माघ मास का माहात्म्य सोलहवाँ अध्याय | Chapter 16 Magha Puran ki Katha

Chapter 16

Magh mass solwa adhyay

माघ मास का माहात्म्य सोलहवाँ अध्याय

Chapter 16

 

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कार्तवीर्य कहने लगा कि हे भगवान! वह राक्षस कौन था? और कांचन मालिनी कौन थी? उसने अपना धर्म कैसे दिया और उनका साथ कैसे हुआ। हे ऋषि! अत्रि ऋषि की संतानों के सूर्य! यह कथा सुनाकर मेरा कौतूहल दूर कीजिए तब दत्तात्रेयजी कहने लगे कि राजन इस पुरातन विचित्र इतिहास को सुनो – कांचन मालिनी नाम की एक सुंदर अप्सरा थी जो माघ मास (Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करके कैलाश पर जा रही थी तब उसको मार्ग में जाते हुए हिमालय के कुंज से एक घीर राक्षस ने देखा।

उस सोने जैसे तेज वाली, सुंदर कटि वाली, बड़े-बड़े नेत्रों वाली, चंद्रमुखी, सुंदर केश और पीनपयोधर वाली सुंदर अप्सरा को देखकर उस राक्षस ने कहा कि हे सुंदरी, कमलनयनी तुम कौन हो और कहाँ से आ रही हो? तुम्हारे वस्त्र और वेणी भीगी हुई क्यों है? तुम आकाश मार्ग से कहाँ जाती हो और किस पुण्य के प्रताप से तुम्हारा शरीर ऎसा तेजस्वी और रूप ऎसा मनोहर है। तुम्हारे गीले वस्त्र से मेरे मस्तक पर गिरे हुए एक बूँद जल से मेरे क्रूर मन को एकदम शांति प्राप्त हो गई, इसका क्या कारण है? तुम बड़ी शीलवती प्रतीत होती हो, इसका कारण मुझसे कहिए।

अप्सरा ने कहा कि हे राक्षस! सुनो मैं काम रूपिणी अप्सरा हूँ। मैं प्रयाग में संगम में स्नान करके आ रही हूँ, इसी से मेरे वस्त्र भीगे हैं। अब कैलाश पर जा रही हूँ जहाँ पर श्री शिव निवास करते हैं। त्रिवेणी के जल से मेरी सब क्रूरता दूर हो गई। जिसके पुण्य के प्रभाव से मैं इतनी सुंदर और पार्वतीजी की प्रिय सखी हुई। जो आश्चर्य देने वाला उदाहरण मुझसे ब्रह्माजी ने कहा था सो सुनो!

मैं कलिंग देश के राजा की वेश्या थी, रुप लावण्य और सुंदरता में अपूर्व थी। मेरी सुंदरता पर सारा नगर मोहित था और मैंने अनेकों प्रकार के भोग भोगे, अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों की घर में कोई कमी नहीं थी। कई कामी पुरुष आपस में स्पर्धा ही से मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस तरह उस नगर में बड़ी सुंदरता से यौवन व्यतीत हुआ और मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई तब मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने अपनी सारी आयु पापों में ही व्यतीत कर दी। धर्म का कोई कार्य दान, तप, यज्ञ आदि नहीं किया, शिव या दुर्गाजी की आराधना नहीं की, न कभी भगवान विष्णु का पूजन किया।

इस प्रकार अशांत चित्त से मैंने एक ब्राह्मण की शरण ली जो वेदों का ज्ञाता और ब्रह्मनिष्ठ था। मैंने उनसे पूछा कि मेरा उद्धार किस प्रकार हो सकता है। महाराज, साधु-सज्जन अच्छे और बुरे सभी पर दया करते हैं। इसलिए मुझ दीन पर भी कृपा करके मुझ कीचड़ में डूबी हुई को पकड़कर उबारिए। क्षीर सागर क्या हंस को ही दूध देता है बत्तख को नहीं देता तब वह ब्राह्मण राजा का पुरोहित इन सब बातों को सुनकर मुझ पर दया करके कहने लगा कि तू ब्रह्मा के क्षेत्र (प्रयाग) में जाकर माघ मास में त्रिवेणी संगम में स्नान कर परंतु मन में अशुभ क्रिया का विचार नहीं करना।

