माघ मास का माहात्म्य उन्नीसवाँ अध्याय | Chapter 19 Magha Puran ki Katha

Chapter 19

Magh mass uneeswa adhyay

माघ मास का माहात्म्य उन्नीसवाँ अध्याय

Chapter 19

 

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वह पाँचों कन्याएँ इस प्रकार विलाप करती हुई बहुत देर प्रतीक्षा करके अपने घर लौटी। जब घर में आईं तो माताओं ने कहा कि इतना विलम्ब तुमने क्यों कर दिया तब कन्याओं ने कहा कि हम किन्नरियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सरोवर पर थी और कहने लगी कि आज हम थक गई हैं और जाकर लेट गईं।

वशिष्ठजी कहते हैं कि इस प्रकार आशय को छुपाकर वह विरह की मारी पड़ गईं। उन्होंने घर में आकर किसी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की। वह रात्रि उनको एक युग के समान बीती। सूर्यनारायण के उदय होते ही वह अपने-आपको जीवित मानती हुई माताओं की आज्ञा लेकर गौरी-पूजन करने वह कन्याएँ वहाँ पर जाने लगी। उसी समय ब्राह्मण भी स्नान करने के लिए सरोवर पर आया। उसके आने पर कन्याओं ने वाह-वाह किया जैसे कमलिनी प्रात:काल सूर्योदय को देखकर कहती हैं। उसको देखकर उनके नेत्र खुल गए और उस ब्रह्मचारी के पास चली गई।

आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चारों तरफ से उसको घेर लिया और कहने लगी कि मूर्ख उस दिन तू भाग गया था लेकिन आज नहीं भाग सकता। हम लोगों ने तुमको घेर लिया है। ऐसे वचन सुनकर बाहुपाश में बंधे हुए ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा – तुमने जो कुछ कहा सो ठीक ही है परंतु मैं तो अभी विद्याभ्यास और ब्रह्मचारी हूँ। गुरुकुल में मेरा विद्याभ्यास पूरा नहीं हुआ है। पंडित को चाहिए कि जिस आश्रम में रहे उसके धर्म का पालन करें। इस आश्रम में मैं विवाह करना धर्म नहीं समझता। अपने व्रत का पालन करके और गुरु की आज्ञा पाकर ही विवाह कर सकता हूँ, उससे पहले नहीं कर सकता।

यह बात सुनकर वह कन्याएँ इस प्रकार बोली जैसे वैशाख मास में कोयल बोलती है। वह कहने लगी कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम और काम से धर्म के फल का प्रकाश होता है। ऐसा ही पंडित लोग और शास्त्र कहते हैं। हम काम सहित धर्म की अधिकता से आपके पास आई हैं। सो आप पृथ्वी के सब भोगों को भोगिए। उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारा वचन सत्य है किंतु मैं अपने व्रत को समाप्त करके ही विवाह कर सकता हूँ, पहले नहीं कर सकता तब वे कन्याएँ कहने लगी कि तुम मूर्ख हो। अनोखी औषधि, ब्रह्म बुद्धि, रसायन सिद्धि, अच्छे कुल की सुंदर नारियाँ तथा मंत्र जिस समय प्राप्त हों तब ही ग्रहण कर लेना चाहिए। कार्य को टालना अच्छा नहीं होता।

केवल भाग्य वाले पुरुष ही प्रेम से पूर्ण, अच्छे कुल से उत्पन्न स्वयं वर चाहने वाली कन्याओं को प्राप्त होते हैं। कहाँ हम अनोखी नारियाँ, कहाँ आप तपस्वी बालक। यह बेमेल का मेल मिलाने में विधाता की चतुराई ही है। इस कारण आप हम लोगों के साथ गंधर्व विवाह कर लें। इनके ऐसे वचन सुनकर उस धर्मात्मा ब्राह्मण ने कहा कि व्रती रहकर इस समय विवाह नहीं करुंगा। मैं स्वयंवर की इच्छा नहीं करता। इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन्होंने एक-दूसरे का हाथ छोड़कर उसको पकड़ लिया। सुशील और सुरस्वरा ने उसकी भुजाओं को पकड़ लिया। सुतारा ने आलिंगन किया और चंद्रिका ने उसका मुख चूम लिया परंतु फिर उसने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया कि तुम डायन की तरह मुझसे चिपटी हो इस कारण पिशाचिनी हो जाओ।

ऐसे श्राप देने पर वह उसको छोड़कर अलग खड़ी हो गई। उन्होंने कहा कि हम निरपराधियों को वृथा क्यों श्राप दिया। तुम्हारी इस धर्मज्ञता पर धिक्कार है। प्रेम करने वाले से बुराई करने वाले का सुख दोनों लोकों में नष्ट हो जाता है इसलिए तुम भी हम लोगों के साथ पिशाच हो जाओ। तब वे आपस के क्रोध से उस सरोवर पर पिशाच-पिशाचिनी हो गए और बस पिशाच-पिशाचिनी कठिन शब्दों से चिल्लाते हुए अपने कर्मों को भोगने लगे।

वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! इस प्रकार वह पिशाच उस सरोवर के इधर-उधर फिरते रहे। बहुत समय पश्चात मुनियों में श्रेष्ठ लोमश ऋषि पौष शुक्ला चतुर्दशी को उस अच्छोद सरोवर पर स्नान करने के लिए आए। जब क्षुधा से दुखी इन पिशाचों ने उनको देखा तो उनकी हत्या करने के लिए गोल बांधकर उनको चारों तरफ से घेर लिया। वेदनिधि ब्राह्मण भी वहाँ पर आ गए और उन्होंने लोमश ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया। वे पिशाच ऋषि के तेज के सामने ठहर न सके और दूर जाकर खड़े हो गए। वेदनिधि हाथ जोड़कर लोमश ऋषि से कहने लगे कि भाग्य से ही ऋषियों के दर्शन होते हैं। फिर उन्होंने गंधर्व कन्या और अपने पुत्र का परिचय देकर सब वृत्तांत सुनाया और कहा कि हे मुनिवर! यह सब ही श्राप मोहित होकर आपके सम्मुख खड़े हैं।

