Pitru Paksha | Shradh 2021: कब से शुरु है पितृ पक्ष? जानें ​महत्वपूर्ण जानकारी

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श्राद्ध

हर वर्ष आश्विन माह के आरंभ से ही श्राद्ध का आरंभ भी हो जाता है वैसे भाद्रपद माह की पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाता है क्योंकि जिन पितरों की मृत्यु तिथि पूर्णिमा है तो उनका श्राद्ध भी पूर्णिमा को ही मनाया जाता है। इसके बाद आश्विन माह की अमावस्या को श्राद्ध समाप्त हो जाते हैं और पितर अपने पितृलोक में लौट जाते हैं।

माना जाता है कि श्राद्ध का आरंभ होते ही पितर अपने-अपने हिस्से का ग्रास लेने के लिए पृथ्वी लोक पर आते हैं। इसलिए जिस दिन उनकी तिथि होती है। उससे एक दिन पहले संध्या समय में दरवाजे के दोनों ओर जल दिया जाता है। जिसका अर्थ है कि आप अपने पितरों को निमंत्रण दे रहे हैं और अगले दिन जब ब्राह्मण को उनके नाम का भोजन कराया जाता है तो उसका सूक्ष्म रुप पितरों तक भी पहुँचता है। ऐसा करने से पितर प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं और अंत में पितर लोक को लौट जाते हैं। ऎसा भी देखा गया है कि जो पितरों को नहीं मनाते वह काफी परेशान भी रहते हैं।

पितृ पक्ष श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन से पहले 16 ग्रास अलग-अलग चीजों के लिए निकाले जाते हैं। जिसमें गौ ग्रास तथा कौवे का ग्रास मुख्य माना जाता है। मान्यता है कि कौवा आपका संदेश पितरों तक पहुँचाने का काम करता है। भोजन में खीर का महत्व है इसलिए खीर बनानी आवश्यक है।

भोजन से पहले ब्राह्मण संकल्प भी करता है। जो व्यक्ति श्राद्ध मनाता है तो उसके हाथ में जल देकर संकल्प कराया जाता है कि वह किस के लिए श्राद्ध कर रहा है। उसका नाम, कुल का नाम, गोत्र, तिथि, स्थान आदि सभी का नाम लेकर स्ंकल्प कराया जाता है। भोजन के बाद अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मण को वस्त्र तथा दक्षिणा भी दी जाती है।

यदि किसी व्यक्ति को अपने पितरों की तिथि नहीं पता है तो वह अमावस्या के दिन श्राद्ध कर सकता है और अपनी सामर्थ्यानुसार एक या एक से अधिक ब्राह्मणों को भोजन करा सकता है। कई विद्वानों का यह भी मत है कि जिनकी अकाल मृत्यु हुई है या विष से अथवा दुर्घटना के कारण मृत्यु हुई है। उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन करना चाहिए।

पितृ पक्ष श्राद्ध 15 दिन तक मनाए जाते हैं। पूर्वजों अथवा पितरों की तृप्ति के लिए उनकी तिथि पर तर्पण अवश्य करना चाहिए। जिस दिन भी श्राद्ध मनाया जाए उस दिन ब्राह्मण भोजन के समय पितृ स्तोत्र का पाठ व पितर गायत्री मंत्र का जाप किया जाना चाहिए। जिसे सुनकर पितर प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं। इस पाठ को भोजन करने वाले ब्राह्मण के सामने खड़े होकर किया जाता है। जिससे इस स्तोत्र को सुनने के लिए पितर स्वयं उस समय उपस्थित रहते हैं और उनके लिए किया गया श्राद्ध अक्षय होता है।

जो व्यक्ति सदैव निरोग रहना चाहता है, धन तथा पुत्र-पौत्र की कामना रखता है, उसे इस पितृ स्तोत्र व पितर गायत्री मंत्र से सदा पितरों की स्तुति करते रहनी चाहिए।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

प्रतिपदा श्राद्ध को पड़वा श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। प्रतिपदा श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिए किया जाता है, जिनकी मृत्यु प्रतिपदा तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

प्रतिपदा श्राद्ध तिथि को नाना-नानी का श्राद्ध करने के लिए भी उपयुक्त माना गया है। यदि मातृ पक्ष में श्राद्ध करने के लिए कोई व्यक्ति नहीं है, तो इस तिथि पर श्राद्ध करने से नाना-नानी की आत्मायें प्रसन्न होती हैं। यदि किसी को नाना-नानी की पुण्यतिथि ज्ञात नहीं है, तो भी इस तिथि पर उनका श्राद्ध किया जा सकता है। माना जाता है कि, इस श्राद्ध को करने से घर में सुख-समृद्धि आती है।

 

द्वितीया श्राद्ध को दूज श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। द्वितीया श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिए किया जाता है, जिनकी मृत्यु द्वितीया तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की द्वितीया तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

तृतीया श्राद्ध को तीज श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। तृतीया श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिए किया जाता है, जिनकी मृत्यु तृतीया तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की तृतीया तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

चतुर्थी श्राद्ध को चौथ श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। चतुर्थी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिए किया जाता है, जिनकी मृत्यु चतुर्थी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की चतुर्थी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

पञ्चमी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु पञ्चमी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की पञ्चमी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

पञ्चमी श्राद्ध को कुँवारा पञ्चमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन उन मृतकों के लिये श्राद्ध करना चाहिये जिनकी मृत्यु उनके विवाह के पूर्व हो गयी हो।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

षष्ठी श्राद्ध को छठ श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। षष्ठी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु षष्ठी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की षष्ठी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

सप्तमी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु सप्तमी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की सप्तमी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

अष्टमी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु अष्टमी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की अष्टमी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

नवमी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु नवमी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की नवमी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

नवमी श्राद्ध तिथि को मातृनवमी के रूप में भी जाना जाता है। यह तिथि माता का श्राद्ध करने के लिये सबसे उपयुक्त दिन होता है। इस तिथि पर श्राद्ध करने से परिवार की सभी मृतक महिला सदस्यों की आत्मा प्रसन्न होती है।

नवमी श्राद्ध को नौमी श्राद्ध तथा अविधवा श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

दशमी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु दशमी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की दशमी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

एकादशी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु एकादशी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की एकादशी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

एकादशी श्राद्ध को ग्यारस श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

द्वादशी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु द्वादशी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की द्वादशी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

जो लोग मृत्यु से पूर्व सन्यास ग्रहण कर लेते हैं, उनके श्राद्ध के लिये भी द्वादशी तिथि उपयुक्त मानी जाती है।

द्वादशी श्राद्ध को बारस श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

त्रयोदशी श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु त्रयोदशी तिथि पर हुई हो। इस दिन शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों की त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है।

त्रयोदशी श्राद्ध तिथि मृत बच्चों के श्राद्ध के लिये भी उपयुक्त है। इस श्राद्ध तिथि को गुजरात में काकबली एवं बालभोलनी तेरस के नाम से भी जाना जाता है।

त्रयोदशी श्राद्ध को तेरस श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

चतुर्दशी श्राद्ध तिथि केवल उन मृतकों के श्राद्ध के लिये उपयुक्त है, जिनकी मृत्यु किन्हीं विशेष परिस्थितियों में हुई हो, जैसे किसी हथियार द्वारा मृत्यु, दुर्घटना में मृत्यु, आत्महत्या अथवा किसी अन्य द्वारा हत्या। इनके अतिरिक्त चतुर्दशी तिथि पर किसी अन्य का श्राद्ध नहीं किया जाता है, अपितु इनके अतिरिक्त चतुर्दशी पर होने वाले अन्य श्राद्ध अमावस्या तिथि पर किये जाते हैं।

चतुर्दशी श्राद्ध को घट चतुर्दशी श्राद्ध, घायल चतुर्दशी श्राद्ध तथा चौदस श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