पापों के नाश के लिए महर्षियों ने तीर्थ स्थान से अधिक और कोई प्रायश्चित नहीं बतलाया। प्रयाग में स्नान करने से तू अवश्य पवित्र होकर स्वर्ग को जाएगी। हे भामिनी! पुराने समय में गौतम ऋषि की स्त्री को देखकर इंद्र ने काम के वशीभूत होकर कपट वेश में उससे भोग किया था इसलिए ऋषि द्वारा श्राप दिया गया और उसका शरीर अत्यंत लज्जायुक्त हजारों भगों वाला हो गया तब इंद्र नीचे मुंह करके अपने पाप कर्म की बुराई कराने लगा। मेरु पर्वत के शिखर पर स्वच्छ जल वाले सरोवर पर एक स्वर्ण कमल से भरे हुए कोटर में घुस गया और अपने पाप को धिक्कारता हुआ काम देव की बुराई करने लगा कि यह सब पापों का मूल है। इसके ही वशीभूत होकर मनुष्य नरक में जाते हैं और अपने धर्म, कीर्त्ति, यश और धैर्य का नाश करते हैं।

इंद्र ऐसा सोच रहा था कि इंद्र के बिना सारा देवलोक शोभाहीन हो गया तब देवता, गंधर्व, किन्नर, लोकपाल इंद्राणि के सहित बृहस्पतिजी से जाकर पूछने लगे कि महाराज इंद्र के न रहने से स्वर्ग ऐसा शोभाहीन हो गया है जैसे सत पुत्र के बिना श्रेष्ठ कुल। इसलिए स्वर्ग की शोभा के लिए कोई क्रिया सोचिए। इस विषय में देर नहीं लगानी चाहिए तब बृहस्पति जी कहने लगे कि इंद्र ने बिना सोचे-विचारे जो कर्म किया है उसका फल भोग रहा है सो वह कहाँ है मैं यह सब जानता हूँ। फिर गुरुजी ने सबको साथ लेकर स्वर्ण कमलों से युक्त बड़े सरोवर में इंद्र को देखा जिसका मुख मलीन और आँखें बंद थी।

तब इंद्र ने बृहस्पतिजी के चरणों को पकड़कर कहा कि इस पाप से उद्धार करके आप मेरी रक्षा कीजिए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र से कहा कि प्रयाग में स्नान करने से ही तुम पाप मुक्त हो जाओगे। तब इंद्र सहित सबने ही प्रयाग में जाकर संगम में स्नान किया और त्रिवेणी स्नान से इंद्र पापमुक्त हो गए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र को वरदान दिया कि तुम्हारे शरीर में जितने भग हैं सब नेत्र हो जाएँ। तब इंद्र ब्राह्मण के वर से हजार नेत्रों से ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानसरोवर में कमल शोभायमान होता है।

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माघ मास का माहात्म्य पंद्रहवाँ अध्याय | Chapter 15 Magha Puran ki Katha

Chapter 15

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माघ मास का माहात्म्य पंद्रहवाँ अध्याय

Chapter 15

 

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दत्तात्रेयजी कहने लगे कि हे राजन! प्रजापति ने पापों के नाश के लिए प्रयाग तीर्थ की रचना की। सफेद (गंगाजी) और काली(यमुनाजी) के जल की धारा में स्नान का माहात्म्य भली प्रकार सुनो। जो इस संगम में माघ मास (Magh Maas) में स्नान करता है वह गर्भ योनि में नहीं आता। भगवान विष्णु की दुर्गम माया माघ में प्रयाग तीर्थ पर सब नष्ट कर देती है। माघ मास(Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करने से मनुष्य अच्छे भोगों को भोगकर ब्रह्म को प्राप्त होता है। माघ मास(Magh Maas) तथा मकर के सूर्य में जो प्रयाग में स्नान करता है उसके पुण्यों की गिनती चित्रगुप्त भी नहीं कर सकता। सौ वर्ष तक निराहार रहकर जो पुण्य प्राप्त होता है वही फल माघ मास(Magh Maas) में तीन दिन प्रयाग में स्नान करने से होता है, जो फल सौ वर्ष तक योगाभ्यास करने से मिलता है।

जैसे सर्प पुरानी केंचुली को छोड़कर नया रुप ग्रहण कर लेता है वैसे ही माघ मास(Magh Maas) में स्नान करने से मनुष्य पापों को छोड़कर स्वर्ग को प्राप्त होता है परंतु गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से हजारों गुना फल मिलता है। हे राजन! जिसको अमृत कहते हैं वह यह त्रिवेणी ही है। ब्रह्मा, शिव, रुद्र, आदित्य, मरुतगण, गंधर्व, लोकपाल, यक्ष, गुह्यक, किन्नर, अणिमादि गुणों से सिद्ध, तत्वज्ञानी, ब्रह्माणी, पार्वती, लक्ष्मी, शची, नैना, दिति, अदिति, सम्पूर्ण देव पत्नियाँ तथा नागों की स्त्रियों, घृताचीं, मेनका, उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा, अप्सरा गण और सब पितर, मनुष्य गण कलियुग में गुप्त और सतयुगादि में प्रत्यक्ष सब देवता माघ मास (Magh Maas) में स्नान करने के लिए आते हैं।