आज इन बालकों का निस्तार होगा जैसे सूर्योदय से अंधेरे का नाश हो जाता है। वशिष्ठजी कहने लगे कि पुत्र के दुख से दुखी हुए। वेदनिधि ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर लोमश ऋषि के नेत्रों में जल भर आया और वेदनिधि से कहने लगे कि मेरे प्रसाद से बालकों को शीघ्र समृति पैदा हो, मैं उनका धर्म कहता हूँ जिससे इसका आपस का ज्ञान विलीन हो जाएगा।

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माघ मास का माहात्म्य अठारहवाँ अध्याय | Chapter 18 Magha Puran ki Katha

Chapter 18

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माघ मास का माहात्म्य अठारहवाँ अध्याय

Chapter 18

 

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श्री वशिष्ठ ऋषि कहने लगे कि हे राजन! मैंने दत्तात्रेयजी द्वारा कहा माघ मास (Magh Maas) का माहात्म्य कहा, अब माघ मास(Magh Maas) के स्नान का फल सुनो। हे परंतप! माघ स्नान सब यज्ञों, व्रतों का और तपों का फल देने वाला है। माघ मास (Magh Maas) में स्नान करने वाले स्वयं तो स्वर्ग में जाते ही हैं उनके माता और पिता दोनों के कुलों को भी स्वर्ग प्राप्त होता है। जो माघ मास में सूर्योदय के समय नदी आदि में स्नान करता है उसके माता-पिता के सात कुलों की पीढ़ी स्वर्ग को प्राप्त होती है। माघ मास (Magh Maas) में स्नान करने वाले दुराचारी और कुकर्मी मनुष्य भी पापों से मुक्त हो जाते हैं और इस मास में हरि का पूजन करने वाले पाप समुदाय से छूटकर भगवान के सदृश शरीर वाले हो जाते हैं। यदि कोई आलस से भी माघ में स्नान करता है उसके भी सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे गंधर्व कन्याएँ राजा के श्राप से भयंकर कल को भोगती हुई लोमश ऋषि के वचन से माघ में स्नान करने से पापों से छूट गईं।

यह वार्ता सुनकर राजा दिलीप विनय से पूछने लगा कि गुरुदेव! ये कन्याएँ किसकी थीं, उनको कब और कैसे श्राप मिला, उनके नाम क्या थे, ऋषि के वाक्य से कैसे श्राप मुक्त हुईं और उन्होंने कहाँ पर स्नान किया। आप विस्तारपूर्वक सब कथा कहिए। वशिष्ठजी कहने लगे हे राजा! जैसे अरणि से स्वयं अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही यह कथा धर्म और संतान उत्पन्न करती है। हे राजन! सुख संगीत नामक गंधर्व की कन्या का नाम विमोहिनी था, सुशीला तथा स्वर वेदी की सुम्बरा, चंद्रकांत की सुतारा तथा सुप्रभा की कन्या चंद्रका ये पाँच सब समान आयु वाली तथा चंद्रमा के समान कांति वाली और सुंदर थी। जैसे रात्रि को चंद्रमा शोभायमान होता है वैसे ही पुष्प की कलियों के समान खिली हुई यह अप्सराएँ थी।

ऊँचे पयोधर वाली पद्मनी वैशाख मास की कामिनी यौवन दिखाती हुई नवीन पत्तों वाली लता के सदृश, गोरे रंग, सोने के सदृश चमकती हुई और सोने के अलंकारों से सुशोभित, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए अनेक प्रकार के गाने और वीणा अथवा बांसुरी तथा दूसरे बाजे बजाने में प्रवीण और ताल, स्वर तथा नृत्य कला में निपुण थी। इस प्रकार वे कन्याएँ क्रीड़ा करती हुई कुबेर के स्थान में विचरती थी। एक समय कौतुकवश माघ मास (Magh Maas) में एक वन से दूसरे वन में विचरती हुई मंदिर के पुष्प तोड़कर सरोवर पर गौरी पूजा के लिए गईं। स्वच्छ जल के सरोवर में स्नान करके वस्त्र धारण कर, मौन हो, बालू मिट्टी की गौरी बनाकर चंदन, कपूर, कुंकुम और सुंदर कमलों से उपचार सहित पूजन करके ये पाँचों कन्याएँ ताल नृत्य करने लगी फिर ऊँचे गांधार स्वर में सुंदर गीत गाने लगी।

जब ये कन्याएँ नाचने और गाने में लीन थी तो उस समय अच्छोद नामक उत्तम तीर्थ में वेदनिधि नाम के मुनि के पुत्र अग्निप ऋषि स्नान को गए। वह युवा ऋषि सुंदर मुख, कमल सदृश नयन, विशाल छाती, सुंदर भुजाओं वाला, दूसरे कामदेव के समान था। शिखा सहित दंड लिए, मृगचर्म ओढ़े, यज्ञोपवीत धारण किए हुए था। उसको देखकर पाँचों कन्याएँ मुग्ध हो गई और उसका रूप व यौवन देखकर कामदेव से पीड़ित हो देखो-देखो ऐसा कहती हुई उस ब्राह्मण के चित्त में कामदेव का डर उत्पन्न करने लगी और आपस में विचार करने लगी कि यह कौन है। रति रहित होने से कामदेव नहीं और एक होने से अश्विनी कुमार नहीं। यह कोई गंधर्व या किन्नर या कामरुप धारण कर कोई सिद्ध या किसी ऋषि का श्रेष्ठ पुत्र या मनुष्य है। कोई भी हो ब्रह्माजी ने इसको हमारे लिए बनाया है।

