चतुर्थ दुर्गा माँ कूष्मांडा | Maa Kushmanda Vrat, Katha, Puja Vidhi, Mahatmyam

Chaturth Maa Durga

Chaturth Maa Durga

 ॥ॐ देवी कूष्माण्डायै नमः॥

चतुर्थ दुर्गा माँ कुष्मांडा

Chaturth Durga Maa Kushmanda

माँ श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप कूष्मांडा (Maa Kushmanda) हैं। अपनी मन्द हंसी से अपने उदर से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड(Maa Kushmanda) कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्होंने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। कुष्मांडा देवी (Maa Kushmanda) के शरीर की चमक भी सूर्य के समान ही है कोई और देवी देवता इनके तेज और प्रभाव की बराबरी नहीं कर सकतें। माता कुष्मांडा (Maa Kushmanda) तेज की देवी है इन्ही के तेज और प्रभाव से दसों दिशाओं को प्रकाश मिलता है। कहते हैं की सारे ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में जो तेज है वो देवी कुष्मांडा (Maa Kushmanda) की देन है।

श्री कूष्मांडा (Maa Kushmanda) की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। इनकी आराधना से मनुष्य त्रिविध ताप से मुक्त होता है। माँ कुष्माण्डा (Maa Kushmanda) सदैव अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखती है। इनकी पूजा आराधना से हृदय को शांति एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं। इस दिन भक्त का मन ‘अनाहत’ चक्र में स्थित होता है, अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और शांत मन से कूष्माण्डा देवी (Maa Kushmanda) के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा करनी चाहिए।

माँ कुष्मांडा कथा

दुर्गा सप्तशती के कवच में वर्णन है की

कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा।

वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा (Maa Kushmanda) हैं। देवी कूष्माण्डा (Maa Kushmanda) इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं। जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी उस समय अंधकार का साम्राज्य था। देवी कुष्मांडा (Maa Kushmanda) जिनका मुखमंड सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ। इस देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं।

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मां कूष्माण्डा का स्वरूप

देवी मां कूष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है। देवी अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा है। देवी के आठवें हाथ में बिजरंके (कमल फूल का बीज) का माला है, यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला है। देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं। जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है। देवी कुष्मांडा का वाहन सिंह है।

माँ कुष्मांडा पूजा विधि

नवरात्र के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान उसी प्रकार है जिस प्रकार देवी ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है। इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं। इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करे: पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर मंत्र, ध्यान, स्तोत्र , कवच आदि का पाठ करें।

जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को ‘अनाहत’ में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए। इस दिन पूजा में बैठने के लिए हरे रंग के आसन का प्रयोग करना बेहतर होता है। इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है।

अतः इस दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। माँ कूष्माण्डा देवी की पूजा से भक्त के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। माँ की भक्ति से आयु, यश, बल और स्वास्थ्य की वृध्दि होती है।

मां कूष्माण्डा का उपासना मन्त्र

सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।

माँ कुष्मांडा का ध्यान मन्त्र

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

माँ कुष्मांडा स्तोत्र पाठ

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥

माँ कुष्मांडा का कवच पाठ

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥

माँ कुष्मांडा जी की आरती

ॐ जय माँ कुष्मांडाचौथ जब नवरात्र हो, कुष्मांडा को ध्याते।
जिसने रचा ब्रह्माण्ड यह, पूजन है करवाते।।ॐ जय माँ कुष्मांडा…..

आद्यशक्ति कहते जिन्हें, अष्टभुजी है रूप।
इस शक्ति के तेज से, कही छाँव कही धुप।।ॐ जय माँ कुष्मांडा…..

कुम्हड़े की बलि करती है, तांत्रिक से स्वीकार।
पेठे से भी रजति, सात्विक करे विचार।।ॐ जय माँ कुष्मांडा…..

क्रोधित जब हो जाए, यह उल्टा करे व्यवहार।
उसको रखती दूर माँ, देती दुःख अपार।।ॐ जय माँ कुष्मांडा…..

सूर्य चंद्र की रौशनी, यह जग में फैलाये।
शरणागत में आया, माँ तू ही राह दिखाये।।ॐ जय माँ कुष्मांडा…..