इन दिनों माघ मास(Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करने से जो फल मिलता है वह ईश्वर ही कह सकता है, मनुष्य में कहने की शक्ति नहीं है। हजारों अश्वमेघ यज्ञ करने से भी यह फल प्राप्त नहीं होता। पूर्व समय में कांचन मालिनी ने इस स्नान का फल राक्षस को दिया था और इससे वह पापी मुक्त हो गया था।

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माघ मास का माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय | Chapter 14 Magha Puran ki Katha

Chapter 14

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माघ मास का माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय

Chapter 14

 

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कार्तवीर्य जी बोले कि हे विप्र श्रेष्ठ! किस प्रकार एक वैश्य माघ स्नान के पुण्य से पापों से मुक्त होकर दूसरे के साथ स्वर्ग को गया सो मुझसे कहिए तब दत्तात्रेय जी कहने लगे कि जल स्वभाव से ही उज्जवल, निर्मल, शुद्ध, मलनाशक और पापों को धोने वाला है। जल सब प्राणियों का पोषण करने वाला है, ऎसा वेदों ने कहा है। मकर के सूर्य माघ मास में गौ के पैर डूबने योग्य जल से भी स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है। यदि सारा मास स्नान करने से अशक्त हो तो तीन दिन ही स्नान करने से पापों का नाश होता है। जो व्यक्ति थोड़ा ही दान करे वह भी धनी और दीर्घायु होता है। पांच दिन स्नान करने से चंद्रमा के सदृश शोभायमान होता है इसलिए अपना शुभ चाहने वालों को माघ से बाहर स्नान करना चाहिए।

अब माघ में स्नान करने वालों के नियम कहता हूँ। अधिक भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए, भूमि पर सोना चाहिए, भगवान की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए। ईंधन, वस्त्र, कम्बल, जूता, कुंकुम, घृत, तेल, कपास, रुई, वस्त्र तथा अन्न का दान करना चाहिए। दूसरे की अग्नि न तपे, ब्राह्मणों को भोजन कराए और उनको दक्षिणा दे तथा एकादशी के नियम से माघ स्नान का उद्यापन करे। भगवान से प्रार्थना करें कि हे देव! इन स्नान का मुझको यथोक्त फल दीजिए। मौन रहकर मंत्र का उच्चारण करे फिर भगवान का स्मरण करें। जो मनुष्य श्री गंगाजी में माघ में स्नान करते हैं वे चार हजार युग तक स्वर्ग से नहीं गिरते। जो कोई माघ मास में गंगा और यमुना का स्नान करता है वह प्रतिदिन हजार कपिला गौ के दान का फल पाता है।

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माघ मास का माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय | Chapter 13 Magha Puran ki Katha

Chapter 13

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माघ मास का माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय

Chapter 13

 

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विकुंडल कहने लगा कि तुम्हारे वचनों से मेरा चित्त अति प्रसन्न हुआ है क्योंकि सज्जनों के वचन सदैव गंगाजल के सदृश पापों का नाश करने वाले होते हैं। उपकार करना तथा मीठा बोलना सज्जनों का स्वभाव ही होता है। जैसे अमृत मंडल चंद्रमा को भी ठंडा कर देता है। अब कृपा करके यह भी बतलाइए कि किस प्रकार मेरे भाई का नरक से उद्धार हो सकता है? तब दूत कुछ देर ज्ञान दृष्टि से विचार कर मित्रता रूपी रस्से से बंधा हुआ बोला कि हे वैश्य! यदि तुम अपने भाई के लिए स्वर्ग की कामना करते हो तो जल्दी ही अपने आठ जन्म के पुण्य फल को उसके निमित्त अर्पण कर दो तब विकुंडल ने कहा कि हे दूत! वह पुण्य क्या है और मैने कौन से जन्म में और कैसे किया है, सो सब बतलाओ फिर मैं अपना पुण्य अपने भाई को दे दूंगा।

दूत कहने लगा कि हे वैश्य! सुनो, मैं तुम्हारे पुण्य की सब कथा कहता हूँ। पूर्व समय में मधुवन में शालकी नाम का ऋषि था। वह बड़ा तपेश्वरी, ब्रह्मा के समान तेज वाला था। नवग्रह की तरह उसकी स्त्री रेवती के नौ पुत्र थे। जिनके नाम ध्रुव, शशि, बुध, तार, ज्योतिमान थे। इन पांचों ने गृहस्थाश्रम धारण किया तथा निर्मोह, जितमाय, ध्याननिष्ठ और गुणातग ये चारों सन्यास ग्रहण कर वन में रहने लगे। ये शिखा सूत्र से रहित पत्थर और सोने को समान समझते थे।

