माँ त्रिपुरभैरवी महाविद्या | Maa Tripura Bhairavi Mahavidya : The 10 (Ten) Mahavidyas

Tripura Bhairavi devi

पद्ममष्टदलोपेतं नवयोन्याढयकर्णिकम्।
चतुद्वासमायुक्तं  भुग्रहं विलिखेत्तत:।।

क्षीयमान विश्व के अधिष्ठान दक्षिणामूर्ति कालभैरव हैं। उनकी शक्ति ही त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) है। ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरी की रथवाहिनी हैं। ब्रह्माण्ड पुराण में इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी के रुप में चित्रित किया गया है। मत्स्यपुराण में इनके त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि रूपों का वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। महाविद्याओं में इनका छठा स्थान है। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) का मुख्य उपयोग घोर कर्म में होता है।

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इनके ध्यान का उल्लेख दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर-वध के प्रसंग में हुआ है। इनका रंग लाल है। ये लाल वस्त्र पहनती हैं, गले में मुण्डमाला धारण करती है और स्तनों पर रक्त का चन्दन लेप करती हैं। ये अपने हाथों में जपमाला, पुस्तक तथा वर और अभय मुद्रा धारण करती हैं। ये कमलासन पर विराजमान हैं। भगवती त्रिपुरभैरवी (Tripra Bhairavi) ने ही मधुपान करके महिष का हृदय विदीर्ण किया था। रुद्रयामल एवं भैरवीकुलसर्वस्व में इनकी उपासना तथा कवच का उल्लेख मिलता है। संकटों से मुक्ति के लिये भी इनकी उपासना करने का विधान है।

घोर कर्म के लिये काल की विशेष अवस्थाजनित मानों को शान्त कर देने वाली शक्ति को ही त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) कहा जाता है। इनका अरुण वर्ण विमर्श का प्रतीक है। इनके गले में सुशोभित मुण्डमाला ही वर्णमाला है। देवी के रक्तलिप्त पयोधर रजोगुणसम्पन्न सृष्टि-प्रक्रिया के प्रतीक हैं। अक्षजपमाला वर्णसमाम्नाय की प्रतीक है। पुस्तक ब्रह्मविद्या है, त्रिनेत्र वेदत्रयी हैं तथा स्मिति हास करुणा है।

आगम ग्रन्थों के अनुसार त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) एकाक्षररूप (प्रणव) हैं। इनसे सम्पूर्ण भुवन प्रकाशित हो रहे हैं तथा अन्त में इन्हीं में लय हो जाएंगे। “अ” से लेकर विसर्ग तक सोलह वर्ण भैरव कहलाते हैं तथा ‘क’ से ‘क्ष’ तक के वर्ण योनि अथवा भैरवी कहे जाते हैं। स्वच्छन्दोद्योत के प्रथम पटल में इस पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। यहाँ पर त्रिपुरभैरवी को योगीश्वरी रूप में उमा बतलाया गया है। इन्होंने भगवान् शंकर को पतिरुप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का दृढ़ निर्णय लिया था। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनकी तपस्या को देखकर दंग रह गये। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् शंकर की उपासना में निरत उमा का दृढ़ निश्चयी स्वरुप ही त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) का परिचायक है। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) की स्तुति में कहा गया है कि भैरवी सूक्ष्म वाक् तथा जगत् के मूल कारण की अधिष्ठात्री है।

त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) के अनेक भेद हैं; जैसे सिद्धिभैरवी, चैतन्यभैरवी, भुवनेश्वरीभैरवी, कमलेश्वरीभैरवी, कामेश्वरीभैरवी, षट्कूटाभैरवी, नित्याभैरवी, कोलेशीभैरवी, रुद्रभैरवी आदि।

सिद्धिभैरवी उत्तराम्नाय पीठ की देवी हैं। नित्याभैरवी पश्चिमाम्नाय पीठ की देवी हैं, इनके उपासक स्वयं भगवान् शिव हैं। रुद्रभैरवी दक्षिणाम्नाय पीठ की देवी हैं। इनके उपासक भगवान विष्णु हैं। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) के भैरव वटुक हैं। मुण्डमाला तंत्रानुसार त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) को भगवान नृसिंह की अभिन्न शक्ति बताया गया है। सृष्टि में परिवर्तन होता रहता है। इसका मूल कारण आकर्षण-विकर्षण है। इस सृष्टि के परिवर्तन में क्षण-क्षण में होने वाली भावी क्रिया की अधिष्ठातृशक्ति ही वैदिक दृष्टि से त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) कही जाती है। त्रिपुरभैरवी (Tripura Bhairavi) की रात्रि का नाम कालरात्रि तथा भैरव का नाम कालभैरव है।

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