अमावस्या तिथि श्राद्ध परिवार के उन मृतक सदस्यों के लिये किया जाता है, जिनकी मृत्यु अमावस्या तिथि, पूर्णिमा तिथि तथा चतुर्दशी तिथि को हुई हो।

यदि कोई सम्पूर्ण तिथियों पर श्राद्ध करने में सक्षम न हो, तो वो मात्र अमावस्या तिथि पर श्राद्ध (सभी के लिये) कर सकता है। अमावस्या तिथि पर किया गया श्राद्ध, परिवार के सभी पूर्वजों की आत्माओं को प्रसन्न करने के लिये पर्याप्त है। जिन पूर्वजों की पुण्यतिथि ज्ञात नहीं है, उनका श्राद्ध भी अमावस्या तिथि पर किया जा सकता है।

इसीलिये अमावस्या श्राद्ध को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है।

साथ ही पूर्णिमा तिथि पर मृत्यु प्राप्त करने वालों के लिये महालय श्राद्ध भी अमावस्या श्राद्ध तिथि पर किया जाता है, न कि भाद्रपद पूर्णिमा पर। हालाँकि, भाद्रपद पूर्णिमा श्राद्ध पितृ पक्ष से एक दिन पहले पड़ता है, किन्तु यह पितृ पक्ष का भाग नहीं है। सामान्यतः पितृ पक्ष, भाद्रपद पूर्णिमा श्राद्ध के अगले दिन से आरम्भ होता है।

अमावस्या श्राद्ध को अमावस श्राद्ध के रूप में भी जाना जाता है। पश्चिम बंगाल में महालय अमावस्या नवरात्रि उत्सव के आरम्भ का प्रतीक है। देवी दुर्गा के भक्तों का मानना है कि, इस दिन देवी दुर्गा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था।

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों को सम्पन्न करने के लिए कुतुप, रौहिण आदि मुहूर्त शुभ मुहूर्त माने गये हैं। अपराह्न काल समाप्त होने तक श्राद्ध सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने चाहिये। श्राद्ध के अन्त में तर्पण किया जाता है।

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प्रथम दुर्गा माँ शैलपुत्री | Maa Shailputri – Vrat, Katha, Puja Vidhi, Mahatmyam

Pratham Maa Durga

Pratham Maa Durga

|| ॐ शैलपुत्र्यै नमः ||

प्रथम दुर्गा माँ शैलपुत्री 

Pratham Durga Maa Shaiputri

नवरात्रि पूजन के पहले दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप माता शैलपुत्री (Maa Shailputri) का पूजन किया जाता है। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वत राज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण भगवती का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का है, जिनकी आराधना से प्राणी सभी मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।

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माँ शैलपुत्री का स्वरूप

माँ शैलपुत्री (Maa Shailputri) दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का पुष्प लिए अपने वाहन वृषभ पर विराजमान होतीं हैं। नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में साधक अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं, शैलपुत्री (Maa Shailputri) का पूजन करने से ‘मूलाधार चक्र’ जागृत होता है और यहीं से योग साधना आरंभ होती है जिससे अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं।

नंदी नामक वृषभ पर सवार ‘शैलपुत्री’ (Maa Shailputri) के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना जाता है। दुर्गम स्थलों पर स्थित बस्तियों में सबसे पहले शैलपुत्री (Maa Shailputri) के मंदिर की स्थापना इसीलिए की जाती है कि वह स्थान सुरक्षित रह सके।

माँ शैलपुत्री की उत्पत्ति कथा

अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति दक्ष के घर की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थीं। तब इनका नाम ‘सती’ था और इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना- अपना यज्ञ- भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया। किन्तु दक्ष ने शंकरजी को इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं तो वहां जाने के लिए उनका मन व्याकुल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई।

सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा – प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है। उनके यज्ञ- भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु जान- बूझकर हमें नहीं बुलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी भी प्रकार श्रेयस्कर नहीं होगा।

शंकरजी के इस उपदेश से सती को कोई बोध नहीं हुआ और पिता का यज्ञ देखने, माता- बहनों से मिलने की इनकी व्यग्रता किसी भी प्रकार कम न हुई। उनका प्रबल आग्रह देखकर अंतत: शंकरजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे ही दी।

सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल सती की माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया।

बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से सती के मन को बहुत क्लेश पहुँचा। सती ने जब देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है और दक्ष ने भी उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन कहे।

यह सब देखकर सती का ह्रदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा और उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी की बात न मान, यहां आकर मैने बहुत बड़ी भूल की है। सती अपने पति भगवान शंकर जी का अपमान न सह सकीं और उन्होंने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगग्नि द्वारा भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दु:खद समाचार को सुनकर शंकरजी ने अतिक्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के यज्ञ का पूर्णतया: विध्वंस करा दिया।

सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे “शैलपुत्री”(Maa Shailputri) नाम से विख्यात हुईं।

पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व- भंजन किया था। “शैलपुत्री”(Maa Shailputri) देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की ही भांति वे इस बार भी शिवजी की ही अर्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री (Maa Shailputri) दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।

माँ शैलपुत्री की कलश स्थापना विधि

नवरात्रा का प्रारम्भ आश्विन अथवा चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को कलश स्थापना के साथ होता है। कलश को मंगलमूर्ति गणेश का स्वरूप माना जाता है। अत: सबसे पहले कलश की स्थान की जाती है। कलश स्थापना के लिए भूमि को सिक्त यानी शुद्ध किया जाता है। भूमि की शुद्धि के लिए देसी गाय के गोबर और गंगा-जल से भूमि को लिपा जाता है।

माँ शैलपुत्री पूजा विधि

शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है। दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं। अत: इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों,दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता और और कलश में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किया जाता है। कलश में सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है। इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती है। इसे जयन्ती कहते हैं जिसे इस मंत्र के साथ अर्पित किया जाता है।

“जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी,
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”

इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं। कलश स्थापना के पश्चात देवी का आह्वान किया जाता है कि ‘हे मां दुर्गा हमने आपका स्वरूप जैसा सुना है उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी है आप उसमें प्रवेश कर हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें’।

देवी दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है। प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती हैं।

माँ शैलपुत्री का उपासना मंत्र 

वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।

माँ शैलपुत्री ध्यान

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥

पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥

प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

माँ शैलपुत्री स्तोत्र पाठ

प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥

त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥

चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।
मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

माँ शैलपुत्री कवच पाठ

ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥

श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।

फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥

माँ शैलपुत्री की आरती

शैलपुत्री मां बैल असवार।
करें देवता जय जयकार।। मैया जय शैलपुत्री….
शिव शंकर की प्रिय भवानी।
तेरी महिमा किसी ने ना जानी।। मैया जय शैलपुत्री….
पार्वती तू उमा कहलावे।
जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।। मैया जय शैलपुत्री….
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू।
दया करे धनवान करे तू।। मैया जय शैलपुत्री….
सोमवार को शिव संग प्यारी।
आरती तेरी जिसने उतारी।। ‌ जय मां शैलपुत्री….
उसकी सगरी आस पुजा दो।
सगरे दुख तकलीफ मिला दो।। मैया जय शैलपुत्री….
घी का सुंदर दीप जला‌ के।
गोला गरी का भोग लगा के।। मैया जय शैलपुत्री….
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं।
प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।। मैया जय शैलपुत्री….
जय गिरिराज किशोरी अंबे।
शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।। मैया जय शैलपुत्री….
मनोकामना पूर्ण कर दो।
भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।। मैया जय शैलपुत्री….