जो कोई अच्छा या बुरा उनको अन्न देता वही खा लेते और कोई कैसा ही कपड़ा दे देता उसको ही पहन लेते। सदैव ब्रह्म के ही ध्यान में लगे रहते। इन चारों ने व्रत, शीत, निद्रा और आहार सबको जीत लिया। बस चर-अचर को विष्णु रूप समझते हुए मौन धारण करके संसार में विचरते थे। ये चारो महात्मा तुम्हारे घर आये जब तुमने मध्यान्ह के समय भूखे-प्यासे इनको आंगन में देखा तो तुमने गदगद कंठ से आँखों में आँसू भरकर इनको नमस्कार करके इनका बड़ा आदर-सत्कार किया। इनके चरणों को धोकर बड़े प्रेम से तुम इनसे कहने लगे कि आज मेरे अहोभाग्य हैं।

आज मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ पर भगवान प्रसन्न हुए, मैं सनाथ हुआ। मेरे माता, पिता, पत्नी, पुत्र, गौ आदि सभी धन्य हैं जो आज मैंने हरि के सदृश आपके दर्शन किए। सो हे वैश्य! इस प्रकार तुमने श्रद्धा से उनका पूजन किया और चरण धोकर जल को मस्तक से लगाया फिर विधिपूर्वक इनका पूजन करके तुमने इन सन्यासियों को भोजन कराया। इन सन्यासियों ने भोजन करके रात को तुम्हारे घर में विश्राम किया और ब्रह्मा के ध्यान में लीन हो गये। इन सन्यासियों के सत्कार से जो पुण्य तुमको मिला सो मैं भी कहने में असमर्थ हूँ क्योंकि सब भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है।

प्राणियों में बुद्धि वाले, बुद्धि वालों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, विद्वानों में पुण्यात्मा और पुण्यात्मों में ब्रह्मज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं। ऎसी ही संगति से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। यह पुण्य तुमने अपने पहले आठवें जन्म में किया था सो यदि तुम अपने भाई को नरक से मुक्त कराना चाहते हो तो यह पुण्य दे दो। सो दूत के ऎसे वाक्य सुनकर उसने प्रसन्नचित्त से अपना पुण्य अपने भाई कुंडल को दे दिया और वह नरक से मुक्त हो गया और दोनो भाई देवताओं से पूजित किए गए तब दूत अपने स्थान को चला गया।

इस प्रकार वैश्य के पुत्र विकुंडल ने अपना पुण्य देकर अपने भाई को नरक की यातना से छुड़वाया। सो हे राजन! जो कोई इस इतिहास को पढ़ता या सुनता है वह हजार गोदान का फल प्राप्त करता है।

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माघ मास का माहात्म्य बारहवाँ अध्याय | Chapter 12 Magha Puran ki Katha

Chapter 12

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माघ मास का माहात्म्य बारहवाँ अध्याय

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यमदूत कहने लगा कि जो कोई प्रसंगवश भी एकादशी के व्रत को करता है वह दुखों को प्राप्त नहीं होता। मास की दोनों एकादशी भगवान पद्मनाभ के दिन हैं। जब तक मनुष्य इन दिनों में व्रत नहीं करता उसके शरीर में पाप बने रहते हैं। हजारों अश्वमेघ, सैकड़ो वाजपेयी यज्ञ, एकादशी व्रत की सोलहवीं कला के बराबर भी नही हैं। एकादशी के दिन व्रत करने से ग्यारह इंद्रियों से किए सब पाप नष्ट हो जाते हैं। गंगा, गया, काशी, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, यमुना, चन्द्रभागा कोई भी एकादशी के तुल्य नहीं है। इस दिन व्रत करके मनुष्य अनायास ही वैकुंठ लोक को प्राप्त करता है। एकादशी को व्रत और रात्रि जागरण करने से माता-पिता और स्त्री के कुल की दस-दस पीढ़ियाँ उद्धार पाती हैं और वह पीताम्बरधरी होकर भगवान के निकट रहते हैं।

बाल, युवा और वृद्ध सब तथा पापी भी व्रत करने से नर्क में नहीं जाते। यमदूत कहता है कि हे वैश्य! मैं सूक्ष्म में तुमसे नरक से बचने का धर्म कहता हूँ। मन, कर्म और वचन से प्राणिमात्र का द्रोह न करना, इंद्रियों को वश में रखना, दान देना, भगवान की सेवा करना, नियमपूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करना, इन कर्मों के करने से मनुष्य नरक से बचा रहता है। स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से मनुष्य गरीब भी हो तो भी जूता, छतरी, अन्न, धन, जल कुछ न कुछ दान देता रहे। दान देने वाला मनुष्य कभी यम की यातना को नही भोगता तथा दीर्घायु और धनी होता है। बहुत कहने से ही क्या अधर्म से ही मनुष्य बुरी गति को प्राप्त होता है। मनुष्य सदैव धर्म के कार्यों से ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है इसलिए बाल्यावस्था से ही धर्म के कार्यों का अभ्यास करना चाहिए।