माँ दुर्गा की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ ॐ जय…

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ ॐ जय…

कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥ ॐ जय…

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ ॐ जय…

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥ ॐ जय…

शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ॐ जय…

चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे ॥ॐ जय…

ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ॐ जय…

चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥ॐ जय…

तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥ॐ जय…

भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी ।
>मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ॐ जय…

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥ॐ जय…

श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥ॐ जय…”

पूजन के बाद श्री दुर्गा सप्तशती पाठ एवं निर्वाण मन्त्र “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” का यथा सामर्थ जप अवश्य करें।

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द्वितीय दुर्गा माँ ब्रह्मचारिणी | Maa Brahmacharini – Vrat Katha, Vidhi, Mahatmy

Maa Brahmacharini

Maa Brahmacharini

ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥

द्वितीय दुर्गा माँ ब्रह्मचारिणी

Dwitiya Durga Maa Brahmacharini

ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) का अर्थ है तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं।

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माँ ब्रह्मचारिणी की उत्पत्ति कथा

पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया।

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।

कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।

माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा विधि

इस दिन सुबह उठकर नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएं और स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र पहन लें।

इसके बाद आसन पर बैठ जाएं। मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करें। उन्हें फूल, अक्षत, रोली, चंदन आदि अर्पित करें।

मां को दूध, दही, घृत, मधु व शर्करा से स्नान कराएं। मां को भोग लगाएं। उन्हें पिस्ते की मिठाई का भोग लगाएं।

फिर उन्हें पान, सुपारी, लौंग अर्पित करें। मां के मंत्रों का जाप करें और आरती करें।

सच्चे मन से मां की पूजा करने पर वो व्यक्ति को संयम रखने की शक्ति प्राप्त करती हैं।

माँ ब्रह्मचारिणी का उपासना मंत्र

दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

माँ ब्रह्मचारिणी का ध्यानम्

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालङ्कार भूषिताम्॥
परम वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

माँ ब्रह्मचारिणी का स्तोत्र पाठ

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शङ्करप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

माँ ब्रह्मचारिणी का कवच

त्रिपुरा में हृदयम् पातु ललाटे पातु शङ्करभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पञ्चदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अङ्ग प्रत्यङ्ग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।

मां ब्रह्मचारिणी की आरती

जय अंबे ब्रह्माचारिणी माता।
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
ब्रह्मा जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
ब्रह्मा मंत्र है जाप तुम्हारा।
जिसको जपे सकल संसारा।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
जय गायत्री वेद की माता।
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
कमी कोई रहने न पाए।
कोई भी दुख सहने न पाए।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
उसकी विरति रहे ठिकाने।
जो ​तेरी महिमा को जाने।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
रुद्राक्ष की माला ले कर।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
आलस छोड़ करे गुणगाना।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
ब्रह्माचारिणी तेरो नाम।
पूर्ण करो सब मेरे काम।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….
भक्त तेरे चरणों का पुजारी।
रखना लाज मेरी महतारी।। मैया जय ब्रह्माचारिणी….

माँ दुर्गा की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ ॐ जय…
मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ ॐ जय…
कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥ ॐ जय…
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ ॐ जय…
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥ ॐ जय…
शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ॐ जय…
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे ॥ॐ जय…
ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ॐ जय…
चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥ॐ जय…
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥ॐ जय…
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी ।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ॐ जय…
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥ॐ जय…
श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥ॐ जय

पूजन के बाद श्री दुर्गा सप्तशती पाठ एवं निर्वाण मन्त्र “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” का यथा सामर्थ जप अवश्य करें।

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प्रथम दुर्गा माँ शैलपुत्री | Maa Shailputri – Vrat, Katha, Puja Vidhi, Mahatmyam

Pratham Maa Durga

Pratham Maa Durga

|| ॐ शैलपुत्र्यै नमः ||

प्रथम दुर्गा माँ शैलपुत्री 

Pratham Durga Maa Shaiputri

नवरात्रि पूजन के पहले दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप माता शैलपुत्री (Maa Shailputri) का पूजन किया जाता है। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वत राज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण भगवती का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का है, जिनकी आराधना से प्राणी सभी मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।

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माँ शैलपुत्री का स्वरूप

माँ शैलपुत्री (Maa Shailputri) दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का पुष्प लिए अपने वाहन वृषभ पर विराजमान होतीं हैं। नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में साधक अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं, शैलपुत्री (Maa Shailputri) का पूजन करने से ‘मूलाधार चक्र’ जागृत होता है और यहीं से योग साधना आरंभ होती है जिससे अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं।

