाम त्रिपुरा प्रसिद्ध हुआ। कालिकापुराण में कहा गया है कि त्रिपुरा शिव की भार्या होने से इन्हें त्रिपुरा कहा जाता है। शिव अपनी इच्छा से त्रिधा हो गये। उनका ऊर्ध्व भाग गौर वर्ण, चारभुजावाला, चतुर्मुख ब्रह्मरूप कहलाया। मध्य भाग नील वर्ण, एक मुख और चतुर्भुज विष्णु कहलाया तथा अधोभाग स्फटिक वर्ण, पंचमुख और चतुर्भुज शिव कहलाया। इन तीनों शरीरों के योग से शिव त्रिपुर और उनकी शक्ति त्रिपुरा कहीं जाती है। चिंतामणि गृह से इनका निवास है। भैरवयामल तथा शक्ति लहरी में इनके रूप तथा पूजा-विधान का विस्तृत वर्णन किया गया है। इनकी उपासना से समस्त सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

पुरुषसूक्त में श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्या कहकर कमला (Kamala) को परम पुरुष भगवान् विष्णु की पत्नी बतलाया गया है। अश्व, रथ, हस्ति के साथ उनका संबंध राज्य वैभव का सूचक है, पद्मस्थित होने तथा पद्मवर्णा होने का भी संकेत श्रुतिमें है। भगवच्छक्ति कमला के पाँच कार्य हैं – तिरोभाव, सृष्टि, स्थिति, संहार और अनुग्रह। भगवती कमला स्वयं कहती है कि नित्य निर्दोष परमात्मा नारायण के सब कार्य मैं स्वयं करती हूँ। इस प्रकार काली से लेकर कमला तक दशमहाविद्याएँ सृष्टि व्यष्टि, गति, स्थिति, विस्तार, भरण-पोषण, नियन्त्रण, जन्म-मरण, उन्नति-अवनति, बन्धन तथा मोक्ष की अवस्थाओं की प्रतीक हैं। ये अनेक होते हुए भी वस्तुतः परमात्मा की एक ही शक्ति है।

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माँ मातङ्गी महाविद्या | Maa Matangi Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

Matangi Devi

Matangi Devi

षट्कोणाष्टदलं पदं लिखेद् यन्त्रं मनोरमम्।
भूपुरे-णापि संयुक्तं मातंगी प्रीति वर्धकम्।।

मतङ्ग शिव का नाम है, इनकी शक्ति मातङ्गी (Matangi) है। मातङ्गी (Matangi) के ध्यान में बताया गया है कि ये श्यामवर्णा हैं और चंद्रमा को मस्तक पर धारण किये हुए हैं। भगवती मातङ्गी (Matangi) त्रिनेत्रा, रक्तमय सिंहासन पर आसीन, नील कमल के समान क्रांतिवाली तथा राक्षस समूह रूप अरणय को भस्म करने में दावानल के समान है। इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अङ्कश, खेटक और खड्ग धारण किया है। ये असुरों को मोहित करने वाली एवं भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ-जीवन को सुखी बनाने, पुरुषार्थ-सिद्धि और वाग्विलास में पारंगत होने के लिए मातङ्गी (Matangi) की साधना श्रेयस्कर है। महाविद्याओं में ये नवें स्थान पर परिगणित हैं।

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नारदपाञ्चरात्र के बारहवें अध्याय में शिव की चांडाल तथा शिवा को उच्छिष्ट चाण्डाली कहा गया है। इनका ही नाम मातङ्गी है। पुरा काल में मातङ्ग नामक मुनि में नाना वृक्षों से परिपूर्ण कदम्ब-वन में सभी जीवों को वश में करने के लिए भगवती त्रिपुरा की प्रसन्नताहेतु कठोर तपस्या की थी, उस समय त्रिपुरा के नेत्र से उत्पन्न तेज ने एक श्यामल नारी-विग्रह का रूप धारण कर लिया। इन्हें राजमातंगिनी कहा गया। यह दक्षिण तथा पश्चिमाम्राय की देवी है। राजमातङ्गी, सुमुखी, वश्यमातङ्गी तथा कर्णमातङ्गी इनके नामन्तर है। मातङ्गी के भैरव का नाम मातङ्ग है। ब्राह्मयामल इन्हें मातङ्ग मुनि की कन्या बताता है।
दशमहाविद्याओं में मातङ्गी की उपासना विशेषरूप से वाक्सिद्धि के लिये की जाती है। पुरश्चर्यार्णव में कहा गया है-

अक्षवक्ष्ये महादेवीं मातङ्गी सर्वसिद्धिदाम्।
अस्याः सेवनमात्रेण वाक्सिद्धिं लभते ध्रुवम्॥

मातङ्गी स्थूलरू`पात्मक प्रतीक विधान को देखने से यह भली-भांति ज्ञात हो जाता है कि ये पूर्णतया वाग्देवता की मूर्ति है। मातङ्गी (Matangi) का श्याम वर्ण परावाक् बिंदु है। उनका त्रिनयन सूर्य, सोम और अग्नि है। उनकी चार भुजाएँ चार वेद है। पाश अविद्या है, अंकुश विद्या है, कर्म राशि दण्ड है। शब्द-स्पर्शादि गुण कृपाण है अर्थात् पञ्चभूतात्मक सृष्टि के प्रतीक है। कदम्बवन ब्रह्मांड का प्रतीक है। योगराजोपनिषद् में ब्रह्मलोक को कदम्बगोलाकार कहा गया है-

कदम्बगोलाकारं ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते। भगवती मातङ्गी का सिंहासन शिवात्मक महामञ्च या त्रिकोण है। उनकी मूर्ति सूक्ष्म रूप में यंत्र तथा पर रूप में भावना मात्र है।

दुर्गा सप्तशती (Durga Saptshati) के सातवें अध्याय में भगवती मातङ्गी के ध्यान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे रत्नमय सिंहासन पर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही है। उनके शरीर का वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमल पर रखी हुई है। अपने मस्तक पर अर्धचंद्र तथा गले में कल्हार पुष्पों की माला धारण करती है। वीणा बजाती हुई भगवती मातङ्गी (Matangi) के अङ्ग में कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंग की साड़ी पहने तथा हाथ में शंखमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदन पर मधु का हल्का-हल्का प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में विन्दी शोभा पा रही है। इनका वल्लकी धारण करना नाद का प्रतीक है। तोते का पढ़ना ह्री वर्ण का उच्चारण करना है, जो बीजाक्षर का प्रतीक है। कमल वर्णनात्मक सृष्टि का प्रतीक है। शंख पात्र ब्रह्मरन्ध्र तथा मधु अमृत का प्रतीक है। रक्तवस्त्र अग्नि का ज्ञान का प्रतीक है। वाग्देवी के अर्थ में मातङ्गी यदि व्याकरण रूपा है तो शुभ शिक्षा का प्रतीक है। चारभुजाएँ वेदचतुष्टय हैं। इस प्रकार तांत्रिकों की भगवती मातङ्गी (Matangi) महाविद्या वैदिको की सरस्वती ही है। तंत्रग्रन्थों में इनकी उपासना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।

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