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माघ मास का माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय | Chapter 11 Magha Puran ki Katha

Chapter 11

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माघ मास का माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय

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यमदूत कहने लगा कि हे वैश्य! मनुष्य को सदैव शालिग्राम की शिला में तथा वज्र या कीट (गोमती) चक्र में भगवान वासुदेव का पूजन करना चाहिए क्योंकि सब पापों का नाश करने वाले, सब पुण्यों को देने वाले तथा मुक्ति प्रदान करने वाले भगवान विष्णु का इसमें निवास होता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला या हरिचक्र में पूजन करता है वह अनेक मंत्रों का फल प्राप्त कर लेता है। जो फल देवताओं को निर्गुण ब्रह्म की उपासना में मिलता है वही फल मनुष्य को भगवान शालिग्राम का पूजन करने से यमलोक को नहीं देखने देता। भगवान को लक्ष्मी जी के पास अथवा वैकुंठ में इतना आनंद नहीं आता जितना शालिग्राम की शिला या चक्र में निवास करने में आता है।

स्वर्ण कमल युक्त करोड़ो शिवलिंग के पूजन से इतना फल नहीं मिलता जितना एक दिन शालिग्राम के पूजन से मिलता है। भक्तिपूर्वक शालिग्राम का पूजन करने से विष्णुलोक में वास करके मनुष्य चक्रवर्ती होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से युक्त होकर भी मनुष्य शालिग्राम का पूजन करने से बैकुंठ में प्रवेश करता है। जो सदैव शालिग्राम का पूजन करते है वह प्रलयकाल तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो दीक्षा, नियम और मंत्रों से चक्र में बलि देता है वह निश्चय करके विष्णुलोक को प्राप्त होता है। जो शालिग्राम के जल से अपने शरीर का अभिषेक करता है वह मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करता है। गंगा, रेवा, गोदावरी सबका जल शालिग्राम में वास करता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला के सन्मुख अपने पिता का श्राद्ध करता है उसके पितर कई कल्प तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो लोग नित्य शालिग्राम की शिला का जल पीते हैं उनके हजारों बार पंचगव्य पीने से क्या प्रयोजन?

यदि शालिग्राम की शिला का जल पिया जाए तो सहस्त्रो तीर्थ करने से क्या लाभ? जहाँ पर शालिग्राम हैं वह स्थान तीर्थ स्थान के समान ही है, वहाँ पर किए गए सम्पूर्ण दान-होम, करोड़ो गुणा फल को प्राप्त होता है। जो एक बूँद भी शालिग्राम का जल पीता है वह माता के स्तनों का दुग्ध पान नहीं करता अर्थात गर्भाशय में नहीं आता। शालिग्राम शिला में जो कीड़े-मकोड़े एक कोस के अंतर पर मरते हैं वह भी वैकुंठ को प्राप्त होते हैं। जो फल वन में तप करने से प्राप्त होता है वही फल भगवान को सदैव स्मरण करने से प्राप्त होता है। मोहवश अनेक प्रकार के घोर पाप करने वाला मनुष्य भी भगवान को प्रणाम करने से नर्क में नहीं जाता।

संसार में जितने तीर्थ और पुण्य स्थान हैं, भगवान के केवल नाम मात्र के कारण से प्राप्त हो जाते हैं।

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माघ मास का माहात्म्य दसवाँ अध्याय | Chapter 10 Magha Puran ki Katha

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यमदूत कहने लगे कि हे वैश्य! एक बार भी गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर अत्यंत शुद्ध हो जाता है। जो मनुष्य गंगाजी को दूसरे तीर्थों के समान समझता है वह अवश्य नर्क में जाता है। भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई गंगाजी के पवित्र जल को श्रीशिवजी अपने मस्तक में धारण करते हैं। वह ब्रह्मा जो संदेहरहित प्रकृति से अलग और निर्गुण हैं ब्रह्माण्ड में उसकी समानता किससे हो सकती है। गंगाजी का नाम हजारों योजन दूर से ही लेने वाला नर्क में नहीं जाता इसलिए मनुष्य को अवश्यमेव गंगाजी में स्नान करना चाहिए।

हे वैश्य! जो ब्राह्मण दान लेने का अधिकारी होकर भी दान नहीं लेता वह आकाश के नक्षत्रों में चंद्रमा के समान है। जो कीचड़ से गौ को निकालता है, जो रोगी की रक्षा करता है या जो गौशाला में मरता है वह आकाश में तारा होता है। प्राणायाम करने वाले मनुष्य सदैव उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। प्रात: के समय स्नान के पश्चात जो सोलह प्राणायाम करते हैं वह घोर पापों से बच जाते हैं। जो पराई स्त्री को माता समान मानते हैं वह यम की यातना को नहीं भोगते।

