कार्तिक माह माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय | Chapter -14 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 14

kartik mass chapter 14

कार्तिक माह माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय

Chapter – 14 

 

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कार्तिक मास का आज, लिखूं चौदहवाँ अध्याय।

श्री हरि कृपा करें, श्रद्धा प्रेम बढाएँ।।

तब उसको इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य करते हुए देख देवता क्षुब्ध हो गये । उन्होंणे देवाधिदेव शंकर का मन में स्मरण करना आरंभ किया तब भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले शंकर ने नारद जी को बुलाकर देव कार्य की इच्छा से उनको वहाँ भेजा । शम्भु भक्त नारद शिव की आज्ञा से देवपुरी में गये । इन्द्रादि सभी देवता व्याकुल हो शीघ्रता से उठ नारद जी को उत्कंठा भरी दृष्टि से देखने लगे । अपने सब दुखों को कहकर उन्हें नष्ट करने की प्रार्थना की तब नारद जी ने कहा – मैं सब कुछ जानता हूँ इसलिए अब मैं दैत्यराज जलन्धर के पास जा रहा हूँ । ऐसा कह नारद जी देवताओं को आश्वासित कर जलन्धर की सभा में आये । जलन्धर ने नारद जी के चरणों की पूजा कर हँसते हुए कहा – हे ब्रह्मन! कहिए, आप कहाँ से आ रहे हैं? यहाँ कैसे आये हैं? मेरे योग्य जो सेवा हो उसकी आज्ञा दीजिए।

नारद जी प्रसन्न होकर बोले – हे महाबुद्धिमान जलन्धर! तुम धन्य हो, मैं स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर गया था, जहाँ दस हजार योजनों में कल्पवृक्ष का वन है । वहाँ मैंने सैकड़ो कामधेनुओं को विचरते हुए देखा तथा यह भी देखा कि वह चिन्तामणि से प्रकाशित परम दिव्य अद्भुत और सब कुछ सुवर्णमय है । मैंने वहाँ पार्वती के साथ स्थित शंकर जी को भी देखा जो सर्वांग सुन्दर, गौर वर्ण, त्रिनेत्र और मस्तक पर चन्द्रमा धारण किये हुए है । उन्हें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इनके समान समृद्धिशाली त्रिलोकी में कोई है या नहीं? हे दैत्येन्द्र! उसी समय मुझे तुम्हारी समृद्धि का स्मरण हो आया और उसे देखने की इच्छा से ही मैं तुम्हारे पास चला आया हूँ। यह सुन जलन्धर को बड़ा हर्ष हुआ । उसने नारद जी को अपनी सब समृद्धि दिखला दी । उसे देख नारद ने जलन्धर की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि निश्चय ही तुम त्रिलोकपति होने के योग्य थे । ब्रह्माजी का हंसयुक्त विमान तुम ले आये हो और द्युलोक, पाताल और पृथ्वी पर जितने भी रत्नादि हैं सब तुम्हारे ही तो हैं । ऐरावत, उच्चै:श्रवा घोड़ा, कल्पवृक्ष और कुबेर की निधि भी तुम्हारे पास है । मणियों और रत्नों के ढेर भी तुम्हारे पास लगे हुए हैं । इससे मैं बड़ा प्रसन्न हूँ परन्तु तुम्हारे पास कोई स्त्री-रत्न नहीं है । उसके बिना तुम्हारा यह सब फीका है। तुम किसी स्त्री-रत्न को ग्रहण करो। नारद जी के ऐसे वचन सुनकर दैत्यराज काम से व्याकुल हो गया । उसने नारद जी को प्रणाम कर पूछा कि ऐसी स्त्री कहाँ मिलेगी जो सब रत्नों में श्रेष्ठ हो। नारद जी ने कहा – ऐसा रत्न तो कैलाश पर्वत में योगी शंकर के ही पास है । उनकी सर्वांग सुन्दरी पत्नी देवी पार्वती बहुत ही मनोहर हैं । उनके समान सुन्दरी मैं किसी को नहीं देखता । उनके उस रत्न की उपमा तीनों लोकों में कहीं नहीं है । देवर्षी उस दैत्य से ऐसा कहकर देव कार्य करने की इच्छा से आकाश मार्ग से चले गये ।
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कार्तिक माह माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय | Chapter -13 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 13

kartik mass chapter 13

कार्तिक माह माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय

Chapter – 13

 

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कार्तिक कथा को सुनो, सभी सहज मन लाय।

तेरहवाँ अध्याय लिखूँ, श्री प्रभु शरण में आय।।

दोनो ओर से गदाओं, बाणों और शूलों आदि का भीषण प्रहार हुआ । दैत्यों के तीक्ष्ण प्रहारों से व्याकुल देवता इधर-उधर भागने लगे तब देवताओं को इस प्रकार भयभीत हुआ देख गरुड़ पर चढ़े भगवान युद्ध में आगे बढ़े और उन्होंने अपना सारंग नामक धनुष उठाकर बड़े जोर का टंकार किया । त्रिलोकी शाब्दित हो गई । पलमात्र में भगवान ने हजारों दैत्यों के सिरों को काट गिराया फिर तो विष्णु और जलन्धर का महासंग्राम हुआ । बाणों से आकाश भर गया । लोक आश्चर्य करने लगे।