माँ दुर्गा की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ ॐ जय…
मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ ॐ जय…
कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥ ॐ जय…
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ ॐ जय…
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥ ॐ जय…
शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ॐ जय…
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे ॥ॐ जय…
ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ॐ जय…
चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥ॐ जय…
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥ॐ जय…
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी ।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ॐ जय…
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥ॐ जय…
श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥ॐ जय…

पूजन के बाद श्री दुर्गा सप्तशती पाठ एवं निर्वाण मन्त्र “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” का यथा सामर्थ जप अवश्य करें।

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अनजाने में हुए रजस्वला दोष Menstural | Periods Dosha से मुक्त होने के लिए करें

ओम नमः शिवाय,

सज्जनों,

आज हम आपको एक ऐसे व्रत के बारे में बताएंगे जो प्रत्येक स्त्री को अवश्य और अवश्य करना चाहिए। जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि प्रत्येक स्त्री महीने में एक बार अशुद्ध अवस्था में अवश्य होती है। इसी कारण से स्त्रियों द्वारा जाने या अनजाने में एक पाप अवश्य होता है। स्त्रियों को घर परिवार के संपूर्ण काम करने होते हैं। कई बार अशुद्ध अवस्था में पूजा पाठ से संबंधित वस्तु को छू देना अथवा मंत्र आदि का जाप कर लेना। ध्यान ना रहने पर पूजा पाठ में सम्मिलित हो जाना। अशुद्ध अवस्था में इस प्रकार के कार्य करने से दोष लगता है। शास्त्रों में बताया गया है कि अशुद्ध अवस्था (During Periods | Menstruation) में पूजा-पाठ वाले स्थान से अथवा पूजा की वस्तुओं से स्त्री को दूर रहना चाहिए परंतु अति आवश्यक भागदौड़ वाला जीवन, छोटे होते हुए परिवार। इन सब व्यस्तताओं के बीच में कई बार ऐसी चीजें छूनी भी पड़ जाती है और ऐसे क्रियाकलाप में शामिल भी होना पड़ता है। इससे स्त्रियों के ऊपर अशुभ प्रभाव आता है। इसी दोष का निवारण हमारे शास्त्रों में ऋषि मुनियों के द्वारा बताया गया है कि साल में एक बार भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि जिसे ऋषि पंचमी भी कहा जाता है। उस तिथि को व्रत रखना चाहिए। आइए आज मैं आपको बताता हूं इस व्रत की क्या विधि है ? किस तरीके से यह व्रत करना है ? यह व्रत किन के लिए क्या जाता है ?

ऋषि पंचमी पूजा विधि

सबसे पहले प्रातः स्नानादि करने के लिए तुलसी जी के गमले की मिट्टी, जहां पर गाय निवास करती है, गौ स्थान की मिट्टी, गाय का मूत्र यानी गोझरण, गंगाजल, पीपल के नीचे की मिट्टी। यह सब मिट्टी ले कर के अपने शरीर पर लेप करते हुए और गंगा जी आदि तीर्थों का स्मरण करते हुए अपने शरीर की शुद्धि के लिए स्नान करें। स्नान आदि से निवृत्त होकर अच्छे योग्य वस्त्र पहनें तत्पश्चात पूजा की तैयारी करें। पूजा के लिए हल्दी आदि से एक चकोर मंडल थाली आदि में बनाकर गौरी गणपति जी, कलश देवता तथा सप्तर्षियों की पूजा आराधना करें। मैं वह संक्षिप्त रूप में मैं यहां बता रहा हूं।

ॐ गम गणपतये नमः।

ॐ गौरी देव्यै नमः।

इन मंत्र से भगवान गणपति जी व माता गौरी का ध्यान, आवाहन करें और थाली में चावलों के साथ ढेरी लगाकर सप्त ऋषियों का नाम लेते हुए वहां पर उनकी पूजा व ध्यान आदि करें।

कश्यपो अत्रि भरद्वाजो, विश्वामित्रो अथ गौतम।
जमदग्रिर्वशिष्ठ च, सप्तैते ऋषय स्मृता।।
दहन्तुपापम् में सर्वं ग्रहणन्त्व अघर्यं नमो नमः।।

सप्त ऋषि

  1. कश्यप ऋषि
  2. अत्रि ऋषि
  3. भारद्वाज ऋषि
  4. विश्वामित्र
  5. गौतम ऋषि
  6. जमदग्रि ऋषि
  7. वशिष्ट ऋषि

इस प्रकार सप्त ऋषियों की पूजा करनी है। भक्ति भाव से नैवेद्य, फल, फूल, मेवा, मिठाई आदि वहां अर्पण करें।

यदि किसी बहन के यहां और किसी स्त्री के यहां पर उसके भाई के यहां से अन्न जैसे चावल आदि आए हुए हो तो थोड़े से चावल कच्चे-पक्के बना करके कौवे को खिलाएं।

ऐसा करने से ससुराल पक्ष और मायके पक्ष के लोगों की आसुरी शक्तियों से रक्षा होती है। पूरे दिन सप्तर्षियों के नामों का उच्चारण करें तथा अपने द्वारा जाने – अनजाने में जो कुछ भी भूल हुई है। उसकी क्षमा प्रार्थना करते रहें। दिन में एक बार खाना खाएँ जिसमें दूध, दही, चीनी व अनाज आदि कुछ भी ना खाएँ। हल से जोती हुई चीजें भी न खाएँ। बस फल और मेवा खाएँ।

इस प्रकार से यहां पर एक कथा भी आती है। यह कथा पढ़कर जल से भरे कलश में चीनी व चावल के कुछ दाने डालकर वह जल भगवान सूर्य को अर्पण करें।

ऋषि पंचमी की व्रत कथा | Rishi Panchmi Vrat Katha

ब्रह्मपुराण के अनुसार राजा सिताश्व ने ब्रह्मा जी से पूछा कि सभी पापों को नष्ट करने वाला कौन-सा श्रेष्ठ व्रत है? तब ब्रह्माजी ने ऋषि लिखी पंचमी को उत्तम बतलाया और कहा- “हे राजन् सिताश्व! विदर्भ देश में एक उत्तंक नामक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। उसके दो संतानें थीं- एक पुत्री और दूसरा पुत्र। कन्या विवाह होने के पश्चात विधवा हो गई। इस दु:ख से दु:खित ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित ऋषि पंचमी व्रत रखने लगे जिसके प्रभाव से वे जन्मों के आवागमन से छुटकारा पाकर स्वर्गलोक के वासी हो गए।”

कथा पढ़ने अथवा सुनने के पश्चात कुछ सुखा सीधा जैसे आटा, चावल, चीनी, फल, मेवा, दूध, दही आदि किसी ब्राह्मण दंपति ब्राह्मण या सिर्फ ब्राह्मणी को उन चीजों का दान करें और यह व्रत करें। यदि संभव हो तो संपूर्ण रात्रि जागरण करें अथवा ऋषियों का ध्यान करें और इन मंत्रों का जाप करते समय व्यतीत करें। इस प्रकार यह उत्तम व्रत करने से स्त्रियों के माथे पर जो पाप का फल आता है। उसका नाश होगा और उसके घर परिवार की रक्षा होगी, दीर्घायु होंगे और उनका कल्याण होगा।

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गणेश चतुर्थी विशेष | सभी कष्टों व संकटों से मुक्ति दिलाने वाला कलंक निवारिणी उपाय

syamantak mani ki katha

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भगवान गणेश जी के जन्म दिन के उत्सव को गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) के रूप में मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) के दिन, भगवान गणेश जी को बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता के रूप में पूजा जाता है। भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष के दौरान भगवान गणेश जी का जन्म हुआ था। भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष में मध्याह्न के समय भगवान गणपति जी का जन्म हुआ था। इसलिए मध्याह्न का समय भगवान गणपति जी की पूजा के लिए सर्वोत्तम माना गया है।