नंदी नामक वृषभ पर सवार ‘शैलपुत्री’ (Maa Shailputri) के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना जाता है। दुर्गम स्थलों पर स्थित बस्तियों में सबसे पहले शैलपुत्री (Maa Shailputri) के मंदिर की स्थापना इसीलिए की जाती है कि वह स्थान सुरक्षित रह सके।

माँ शैलपुत्री की उत्पत्ति कथा

अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति दक्ष के घर की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थीं। तब इनका नाम ‘सती’ था और इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना- अपना यज्ञ- भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया। किन्तु दक्ष ने शंकरजी को इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं तो वहां जाने के लिए उनका मन व्याकुल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई।

सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा – प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है। उनके यज्ञ- भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु जान- बूझकर हमें नहीं बुलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी भी प्रकार श्रेयस्कर नहीं होगा।

शंकरजी के इस उपदेश से सती को कोई बोध नहीं हुआ और पिता का यज्ञ देखने, माता- बहनों से मिलने की इनकी व्यग्रता किसी भी प्रकार कम न हुई। उनका प्रबल आग्रह देखकर अंतत: शंकरजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे ही दी।

सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल सती की माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया।

बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से सती के मन को बहुत क्लेश पहुँचा। सती ने जब देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है और दक्ष ने भी उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन कहे।

यह सब देखकर सती का ह्रदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा और उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी की बात न मान, यहां आकर मैने बहुत बड़ी भूल की है। सती अपने पति भगवान शंकर जी का अपमान न सह सकीं और उन्होंने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगग्नि द्वारा भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दु:खद समाचार को सुनकर शंकरजी ने अतिक्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के यज्ञ का पूर्णतया: विध्वंस करा दिया।

सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे “शैलपुत्री”(Maa Shailputri) नाम से विख्यात हुईं।

पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व- भंजन किया था। “शैलपुत्री”(Maa Shailputri) देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की ही भांति वे इस बार भी शिवजी की ही अर्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री (Maa Shailputri) दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।

माँ शैलपुत्री की कलश स्थापना विधि

नवरात्रा का प्रारम्भ आश्विन अथवा चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को कलश स्थापना के साथ होता है। कलश को मंगलमूर्ति गणेश का स्वरूप माना जाता है। अत: सबसे पहले कलश की स्थान की जाती है। कलश स्थापना के लिए भूमि को सिक्त यानी शुद्ध किया जाता है। भूमि की शुद्धि के लिए देसी गाय के गोबर और गंगा-जल से भूमि को लिपा जाता है।

माँ शैलपुत्री पूजा विधि

शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है। दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं। अत: इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों,दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता और और कलश में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किया जाता है। कलश में सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है। इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती है। इसे जयन्ती कहते हैं जिसे इस मंत्र के साथ अर्पित किया जाता है।

“जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी,
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”

इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं। कलश स्थापना के पश्चात देवी का आह्वान किया जाता है कि ‘हे मां दुर्गा हमने आपका स्वरूप जैसा सुना है उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी है आप उसमें प्रवेश कर हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें’।

देवी दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है। प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती हैं।

माँ शैलपुत्री का उपासना मंत्र 

वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।

माँ शैलपुत्री ध्यान

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥

पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥

प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

माँ शैलपुत्री स्तोत्र पाठ

प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥

त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥

चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।
मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

माँ शैलपुत्री कवच पाठ

ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥

श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।

फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥

माँ शैलपुत्री की आरती

शैलपुत्री मां बैल असवार।
करें देवता जय जयकार।। मैया जय शैलपुत्री….
शिव शंकर की प्रिय भवानी।
तेरी महिमा किसी ने ना जानी।। मैया जय शैलपुत्री….
पार्वती तू उमा कहलावे।
जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।। मैया जय शैलपुत्री….
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू।
दया करे धनवान करे तू।। मैया जय शैलपुत्री….
सोमवार को शिव संग प्यारी।
आरती तेरी जिसने उतारी।। ‌ जय मां शैलपुत्री….
उसकी सगरी आस पुजा दो।
सगरे दुख तकलीफ मिला दो।। मैया जय शैलपुत्री….
घी का सुंदर दीप जला‌ के।
गोला गरी का भोग लगा के।। मैया जय शैलपुत्री….
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं।
प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।। मैया जय शैलपुत्री….
जय गिरिराज किशोरी अंबे।
शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।। मैया जय शैलपुत्री….
मनोकामना पूर्ण कर दो।
भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।। मैया जय शैलपुत्री….