भगवान विष्णु ने बाणों के वेग से उस दैत्य की ध्वजा, छत्र और धनुष-बाण काट डाले । इससे व्यथित हो उसने अपनी गदा उठाकर गरुड़ के मस्तक पर दे मारी । साथ ही क्रोध से उस दैत्य ने विष्णु जी की छाती में भी एक तीक्ष्ण बाण मारा । इसके उत्तर में विष्णु जी ने उसकी गदा काट दी और अपने शारंग धनुष पर बाण चढ़ाकर उसको बींधना आरंभ किया । इस पर जलन्धर इन पर अपने पैने बाण बरसाने लगा । उसने विष्णु जी को कई पैने बाण मारकर वैष्णव धनुष को काट दिया । धनुष कट जाने पर भगवान ने गदा ग्रहण कर ली और शीघ्र ही जलन्धर को खींचकर मारी, परन्तु उस अग्निवत अमोघ गदा की मार से भी वह दैत्य कुछ भी चलायमान न हुआ । उसने एक अग्निमुख त्रिशूल उठाकर विष्णु पर छोड़ दिया ।

विष्णु जी ने शिव के चरणों का स्मरण कर नन्दन नामक त्रिशूल से उसके त्रिशूल को छेद दिया । जलन्धर ने झपटकर विष्णु जी की छाती पर एक जोर का मुष्टिक मारा, उसके उत्तर में भगवान विष्णु ने भी उसकी छाती पर अपनी एक मुष्टि बाहुओं और मुष्टि को से बाहु-युद्ध करने लगे । कितनी ही देर तक भगवान उसके साथ युद्ध करते रहे तब सर्वश्रेष्ठ मायावी भगवान उस दैत्यराज से मेघवाणी में बोले – रे रण दुर्मद दैत्यश्रेष्ठ! तूधन्य है जो इस महायुद्ध में इन बड़े-बड़े आयुधों से भी भयभीत न हुआ । तेरे इस युद्ध से मैं प्रसन्न हूँ, तू जो चाहे वर माँग ।

मायावी विष्णु की ऐसी वाणी सुनकर जलन्धर ने कहा – हे भावुक! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजिए कि आप मेरी बहन तथा अपने सारे कुटुम्बियों सहित मेरे घर पर निवास करें।

नारद जी बोले – उसके ऐसे वचन सुनकर विष्णु जी को खेद तो हुआ किन्तु उसी क्षण देवेश ने तथास्तु कह दिया । अब विष्णु जी सब देवताओं के साथ जलन्धरपुर में जाकर निवास करने लगे । जलन्धर अपनी बहन लक्ष्मी और देवताओं सहित विष्णु को वहाँ पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ फिर तो देवताओं के पास जो भी रत्नादि थे सबको ले जलन्धर पृथ्वी पर आया । निशुम्भ को पाताल में स्थापित कर दिया और देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, सर्प, राक्षस, मनुष्य आदि सबको अपना वंशवर्ती बना त्रिभुवन पर शासन करने लगा । उसने धर्मानुसार सुपुत्रों के समान प्रजा का पालन किया। उसके धर्मराज्य में सभी सुखी थे ।

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कार्तिक माह माहात्म्य बारहवाँ अध्याय | Chapter -12 Kartik Puran ki Katha

kartik mass Chapter 12

kartik mass Chapter 12

कार्तिक माह माहात्म्य बारहवाँ अध्याय

Chapter – 12 

 

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सुख भोगे जो कथा, सुने सहित विश्वास।

बारहवाँ अध्याय लिखे, ‘कमल’ यह दास।।

नारद जी ने कहा – तब इन्द्रादि देवता वहाँ से भय-कम्पित होकर भागते-भागते बैकुण्ठ में विष्णु जी के पास पहुंचे । देवताओं ने अपनी रक्षा के लिए उनकी स्तुति की । देवताओं की उस दीन वाणी को सुनकर करुणा सागर भगवान विष्णु ने उनसे कहा कि हे देवताओं! तुम भय को त्याग दो । मैं युद्ध में शीघ्र ही जलन्धर को देखूंगा।

ऐसा कहते ही भगवान गरुड़ पर जा बैठे तब सनुद्र-तनया लक्ष्मी जी ने कहा कि हे नाथ! यदि मैं सर्वदा आपकी प्रिया और भक्ता हूँ तो मेरा भाई आप द्वारा युद्ध में नहीं मारा जाना चाहिए ।

इस पर विष्णु जी ने कहा – अच्छा, यदि तुम्हारी ऐसी ही प्रीति है तो मैं उसे अपने हाथों से नहीं मारूंगा परन्तु युद्ध में अवश्य जाऊँगा क्योंकि देवताओं ने मेरी बड़ी स्तुति की है ।