गणेशोत्सव अर्थात गणेश चतुर्थी का उत्सव, 10 दिन के बाद, अनन्त चतुर्दशी के दिन समाप्त होता है और यह दिन गणेश विसर्जन के नाम से मनाया जाता है। अनन्त चतुर्दशी के दिन श्रद्धालु जन बड़े ही धूम धाम के साथ नगर में भजन यात्रा निकालते हुए भगवान गणेश जी की प्रतिमा का सरोवर, झील, नदी इत्यादि में विसर्जन करते हैं।

गणेश चतुर्थी व्रत की कथा | Ganesh Chaturthi Vrat Katha

एक बार भगवान शंकर स्नान करने के लिए भोगवती नामक नदी पर गए। उनके चले जाने के पश्चात पार्वती जी ने अपने तन की मैल से एक पुतला बनाया जिसका नाम उन्होंने गणेश रखा। गणेश को द्वार पर एक मुदगर देकर बैठाया कि जब तक मैं स्नान करूं तब तक किसी पुरुष को अंदर मत आने देना।

भोगवती पर स्नान करने के बाद जब भगवान शंकर आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया। क्रुद्ध होकर भगवान शंकर ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया और अंदर चले गए। पार्वती जी ने समझा कि भोजन के विलंब होने के कारण शंकर जी नाराज हैं। उन्होंने फौरन दो थालियों में भोजन परोस कर शंकर जी को भोजन करने को बुलाया। शंकर जी ने दो थाल देखकर पूछा- “दूसरा थाल किसके लिए लगाया है?” पार्वती जी बोली- “दूसरा थाल पुत्र गणेश के लिए है जो बाहर पहरा दे रहा है।” यह सुनकर शंकर जी ने कहा- “मैंने तो उसका सिर काट दिया है।” यह सुनकर पार्वती जी बहुत दु:खी हुई और प्रिय पुत्र गणेश को पुन: जीवित करने की प्रार्थना करने लगी। शंकर जी ने तुरंत के पैदा हुए हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। तब पार्वती जी ने प्रसन्नता पूर्वक पति-पुत्र को भोजन कराकर स्वयं भोजन किया। यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी, इसलिए इसका नाम गणेश चतुर्थी पड़ा।

गणेश चतुर्थी के दिन चांद क्यों नहीं देखना चाहिए?

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्र दर्शन वर्ज्य होता है। इस दिन चन्द्र के दर्शन करने से मिथ्या दोष अथवा मिथ्या कलंक लगता है ।
एक बार कुबेर जी ने भगवान शंकर तथा माता पार्वती जी के पास भोजन का आमंत्रण लेकर कैलाश पर्वत पहुंचे। वे चाहते थे कि शिवजी तथा पार्वती जी उनके महल आकर उनके यहां भोजन करें, लेकिन शिव जी कुबेर के आमंत्रण का कारण समझ गए। वे जानते थे कि कुबेर केवल अपनी धन-संपत्ति का दिखावा करने के लिए उन्हें महल में आमंत्रित कर रहे हैं। इसीलिए उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य में व्यस्त होने का कारण बताते हुए आने से मना कर दिया। पार्वती जी ने भी कहा की यदि उनके स्वामी नहीं जा रहे, तो हम भी अकेले नहीं आ सकते । ऐसे में कुबेर दुखी हो गए और भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। तब शिवजी मुस्करा कर बोले कि यदि आपको हमारी सेवा ही करनी है, तो आप मेरे पुत्र गणेश को साथ ले जाएं। गणेश आपको सेवा का पूर्ण मौका देंगे। अंत में कुबेर गणेश जी को ही ले जाने के लिए राजी हो गए। गणेशजी ने कुबेर के महल में पेट भरकर भोजन किया।

कुबेर ने गणेश जी को खूब मिष्ठान्न खिलाए, लेकिन इतनी मिठाइयां खाने के बाद भी उनका मन नहीं भरा और वे सोचने लगे कि यहां से निकलते समय वे कुछ मिठाइयां अपने ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय के लिए ले जाएंगे और कुछ स्वयं भी खा लेंगे। गणेश जी ने बहुत सी मिठाइयों को अपनी गोद में रखा और अपने मूषक पर सवार होकर चलने लगे। तभी गणेशजी के मूषक ने मार्ग में एक सर्प देखा और वह भय से उछल पड़ा। इस कारण गणेशजी अपना संतुलन खो बैठे और नीचे गिर पड़े। परिणामस्वरूप उनकी सारी मिठाइयां भी धरती पर बिखर गईं। गणेश जी अपनी मिठाइयों को एकत्रित कर ही रहे थे कि उन्हें हंसने की आवाज सुनाई दी। उन्होंने यहां-वहां देखा, तो उन्हें कोई न दिखा, लेकिन जैसे ही उनकी आंखें आकाश पर पड़ीं, तो उन्होंने चंद्रमा को हंसते हुए देखा। गणेश जी विचार करने लगे कि उनकी मदद करने के स्थान पर चंद्रमा उनका मजाक बना रहा है। चंद्रमा को हंसते देख गजमुख को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने चंद्र देव को तुरंत श्राप दे दिया। हे चंद्र! अब तुम किसी के देखने योग्य नहीं रह जाओगे और यदि किसी ने तुम्हें देख लिया, तो वह पाप का भागी होगा। ऐसा कहकर गजकर्ण वहां से चले गए।

गणेश जी श्राप के प्रभाव से उसी समय चन्द्रमा की आभा चली गयी और सम्पूर्ण जगत में रात्रि का अँधेरा छा गया। चंद्रदेव घबराकर उनकी शरण में आ गये और उनके पाँव पकड़कर क्षमा याचना करने लगे। वे बोले, हे देव मुझ पापी को क्षमा करें, मैं अनजाने में ऐसा कृत्य कर बैठा। यदि आपने अपना श्राप वापस नहीं लिया तो उनके होने का कोई महत्व नहीं रहेगा, जो कार्य उन्हें सौंपा गया है, वह वो नहीं कर पायंगे। और इस से सृष्टि का भी नियम भंग होगा​।​ हे देव, अतः मुझे क्षमा करें।​

फिर गणेश जी ने भी स्थिति देखि तो उनका क्रोध शांत हुआ। उन्होंने कहा चंद्रदेव आपको अपनी गलती का भान हुआ यह अच्छी बात है। किन्तु दिया हुआ श्राप वापस नहीं हो सकता ये आप भी जानते हैं। हाँ इसका उपाय किया जा सकता है, अतः श्राप के अनुसार तुम्हारी आभा खो जायगी किंतु माह में केवल एक दिन, इसके बाद तुम धीरे धीरे अपनी पूर्ण आभा वापस पा लोगे। और जो सुंदरता खोने का श्राप है उसके कारण तुम पूर्णतया अपना रूप नहीं खोओगे, किन्तु तुम्हारे चेहरे पर कुछ दाग रह जायँगे जो तुम्हे तुम्हारी गलती की याद भी दिलाते रहेंगे।​

गणेश जी की कृपा से चंद्रदेव प्रसन्न हुए और उनका आभार प्रकट करने लगे।​ किन्तु गणेश जी ने कहा की मेरा ये श्राप मैंने कम अवश्य कर दिया है, किन्तु तुमने जो मेरा अपमान किया है।​ उसके कारण मैं दुखी हूँ। आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन तुमने मेरा अपमान किया है तो अब से आज के दिन कोई भी तुम्हारा दर्शन करेगा यह उसके लिए अशुभ होगा।​ इसी श्राप के कारण आज के दिन चंद्रमा का दर्शन करना कलंक लगाने वाला होता है। कहीं-कहीं इस दिन लोग चांद की ओर पत्थर उछालते हैं। इसलिए इसे कलंक चतुर्थी (Kalank Chaturthi) अथवा पत्थर चौथ (Pathar Choth) के नाम से भी जाना जाता है।

गलती से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्र दर्शन हो जाये तो क्या करें ?