जो मन से भी कभी पर-स्त्री का चिंतन नहीं करता वह दोनों लोकों को अपने आधीन करता है। जो पराये धन को मिट्टी के समान समझता है वह स्वर्ग में जाता है। जिसने क्रोध को जीत लिया मानो उसने स्वर्ग को ही जीत लिया। जो माता-पिता की सेवा देवता तुल्य करता है वह यमद्वार नहीं देखता और जो गुरु की सेवा करते हैं वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं। शील की रक्षा करने वाली स्त्री धन्य है। शील भंग करने वाली स्त्री यमलोक जाती है। जो वेदों और शास्त्रों को पढ़ते हैं या पुराण और संहिता पढ़ते और सुनते हैं तथा जो स्मृति का व्याख्यान और धर्मशास्त्र समझते हैं या जो वेदांत में लीन रहते हैं वह पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं।


जो अज्ञानियों को वेदशास्त्र का ज्ञान देते हैं वे देवताओं से भी पूजित होते हैं। यमदूत ने कहा कि वैश्य श्रेष्ठ यमराज ने हमको वही आज्ञा दे रखी है कि तुम किसी वैष्णव को मेरे पास मत लाओ। हे वैश्य्! पापी लोगों को इस संसार रुपी नर्क को पार करने के लिए भगवान की भक्ति के सिवाय दूसरा ओर कोई उपाय नहीं। भगवान की भक्ति न करने वाले मनुष्य को चांडाल के समान समझना चाहिए।

भगवान के भक्त अपने माता-पिता दोनों के कुलों को तार देते हैं और उनको नर्क में नहीं रहने देते और जो मनुष्य वैष्णव का भोजन करते हैं वे भी भगवान की कृपा से श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान को सदैव वैष्णव का अन्न खाना चाहिए। इससे बुद्धि पवित्र होकर मनुष्य पाप नहीं करता।

“गोविंदाय नम:” इस मंत्र का जाप करता हुआ जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है वह परम धाम को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो “ऊँ नम: भगवते वासुदेवाय:” द्वदाक्षर मंत्र या “ ऊँ नमो नारायणाय” अष्टाक्षर मंत्र का जाप करता है उसके ब्रह्म हत्या इत्यादि बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं।

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माघ मास का माहात्म्य नवाँ अध्याय | Chapter 9 Magha Puran ki Katha

Chapter 9

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माघ मास का माहात्म्य नवाँ अध्याय

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यमदूत कहने लगे मध्याहन के समय आया अतिथि, मूर्ख, पंडित, वेदपाठी या पापी कोई भी हो ब्रह्म के समान है। जो रात्रि के थके हुए भूखे ब्राह्मण को अन्न-जल देता है, मध्याहन के समय जिसके घर आता हुआ अतिथि निराश नहीं जाता वह स्वर्ग का वासी होता है। अतिथि बराबर कोई धन-सम्पत्ति तथा हित नहीं है। बहुत से राजा और मुनि अतिथि सत्कार से ब्रह्म लोक को प्राप्त हुए हैं।

जो एक समय आलस्य से भी अतिथि को भोजन करा दे वह यमद्वार नहीं देखता। केशरी ध्वज से वैवस्वत देव ने कहा था कि जो कोई इस कर्मभूमि मृत्युलोक से स्वर्गलोक जाने की इच्छा रखता हो वह अन्न का दान करे। दूत कहता है कि यमराज कहते हैं अन्न के बराबर दूसरा ओर कोई दान नहीं है। जो गर्मियों में जल, सर्दी में ईंधन और सदैव अन्न का दान करते हैं वह कभी यम के दुख नहीं उठाते। जो अपने किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह नर्क को नहीं देखता और प्रायश्चित न करने वाला मनुष्य नरक में जाता है। जो काया, वाचा और मन से किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह देव और गंधर्वों से शोभित स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।

जो नित्य ही व्रत, तप, तीर्थ करते हैं और जितेन्द्रिय हैं वह भयंकर यम को नही देखते हैं। नित्य धर्म करने वाला दूसरे का अन्न, भोजन और दान त्याग दे। नित्य स्नान करने से बड़े-बड़े पाप का नाश होकर यम को नहीं देखता। बिना स्नान पवित्रता कैसे हो सकती है? जो मनुष्य पर्व के समय चलते जल में स्नान करते हैं वह बुरी योनि नहीं पाते, न ही नरक में जाते हैं।
माघ मास में प्रात: स्नान करने वाले मनुष्यों को नियमपूर्वक तिल, पात्र और तिल कमल का दान करना चाहिए। यमदूत कहते हैं कि हे विकुंडल! पृथ्वी, सोना, गौ आदि परम दान करने वाला स्वर्ग से नहीं लौटता।