ऐसा कह भगवान विष्णु युद्ध के उस स्थान में जा पहुंचे जहाँ जलन्धर विद्यमान था। जलन्धर और विष्णु का घोर युद्ध हुआ । विष्णु के तेज से कम्पित देवता सिंहनाद करने लगे फिर तो अरुण के अनुज गरुड़ के पंखों की प्रबल वायु से पीड़ित हो दैत्य इस प्रकार घूमने लगे जैसे आँधी से बादल आकाश में घूमते हैं तब अपने वीर दैत्यों को पीड़ित होते देखकर जलन्धर ने क्रुद्ध हो विष्णु जी को उद्धत वचन कहकर उन पर कठोर आक्रमण कर दिया ।

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कार्तिक माह माहात्म्य दसवाँ अध्याय | Chapter -10 Kartik Puran ki Katha (Kahani)

kartik mass chapter 10

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कार्तिक माह माहात्म्य दसवाँ अध्याय

Chapter – 10

 

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मायापति नारायण के, चरणों में सीस नवाय।

दसवाँ अध्याय कार्तिक, लिखूं नारायण राय।।

राजा पृथु बोले – हे ऋषिश्रेष्ठ नारद जी! आपको प्रणाम है । कृपया अब यह बताने की कृपा कीजिए कि जब भगवान शंकर ने अपने मस्तक के तेज को क्षीर सागर में डाला तो उस समय क्या हुआ?

नारद जी बोले – हे राजन्! जब भगवान शंकर ने अपना वह तेज क्षीर सागर में डाल दिया तो उस समय वह शीघ्र ही बालक होकर सागर के संगम पर बैठकर संसार को भय देने वाला रूदन करने लगा । उसके रूदन से सम्पूर्ण जगत व्याकुल हो उठा। लोकपाल भी व्याकुल हो गये । चराचर चलायमान हो गया । शंकर सुवन के रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याकुल हो गया । यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गये और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे । उन सभी ने ब्रह्मा जी से कहा – हे पितामह! यह तोन बहुत ही विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई है । हे महायोगिन! इसको नष्ट कीजिए ।

देवताओं के मुख से इस प्रकार सुनकर ब्रह्माजी सत्यलोक से उतरकर उस बालक को देखने के लिए सागर तट पर आये । सागर ने ब्रह्मा जी को आता देखकर उन्हें प्रणाम किया और बालक को उठाकर उनकी गोद में दे दिया । आश्चर्य चकित होते हुए ब्रह्मा जी ने पूछा – हे सागर! यह बालक किसका है, शीघ्रतापूर्वक कहो ।

सागर विनम्रतापूर्वक बोला – प्रभो! यह तो मुझे ज्ञात नहीं है परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि यह गंगा सागर के संगम पर प्रगट हुआ है इसलिए हे जगतगुरु! आप इस बालक का जात कर्म आदि संस्कार कर के इसका जातक फल बताइए ।
नारद जी राजा पृथु से बोले – सागर ब्रह्माजी के गले में हाथ डालकर बार-बार उनका आकर्षण कर रहा था । फिर तो उसने ब्रह्माजी का गला इतनी जोर से पकड़ा कि उससे पीड़ित होकर ब्रह्मा जी की आँखों से अश्रु टपकने लगे । ब्रह्माजी ने अपने दोनों हाथों का जोर लगाकर किसी प्रकार सागर से अपना गला छुड़वाया और सागर से कहा – हे सागर! सुनो, मैं तुम्हारे इस पुत्र का जातक फल कहता हूँ । मेरे नेत्रों से जो यह जल निकला है इस कारण इसका नाम जलन्धर होगा । उत्पन्न होते ही यह तरुणावस्था को प्राप्त हो गया है इसलिए यह सब शास्त्रों का पारगामी, महापराक्रमी, महावीर, बलशाली, महायोद्धा और रण में विजय प्राप्त करने वाला होगा ।

यह बालक सभी दैत्यों का अधिपति होगा । यह किसी से भी पराजित न होने वाला तथा भगवान विष्णु को भी जीतने वाला होगा । भगवान शंकर को छोड़कर यह सबसे अवध्य होगा। जहां से इसकी उत्पत्ति हुई है यह वहीं जायेगा । इसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता, सौभाग्यशालिनी, सर्वांगसुन्दरी, परम मनोहर, मधुर वाणी बोलने वाली तथा शीलवान होगी ।

सागर से इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने शुक्राचार्य को बुलवाया और उनके हाथों से बलक बालक का राज्याभिषेक कराकर स्वयं अन्तर्ध्यान हो गये । बालक को देखकर सागर की प्रसन्नता की सीमा न रही, वह हर्षित मन से घर आ गया । फिर सागर में उस बालक का लालन-पालन कर उसे पुष्ट किया, फिर कालनेमि नामक असुर को बुलाकर वृन्दा नामक कन्या से विधिपूर्वक उसका विवाह करा दिया । उस विवाह में बहुत बड़अ उत्सव हुआ । श्री शुक्राचार्य के प्रभाव से पत्नी सहित जलन्धर दैत्यों का राजा हो गया ।

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कार्तिक माह माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय | Chapter -11 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 11

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कार्तिक माह माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय

Chapter – 11

 

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जिसको जप कर जीव, हो भवसागर से पार।

ग्यारहवें अध्याय का, ‘कमल’ करे विस्तार।।

एक बार सागर पुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा सहित असुरों से सम्मानित हुआ सभा में बैठा था तभी गुरु शुक्राचार्य का वहाँ आगमन हुआ । उनके तेज से सभी दिशाएँ प्रकाशित हो गई । गुरु शुक्राचार्य को आता देखकर सागर पुत्र जलन्धर ने असुरों सहित उठकर बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया । गुरु शुक्राचार्य ने उन सबको आशीर्वाद दिया । फिर जलन्धर ने उन्हें एक दिव्य आसन पर बैठाकर स्वयं भी आसन ग्रहण किया फिर सागर पुत्र जलन्धर ने उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा – हे गुरुजी! आप हमें यह बताने की कृपा करें कि राहु का सिर किसने काटा था?