सिंह: प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हत:।

सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तक:।।

भाद्रपद (भादों) मास की गणेश-जन्म चतुर्थी के दिन चंद्र का दर्शन करना निषेध किया गया है किंतु अनायास चंद्रमा दिखलाई पड़ने पर किसी भी प्रकार का कलंक दोष लगने का भय बना रहता है। इस दोष से मुक्ति-प्राप्ति के लिए ऊपर लिखे मंत्र का 21 बार केवल 1 दिन पाठ करने से कलंक दोष नहीं लगता।

यदि भूल से भादों चौथ का चंद्रमा दिख जाय तो ‘श्रीमदभागवत’ के १०वे स्कंध, ५६-५७वे अध्याय में दी गयी ‘स्यमंतक मणि की चोरी’ की कथा का आदरपूर्वक श्रवण करना चाहिए |

 

स्यमन्तक मणि की कथा | Story of Syamantak Mani

भगवान कृष्ण पर स्यमन्तक नाम की कीमती मणि चोरी करने का झूठा आरोप लगा था। झूठे आरोप में लिप्त भगवान कृष्ण की स्थिति देख के, नारद ऋषि ने उन्हें बताया कि भगवान कृष्ण ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रमा को देखा था। जिसकी वजह से उन्हें मिथ्या दोष का श्राप लगा है।

नारद ऋषि ने भगवान कृष्ण को आगे बतलाते हुए कहा कि भगवान गणेश ने चन्द्र देव को श्राप दिया था कि जो व्यक्ति भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दौरान चन्द्र के दर्शन करेगा। वह मिथ्या दोष से अभिशापित हो जायेगा और समाज में चोरी के झूठे आरोप से कलंकित हो जायेगा। नारद ऋषि के परामर्श पर भगवान कृष्ण ने मिथ्या दोष से मुक्ति के लिये गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) का व्रत किया और मिथ्या दोष से मुक्त हो गये।

‘श्रीमदभागवत’ 10वा स्कंध, 56-57 अध्याय

श्री शुकदेव जी कहते हैं-परीक्षित ! सत्राजित ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमन्तक मणि सहित अपनी कन्या सत्याभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी।

राजा परीक्षित ने पूछाः भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ?

श्रीशुकदेव जी ने कहाः परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो वह स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित ! जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान चौसर खेल रहे थे।

लोगों ने कहाः ‘शंख चक्र गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है। जगदीश्वर देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा- ‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया। परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा- ‘सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।

एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।’ सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।
भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। परीक्षित ! जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। परीक्षित ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक एक गाँठ टूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरूष भगवान विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अंदर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं।) परीक्षित ! जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा- ऋक्षराज ! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुगदिवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुगदिवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो।
तदनन्तर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है। सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा- ‘हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें।

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श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका न हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल परम्परोचित व्यवहार करने के लिए वे बलराम जी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे- ‘हाय-हाय ! यह तो बड़े दुःख की बात हुई।’
भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा – ‘तुम सत्राजित से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? सत्राजित ने अपनी श्रेष्ठ कन्या का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजित भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?’ शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने चिल्लाने लगीं, परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया, जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया।
सत्यभामा जी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिता जी ! हाय पिता जी ! मैं मारी गयी – इस प्रकार पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं। बीच बीच में बेहोश हो जातीं और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया – यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे। परीक्षित ! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सब सुनकर मनुष्यों की सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो ! हम लोगों पर तो बहुत बड़ी विपत्ती आ पड़ी !’ इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा को मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे।
जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिए उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा – ‘भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी लौट जाना पड़ा था।’ जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा – ‘भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल पौरूष जानकर भी उनसे वैर विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते है – इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व विधाता भी नहीं समझ पाते, जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में – जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हें-नन्हें बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़ हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाय रखा, मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अदभुत हैं। वे अनन्त अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरूड़चिन्ह से चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिए भगवान ने पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमंतक मणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा – ‘हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमंतक मणि तो है ही नहीं। बलराम जी ने कहा – ‘इसमे सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमंतक मणि को किसी न किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ, क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित ! यह कहकर यदुवंश शिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिला पुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिय सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवानश्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमंतकमणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई बन्धुओं के साथ अपने श्वसुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदेहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।
अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित के वध के लिए उत्तेजित किया था। इसलिए जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यंत भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए। परिक्षित ! कुछ लोग ऐसा मानते है कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय। उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा – ‘एक बार काशी नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिए जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि ‘इस उपद्रव का यही कारण नहीं है’ यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूर को ढुँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित ! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिए उन्होंने मुस्कराते हुए अक्रूर से कहा – ‘चाचा जी ! आप दान धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है। आप जानते ही हैं कि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के – उनके नाती ही उन्हें तिलाँजली और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान अक्रूर जी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र – बलराम जी, सत्यभामा और जाम्बती का सन्देह दूर कर दीजिए और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिए। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिसमें सोने की वेदियाँ बनती हैं। परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्तवना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी। भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमंतक मणि अपने जाति-भाईयों को दिखाकर अपना कलंक दूर कर दिया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूर जी को लौटा दिया।
सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रम से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह हर प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।

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स्यमन्तक मणि की कथा | गणेश चौथ का चाँद दिख जाये तो कलंक से बचने के लिए

गणेश चतुर्थी विशेष | सभी कष्टों व संकटों से मुक्ति दिलानेवाली कलंक निवारिणी स्यमन्तक मणि की कथा | 

गणेश चतुर्थी विशेष | सभी कष्टों व संकटों से मुक्ति दिलानेवाली कथा | 

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सोम प्रदोष व्रत कथा | Som Pradosh Vrat Katha Vidhi Mahatmya Monday

 

सोम प्रदोष व्रत | Som Pradosh Vrat 

जिस प्रकार एकादशी व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है । उसी प्रकार त्रयोदशी का व्रत यानी प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है यदि त्रयोदशी का व्रत सोमवार के दिन आ जाए तो इस प्रदोष व्रत को सोम प्रदोष व्रत (Som Pradosh Vrat) कहते हैं। सोम प्रदोष व्रत (Som Pradosh Vrat) करने से चंद्रदेव और भगवान शिव पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। चंद्र देव भगवान शिव की उपासना करते हैं तथा भगवान शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण किया हुआ है।  

ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा व्यक्ति के मन को का कारक है।  अतः मन की चंचलता को नियंत्रित करने के लिए यह सोम प्रदोष व्रत बहुत ही लाभकारी होता है।

जिन जातकों की जन्म कुंडली में  चंद्र ग्रह खराब अवस्था का बैठा हुआ होउन्हें सोम प्रदोष व्रत विशेष रुप से करना चाहिए इस व्रत को करने से मन को एकाग्र करने की क्षमता बढ़ती है तथा चंद्र देव और भगवान शिव पार्वती की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है इस व्रत का पारण अगले दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने से किया जाता है

चंद्र ग्रह के लिए सफेद रंग का विशेष महत्व है। अतः उनकी पूजा में सफेद रंग का  फूल फल मिठाई तथा वस्त्र आदि का उपयोग करना चाहिए।

सोम प्रदोष व्रत (Som Pradosh Vrat) में पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय।” तथा चंद्र ग्रह का बीज मंत्र “ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चंद्रमसे नमः।” का जाप करना चाहिए। यदि संभव हो सके तो इन मंत्रों से अपनी क्षमता के अनुसार  हवन में आहुतियां भी डालनी चाहिए।