जैसे पूर्व कर्म के प्रभाव से सम्पत्ति प्राप्त होती है वैसे ही गौरीजी ने हम कुमारियों के लिए श्रेष्ठ वर दिया है और आपस में यह तुम्हारा वर है या मेरा अथवा सबका ऐसा कहने लगी। जिस समय उस ऋषि पुत्र ने अपनी मध्याह्न की क्रिया करके ऐसे वचन सुने तो वह सोचने लगा कि यह तो बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता तथा बड़े योगीश्वर भी स्त्रियों के भ्रमजाल में मोहित हो गए हैं। इनके तीक्ष्ण बाणों से किसका मनरूपी हिरण घायल नही हो सकता। जब तक नीति और बुद्धि रहती है तब तक पाप से भय रहता है। जब तक की गंभीरता रहती है यम विधि का पालन होता है, तब तक मनुष्य स्त्रियों के कामरुपी बाणों से बींधा नहीं जाता।

ये मुझे उन्मत्त और मुग्ध कर रही हैं। किन गुणों से धर्म की रक्षा हो सकती है। स्त्रियों के मांस, रक्त, मल, मूत्र से बने घृणित और अशुद्ध शरीर में कामी लोग ही सुंदरता की कल्पना करके रमन कर सकते हैं। शुद्ध बुद्ध वाले महात्माओं ने स्त्रियों के पास रहना कष्टकारक कहा है सो जब तक यह पास आए घर चले चलना चाहिए। अत: जब तक वह उसके पास आईं वह योग बल के द्वारा अंतर्ध्यान हो गया।

ऋषि पुत्र के ऐसे अद्भुत कर्म देखकर वह चकित होकर डरी हुई चारों ओर देखने लगी और आपस में कहने लगीं कि यह क्या इंद्रजाल था जो देखते-देखते विलीन हो गया और वह विरहा की अग्नि में जलने लगी और कहने लगी कि हे कांत! तुम हमको छोड़कर कहाँ चले गए? क्या तुमको ब्रह्मा ने हमको विरह रूपी अग्नि में जलाने के लिए बनाया था। क्या तुम्हारा चित्त दया रहित है जो हमारा चित्त दुखाकर चले गए। क्या तुमको हमारा विश्वास नहीं, क्या तुम कोई मायावी हो, बिना किसी अपराध के हम लोगों पर क्यों क्रोध करते हो। तुम्हारे बिना हम नहीं जिएंगी। जहाँ पर आप गए हो हमें शीघ्र ले चलो हमारा संताप हरो और हमें दर्शन दो, सज्जन लोग किसी का नाश नहीं देखते।

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माघ मास का माहात्म्य सत्रहवाँ अध्याय | Chapter 17 Magha Puran ki Katha

Chapter 17

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माघ मास का माहात्म्य सत्रहवाँ अध्याय

Chapter 17

 

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अप्सरा कहने लगी कि हे रा़क्षस! वह ब्राह्मण कहने लगा कि इंद्र इस प्रकार अपनी अमरावती पुरी को गया। सो हे कल्याणी! तुम भी देवताओं से सेवा किए जाने वाले प्रयाग में माघ मास (Magh Maas) में स्नान करने से निष्पाप होकर स्वर्ग में जाओगी, सो मैंने उस ब्राह्मण के यह वचन सुनकर उसके पैरों में पड़कर प्रणाम किया और घर में आकर सब भाई-बांधव, नौकर-चाकर धनादिक त्यागकर शरीर को नष्ट होने वाली वस्तु समझकर घर से निकली और माघ में गंगा-यमुना के संगम पर जाकर स्नान किया।

सो हे निशाचर! तीन दिन के स्नान से मेरे सब पाप नष्ट हो गए और सत्ताइस दिन के पुण्य से मैं देवता हो गई और पार्वतीजी की सखी होकर सुख से निवास करती हूँ। इसलिए मैं प्रयाग के माहात्म्य को याद करके सब देवताओं के सहित माघ में प्रयाग स्नान करती हूँ। सो मैंने अपना यह सब वृत्तांत तुमसे कहा। तुम भी इस योनि में पड़ने और कुरुप होने का सब कारण कहो। तुम्हारी दाढ़ी और मूँछे बहुत बड़ी-बड़ी हो गई हैं और पार्वती की गुफा में वास करते हो!

निशाचर कहने लगा कि हे भद्रे! सज्जनों से गुप्त बात कहने में भी कोई हानि नहीं होती। मुझको अब कोई संशय नहीं रहा कि मेरा उद्धार तुमसे ही होगा सो मैं अपना सब वृत्तांत तुमसे कहता हूँ। मैं काशी में वेदों का ज्ञाता था और बड़े उच्च कुल के ब्राह्मण के घर में जन्म लिया था। मैंने राजा, पापी, शूद्र तथा वैश्यों से अनेक प्रकार के दान लिए। मैंने दान लेने में चांडाल को भी नहीं छोड़ा। उस जन्म में मैंने कोई भी धर्म नहीं किया। वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। तीर्थ स्थान पर मरने के कारण नर्क में नहीं गया। पहले दो बार गिद्ध योनि में, तीन बार व्याघ्र योनि में, दो बार सर्प योनि में, एक बार उल्लू की योनि में और अब दसवीं बार राक्षस हुआ हूँ और सैकड़ो वर्षों से इसी योनि में हूँ।

इस स्थान को तीन योजन तक मैंने जंतुहीन कर दिया है। बिना अपराध के बहुत से प्राणियों को मैंने नष्ट किया। इस कारण मेरा मन अत्यंत दुखी है। तुम्हारे दर्शन से चित्त में कुछ शांति अवश्य आई है क्योंकि सज्जनों का संग तुरंत ही सुखदायी होता है। मैंने अपने दुख के कारण आपसे कहे और सज्जन लोग सदैव दूसरे के दुखों से दुखी होते हैं। अब यह बताओ कि इस दुख रुपी समुद्र को कैसे पार कर सकता हूँ। क्या क्षीर सागर हंस को ही दूध देता है, बगुले को नहीं देता?