इस पर दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने विरोचन पुत्र हिरण्यकश्यपु और उसके धर्मात्मा पौत्र का परिचय देकर देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन की कथा संक्षेप में सुनाते हुए बताया कि जब समुद्र से अमृत निकला तो उस समय देवरूप बनाकर राहु भी पीने बैठ गया । इस पर इन्द्र के पक्षपाती भगवान विष्णु ने राहु का सिर काट डाला।

अपने गुरु के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर जलन्धर के क्रोध की सीमा न रही, उसके नेत्र लाल हो गये फिर उसने अपने धस्मर नामक दूत को बुलाया और उसे शुक्राचार्य द्वारा सुनाया गया वृत्तान्त सुनाया । तत्पशचत उसने धस्मर को आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही इन्द्रपुरी में जाकर इन्द्र को मेरी शरण में लाओ।

धस्मर जलन्धर का बहुत आज्ञाकारी एवं निपुण दूत था । वह जल्द ही इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जा पहुंचा और जलन्धर के शब्दों में इन्द्र से बोला – हे देवताधाम! तुमने समुद्र का मन्थन क्यों किया और मेरे पिता के समस्त रत्नों को क्यों ले लिया? ऐसा कर के तुमने अच्छा नहीं किया । यदि तू अपना भला चाहता है तो उन सब रत्नों एवं देवताओं सहित मेरी शरण में आ जा अन्यथा मैं तेरे राज्य का ध्वंस कर दूंगा, इसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है।

इन्द्र बहुत विस्मित हुआ और कहने लगा – पहले मेरे भय से सागर ने सब पर्वतों को अपनी कुक्षि में क्यों स्थान दिया और उसने मेरे शत्रु दैत्यों की क्यों रक्षा की? इसी कारण मैंने उनके सब रत्न हरण किये हैं । मेरा द्रोही सुखी नहीं रह सकता, इसमें सन्देह नहीं।

इन्द्र की ऐसी बात सुनकर वह दूत शीघ्र ही जलन्धर के पास आया और सब बातें कह सुनाई । उसे सुनते ही वह दैत्य मारे क्रोध के अपने ओष्ठ फड़फड़ाने लगा और देवताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए उसने उद्योग आरम्भ किया फिर तो सब दिशाओं, पाताल से करोड़ो-2 दैत्य उसके पास आने लगे । शुम्भ-निशुम्भ आदि करोड़ो सेनापतियों के साथ जलन्धर इन्द्र से युद्ध करने लगा । शीघ्र ही इन्द्र के नन्दन वन में उसने अपनी सेना उतार दी । वीरों की शंखध्वनि और गर्जना से इन्द्रपुरी गूंज उठी । अमरावती छोड़ देवता उससे युद्ध करने चले । भयानक मारकाट हुई । असुरों के गुरु आचार्य शुक्र अपनी मृत संजीवनी विद्या से और देवगुरु बृहस्पति द्रोणागिरि से औषधि लाकर जिलाते रहे ।

इस पर जलन्धर ने क्रुद्ध होकर कहा कि मेरे हाथ से मरे हुए देवता जी कैसे जाते हैं? जिलाने वाली विद्या तो आपके पास है।

तत्पश्चात यह सागर पुत्र युद्धभूमि में आकर बड़े तीव्र गति से देवताओं का संहार करने लगा । जब द्रोनाचार्य जी औषधि लेने गये तो द्रोणाचल को उखड़ा हुआ शून्य पाया । वह भयभीत हो देवताओं के पास आये और कहा कि युद्ध बन्द कर दो । जलन्धर को अब नहीं जीत सकोगे ।

पहले इन्द्र ने शिवजी का अपमान किया था, यह सुन सेवता युद्ध में जय की आशा त्याग कर इधर-उधर भाग गये । सिन्धु-सुत निर्भय हो अमरावती में घुस गया, इन्द्र आदि सब देवताओं ने गुफाओं में शरण ली ।

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कार्तिक माह माहात्म्य नवाँ अध्याय | Chapter -9 Kartik Puran ki Katha (Kahani)

Kartik mass Chapter 9

Kartik mass Chapter 9

कार्तिक माह माहात्म्य नवाँ अध्याय

Chapter – 09 

 

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जो पढ़े सुनेगा इसे, वह होगा भव से पार।

श्री हरि कृपा से लिख रहा, नवम अध्याय का सार।।

राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी! आपने कार्तिक माह के व्रत में जो तुलसी की जड़ में भगवान विष्णु का निवास बताकर उस स्थान की मिट्टी की पूजा करना बतलाया है, अत: मैं श्री तुलसी जी के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ । तुलसी जी कहां और किस प्रकार उत्पन्न हुई, यह बताने की कृपा करें ।