बुद्धिमान, पुण्य तिथियों, व्यतिपात, संक्रांति आदि को थोड़ा-सा दान करके भी बुरी गति को नहीं प्राप्त होता। सत्यवादी, मौन रहने वाला, मीठा बोलने वाला, क्षमाशील, नीतिवान, किसी की निंदा न करने वाला, सब प्राणियों पर दया करने वाला, पराये धन को तृण के समान समझने वाला मनुष्य कभी नर्क को नहीं भोगता।

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माघ मास का माहात्म्य आठवाँ अध्याय | Chapter 8 Magha Puran ki Katha

Chapter 8

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माघ मास का माहात्म्य आठवाँ अध्याय

Chapter 8

 

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यमदूत कहने लगा कि तुमने बड़ी सुंदर वार्ता पूछी है। यद्यपि मैं पराधीन हूँ फिर भी तुम्हारे स्नेहवश अपनी बुद्धि के अनुसार बतलाता हूँ। जो प्राणी काया, वाचा और मनसा से कभी दूसरों को दुख नहीं देते वे यमलोक में नहीं जाते। हिंसा करने वाले, वेद, यज्ञ, तप और दान से भी उत्तम गति को नहीं पाते। अहिंसा सबसे बड़ा धर्म, तप और दान ऋषियों ने बताया है। जो मनुष्य जल या पृथ्वी पर रहने वाले जीवों को अपने भोजन के लिए मारते हैं वे कालसूत्र नामक नर्क में पड़ते हैं और वहाँ पर अपना माँस खाते हैं और रक्त-पीप पान करते हैं तथा पीप की कीच में उनको कीड़े काटते हैं। हिंसक, जन्मांध, काने-कुबड़े, लूले, लंगड़े, दरिद्र और अंगहीन होते हैं। इस कारण इस लोक तथा परलोक में सुख की इच्छा करने वाले को काया, वाचा तथा मन में दूसरों का द्रोह नहीं करना चाहिए।

जो हिंसा नहीं करते उनको किसी प्रकार का भय नहीं होता। जिस तरह सीधी और टेढ़ी दोनों प्रकार की बहने वाली नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं वैसे ही सब धर्म अहिंसा में प्रवेश कर जाते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा यति सभी अपने-अपने धर्म का पालन करने और जितेन्द्रिय रहने से ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। जो जलाशय आदि बनाते हैं और सदैव पांचों यज्ञ करते हैं वे यमपुरी में नहीं जाते। जो इंद्रियों के वशीभूत नहीं हैं, वेदवादी और नित्य ही अग्नि अर्थात हवन आदि का पूजन करते हैं वे स्वर्ग को जाते हैं। युद्ध भूमि में जो शूरवीर मर जाते हैं वे सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं। जो अनाथ, स्त्री, शरण में आए हुए तथा ब्राह्मण की रक्षा के लिए प्राण देते हैं वे कभी स्वर्ग से नहीं लौटते।

जो मनुष्य लूले-लंगड़े, वृद्ध, अनाथ तथा गरीबों का पालन करते हैं वह भी स्वर्ग में जाते हैं। जो मनुष्य गौओं के लिए पानी का आश्रय करते हैं तथा कुंआ, तालाब और बावड़ी बनवाते हैं वे सदैव स्वर्ग में निवास करते हैं। जैसे-जैसे जीव इनमें पानी पीते हैं वैसे ही उनका धर्म बढ़ता है। जल से ही मनुष्य के प्राण हैं इसलिए जो प्याऊ आदि लागते हैं वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। बड़े-बड़े यज्ञ भी वह फल नहीं देते जो अधिक छाया वाले वृक्ष मार्ग में लगाने से देते हैं। जो मनुष्य वृक्ष रोपण करता है वह सदैव दानी और यज्ञ करने वाला होता है। जो अच्छे फल और अच्छी छाया वाले मार्ग के वृक्षों को काटता है वह नर्कगामी होता है। तुलसी का पौधा लगाने वाला सब पापों से छूट जाता है। जिस घर में तुलसीवन है वह घर तीर्थ के समान है और उस घर में कभी यमदूत नहीं जाते। तुलसी की सुगंध से पितरों का चित्त आनंदित हो जाता है और वे विमान में बैठकर विष्णुलोक को जाते हैं।