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि इस प्रकार उसके वचन सुनकर कांचन मालिनी कहने लगी कि हे राक्षस! मैं अवश्य तुम्हारा कल्याण करुंगी। मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की है कि तुम्हारी मुक्ति के लिए प्रयत्न करूँगी। मैंने बहुत बार प्रयाग में स्नान किया है। वेद जानने वाले ऋषियों ने दुखी को दान देने की प्रशंसा की है। समुद्र में जल बरसने से क्या लाभ? प्रयाग में स्नान करने का एक बार का फल मैं तुम्हे देती हूँ। उसी से तुमको स्वर्ग की प्राप्ति होगी। उसके फल का अनुभव मैं कर चुकी हूँ तब उस अप्सरा ने अपने गीले वस्त्र का जल निचोड़कर जल को हाथ में लेकर माघ स्नान के फल को उस राक्षस को अर्पण किया। उसी समय पुण्य प्राप्त वह राक्षसी शरीर को छोड़कर तेजमय सूर्य के सदृश देवता रूप हो गया।

आकाश में विमान पर चढ़कर अपनी कांति से चारों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ शोभायमान हुआ और कहने लगा कि ईश्वर ही जानता है तुमने कितना उपकार मुझ पर किया है। अब भी कृपया कुछ शिक्षा दो जिससे मैं कभी पाप न करूँ। अब मैं तुम्हारी आज्ञा पाकर स्वर्ग में जाऊँगा तब कांचन मालिनी ने कहा कि सदैव धर्म की सेवा करो, काम रूपी शत्रु को जीतो, दूसरे के गुण तथा दोषों का वर्णन मत करो। शिव और वासुदेव का पूजन करो, इस देह का मोह मत करो, पत्नी, पुत्र, धनादि की ममता त्यागो, सत्य बोलो, वैराग्य भाव धारण कर योगी बनो। मैंने तुमसे यह धर्म के लक्षण कहे, अब तुम देवता रूप होकर शीघ्र ही स्वर्ग को जाओ।

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि इस प्रकार गंधर्वों से शोभित वह राक्षस कांचन मालिनी को नमस्कार करके स्वर्ग को गया और देव कन्याओं ने वहाँ आकर कांचन मालिनी पर पुष्पों की वर्षा की और प्रेमपूर्वक कहा कि हे भद्रे! तुमने इस राक्षस का उद्धार किया। इस दुष्ट के डर से कोई भी इस वन में प्रवेश नहीं करता था।अब हम निडर होकर विचरेंगी। इस प्रकार कांचन मालिनी उस राक्षस का उद्धार करके प्रेम पूर्वक देव कन्याओं से क्रीड़ा करते हुए शिव लोक को गई।

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माघ मास का माहात्म्य सोलहवाँ अध्याय | Chapter 16 Magha Puran ki Katha

Chapter 16

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माघ मास का माहात्म्य सोलहवाँ अध्याय

Chapter 16

 

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कार्तवीर्य कहने लगा कि हे भगवान! वह राक्षस कौन था? और कांचन मालिनी कौन थी? उसने अपना धर्म कैसे दिया और उनका साथ कैसे हुआ। हे ऋषि! अत्रि ऋषि की संतानों के सूर्य! यह कथा सुनाकर मेरा कौतूहल दूर कीजिए तब दत्तात्रेयजी कहने लगे कि राजन इस पुरातन विचित्र इतिहास को सुनो – कांचन मालिनी नाम की एक सुंदर अप्सरा थी जो माघ मास (Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करके कैलाश पर जा रही थी तब उसको मार्ग में जाते हुए हिमालय के कुंज से एक घीर राक्षस ने देखा।

उस सोने जैसे तेज वाली, सुंदर कटि वाली, बड़े-बड़े नेत्रों वाली, चंद्रमुखी, सुंदर केश और पीनपयोधर वाली सुंदर अप्सरा को देखकर उस राक्षस ने कहा कि हे सुंदरी, कमलनयनी तुम कौन हो और कहाँ से आ रही हो? तुम्हारे वस्त्र और वेणी भीगी हुई क्यों है? तुम आकाश मार्ग से कहाँ जाती हो और किस पुण्य के प्रताप से तुम्हारा शरीर ऎसा तेजस्वी और रूप ऎसा मनोहर है। तुम्हारे गीले वस्त्र से मेरे मस्तक पर गिरे हुए एक बूँद जल से मेरे क्रूर मन को एकदम शांति प्राप्त हो गई, इसका क्या कारण है? तुम बड़ी शीलवती प्रतीत होती हो, इसका कारण मुझसे कहिए।

अप्सरा ने कहा कि हे राक्षस! सुनो मैं काम रूपिणी अप्सरा हूँ। मैं प्रयाग में संगम में स्नान करके आ रही हूँ, इसी से मेरे वस्त्र भीगे हैं। अब कैलाश पर जा रही हूँ जहाँ पर श्री शिव निवास करते हैं। त्रिवेणी के जल से मेरी सब क्रूरता दूर हो गई। जिसके पुण्य के प्रभाव से मैं इतनी सुंदर और पार्वतीजी की प्रिय सखी हुई। जो आश्चर्य देने वाला उदाहरण मुझसे ब्रह्माजी ने कहा था सो सुनो!