नारद जी बोले – राजन! अब आप तुलसी जी की महत्ता तथा उनके जन्म का प्राचीन इतिहास ध्यानपूर्वक सुनिए –

एक बार देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र भगवान शंकर का दर्शन करने कैलाश पर्वत की ओर चले तब भगवान शंकर ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के लिए जटाधारी दिगम्बर का रुप धारण कर उन दोनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया यद्यपि वह तेजस्वी, शान्त, लम्बी भुजा और चौड़ी छाती वाले, गौर वर्ण, अपने विशाल नेत्रों से युक्त तथा सिर पर जटा धारण किये वैसे ही बैठे थे तथापि उन भगवान शंकर को न पहचान कर इन्द्र ने उनसे उनका नाम व धाम आदि पूछते हुए कहा कि क्या भगवान शंकर अपने स्थान पर हैं या कहीं गये हुए हैं?

इस पर तपस्वी रूप भगवान शिव कुछ नहीं बोले । इन्द्र को अपने त्रिलोकीनाथ होने का गर्व था, उसी अहंकार के प्रभाव से वह चुप किस प्रकार रह सकता था, उसने क्रोधित होते हुए उस तपस्वी को धुड़ककर कहा – अरे! मैंने तुझसे कुछ पूछा है और तू उसका उत्तर भी नहीं देता, मैं अभी तुझ पर वज्र का प्रहार करता हूँ फिर देखता हूँ कि कौन तुझ दुर्मति की रक्षा करता है । इस प्रकार कहकर जैसे ही इन्द्र ने उस जटाधारी दिगम्बर को मारने के लिए हाथ में वज्र लिया वैसे ही भगवान शिव ने वज्र सहित इन्द्र का हाथ स्तम्भित कर दिया और विकराल नेत्र कर उसे देखा ।

उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह दिगम्बर प्रज्वलित हो उठा है और वह अपने तेज से जला देगा । भुजाएँ स्तम्भित होने के कारण इन्द्र दुखित होने के साथ-साथ अत्यन्त कुपित भी हो गया परन्तु उस जटाधारी दिगम्बर को प्रज्वलित देखकर बृहस्पति जी ने उन्हें भगवान शंकर जानकर प्रणाम किया और दण्डवत होकर उनकी स्तुति करने लगे । बृहस्पति भगवान शंकर से कहने लगे – हे दीनानाथ! हे महादेव! आप अपने क्रोध को शान्त कर लीजिए और इन्द्र के इस अपराध को क्षमा कीजिए ।

बृहस्पति के यह वचन सुनकर भगवान शंकर ने गम्भीर वाणी में कहा – मैं अपने नेत्रों से निकाले हुए क्रोध को
किस प्रकार रोकूँ?

तब बृहस्पति ने कहा – भगवन्! आप अपना भक्तवत्सल नाम सार्थक करते हुए अपने भक्तों पर दया कीजिए । आप अपने इस तेज को अन्यत्र स्थापित कीजिए और इन्द्र का उद्धार कीजिए ।

तब भगवान शंकर गुरु बृहस्पति से बोले – मैं तुम्हारी स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने इन्द्र को जीवनदान दिलवाया है । मुझे विश्वास है कि मेरे नेत्रों की अग्नि अब इन्द्र को पीड़ित नहीं करेगी ।

बृहस्पति से इस प्रकार कहकर भगवान शिव ने अपने मस्तक से निकाले हुए अग्निमय तेज को अपने हाथों में ले लिया और फिर उसे क्षीर सागर में डाल दिया तत्पश्चात भगवान शंकर अन्तर्ध्यान हो गये । इस प्रकार जिसको जो जानने की कामना थी उसे जानकर इन्द्र तथा बृहस्पति अपने-अपने स्थान को चले गये ।

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कार्तिक माह माहात्म्य आठवाँ अध्याय | Chapter -8 Kartik Puran ki Katha (Kahani)

Kartik mass Chapter 8

Kartik mass Chapter 8

कार्तिक माह माहात्म्य आठवाँ अध्याय

Chapter – 08

 

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जिसकी दया से सरस्वती, भाव रही उपजाय।

कार्तिक माहात्म का ‘कमल’लिखे आठवाँ अध्याय।।

नारदजी बोले – अब मैं कार्तिक व्रत के उद्यापन का वर्णन करता हूँ जो सब पापों का नाश करने वाला है। व्रत का पालन करने वाला मनुष्य कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को व्रत की पूर्ति और भगवान विष्णु की प्रीति के लिए उद्यापन करे। तुलसी के ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनवावे, उसे केले के खम्भों से संयुक्त कर के नाना प्रकार की धातुओं से उसकी विचित्र शोभा बढ़ावे। मण्डप के चारों ओर दीपकों की श्रेणी सुन्दर ढंग से सजाकर रखे। उस मण्डप में सुन्दर बन्दनवारों से सुशोभित चार दरवाजे बनावे और उन्हें फूलों से तथा चंवर से सुसज्जित करे। द्वारो पर पृथक-पृथक मिट्टी के द्वारपाल बनाकर उनकी पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं – जय, विजय, चण्ड, प्रचण्ड, नन्द, सुनन्द, कुमुद और कुमुदाक्ष। उन्हें चारों दरवाजों पर दो-दो के क्रम से स्थापित कर भक्तिपूर्वक पूजन करे।