सोम प्रदोष व्रत कथा

बहुत समय पहले एक विधवा ब्राह्मणी थी जो अपने बेटे के साथ रहती थी और भीख मांगकर अपना जीवन बिता रही थी। एक दिन उसकी मुलाकात एक राजकुमार से हुई, जो बहुत थका हुआ था और वह उसे सड़क पर मिला था। वह विदर्भ देश का राजकुमार था और कुछ लुटेरे थे जिन्होंने उसके पिता, विदर्भ के राजा को मार डाला और पूरे राज्य पर कब्जा कर लिया। इस बीच, राजकुमार वहां से भाग गया और भूख और प्यास के कारण जब तक वह सड़क पर नहीं गिरा, तब तक इधर-उधर घूमता रहा।

वह ब्राह्मणी उसे अपने घर ले गई और उसने अपने बेटे की तरह उससे व्यवहार किया। एक दिन ब्राह्मणी दोनों को शांडिल्य ऋषि आश्रम ले गई और सोम प्रदोष व्रत के बारे में सुना। लौटते समय, राजकुमार आसपास घूमने चला गया, जबकि ब्राह्मणी अपने बेटे के साथ घर लौट आई।

चारों ओर घूमते हुए, उनकी मुलाकात एक गंधर्व लड़की से हुई, जो एक जगह पर खेल रही थी और उसका नाम अंशुमती था। उस दिन राजकुमार ने देर से घर लौटने से पहले काफी देर तक गंधर्व लड़की से बात की। अगले दिन, राजकुमार उसी स्थान पर वापस गया, जहाँ वह अंशुमती से मिला था। उस दिन, वह वहाँ अपने माता-पिता से राजकुमार से मुलाकात के बारे में बात कर रही थी, उसकी माँ और पिताजी ने तुरंत उसे विदर्भ के राजकुमार धर्मगुप्त के रूप में पहचान लिया, और राजकुमार ने यह बात स्वीकार कर ली।

उन्हें राजकुमार बहुत पसंद आया और उस रात भगवान शिव उनके सपने में आए, और उन्होंनें सपने में बताया कि उन्हें अपनी बेटी का विवाह धर्मगुप्त से कर देना चाहिए। अगले दिन, उन्होंने धर्मगुप्त से बात की और वह सहमत हो गया।

उन्होंने एक शुभ दिन देखकर शादी कर ली और फिर अपने ही राज्य पर आक्रमण करके लुटेरों को सिंहासन से उखाड़ फेंका और एक बार फिर सिंहासन पर विजय प्राप्त की, और वह स्वयं विदर्भ का राजा बन गया।

अपने राज्याभिषेक के बाद वह उस विधवा ब्राह्मणी और उसके बेटे को महल में ले आया। उन्होंने ब्राह्मणी के पुत्र को अपना प्रधान मंत्री बनाया और दोनों को महल में बड़े आदर और सम्मान के साथ रखा।

जब अंशुमती ने उनसे उनकी जीवन कहानी के बारे में पूछा, तो धर्मगुप्त ने उसे पूरी कहानी बताई और उन्हें सोम प्रदोष व्रत और उसके महत्व के बारे में भी बताया।

उस समय से ही सोम प्रदोष व्रत को विश्व में प्रसिद्धि मिली।

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मंगल (भौम) प्रदोष व्रत कथा | Bhom Pradosh Vrat Katha Vidhi Mahatmya

मंगल (भौम) प्रदोष व्रत | Mangal (Bhom | Bhaum) Pradosh Vrat

जिस प्रकार एकादशी व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है । उसी प्रकार त्रयोदशी का व्रत यानी प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है जब त्रयोदशी का व्रत मंगलवार को आ जाए तब  इस प्रदोष व्रत को मंगल प्रदोष व्रत (Mangal Pradosh Vrat) कहते हैं। मंगल प्रदोष व्रत को भौम प्रदोष व्रत (Bhom | Bhaum Pradosh Vrat) भी कहा जाता है।   मंगलवार के दिन व्रत होने के कारण, इस व्रत को करने से शिव पार्वती और हनुमान जी की विशेष प्रसन्नता प्राप्त होती है ।

जिन जातकों की कुंडली में मंगल ग्रह खराब  अवस्था का बैठा हुआ हो, उन्हें मंगल प्रदोष व्रत (Mangal Pradosh Vrat) करना चाहिए, इस व्रत के करने से उन्हें मंगल तथा भगवान शिव पार्वती का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है । इस व्रत का पारण अगले दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने से होता है ।

मंगल प्रदोष व्रत (Mangal Pradosh Vrat) के दिन पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” तथा  मंगल के बीज मंत्र “ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः” का जाप करना चाहिएयदि संभव हो सके तो इन मंत्रों से अपनी क्षमता के अनुसार  हवन में आहुतियां भी डालनी चाहिए।

सभी ग्रहों में मंगल ग्रह विशेष ऊर्जा और शक्ति का प्रतीक है। मंगल की पूजा के लिए लाल रंग का विशेष महत्व है। अतः मंगल ग्रह की पूजा के लिए लाल रंग के फल, फूल, मिठाई, वस्त्र आदि का उपयोग होता है। मंगल प्रदोष व्रत उत्तम संतान तथा घर परिवार मैं समृद्धि देने वाला होता है।

मंगल प्रदोष व्रत कथा

एक शहर में एक बूढ़ी औरत रहती थी। उस बूढ़ी औरत का एक बेटा था और बूढ़ी औरत को हनुमानजी पर अटूट विश्वास था। इसलिए, हर मंगलवार को वह महिला अत्यधिक भक्ति के साथ भगवान हनुमान का उपवास रखती और प्रार्थना करती थी।

एक दिन, जब उसने भगवान हनुमानजी से प्रार्थना की, तो प्रभु खुद उस बूढ़ी महिला से मिलने के लिए आए।  उन्होनें एक बूढ़े ऋषि का रूप धारण कर लिया और यह कहते हुए उसकी झोपड़ी में चले गए- ‘क्या कोई है जो इस घर में हनुमान का उपासक है, कोई है जो मेरी बात सुन सकता है और मेरी इच्छाओं को पूरा कर सकता है?’

इस तरह से वह ऋषि लोगों को बाहर बुलाने लगा।

तब, उसकी आवाज सुनकर, बूढ़ी औरत बाहर आई और विनम्रतापूर्वक ऋषि से उसकी इच्छाऐं बताने को कहा।

तो, हनुमान जी ने कहा कि वह भूखे हैं और वह खाना चाहते हैं, लेकिन उससे पहले उसके लिए फर्श साफ किया जाए। वह बूढ़ी औरत न तो जमीन खोद सकती थी और न ही फर्श साफ कर सकती थी, क्योंकि वह बूढ़ी थी और उसके जोड़ों में दर्द था।

अतः, उसने अपने दोनों हाथ जोड़कर हनुमान से अनुरोध किया कि वह इस काम के बजाय, कुछ और करने का आदेश दे, वह उसे निश्चित रूप से कर देगी। तब, ऋषि ने उससे तीन बार वादा लिया और फिर उससे कहा कि वह अपने बेटे से कहे कि वह अपने पेट के बल पर लेट जाए और वह खाना बनाने के लिए उसकी पीठ पर आग जलाएगा।

यह सुनकर महिला हैरान रह गई, परंतु अब वह वचन दे चुकी थी, उसके पास ऋषि के शब्दों से सहमत होने के अलावा  कोई ओर रास्ता नहीं था।

उसका दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था और उसकी आंखों से आँसू बह रहे थे, बहुत देर तक अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने के बाद, उसने आखिरकार अपने बेटे को बुलाया। तब वह अपनी माँ के बुलाने पर बाहर आया, उसने उसे ऋषि को समर्पित कर दिया।

