त्रिकोणं विन्यसेदादौ तन्मध्ये मण्डलत्रयम् ।
तन्मध्ये विन्यसेद योनि द्वारत्रयसमन्विताम् ।।
बहिरष्टदलं पदं भूबिम्बत्रितयं पुन: ।
परिवर्तनशील जगत के अधिपति कबन्ध है और उसकी शक्ति ही छिन्नमस्ता (Chinnamasta) है। विश्व की वृद्धि-ह्रास तो सदैव होती रहती है। जब ह्रास की मात्रा कम और विकास की मात्रा अधिक होती है, तब भुवनेश्वरी का प्राकट्य होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है, तब छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का प्राधान्य होता है।
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भगवती छिन्नमस्तिका (Chinnamasta) का स्वरुप अत्यन्त ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। महाविद्याओं में इनका तीसरा स्थान है। इनके प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार से है – एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं। स्नानोपरान्त क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्ण वर्ण की हो गयी। उस समय उनकी सहचरियों ने भी उनसे कुछ भोजन करने के लिए माँगा। देवी ने उनसे कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद सहचरियों ने जब पुन: भोजन के लिए निवेदन किया, तब देवी ने उनसे कुछ देर ओर प्रतीक्षा के लिए कहा। इस पर सहचरियों ने देवी से विनम्र स्वर में कहा कि “माँ तो अपने शिशुओं को भूख लगने पर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं? “ अपने सहचरियों के मधुर वचन सुनकर कृपामयी देवी ने अपने खड्ग से अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और उनके कबन्ध से रक्त की तीन धाराएँ प्रवाहित हुईं। वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहचरियों की ओर प्रवाहित कर दीं, जिसे पीती हुई दोनों बहुत प्रसन्न हुई लगीं और तीसरी धारा का देवी स्वयं पान करने लगी। तभी से देवी छिन्नमस्ता (Chinnamasta) के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता (Chinnamasta) की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं। शत्रु-विजय, समूह- स्तम्भन, राज्य प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष-प्राप्ति के लिए छिन्नमस्ता (Chinnamasta) की उपासना अमोघ है। छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का आध्यात्मिक स्वरुप अत्यन्त महत्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञ शीर्ष की प्रतीक ये देवी श्वेत कमल-पीठ पर खड़ी हुई हैं। दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनि चक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त (रज) गुणों की देवियाँ इनकी सहचरियाँ हैं। ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने-आप में पूर्ण अन्तर्मुखी साधना का संकेत है।
विद्वानों ने इस कथा में सिद्धि की चरम सीमा का निर्देश माना है। योग शास्त्र में तीन ग्रंथियाँ बतायी गयी हैं, जिनके भेदन के बाद योगी को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि कहा गया है। मूलाधार में ब्रह्मग्रंथि, मणिपूर में विष्णूग्रंथि तथा आज्ञाचक्र में रुद्रग्रंथि का स्थान है। इन ग्रंथियों के भेदन से ही अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती है। योगियों का ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्र के नीचे की नाड़ियों में ही काम और रति का मूल है, उसी पर छिन्ना महाशक्ति आरूढ़ है, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होने पर रुद्रग्रंथि का भेदन होता है।
छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनों में समान रुप से प्रचलित है। देवी की दोनो सहचरियाँ रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक है, कमल विश्व प्रपंच है और कामरति चिदानन्द की स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्य की अश्वशिर-विद्या, शाक्तों की हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्यों के छिन्नशीर्ष गणपति का रहस्य भी छिन्नमस्ता (Chinnamasta) से ही संबंधित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ता (Chinnamasta) के ही उपासक थे। इसीलिए इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है। वैरोचन अग्नि को कहते हैं। अग्नि के स्थान मणिपूर में छिन्नमस्ता (Chinnamasta) का ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ी में इनका प्रवाह होने से इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरव तंत्र में कहा गया है कि इनकी आराधना से साधक जीव भाव से मुक्त होकर शिव भाव को प्राप्त कर लेता है।