माँ दुर्गा की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ ॐ जय…
मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ ॐ जय…
कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥ ॐ जय…
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ ॐ जय…
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥ ॐ जय…
शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ॐ जय…
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे ॥ॐ जय…
ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ॐ जय…
चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥ॐ जय…
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥ॐ जय…
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी ।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ॐ जय…
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥ॐ जय…
श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥ॐ जय…

पूजन के बाद श्री दुर्गा सप्तशती पाठ एवं निर्वाण मन्त्र “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” का यथा सामर्थ जप अवश्य करें।

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उपद्रवी स्थान को शुद्ध करने के लिए करें दुर्गा सप्तशती का यह सिद्ध उपाय

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ओम नमः शिवाय,

सज्जनों

बहुत से व्यक्तियों के कुछ इस प्रकार से प्रश्न होते हैं। कि हमारा चलता चलता काम अचानक से रुक गया है और पड़ोस की दुकान वालों का काम अच्छा चलना शुरू हो गया है, डरावने सपने आते हैं, बिना कारण से भय लगता है, कई बार घर में किसी छाया अथवा आकृति का आभास होता है, प्रतिदिन घर में कलह क्लेश होता है, रोजी-रोटी बंद हो गई है, कमाई में बरकत नहीं हो रही है, घर परिवार में कोई खुशियां नहीं है और ना ही कोई खुशी के मौके जीवन में आते हैं, अच्छी डिग्री व योग्यता होने के बावजूद जीवन में सफलता नहीं मिल रही हैं। कई सारे उपाय करने के बावजूद भी कुछ लाभ नहीं मिल रहा है आदि – आदि …….

सज्जनों कई बार कुछ ईर्ष्या व द्वेष से ग्रसित व्यक्ति किसी तांत्रिक अथवा अशुभ शक्तियों का संचालन करने वाले व्यक्तियों के पास जाकर जिससे वह ईर्ष्या – द्वेष और नफरत करते हैं। उसके काम धंधे को बंधवा देते हैं या उनके घर परिवार में तंत्र प्रयोग के द्वारा अशुभ शक्तियां भेजकर पारिवारिक सुख – समृद्धि, स्वास्थ्य आदि को खराब कर देते हैं। यदि किसी व्यक्ति के संग इसी प्रकार की गतिविधि हो रखी है और उस व्यक्ति को लगता है कि अवश्य ही मेरे यहां इस प्रकार की परेशानियां चल रही हैं तो आज हमारे द्वारा श्री दुर्गा सप्तशती (Durga Saptashati) के 12 वें अध्याय के 19 में मंत्र की सिद्धि के बारे में बताया जाएगा। इस मंत्र के प्रयोग से मां भगवती जगदंबा की कृपा से किसी भी प्रकार की तंत्र क्रिया, बंधन क्रिया व अशुभ शक्तियों का समूल विनाश होता है। इस मंत्र का विधिवत अनुष्ठान करने से रोजी-रोटी व किसी भी प्रकार का बंधन खुलता है। ऊपरी अथवा अंदरूनी हवाओं, भूत – प्रेत, ब्लैक मैजिक व अशुभ तंत्र बाधा का समूल नाश होता है।

मंत्र – ॐ ह्रीं दुर्वत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम

रक्षो भूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ह्रीं ॐ।।

इस मंत्र का एक दिन में 11000 जाप करके सिद्ध कर लें अथवा नवरात्रि या गुप्त नवरात्रि में प्रतिदिन जाप करके मंत्र को सिद्ध कर लें। तत्पश्चात इस मंत्र का दशांश हवन, हवन का दशांश मार्जन व मार्जन का दशांश तर्पण करें। इसके बाद 8 खेजड़ी (शमी) की लकड़ी, 8 खैर की लकड़ी, 8 लोहे की कील, 8 पीली कौड़ी, 8 हल्दी की गांठ, 8 डोडे वाली लौंग लेकर ऊपर बताए मंत्र से अभिमंत्रित करके उपद्रवी स्थान की 8 दिशाओं में गाड़ दें।