मैं कलिंग देश के राजा की वेश्या थी, रुप लावण्य और सुंदरता में अपूर्व थी। मेरी सुंदरता पर सारा नगर मोहित था और मैंने अनेकों प्रकार के भोग भोगे, अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों की घर में कोई कमी नहीं थी। कई कामी पुरुष आपस में स्पर्धा ही से मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस तरह उस नगर में बड़ी सुंदरता से यौवन व्यतीत हुआ और मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई तब मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने अपनी सारी आयु पापों में ही व्यतीत कर दी। धर्म का कोई कार्य दान, तप, यज्ञ आदि नहीं किया, शिव या दुर्गाजी की आराधना नहीं की, न कभी भगवान विष्णु का पूजन किया।

इस प्रकार अशांत चित्त से मैंने एक ब्राह्मण की शरण ली जो वेदों का ज्ञाता और ब्रह्मनिष्ठ था। मैंने उनसे पूछा कि मेरा उद्धार किस प्रकार हो सकता है। महाराज, साधु-सज्जन अच्छे और बुरे सभी पर दया करते हैं। इसलिए मुझ दीन पर भी कृपा करके मुझ कीचड़ में डूबी हुई को पकड़कर उबारिए। क्षीर सागर क्या हंस को ही दूध देता है बत्तख को नहीं देता तब वह ब्राह्मण राजा का पुरोहित इन सब बातों को सुनकर मुझ पर दया करके कहने लगा कि तू ब्रह्मा के क्षेत्र (प्रयाग) में जाकर माघ मास में त्रिवेणी संगम में स्नान कर परंतु मन में अशुभ क्रिया का विचार नहीं करना।

पापों के नाश के लिए महर्षियों ने तीर्थ स्थान से अधिक और कोई प्रायश्चित नहीं बतलाया। प्रयाग में स्नान करने से तू अवश्य पवित्र होकर स्वर्ग को जाएगी। हे भामिनी! पुराने समय में गौतम ऋषि की स्त्री को देखकर इंद्र ने काम के वशीभूत होकर कपट वेश में उससे भोग किया था इसलिए ऋषि द्वारा श्राप दिया गया और उसका शरीर अत्यंत लज्जायुक्त हजारों भगों वाला हो गया तब इंद्र नीचे मुंह करके अपने पाप कर्म की बुराई कराने लगा। मेरु पर्वत के शिखर पर स्वच्छ जल वाले सरोवर पर एक स्वर्ण कमल से भरे हुए कोटर में घुस गया और अपने पाप को धिक्कारता हुआ काम देव की बुराई करने लगा कि यह सब पापों का मूल है। इसके ही वशीभूत होकर मनुष्य नरक में जाते हैं और अपने धर्म, कीर्त्ति, यश और धैर्य का नाश करते हैं।

इंद्र ऐसा सोच रहा था कि इंद्र के बिना सारा देवलोक शोभाहीन हो गया तब देवता, गंधर्व, किन्नर, लोकपाल इंद्राणि के सहित बृहस्पतिजी से जाकर पूछने लगे कि महाराज इंद्र के न रहने से स्वर्ग ऐसा शोभाहीन हो गया है जैसे सत पुत्र के बिना श्रेष्ठ कुल। इसलिए स्वर्ग की शोभा के लिए कोई क्रिया सोचिए। इस विषय में देर नहीं लगानी चाहिए तब बृहस्पति जी कहने लगे कि इंद्र ने बिना सोचे-विचारे जो कर्म किया है उसका फल भोग रहा है सो वह कहाँ है मैं यह सब जानता हूँ। फिर गुरुजी ने सबको साथ लेकर स्वर्ण कमलों से युक्त बड़े सरोवर में इंद्र को देखा जिसका मुख मलीन और आँखें बंद थी।

तब इंद्र ने बृहस्पतिजी के चरणों को पकड़कर कहा कि इस पाप से उद्धार करके आप मेरी रक्षा कीजिए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र से कहा कि प्रयाग में स्नान करने से ही तुम पाप मुक्त हो जाओगे। तब इंद्र सहित सबने ही प्रयाग में जाकर संगम में स्नान किया और त्रिवेणी स्नान से इंद्र पापमुक्त हो गए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र को वरदान दिया कि तुम्हारे शरीर में जितने भग हैं सब नेत्र हो जाएँ। तब इंद्र ब्राह्मण के वर से हजार नेत्रों से ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानसरोवर में कमल शोभायमान होता है।

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माघ मास का माहात्म्य पंद्रहवाँ अध्याय | Chapter 15 Magha Puran ki Katha

Chapter 15

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माघ मास का माहात्म्य पंद्रहवाँ अध्याय

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दत्तात्रेयजी कहने लगे कि हे राजन! प्रजापति ने पापों के नाश के लिए प्रयाग तीर्थ की रचना की। सफेद (गंगाजी) और काली(यमुनाजी) के जल की धारा में स्नान का माहात्म्य भली प्रकार सुनो। जो इस संगम में माघ मास (Magh Maas) में स्नान करता है वह गर्भ योनि में नहीं आता। भगवान विष्णु की दुर्गम माया माघ में प्रयाग तीर्थ पर सब नष्ट कर देती है। माघ मास(Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करने से मनुष्य अच्छे भोगों को भोगकर ब्रह्म को प्राप्त होता है। माघ मास(Magh Maas) तथा मकर के सूर्य में जो प्रयाग में स्नान करता है उसके पुण्यों की गिनती चित्रगुप्त भी नहीं कर सकता। सौ वर्ष तक निराहार रहकर जो पुण्य प्राप्त होता है वही फल माघ मास(Magh Maas) में तीन दिन प्रयाग में स्नान करने से होता है, जो फल सौ वर्ष तक योगाभ्यास करने से मिलता है।

जैसे सर्प पुरानी केंचुली को छोड़कर नया रुप ग्रहण कर लेता है वैसे ही माघ मास(Magh Maas) में स्नान करने से मनुष्य पापों को छोड़कर स्वर्ग को प्राप्त होता है परंतु गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से हजारों गुना फल मिलता है। हे राजन! जिसको अमृत कहते हैं वह यह त्रिवेणी ही है। ब्रह्मा, शिव, रुद्र, आदित्य, मरुतगण, गंधर्व, लोकपाल, यक्ष, गुह्यक, किन्नर, अणिमादि गुणों से सिद्ध, तत्वज्ञानी, ब्रह्माणी, पार्वती, लक्ष्मी, शची, नैना, दिति, अदिति, सम्पूर्ण देव पत्नियाँ तथा नागों की स्त्रियों, घृताचीं, मेनका, उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा, अप्सरा गण और सब पितर, मनुष्य गण कलियुग में गुप्त और सतयुगादि में प्रत्यक्ष सब देवता माघ मास (Magh Maas) में स्नान करने के लिए आते हैं।