तुलसी की जड़ के समीप चार रंगों से सुशोभित सर्वतोभद्रमण्डल बनावे और उसके ऊपर पूर्णपत्र तथा पंचरत्न से संयुक्त कलश की स्थापना करें। कलश के ऊपर शंख, चक्र, गदाधारी भगवान विष्णु का पूजन करें। भक्तिपूर्वक उस तिथि में उपवास करें तथा रात्रि में गीत, वाद्य, कीर्तन आदि मंगलमय आयोजनों के साथ जागरण करें। जो भगवान विष्णु के लिए जागरण करते समय भक्तिपूर्वक भगवत्सम्बन्धी पदों का गान करते हैं वे सैकड़ो जन्मों की पापराशि से मुक्त हो जाते हैं।

जो मनुष्य भगवान के निमित्त जागरण कर के रात्रि भर भगवान का कीर्तन करते हैं, उनको असंख्य गो दान का फल मिलता है। जो मनुष्य भगवान की मूर्ति के सामने नृत्य-गान करते हैं उनके अनेक जन्मों के एकत्रित पाप नष्ट हो जाते हैं। जो भगवान के सम्मुख बैठकर कीर्तन करते हैं और बंसरी आदि बजाकर भगवद भक्तों को प्रसन्न करते हैं तथा भक्ति से रात्रि भर जागरण करते हैं, उन्हें करोड़ो तीर्थ करने का फल मिलता है।

उसके बाद पूर्णमासी dमें एक सपत्नीक ब्राह्मण को निमंत्रित करें। प्रात:काल स्नान और देव पूजन कर के वेदी पर अग्नि की स्थापना करे और भगवान की प्रीति के लिए तिल और खीर की आहुति दे। होम की शेष विधि पूरी कर के भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों का पूजन करें और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें फिर उनसे इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करें –

‘आप सब लोगों की अनुकम्पा से मुझ पर भगवान सदैव प्रसन्न रहें। इस व्रत को करने से मेरे सात जन्मों के किये हुए पाप नष्ट हो जायें और मेरी सन्तान चिरंजीवी हो। इस पूजा के द्वारा मेरी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों, मेरी मृत्यु के पश्चात मुझे अतिशय दुर्लभ विष्णुलोक की प्राप्ति हो।’

पूजा की समस्त वस्तुओं के साथ गाय भी गुरु को दान में दे, उसके पश्चात घरवालों और मित्रों के साथ स्वयं भोजन करें।

भगवान द्वाद्शी तिथि को शयन से उठे, त्रयोदशी को देवताओं से मिले और चतुर्दशी को सबने उनका दर्शन एवं पूजन किया इसलिए उस तिथि में भगवान की पूजा करनी चाहिए। गुरु की आज्ञा से भगवान विष्णु की सुवर्णमयी प्रतिमा का पूजन करें। इस पूर्णिमा को पुष्कर तीर्थ की यात्रा श्रेष्ठ मानी गयी है। कार्तिक माह में इस विधि का पालन करना चाहिए। जो इस प्रकार कार्तिक के व्रत का पालन करते हैं वे धन्य और पूजनीय हैं उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो कार्तिक में व्रत का पालन करते हैं उनके शरीर में स्थित सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो श्रद्धापूर्वक कार्तिक के उद्यापन का माहात्म्य सुनता या सुनाता है वह भगवान विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है।

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कार्तिक माह माहात्म्य सातवाँ अध्याय | Chapter -7 Kartik Puran ki Katha (Kahani)

kartik mass chapter 7

kartik mass chapter 7

कार्तिक माह माहात्म्य सातवाँ अध्याय 

Chapter – 07

 

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मंगलकारी श्री हरि का, सच्चा नाम ध्याऊं।

कार्तिक मास माहात्म्य का, सातवाँ अध्याय बनाऊँ।।

नारद जी ने कहा – हे राजन! कार्तिक मास (Kartik Maas) में व्रत करने वालों के नियमों को मैं संक्षेप में बतलाता हूँ, उसे आप सुनिए। व्रती को सब प्रकार के आमिष मांस, उरद, राई, खटाई तथा नशीली वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। व्रती को दूसरे का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए, किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए और तीर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई यात्रा नहीं करनी चाहिए। देवता, वेद, ब्राह्मण, गाय, व्रती, नारी, राजा तथा गुरुजनों की निन्दा भी नहीं करनी चाहिए।

व्रती को दाल, तिल, पकवान व दान किया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी की चुगली या निन्दा भी नहीं करनी चाहिए। किसी भी जीव का मांस नहीं छूना चाहिए। पान, कत्था, चूना, नींबू, मसूर, बासी तथा झूठे अन्न का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। गाय, बकरी तथा भैंस के अतिरिक्त अन्य किसी पशु का दूध नहीं पीना चाहिए। कांस्य के पात्र में रखा हुआ पंचगव्य, बहुत छोटे घड़े का पानी तथा केवल अपने लिए ही पका हुआ अन्न प्रयोग करना चाहिए।

कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्य को सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। उसे धरती पर सोना चाहिए और दिन के चौथे पहर में केवल एक बार पत्तल में भोजन करना चाहिए। व्रती कार्तिक माह में केवल नरक चतुर्दशी जिसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है इस दिन ही शरीर में तेल लगा सकता है। कार्तिक माह में व्रत करने वाले मनुष्य को सिंघाड़ा, प्याज, मठ्ठा, गाजर, मूली, काशीफल, लौकी, तरबूज इन वस्तुओं का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए। रजस्वला, चाण्डाल, पापी, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही और नास्तिकों से बातचीत नहीं करनी चाहिए। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार चान्द्रायण आदि का व्रत करना चाहिए और उपर्युक्त नियमों का पालन करना चाहिए।

व्रती को प्रतिपदा को कुम्हड़ा, द्वितीया को कटहल, तृतीया को तरूणी स्त्री, चतुर्थी को मूली, पंचमी को बेल, षष्ठी को तरबूज, सप्तमी को आंवला, अष्टमी को नारियल, नवमी को मूली, दशमी को लौकी, एकादशी को परवल, द्वादशी को बेर, त्रयोदशी को मठ्ठा, चतुर्दशी को गाजर तथा पूर्णिमा को शाक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। रविवार को आंवला का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कार्तिक माह में व्रत करने वाला मनुष्य यदि इन शाकों में से किसी शाक का सेवन करना चाहे तो पहले ब्राह्मण को देखकर ग्रहण करे।

यही विधान माघ माह के व्रत के लिए भी है। देवोत्थानी एकादशी में पहले कही गयी विधि के अनुसार नृत्य, जागरण, गायन-वादन आदि करना चाहिए। इसको विधिपूर्वक करने वाले मनुष्य को देखकर यमदूत ऐसे भाग जाते हैं जैसे सिंह की गर्जना से हाथी भाग जाते हैं। कार्तिक माह का व्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त जितने भी व्रत-यज्ञ हैं वह हजार की संख्या में किये जाने पर भी इसकी तुलना नहीं कर सकते क्योंकि यज्ञ करने वाले मनुष्य को सीधा वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार राजा की रक्षा उसके अंगरक्षक करते हैं उसी प्रकार कार्तिक माह का व्रत करने वाले की रक्षा भगवान विष्णु की आज्ञा से इन्द्रादि देवता करते हैं।

व्रती मनुष्य जहाँ कहीं भी रहता है वहीं पर उसकी पूजा होती है, उसका यश फैलता है। उसके निवास स्थान पर भूत, पिशाच आदि कोई भी नहीं रह पाते। विधि पूर्वक कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्यों के पुण्यों का वर्णन करने में ब्रह्मा जी भी असमर्थ हैं। यह व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करने वाला और धन-धान्य की वृद्धि करने वाला है।

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कार्तिक माह माहात्म्य छठा अध्याय | Chapter -6 Kartik Puran ki Katha (Kahani)

Kartik Chapter 6

Kartik Chapter 6

कार्तिक माह माहात्म्य छठा अध्याय

Chapter – 06

 

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जिसके सुनने से सब पाप नाश हो जाये।

कार्तिक माहात्म्य का, लिखूं छठा अध्याय।।

नारद जी बोले – जब दो घड़ी रात बाकी रहे तब तुलसी की मृत्तिका, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय पर जाये। कार्तिक में जहां कहीं भी प्रत्येक जलाशय के जल में स्नान करना चाहिए। गरम जल की अपेक्षा ठण्डे जल में स्नान करने से दस गुना पुण्य होता है। उससे सौ गुना पुण्य बाहरी कुएं के जल में स्नान करने से होता है। उससे अधिक पुण्य बावड़ी में और उससे भी अधिक पुण्य पोखर में स्नान करने से होता है। उससे दस गुना झरनों में और उससे भी अधिक पुण्य कार्तिक में नदी स्नान करने से होता है। उससे भी दस गुना पुण्य वहां होता हैं जहां दो नदियों का संगम हो और यदि कहीं तीन नदियों का संगम हो तब तो पुण्य की कोई सीमा ही नहीं।

स्नान से पहले भगवान का ध्यान कर के स्नानार्थ संकल्प करना चाहिए फिर तीर्थ में उपस्थित देवताओं को क्रमश: अर्ध्य, आचमनीय आदि देना चाहिए। अर्ध्य मन्त्र इस प्रकार है :-