ध्यान रहे की यह पूरी प्रक्रिया मंत्र बोलते हुए अग्नि कोण से दक्षिण दिशा की तरफ से शुरू करनी है तथा एक हाथ का गड्ढा खोदकर दबानी चाहिए। कौड़ी चित्त (कट वाला हिस्सा ऊपर) करके रखनी चाहिए। इस विधिपूर्वक भगवती के मंत्र का प्रयोग करने से वह स्थान सभी प्रकार की बाधाओं से रहित होकर श्रेष्ठ फलदाई हो जाता है। भगवती की कृपा बनाए रखने के लिए प्रत्येक नवरात्रि में सप्तशती का पाठ अथवा सप्तशती के मंत्रों से अपने घर पर यज्ञ करें।

नोट  यह प्रयोग अनेक बार करके अनुभूत किया गया है।

क्या शत्रु ने किया है – मारण, वशीकरण, उच्चाटन प्रयोग ? दुर्गा सप्तशती से करें निवारण

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शास्त्रों में छह प्रकार के आभिचारिक कर्म बताए गए हैं। मतलब अशुभ कार्य जिनके द्वारा दूसरों को दुख, पीड़ा, परेशानी दी जा सकती है। यह 6 प्रकार के आभिचारिक कर्म क्रमशः मारण, मोहन, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन कहलाए जाते हैं।

मारण (Maran) प्रयोग में व्यक्ति के ऊपर मारक मंत्रों के द्वारा प्रयोग किए जाते हैं। जिससे कि उस पर मृत्यु समान कष्ट आता है अथवा कई बार उसकी मृत्यु भी हो जाती है।

मोहन (Mohan) कर्म में उसको मोह लिया जाता है तथा वशीकरण (Vashikaran) प्रयोग करके उसको अपने वश में कर लिया जाता है।

स्तंभन (Stambhan) प्रयोग में कोई भी चलता हुआ कार्य, चलती हुई गाड़ी अथवा पढ़ाई में अच्छे चल रहे बालक पर यदि स्तंभन प्रयोग कर दिया जाए तो सब चीजें स्तंभित हो जाती हैं अर्थात रुक जाती हैं। कई बार किसी की कोख पर भी स्तंभन कर दिया जाता है। इसलिए उस स्त्री को बालक नहीं हो पाते और कई बार चलती हुई दुकान अथवा काम धंधा भी बिल्कुल ठप हो जाता है। इसका मुख्य कारण स्तंभन प्रयोग ही होता है।

विद्वेषण (Vidveshan) प्रयोग में जिन व्यक्तियों के बीच आपस में प्यार – प्रेम, स्नेह होता है। उनके ऊपर विद्वेषण प्रयोग कर दिया जाता है। जिस कारण से उनमें आपस में बैर, दुश्मनी, ईर्ष्या, लड़ाई झगड़े होने आरंभ हो जाते हैं।

उच्चाटन (Uchhatan) प्रयोग में जिस व्यक्ति के ऊपर उच्चाटन प्रयोग होता है। उस व्यक्ति का मन, बुद्धि, अंतरात्मा उच्चाट हो जाती है अर्थात वह पागलों की नाईं इधर-उधर भटकता है। उसका चित्त कहीं भी टिकता नहीं है। इस प्रकार से यह छह आभिचारिक कर्म है और यह प्रयोग जिस किसी व्यक्ति के ऊपर होते हैं तो ऊपर बताए गए विधान के अनुसार उस पर प्रभाव आता है।

शास्त्रों में सातवा कर्म भी बताया गया है। जिसे शांति कहा जाता है। जिस किसी व्यक्ति के ऊपर यदि उसके शत्रु ने यह 6 प्रकार के अभिचार कर्म कर दिए हैं तो वह दुर्गा जी की आराधना करके इन सभी की शांति कर सकता है।

सिद्ध कुंजिका स्तोत्र की महिमा | Significance of Siddha Kunjika Stotram

जीवन में सफलता की कुंजी हैसिद्ध कुंजिका नाम के अनुरूप यह सिद्ध कुंजिका है। जब किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा हो, समस्या का समाधान नहीं हो रहा हो, तो सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करिए। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में दशों महाविद्या, नौ देवियों की आराधना है। भगवती आपकी रक्षा करेंगी।

भगवान शंकर कहते हैं कि सिद्धकुंजिका स्तोत्र का पाठ करने वाले को देवी कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास और यहां तक की अर्चन भी आवश्यक नहीं है। केवल कुंजिका के पाठ मात्र से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है।