नर्मदा नदी का दर्शन, गंगा का स्नान और तुलसीदल का स्पर्श यह सब बराबर-बराबर फल देने वाले हैं। हर एक द्वादशी को ब्रह्मा भी तुलसी का पूजन करते हैं। रत्न, सोना, फूल तथा मोती की माला के दान का इतना पुण्य नहीं जितना तुलसी की माला के दान का है। जो फल आम के हजार और पीपल के सौ वृक्षों को लगाने से होता है वह तुलसी के एक पौधे के लगाने से होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि नदी, वासुदेव आदि देवता सब ही तुलसी में वास करते हैं। जो एक बार, दो या तीन बार रेवा नदी से उत्पन्न शिव मूर्त्ति की पूजा करता है अथवा स्फुटिक रत्न के पत्थर से आप निकले हुए, तीर्थ में पर्वत या वन में रखी हुई शिव की मूर्त्ति की पूजा करता है और सदैव “ऊँ नम: शिवाय” मंत्र का जाप करता है, यमलोक की कथा भी नहीं सुनता। प्रसंग, शत्रुता, अभिमान से शिव पूजा के समान पापों को नष्ट करने वाला तथा कीर्त्ति देने वाला तीन लोक में और कोई काम नहीं हैं।

जो शिवालय स्थापित करते हैं वे शिवलोक में जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का मंदिर बनाकर मनुष्य बैकुंठवासी होता है। जो भगवान की पूजा के लिए फूलों का बाग लगाते हैं वे धन्य हैं। जो माता-पिता, देवता और अतिथियों का सदैव पूजन करते हैं वे ब्रह्म लोक को प्राप्त होते हैं।

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माघ मास का माहात्म्य सातवाँ अध्याय | Chapter 7 Magha Puran ki Katha

Chapter 7

Magh mass satwa adhyay

माघ मास का माहात्म्य सातवाँ अध्याय

Chapter 7

 

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चित्रगुप्त ने उन दोनों के कर्मों की आलोचना करके दूतों से कहा कि बड़े भाई कुंडल को घोर नरक में डालो और दूसरे भाई विकुंडल को स्वर्ग में ले जाओ जहां उत्तम भोग हैं तब एक दूत तो कुंडल को नरक में फेंकने के लिए ले गया और दूसरा दूत बड़ी नम्रता से कहने लगा कि हे विकुंडल! चलो तुम अच्छे कर्मों से स्वर्ग को प्राप्त होकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगों तब विकुंडल बड़े विस्मय के साथ मन में संशय धारकर दूत से कहने लगा कि हे यमदूत! मेरे मन में बड़ी भारी शंका उत्पन्न हो गई है अतएव मैं तुमसे कुछ पूछता हूँ कृपा कर के मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। हम दोनों भाई एक ही कुल में उत्पन्न हुए, एक जैसे ही कर्म करते रहे, दोनों भाइयों ने कभी कोई शुभ कार्य नहीं किया फिर एक को नरक क्यों और दूसरे को स्वर्ग किस कारण प्राप्त हुआ?

मैं अपने स्वर्ग में आने का कोई कारण नहीं देखता तब यमदूत कहने लगा कि हे विकुंडल! माता-पिता, पुत्र, पत्नी, भाई, बहन से सब संबंध जन्म के कारण होते हैं और जन्म, कर्म को भोगने के लिए ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक वृक्ष पर अनेक पक्षियों का आगमन होता है उसी तरह इस संसार में पुत्र, भाई, माता, पिता का भी संगम होता है। इनमें से जो जैसे-जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है। तुम्हारा भाई अपने पाप कर्मों से नरक में गया तुम अपने पुण्य कर्म के कारण स्वर्ग में जा रहे हो तब विकुंडल ने आश्चर्य से पूछा कि मैंने तो आजन्म कोई धर्म का कार्य नहीं किया सदैव पापों में ही लगा रहा। मैं अपने पुण्य के कर्म को नहीं जानता, यदि तुम मेरे पुण्य के कर्म को जानते हो तो कृपा कर के बताइए तब देवदूत कहने लगा कि मैं सब प्राणियों को भली-भाँति जानता हूँ, तुम नहीं जानते।

सुनो, हरिमित्र का पुत्र सुमित्र नाम का ब्राह्मण था जिसका आश्रम यमुना नदी के दक्षिणोत्तर दिशा में था। उसके साथ जंगल में ही तुम्हारी मित्रता हो गई और उसके साथ तुमने दो बार माघ मास में श्री यमुना जी में स्नान किया था। पहली बार स्नान करने से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो गए और दूसरी बार स्नान करने से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ। सो हे वैश्यवर! तुमने दो बार माघ मास (Magh Maas) में स्नान किया इसी के पुण्य के फल से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ और तुम्हारा भाई नरक को प्राप्त हुआ। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार वह भाई के दुखों से अति दुखित होकर नम्रतापूर्वक मीठे वचनों से दूतों से कहने लगा कि हे दूतों! सज्जन पुरुषों के साथ सात पग चलने से मित्रता हो जाती है और यह कल्याणकारी होती है। मित्र प्रेम की चिंता न करते हुए तुम मुझको इतना बताने की कृपा करो कि कौन-से कर्म से मनुष्य यमलोक को प्राप्त नहीं होता क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो।

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