इन दिनों माघ मास(Magh Maas) में प्रयाग में स्नान करने से जो फल मिलता है वह ईश्वर ही कह सकता है, मनुष्य में कहने की शक्ति नहीं है। हजारों अश्वमेघ यज्ञ करने से भी यह फल प्राप्त नहीं होता। पूर्व समय में कांचन मालिनी ने इस स्नान का फल राक्षस को दिया था और इससे वह पापी मुक्त हो गया था।

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माघ मास का माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय | Chapter 14 Magha Puran ki Katha

Chapter 14

Magh mass Chodwa adhyay

माघ मास का माहात्म्य चौदहवाँ अध्याय

Chapter 14

 

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कार्तवीर्य जी बोले कि हे विप्र श्रेष्ठ! किस प्रकार एक वैश्य माघ स्नान के पुण्य से पापों से मुक्त होकर दूसरे के साथ स्वर्ग को गया सो मुझसे कहिए तब दत्तात्रेय जी कहने लगे कि जल स्वभाव से ही उज्जवल, निर्मल, शुद्ध, मलनाशक और पापों को धोने वाला है। जल सब प्राणियों का पोषण करने वाला है, ऎसा वेदों ने कहा है। मकर के सूर्य माघ मास में गौ के पैर डूबने योग्य जल से भी स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है। यदि सारा मास स्नान करने से अशक्त हो तो तीन दिन ही स्नान करने से पापों का नाश होता है। जो व्यक्ति थोड़ा ही दान करे वह भी धनी और दीर्घायु होता है। पांच दिन स्नान करने से चंद्रमा के सदृश शोभायमान होता है इसलिए अपना शुभ चाहने वालों को माघ से बाहर स्नान करना चाहिए।

अब माघ में स्नान करने वालों के नियम कहता हूँ। अधिक भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए, भूमि पर सोना चाहिए, भगवान की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए। ईंधन, वस्त्र, कम्बल, जूता, कुंकुम, घृत, तेल, कपास, रुई, वस्त्र तथा अन्न का दान करना चाहिए। दूसरे की अग्नि न तपे, ब्राह्मणों को भोजन कराए और उनको दक्षिणा दे तथा एकादशी के नियम से माघ स्नान का उद्यापन करे। भगवान से प्रार्थना करें कि हे देव! इन स्नान का मुझको यथोक्त फल दीजिए। मौन रहकर मंत्र का उच्चारण करे फिर भगवान का स्मरण करें। जो मनुष्य श्री गंगाजी में माघ में स्नान करते हैं वे चार हजार युग तक स्वर्ग से नहीं गिरते। जो कोई माघ मास में गंगा और यमुना का स्नान करता है वह प्रतिदिन हजार कपिला गौ के दान का फल पाता है।

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माघ मास का माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय | Chapter 13 Magha Puran ki Katha

Chapter 13

Magh mass terwa adhyay

माघ मास का माहात्म्य तेरहवाँ अध्याय

Chapter 13

 

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विकुंडल कहने लगा कि तुम्हारे वचनों से मेरा चित्त अति प्रसन्न हुआ है क्योंकि सज्जनों के वचन सदैव गंगाजल के सदृश पापों का नाश करने वाले होते हैं। उपकार करना तथा मीठा बोलना सज्जनों का स्वभाव ही होता है। जैसे अमृत मंडल चंद्रमा को भी ठंडा कर देता है। अब कृपा करके यह भी बतलाइए कि किस प्रकार मेरे भाई का नरक से उद्धार हो सकता है? तब दूत कुछ देर ज्ञान दृष्टि से विचार कर मित्रता रूपी रस्से से बंधा हुआ बोला कि हे वैश्य! यदि तुम अपने भाई के लिए स्वर्ग की कामना करते हो तो जल्दी ही अपने आठ जन्म के पुण्य फल को उसके निमित्त अर्पण कर दो तब विकुंडल ने कहा कि हे दूत! वह पुण्य क्या है और मैने कौन से जन्म में और कैसे किया है, सो सब बतलाओ फिर मैं अपना पुण्य अपने भाई को दे दूंगा।

दूत कहने लगा कि हे वैश्य! सुनो, मैं तुम्हारे पुण्य की सब कथा कहता हूँ। पूर्व समय में मधुवन में शालकी नाम का ऋषि था। वह बड़ा तपेश्वरी, ब्रह्मा के समान तेज वाला था। नवग्रह की तरह उसकी स्त्री रेवती के नौ पुत्र थे। जिनके नाम ध्रुव, शशि, बुध, तार, ज्योतिमान थे। इन पांचों ने गृहस्थाश्रम धारण किया तथा निर्मोह, जितमाय, ध्याननिष्ठ और गुणातग ये चारों सन्यास ग्रहण कर वन में रहने लगे। ये शिखा सूत्र से रहित पत्थर और सोने को समान समझते थे।

जो कोई अच्छा या बुरा उनको अन्न देता वही खा लेते और कोई कैसा ही कपड़ा दे देता उसको ही पहन लेते। सदैव ब्रह्म के ही ध्यान में लगे रहते। इन चारों ने व्रत, शीत, निद्रा और आहार सबको जीत लिया। बस चर-अचर को विष्णु रूप समझते हुए मौन धारण करके संसार में विचरते थे। ये चारो महात्मा तुम्हारे घर आये जब तुमने मध्यान्ह के समय भूखे-प्यासे इनको आंगन में देखा तो तुमने गदगद कंठ से आँखों में आँसू भरकर इनको नमस्कार करके इनका बड़ा आदर-सत्कार किया। इनके चरणों को धोकर बड़े प्रेम से तुम इनसे कहने लगे कि आज मेरे अहोभाग्य हैं।