सिद्ध कुंजिका स्तोत्र पाठ की विधि | Sidha Kunjika Stotram Pathh Vidhi

कुंजिका स्तोत्र का पाठ वैसे तो किसी भी माह, दिन में किया जा सकता है, लेकिन नवरात्रि में यह अधिक प्रभावी होता है। कुंजिका स्तोत्र साधना भी होती है, लेकिन यहां हम इसकी सर्वमान्य विधि का वर्णन कर रहे हैं। नवरात्रि के प्रथम दिन से नवमी तक प्रतिदिन इसका पाठ किया जाता है। इसलिए साधक प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नानादि दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर अपने पूजा स्थान को साफ करके लाल रंग के आसन पर बैठ जाए। अपने सामने लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर देवी दुर्गा की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें। सामान्य पूजन करें। तेल या घी का दीपक लगाए और देवी को हलवे या मिष्ठान्न् का नैवेद्य लगाएं। 

इसके बाद अपने दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, एक रुपए का सिक्का रखकर नवरात्रि के नौ दिन कुंजिका स्तोत्र का पाठ संयमनियम से करने का संकल्प लें। यह जल भूमि पर छोड़कर पाठ प्रारंभ करें। यह संकल्प केवल पहले दिन लेना है। इसके बाद प्रतिदिन उसी समय पर पाठ करें।

Precautions | सावधानी (ध्यान रखने योग्य)

देवी दुर्गा की आराधना, साधना और सिद्धि के लिए तन, मन की पवित्रता होना अत्यंत आवश्यक है। साधना काल या नवरात्रि में इंद्रिय संयम रखना जरूरी है। बुरे कर्म, बुरी वाणी का प्रयोग भूलकर भी नहीं करना चाहिए। इससे विपरीत प्रभाव हो सकते हैं।

कुंजिका स्तोत्र का पाठ बुरी कामनाओं, किसी के मारण, उच्चाटन और किसी का बुरा करने के लिए नहीं करना चाहिए। इसका उल्टा प्रभाव पाठ करने वाले पर ही हो सकता है।

साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन करें। मैथुन के बारे में विचार भी मन में लाएं।

 

।। श्री सिद्धकुंजिकास्तोत्रम् ।।

शिव उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ।

येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ॥१॥

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।

न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥२॥

कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।

अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥३॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।

मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।

पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥४॥

 

।। अथ मन्त्रः ।।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥ ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सःज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा॥

॥ इति मन्त्रः॥

 

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।

नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥१॥

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि।

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ॥२॥

ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।

क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥३॥

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि ॥४॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।

क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥५॥

हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी ।

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥६॥

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं

धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥७॥

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा।

सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे ॥८॥

इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे ।

अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥

यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् ।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्॥

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Maa Durga 32 Naam Mantra | Shtru Vinashak Mantra | दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला

Maa Durga 32 naam

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Maa Durga Battis Naamavali | श्री दुर्गा बत्तीस नामवली

देवताओ को परास्त करने के बाद असुरो का अत्याचार सम्पूर्ण संसार में होने लगा । तब देवताओ की स्तुति अराधना के  पश्चात मां भगवती ने अपनी शक्तियो के साथ मिलकर सभी असुरो का नाश किया । दानव महिषासुर व दुर्गम जैसे महादानवो का वध करने वाली माता से जब देवो ने ऐसे किसी अमोघ उपाय की याचना की, जो सरल हो और कठिन से कठिन विपत्ति से छुड़ाने वाला हो। जिसका स्मरण करने मात्र से सब कष्टो से निवृति हो जाये ।

देवताओं ने कहा, ” हे देवी! यदि वह उपाय गोपनीय हो तब भी कृपा कर हमें कहें।”

तब मां भगवती ने अपने ही बत्तीस नामों की माला के एक अद्भुत गोपनीय रहस्यमय चमत्कारी जप का उपदेश दिया

मां दुर्गा जी ने कहा, ”जो मनुष्य मुझ दुर्गा की इस नाम माला का पाठ करता है, वह निःसन्देह सब प्रकार के भय से मुक्त हो जाएगा।”