“हे कमलनाथ्! आपको नमस्कार है, हे जलशायी भगवान! आपको प्रणाम है, हे ऋषिकेश! आपको नमस्कार है। मेरे दिए अर्ध्य को आप ग्रहण करें। वैकुण्ठ, प्रयाग तथा बद्रिकाश्रम में जहां कहीं भगवान विष्णु गये, वहां उन्होंने तीन प्रकार से अपना पांव रखा था। वहां पर ऋषि वेद यज्ञों सहित सभी देवता मेरी रक्षा करते रहें। हे जनार्दन, हे दामोदर, हे देवेश! आपको प्रसन्न करने हेतु मैं कार्तिक मास (Kartik Maas) में विधि-विधान से ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर रहा हूँ। आपकी कृपा से मेरे सभी पापों का नाश हो। हे प्रभो! कार्तिक मास (Kartik Maas) में व्रत तथा विधिपूर्वक स्नान करने वाला मैं अर्ध्य देता हूँ, आप राधिका सहित ग्रहण करें। हे कृष्ण! हे बलशाली राक्षसों का संहार करने वाले भगवन्! हे पापों का नाश करने वाले! कार्तिक मास (Kartik Maas) में प्रतिदिन दिये हुए मेरे इस अर्ध्य द्वारा कार्तिक स्नान का व्रत करने वाला फल मुझे प्राप्त हो” ।

तत्पश्चात विष्णु, शिव तथा सूर्य का ध्यान कर के जल में प्रवेश कर नाभि के बराबर जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थी को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर तथा विधवा स्त्री व यती को तुलसी की जड़ की मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, त्रयोदशी, द्वितीया, दशमी आदि तिथियों को आंवला तथा तिल से स्नान करना वर्जित है। स्नान करते हुए निम्न शब्दों का उच्चारण करना चाहिए –

“जिस भक्तिभाव से भगवान ने देवताओं के कार्य के लिए तीन प्रकार का रूप धारण किया था, वही पापों का नाश करने वाले भगवान विष्णु अपनी कृपा से मुझे पवित्र बनाएं। जो अम्नुष्य भगवान विष्णु की आज्ञा से कार्तिक व्रत करता है, उसकी इन्द्रादि सभी देवता रक्षा करते हैं इसलिए वह मुझको पवित्र करें। बीजों, रहस्यों तथा यज्ञों सहित वेदों के मन्त्र कश्यप आदि ऋषि, इन्द्रादि देवता मुझे पवित्र करें। अदिति आदि सभी नारियां, यज्ञ, सिद्ध, सर्प और समस्त औषधियाँ व तीनो लोकों के पहाड़ मुझे पवित्र करें” ।

इस प्रकार कहकर स्नान करने के बाद मनुष्य को हाथ में पवित्री धारण कर के देवता, ऋषि, मनुष्यों तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करना चाहिए। तर्पण करते समय तर्पण में जितने तिल रहते हैं, उतने वर्ष पर्यन्त व्रती के पितृगण स्वर्ग में वास करते हैं। उसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए। सभी तीर्थों के सारे कार्यों से निवृत्त होकर पुन: भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। सभी तीर्थो के सारे देवताओं का स्मरण करके भक्तिपूर्वक सावधान होकर चन्दन, फूल और फलों के साथ भगवान विष्णु को फिर से अर्ध्य देना चाहिए। अर्ध्य के मंत्र का अर्थ इस प्रकार है :-
‘मैंने पवित्र कार्तिक मास (Kartik Maas) में स्नान किया है। हे विष्णु! राधा के साथ आप मेरे दिये अर्ध्य को ग्रहण करें’

तत्पश्चात चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि से वेदपाठी ब्राह्मणों का श्रद्धापूर्वक पूजन करें और बारम्बार नमस्कार करें। ब्राह्मणों के दाएं पांव में तीर्थों का वास होता है, मुँह में वेद और समस्त अंगों में देवताओं का वास होता है। अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इनका न तो अपमान करना चाहिए और न ही इनका विरोध करना चाहिए। फिर एकाग्रचित्त होकर भगवान विष्णु की प्रिय तुलसी जी की पूजा करनी चाहिए, उनकी परिक्रमा कर के उनको प्रणाम करना चाहिए –

“हे देवि! हे तुलसी! देवताओं ने ही प्राचीनकाल से तुम्हारा निर्माण किया है और ऋषियों ने तुम्हारी पूजा की है। हे विष्णुप्रिया तुलसी! आपको नमस्कार है। आप मेरे समस्त पापों को नष्ट करो।”

इस प्रकार जो मनुष्य भक्तिपूर्वक कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं, वे संसार के सुखों का भोग करते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

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कार्तिक माह माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय | Chapter -5 Kartik Puran ki Katha (Kahani)

Kartik Chapter 5

Kartik Chapter 5

कार्तिक माह माहात्म्य पाँचवाँ अध्याय

Chapter – 05

 

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प्रभु मुझे सहारा है तेरा, जग के पालनहार।

कार्तिक मास माहात्म की, कथा करूँ विस्तार।।

राजा पृथु बोले – हे नारद जी! आपने कार्तिक मास (Kartik Maas) में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।

देवर्षि नारद ने कहा – हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ।

आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए । ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए। दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुंह को भली-भाँति बन्द कर के थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए। उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है। अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए।

‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो’। इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है। जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए।

प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं करनी चाहिए। तत्पश्चात भली-भाँति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्तिपूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए।

मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।

नारद जी राजा पृथु से बोले – हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा – हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूँ। जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऐसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।

नारद जी ने फिर कहा – शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। अढ़हल,कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए। जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए। पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए। यथा – ‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें’।

ऎसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।

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