आज मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ पर भगवान प्रसन्न हुए, मैं सनाथ हुआ। मेरे माता, पिता, पत्नी, पुत्र, गौ आदि सभी धन्य हैं जो आज मैंने हरि के सदृश आपके दर्शन किए। सो हे वैश्य! इस प्रकार तुमने श्रद्धा से उनका पूजन किया और चरण धोकर जल को मस्तक से लगाया फिर विधिपूर्वक इनका पूजन करके तुमने इन सन्यासियों को भोजन कराया। इन सन्यासियों ने भोजन करके रात को तुम्हारे घर में विश्राम किया और ब्रह्मा के ध्यान में लीन हो गये। इन सन्यासियों के सत्कार से जो पुण्य तुमको मिला सो मैं भी कहने में असमर्थ हूँ क्योंकि सब भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है।

प्राणियों में बुद्धि वाले, बुद्धि वालों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, विद्वानों में पुण्यात्मा और पुण्यात्मों में ब्रह्मज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं। ऎसी ही संगति से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। यह पुण्य तुमने अपने पहले आठवें जन्म में किया था सो यदि तुम अपने भाई को नरक से मुक्त कराना चाहते हो तो यह पुण्य दे दो। सो दूत के ऎसे वाक्य सुनकर उसने प्रसन्नचित्त से अपना पुण्य अपने भाई कुंडल को दे दिया और वह नरक से मुक्त हो गया और दोनो भाई देवताओं से पूजित किए गए तब दूत अपने स्थान को चला गया।

इस प्रकार वैश्य के पुत्र विकुंडल ने अपना पुण्य देकर अपने भाई को नरक की यातना से छुड़वाया। सो हे राजन! जो कोई इस इतिहास को पढ़ता या सुनता है वह हजार गोदान का फल प्राप्त करता है।

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माघ मास का माहात्म्य बारहवाँ अध्याय | Chapter 12 Magha Puran ki Katha

Chapter 12

Magh mass bharwa adhyay

माघ मास का माहात्म्य बारहवाँ अध्याय

Chapter 12

 

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यमदूत कहने लगा कि जो कोई प्रसंगवश भी एकादशी के व्रत को करता है वह दुखों को प्राप्त नहीं होता। मास की दोनों एकादशी भगवान पद्मनाभ के दिन हैं। जब तक मनुष्य इन दिनों में व्रत नहीं करता उसके शरीर में पाप बने रहते हैं। हजारों अश्वमेघ, सैकड़ो वाजपेयी यज्ञ, एकादशी व्रत की सोलहवीं कला के बराबर भी नही हैं। एकादशी के दिन व्रत करने से ग्यारह इंद्रियों से किए सब पाप नष्ट हो जाते हैं। गंगा, गया, काशी, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, यमुना, चन्द्रभागा कोई भी एकादशी के तुल्य नहीं है। इस दिन व्रत करके मनुष्य अनायास ही वैकुंठ लोक को प्राप्त करता है। एकादशी को व्रत और रात्रि जागरण करने से माता-पिता और स्त्री के कुल की दस-दस पीढ़ियाँ उद्धार पाती हैं और वह पीताम्बरधरी होकर भगवान के निकट रहते हैं।

बाल, युवा और वृद्ध सब तथा पापी भी व्रत करने से नर्क में नहीं जाते। यमदूत कहता है कि हे वैश्य! मैं सूक्ष्म में तुमसे नरक से बचने का धर्म कहता हूँ। मन, कर्म और वचन से प्राणिमात्र का द्रोह न करना, इंद्रियों को वश में रखना, दान देना, भगवान की सेवा करना, नियमपूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करना, इन कर्मों के करने से मनुष्य नरक से बचा रहता है। स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से मनुष्य गरीब भी हो तो भी जूता, छतरी, अन्न, धन, जल कुछ न कुछ दान देता रहे। दान देने वाला मनुष्य कभी यम की यातना को नही भोगता तथा दीर्घायु और धनी होता है। बहुत कहने से ही क्या अधर्म से ही मनुष्य बुरी गति को प्राप्त होता है। मनुष्य सदैव धर्म के कार्यों से ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है इसलिए बाल्यावस्था से ही धर्म के कार्यों का अभ्यास करना चाहिए।

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माघ मास का माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय | Chapter 11 Magha Puran ki Katha

Chapter 11

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माघ मास का माहात्म्य ग्यारहवाँ अध्याय

Chapter 11

 

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यमदूत कहने लगा कि हे वैश्य! मनुष्य को सदैव शालिग्राम की शिला में तथा वज्र या कीट (गोमती) चक्र में भगवान वासुदेव का पूजन करना चाहिए क्योंकि सब पापों का नाश करने वाले, सब पुण्यों को देने वाले तथा मुक्ति प्रदान करने वाले भगवान विष्णु का इसमें निवास होता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला या हरिचक्र में पूजन करता है वह अनेक मंत्रों का फल प्राप्त कर लेता है। जो फल देवताओं को निर्गुण ब्रह्म की उपासना में मिलता है वही फल मनुष्य को भगवान शालिग्राम का पूजन करने से यमलोक को नहीं देखने देता। भगवान को लक्ष्मी जी के पास अथवा वैकुंठ में इतना आनंद नहीं आता जितना शालिग्राम की शिला या चक्र में निवास करने में आता है।