‘कोई शत्रुओं से पीड़ित हो अथवा दुर्भेद्य बंधन में पड़ा हो, इन बत्तीस नामों के पाठ मात्र से संकट से छुटकारा पा जाता है। इसमें तनिक भी संदेह के लिए स्थान नहीं है। यदि राजा क्रोध में भरकर वध के लिये अथवा और किसी कठोर दण्ड के लिये आज्ञा दे दे या युद्ध में शत्रुओं द्वारा मनुष्य घिर जाय अथवा वन में व्याघ्र आदि हिंसक जंतुओं के चंगुल में फँस जाय, तो इन बत्तीस नामों का एक सौ आठ बार पाठ मात्र करने से वह संपूर्ण भयों से मुक्त हो जाता है। विपत्ति के समय इसके समान भय नाशक उपाय दूसरा नहीं है। देवगण !   इस नाम माला का पाठ करने वाले मनुष्यों की कभी कोई हानि नहीं होती। अभक्त, नास्तिक और शठ मनुष्य को इसका उपदेश नहीं देना चाहिए। जो भारी विपत्ति में पड़ने पर भी इस नामावली का हजार, दस हजार अथवा लाख बार पाठ स्वयं करता या ब्राह्मणों से कराता है, वह सब प्रकार की आपत्तियों से मुक्त हो जाता है। सिद्ध अग्नि में मधु मिश्रित सफेद तिलों से इन नामों द्वारा लाख बार हवन करे तो मनुष्य सब विपत्तियों से छूट जाता है। इस नाम माला का पुरश्चरण तीस हजार का है। पुरश्चरण पूर्वक पाठ करने से मनुष्य इसके द्वारा संपूर्ण कार्य सिद्ध कर सकता है। मेरी सुंदर मिट्टी की अष्टभुजा मूर्ति बनावे, आठों भुजाओं में क्रमशः गदा, खड्ग, त्रिशूल, बाण, धनुष, कमल, खेट (ढाल) और मुद्गर धारण करावे। मुर्ति के मस्तक में चंद्रमा का चिह्न हो, उसके तीन नेत्र हों, उसे लाल वस्त्र पहनाया गया हो, वह सिंह के कंधे पर सवार हो और शूल से महिषासुर का वध कर रही हो, इस प्रकार की प्रतिमा बनाकर नाना प्रकार की सामग्रियों से भक्ति पूर्वक मेरा पूजन करे। मेरे उत्तम नामों से लाल कनेर के फूल चढ़ाते हुए सौ बार पूजा करे और मंत्र-जाप करते हुए पूए से हवन करें। भाँति-भाँति के उत्तम पदार्थ भोग लगावे। इस प्रकार करने से मनुष्य और असाध्य कार्य को भी सिद्ध कर लेता है। जो मानव प्रतिदिन मेरा भजन करता है, वह भी विपत्ति में नहीं पड़ता।’

देवताओं से ऐसा कहकर जगदंबा वहीं अंतर्धान हो गयीं। दुर्गा जी के इस उपाख्यान को जो सुनते हैं, उन पर कोई विपत्ति नहीं आती।

 

।। अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला ।।

दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी।

दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी॥

दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा।

दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला॥

दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी।

दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता॥

दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी।

दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी॥

दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी।

दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी॥

दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी।

नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः॥

पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः॥

 

मां दुर्गा के 32 नाम| Maa Durga 32 Naam in Hindi

1 दुर्गा, 2 दुर्गार्तिशमनी, 3  दुर्गापद्विनिवारिणी, 4 दुर्ग मच्छेदिनी, 5 दुर्गसाधिनी, 6 दुर्गनाशिनी,  7 दुर्गतोद्धारिणी, 8 दुर्गनिहन्त्री, 9 दुर्गमापहा, 10 दुर्गमज्ञानदा, 11 दुर्गदैत्यलोकदवानला,  12 दुर्गमा, 13 दुर्गमालोका, 14 दुर्गमात्मस्वरूपिणी, 15 दुर्गमार्गप्रदा,  16 दुर्गमविद्या, 17 दुर्गमाश्रिता, 18 दुर्गमज्ञानसंस्थाना, 19 दुर्गमध्यानभासिनी, 20 दुर्गमोहा, 21 दुर्गमगा, 22 दुर्गमार्थस्वरूपिणी, 23 दुर्गमासुरसंहन्त्री, 24 दुर्गमायुधधारिणी, 25 दुर्गमाङ्गी, 26 दुर्गमता, 27 दुर्गम्या, 28 दुर्गमेश्वरी, 29 दुर्गभीमा, 30 दुर्गभामा, 31 दुर्गभा, 32 दुर्गदारिणी

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नवरात्रि व्रत कब से शुरू करें ? Navratri Puja aur Vrat

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