बेटा भी चुप रहा, और बिना किसी सवाल के लेटने को तैयार हो गया । बेटे ने अपने जीवन के लिए संघर्ष नहीं किया, जबकि वह अच्छी तरह जानता था कि आग लगने से, वह निश्चित रूप से मारा जाएगा। बेटे को माँ की नीयत पर  कोई शक नहीं हुआ और ना ही उसने ऋषि की मंशा पर संदेह या सवाल किया।

ऋषि ने महिला के बेटे की पीठ पर आग लगाई और आग जलाने के बाद, वह घर के अंदर चली गई। वह अपने बेटे को जलकर मरते हुए नहीं देखना चाहती थी, क्योंकि वह जानती थी कि यह उसका अंत समय होगा।

लेकिन, फिर जब एक बार ऋषि ने भोजन बना लिया तब उसने बुढ़िया को बुलाया, और बुढ़िया से  कहा कि वह अपने पुत्र को उठने के लिए बोले ताकि वह भी भोजन करने से पहले भगवान को प्रसाद चढ़ा सके।

बूढ़ी औरत को यकीन था कि उसका बेटा मर चुका है, और वह अपने बेटे को बुलाना नहीं चाहती थी । तब उसने ऋषि से कहा कि उसे अपने मृत बेटे को पुकारने में अधिक पीड़ा होगी। लेकिन, ऋषि के कहने पर उसने अपने बेटे को पुकारा और पता चला कि उसका बेटा जीवित था। अपने पुत्र को जीवित पाकर बुढ़िया चैंक गई और वह ऋषि के चरणों में गिर गई। तब हनुमानजी अपने मूल रूप में आ गए और बूढ़ी औरत और उसके बेटे को आशीर्वाद दिया।

इस दिन अपने संकल्प को यह कह कर समाप्त कर सकते हैं:

‘‘अहम्ध्या महादेवस्य कृपाप्रपतेया भौमाप्रदोष व्रतं करिष्ये।’’

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बुध (सौम्य) प्रदोष व्रत | Budh (Soumya) Pradosh Vrat Katha Vidhi Mahatmya

बुध (सौम्य) प्रदोष व्रत | Budh Pradosh Vrat

जिस प्रकार एकादशी व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है । उसी प्रकार त्रयोदशी व्रत यानी प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है जब त्रयोदशी का व्रत बुधवार के दिन आ जाए तो उस दिन के प्रदोष व्रत को बुध प्रदोष व्रत (Budh Pradosh Vrat) अथवा सौम्य प्रदोष व्रत कहते हैं। इस व्रत के पालन से बुध ग्रह और भगवान गणेश जी को प्रसन्न कर सकते हैं।

जिन जातकों की जन्म कुंडली में बुध ग्रह खराब अवस्था का बैठा हुआ हो। उन्हें बुध प्रदोष व्रत (Budh Pradosh Vrat)  विशेष रुप से करना चाहिए। इस व्रत के करने से उन्हें बुध तथा भगवान शिव पार्वती का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस व्रत का पारण अगले दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने से होता है।

बुध सभी ग्रहों में से सबसे बुद्धिमान ग्रह है। बुध के लिए हरे रंग का विशेष महत्व है अतः बुध ग्रह की पूजा के लिए हरे रंग के फल, फूल, मिठाई, वस्त्र आदि का उपयोग किया जाता है।

बुध प्रदोष व्रत (Budh Pradosh Vrat) के दिन हरे रंग की दूर्वा  भगवान गणेश जी  को चढ़ाने से  उनकी  विशेष प्रसन्नता प्राप्त होती है

इस दिन हरे रंग का उपयोग करने से विशेष लाभ होता है। बुध के आशीर्वाद से लंबी आयु वाली संतान की प्राप्ति हो सकती है जो समाज में बहुत सम्मान, नाम और प्रसिद्धि अर्जित करती है।

बुध प्रदोष व्रत (Budh Pradosh Vrat) का पालन करने से नौकरी और व्यवसाय में मनवांछित सफलता प्राप्त होती है और मन की सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं।

बुध प्रदोष व्रत में पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय।तथा बुध  ग्रह का बीज मंत्र “ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।” का जाप करना चाहिए। यदि संभव हो सके तो इन मंत्रों से अपनी क्षमता के अनुसार  हवन में आहुतियां भी डालनी चाहिए।

बुध प्रदोष व्रत कथा

बहुत समय पहले एक पति-पत्नी थे। जिनकी नई-नई शादी हुई थी। शादी के दो दिन बाद महिला अपने मायके चली गई। कुछ दिनों के बाद, वह व्यक्ति अपनी पत्नी को वापस लाने गया। उस दिन बुधवार था। जब उस व्यक्ति ने बताया कि वह अपनी पत्नी को घर वापस ले जाने के लिए आया है और वह आज ही जाना चाहता है । तब  लड़की के घरवालों ने उन्हें रोकने की कोशिश करते हुए कहा कि बेटी को विदा करने के लिए बुधवार अच्छा दिन नहीं है। लेकिन वह आदमी नहीं माना और अपनी पत्नी को लेकर उसी दिन यात्रा पर निकल गया।

शहर के बाहरी क्षेत्र में पहुंचने के बाद, महिला को प्यास लगी और उसने अपने पति से कुछ पानी लाने का अनुरोध किया। वह आदमी एक गिलास लेकर पानी लेने चला गया। जब वह वापस लौटा, तो  उसने देखा  कि उसकी पत्नी  एक गिलास से पानी पी रही  है और बिल्कुल उसकी तरह दिखने वाला एक व्यक्ति उससे बात कर रहा है और उसकी पत्नी भी हंसकर उससे बात कर रही है। यह देखकर वह आदमी उस दूसरे आदमी से लड़ने लगा। धीरे-धीरे बहुत भीड़ जमा हो गई और वे लोग भीड़ में घिर  गए । उसी समय वहां एक सिपाही भी आ गया और उसने पूछा यह सब क्या हो रहा है । यहां इतनी भीड़ क्यों जमा हुई है । सब कुछ जान कर सिपाही ने उस औरत से पूछा  कि वह बताए कि उसका पति कौन है।  परंतु वह महिला चुप ही रह गई क्योंकि दोनों एक जैसे दिख रहे थे।

तभी, उसका पति भगवान शिव की पूजा करने लगा। उसने अपने हृदय में भगवान शिव से प्रार्थना करते हुए उनसे अपनी मूर्खता को क्षमा करने के लिए कहा। उसने अपनी गलती प्रभु के सामने स्वीकार कर ली और उसकी प्रार्थना पूरी भी नहीं हुई थी कि, दूसरा आदमी हवा में गायब हो गया। इसके बाद पति और पत्नी दोनों ने हर वर्ष भगवान शिव व गणेशजी का आशीर्वाद पाने के लिए बुध प्रदोष व्रत रखना शुरू किया।

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गुरु | बृहस्पति प्रदोष व्रत कथा | Guru Pradosh Vrat Katha Vidhi Mahatmya

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गुरु (बृहस्पति) प्रदोष व्रत | Guru Pradosh Vrat

जिस प्रकार एकादशी व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है । उसी प्रकार त्रयोदशी का व्रत यानी प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है यदि यह व्रत गुरुवार को पड़ता है, तो उस दिन इसे गुरु प्रदोष व्रत (Guru Pradosh Vrat) कहते हैं । गुरु प्रदोष व्रत में गुरु यानी बृहस्पति जी की और भगवान शिव जी की पूजा का महत्व है 

जिन जातकों की जन्म कुंडली में गुरु ग्रह खराब अवस्था का बैठा हुआ हो उन्हें गुरु प्रदोष व्रत (Guru Pradosh Vrat) विशेष रुप से करना चाहिए। इस व्रत के करने से उन्हें गुरु तथा भगवान शिव पार्वती का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस व्रत का पारण अगले दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने से होता है ।