स्वर्ण कमल युक्त करोड़ो शिवलिंग के पूजन से इतना फल नहीं मिलता जितना एक दिन शालिग्राम के पूजन से मिलता है। भक्तिपूर्वक शालिग्राम का पूजन करने से विष्णुलोक में वास करके मनुष्य चक्रवर्ती होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से युक्त होकर भी मनुष्य शालिग्राम का पूजन करने से बैकुंठ में प्रवेश करता है। जो सदैव शालिग्राम का पूजन करते है वह प्रलयकाल तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो दीक्षा, नियम और मंत्रों से चक्र में बलि देता है वह निश्चय करके विष्णुलोक को प्राप्त होता है। जो शालिग्राम के जल से अपने शरीर का अभिषेक करता है वह मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करता है। गंगा, रेवा, गोदावरी सबका जल शालिग्राम में वास करता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला के सन्मुख अपने पिता का श्राद्ध करता है उसके पितर कई कल्प तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो लोग नित्य शालिग्राम की शिला का जल पीते हैं उनके हजारों बार पंचगव्य पीने से क्या प्रयोजन?

यदि शालिग्राम की शिला का जल पिया जाए तो सहस्त्रो तीर्थ करने से क्या लाभ? जहाँ पर शालिग्राम हैं वह स्थान तीर्थ स्थान के समान ही है, वहाँ पर किए गए सम्पूर्ण दान-होम, करोड़ो गुणा फल को प्राप्त होता है। जो एक बूँद भी शालिग्राम का जल पीता है वह माता के स्तनों का दुग्ध पान नहीं करता अर्थात गर्भाशय में नहीं आता। शालिग्राम शिला में जो कीड़े-मकोड़े एक कोस के अंतर पर मरते हैं वह भी वैकुंठ को प्राप्त होते हैं। जो फल वन में तप करने से प्राप्त होता है वही फल भगवान को सदैव स्मरण करने से प्राप्त होता है। मोहवश अनेक प्रकार के घोर पाप करने वाला मनुष्य भी भगवान को प्रणाम करने से नर्क में नहीं जाता।

संसार में जितने तीर्थ और पुण्य स्थान हैं, भगवान के केवल नाम मात्र के कारण से प्राप्त हो जाते हैं।

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माघ मास का माहात्म्य दसवाँ अध्याय | Chapter 10 Magha Puran ki Katha

Chapter 10

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माघ मास का माहात्म्य दसवाँ अध्याय

Chapter 10

 

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यमदूत कहने लगे कि हे वैश्य! एक बार भी गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर अत्यंत शुद्ध हो जाता है। जो मनुष्य गंगाजी को दूसरे तीर्थों के समान समझता है वह अवश्य नर्क में जाता है। भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई गंगाजी के पवित्र जल को श्रीशिवजी अपने मस्तक में धारण करते हैं। वह ब्रह्मा जो संदेहरहित प्रकृति से अलग और निर्गुण हैं ब्रह्माण्ड में उसकी समानता किससे हो सकती है। गंगाजी का नाम हजारों योजन दूर से ही लेने वाला नर्क में नहीं जाता इसलिए मनुष्य को अवश्यमेव गंगाजी में स्नान करना चाहिए।

हे वैश्य! जो ब्राह्मण दान लेने का अधिकारी होकर भी दान नहीं लेता वह आकाश के नक्षत्रों में चंद्रमा के समान है। जो कीचड़ से गौ को निकालता है, जो रोगी की रक्षा करता है या जो गौशाला में मरता है वह आकाश में तारा होता है। प्राणायाम करने वाले मनुष्य सदैव उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। प्रात: के समय स्नान के पश्चात जो सोलह प्राणायाम करते हैं वह घोर पापों से बच जाते हैं। जो पराई स्त्री को माता समान मानते हैं वह यम की यातना को नहीं भोगते।

जो मन से भी कभी पर-स्त्री का चिंतन नहीं करता वह दोनों लोकों को अपने आधीन करता है। जो पराये धन को मिट्टी के समान समझता है वह स्वर्ग में जाता है। जिसने क्रोध को जीत लिया मानो उसने स्वर्ग को ही जीत लिया। जो माता-पिता की सेवा देवता तुल्य करता है वह यमद्वार नहीं देखता और जो गुरु की सेवा करते हैं वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं। शील की रक्षा करने वाली स्त्री धन्य है। शील भंग करने वाली स्त्री यमलोक जाती है। जो वेदों और शास्त्रों को पढ़ते हैं या पुराण और संहिता पढ़ते और सुनते हैं तथा जो स्मृति का व्याख्यान और धर्मशास्त्र समझते हैं या जो वेदांत में लीन रहते हैं वह पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं।


जो अज्ञानियों को वेदशास्त्र का ज्ञान देते हैं वे देवताओं से भी पूजित होते हैं। यमदूत ने कहा कि वैश्य श्रेष्ठ यमराज ने हमको वही आज्ञा दे रखी है कि तुम किसी वैष्णव को मेरे पास मत लाओ। हे वैश्य्! पापी लोगों को इस संसार रुपी नर्क को पार करने के लिए भगवान की भक्ति के सिवाय दूसरा ओर कोई उपाय नहीं। भगवान की भक्ति न करने वाले मनुष्य को चांडाल के समान समझना चाहिए।

भगवान के भक्त अपने माता-पिता दोनों के कुलों को तार देते हैं और उनको नर्क में नहीं रहने देते और जो मनुष्य वैष्णव का भोजन करते हैं वे भी भगवान की कृपा से श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान को सदैव वैष्णव का अन्न खाना चाहिए। इससे बुद्धि पवित्र होकर मनुष्य पाप नहीं करता।

“गोविंदाय नम:” इस मंत्र का जाप करता हुआ जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है वह परम धाम को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो “ऊँ नम: भगवते वासुदेवाय:” द्वदाक्षर मंत्र या “ ऊँ नमो नारायणाय” अष्टाक्षर मंत्र का जाप करता है उसके ब्रह्म हत्या इत्यादि बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं।

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