भगवान बृहस्पति की के लिए पीले रंग का विशेष महत्व है उनकी पूजा के लिए पीले रंग की मिठाई, पीले रंग के वस्त्र, पीले रंग के फल और फूलों का उपयोग किया जाता है पीला रंग आशा और खुशी को भी दर्शाता है इस व्रत को करने वाला जातक स्वयं भी पीले कपड़े पहने तथा उस दिन पीले रंग का विशेष उपयोग करें।

इस दिन नीचे दिया गया विशेष उपाय करने से जीवन में बहुत सी समस्याओं का समाधान प्राप्त होता है:-:

  1. पीपल के पेड़ पर घी का दीया जलाएं।
  2. पीपल के पेड़ को कुछ पीली मिठाई और कुछ पीले फूल और कपड़े केसर या केवड़े का इत्र आदि अर्पित करें। घर से सभी समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए 27 बार इस मंत्र का जाप करें।

‘ॐ कृणाय वासुदेवाय हरये परमात्मने प्रणतले केशं नश्य गोविन्दाय नमो नमः’’

गुरु प्रदोष व्रत में पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय। तथा गुरु  ग्रह का बीज मंत्ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः। का जाप करना चाहिए। यदि संभव हो सके तो इन मंत्रों से अपनी क्षमता के अनुसार  हवन में आहुतियां भी डालनी चाहिए।

गुरु प्रदोष व्रत कथा

इस कथा के अनुसार, एक बार इंद्र और वृत्रासुर ने अपनी-अपनी सेना के साथ एक-दूसरे से युद्ध किया। देवताओं ने दैत्यों को हरा दिया और उन्हें लड़ाई में पूरी तरह से नष्ट कर दिया। वृत्रासुर यह सब देखकर बहुत क्रोधित हुआ और वह स्वयं युद्ध लड़ने के लिए आ गया।

अपनी आसुरी ताकतों के साथ उसने एक विशाल रूप धारण कर लिया, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था और वह देवताओं को धमकाने लगा। देवताओं को अपने सर्वनाश की आशंका हुई और वह मारे जाने के डर से भगवान बृहस्पति की शरण में चले गए।

भगवान ब्रहस्पति हमेशा सबसे शांत स्वभाव वाले हैं। बृहस्पति जी ने देवताओं को धैर्य बंधाया और वृतासुर की मूल कहानी बताना शुरू किया- जैसे कि वह कौन है या वह क्या है?

बृहस्पति के अनुसार, वृत्रासुर एक महान व्यक्ति था- वह एक तपस्वी था और अपने काम के प्रति बेहद निष्ठावान था। वृत्रासुर ने गंधमादन पर्वत पर तपस्या की और अपनी तपस्या से भगवान शिवजी को प्रसन्न किया।

उस समय चित्ररथ नाम एक राजा था। एक बार चित्ररथ अपने विमान पर बैठे और कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान किया। कैलाश पहुँचने पर उनकी दृष्टि पार्वती पर पड़ी, जो उसी आसन पर शिव के बाईं ओर बैठी थीं।

शिव के साथ उसी आसन पर बैठा देखकर, उन्होंने इस बात का मजाक उड़ाया कि उसने कहा कि मैनें सुना है कि, जैसे मनुष्य मोह-माया के चक्र में फँस जाते हैं, वैसे स्त्रियों पर मोहित होना कोई साधारण बात नहीं है, लेकिन उसने ऐसा कभी नहीं किया, अपने जनता से भरे दरबार में राजा किसी भी महिला को अपने बराबर नहीं बिठाते।

इन बातों को सुनकर, भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि दुनिया के बारे में उनके विचार अलग और काफी विविध हैं। शिव ने कहा कि उन्होंने दुनिया को बचाने के लिए जहर पी लिया। माता पार्वती उस पर क्रोधित हो गईं, इस तरह माता पार्वती ने चित्ररथ को श्राप दे दिया। इस श्राप के कारण चित्ररथ एक राक्षस के रूप में पृथ्वी पर वापस चला गया।

जगदम्बा भवानी के श्राप के कारण, चित्ररथ का जन्म एक राक्षस योनी में हुआ। त्वष्टा ऋषि ने तपस्या की और वृत्रासुर का निर्माण किया। वृत्रासुर बचपन से ही भगवान शिव का अनुयायी था और जब तक इंद्र भगवान शिव और पार्वती को प्रसन्न करने के लिए बृहस्पति प्रदोष व्रत का पालन नहीं करता, उसे हराना संभव नहीं होगा ।

तत्पश्चात देवराज इंद्र ने गुरु प्रदोष व्रत का पालन किया और वे जल्द ही वृत्रासुर को हराने में सक्षम हो गए और स्वर्ग में शांति लौट आई। अतः, महादेव और देवी पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को गुरुवार के दिन प्रदोष व्रत अवश्यक करना चाहिए।

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शुक्र प्रदोष व्रत कथा | Shukra Pradosh Vrat Katha Vidhi Mahatmya Friday

शुक्र प्रदोष व्रत | Shukra Pradosh Vrat

जिस प्रकार एकादशी व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है । उसी प्रकार त्रयोदशी का व्रत यानी प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है जब त्रयोदशी का व्रत शुक्रवार के दिन आ जाए तो उस प्रदोष व्रत को शुक्र प्रदोष व्रत (Shukra Pradosh Vrat) कहते हैं। शुक्र प्रदोष व्रत (Shukra Pradosh Vrat) करने से भगवान शिव और पार्वती के साथसाथ शुक्र देव की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त होता है।

शुक्रदेव दैत्य और दानवों के गुरु भी हैं तथा जीवन में सुख समृद्धि और वैवाहिक सुख को देने वाले हैं।  यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में शुक्र ग्रह खराब अवस्था का बैठा हो तो उसे शुक्र प्रदोष व्रत का पालन करना चाहिए। इस व्रत को करने से जीवन में वित्तीय तथा वैवाहिक समस्याओं का निवारण करने में मदद मिलती है।

शुक्र देव जी की पूजा में सफेद रंग का विशेष महत्व है। उनकी पूजा के लिए सफेद रंग के फल फूल मिठाई वस्त्र आदि का उपयोग किया जाता है ।

शुक्र प्रदोष व्रत (Shukra Pradosh Vrat)  में पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय।तथा शुक्र ग्रह का बीज मंत्र ॐ द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः।” अथवा “ॐ शुं शुक्राय नमः।” का जाप करना चाहिए। यदि संभव हो सके तो इन मंत्रों से अपनी क्षमता के अनुसार  हवन में आहुतियां भी डालनी चाहिए।

यदि आप शुक्र देव को संतुष्ट करना चाहते हैं, तो आपको उनके इष्टदेव, भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार, शुक्र प्रदोष व्रत का पालन करके, आप वास्तव में भगवान शिव और पार्वती के साथसाथ शुक्र देव की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। इस व्रत का पारण अगले दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने से होता है।

शुक्र प्रदोष व्रत कथा

एक बार की बात है, एक शहर में तीन दोस्त थे। राजकुमार, ब्राह्मण कुमार और तीसरे थे धनिकपुत्र। राजकुमार और ब्राह्मण कुमार का विवाह हुआ था और धनिकपुत्र भी विवाहित था, लेकिन उनकी पत्नी का गौना अभी बाकी था। तीनों आदमी एक दिन अपनी पत्नियों के बारे में चर्चा कर रहे थे।

ब्राह्मण कुमार ने चर्चा के दौरान कहा, महिलाओं के बिना घर भूतों से भरा होता है। जब धनिक ने यह सुना, तो उसने तुरंत अपनी पत्नी को वापस लाने का फैसला किया। धनिक पुत्र के माता-पिता ने उसे समझाया कि इस समय शुक्र देव अपनी शुभ स्थिति में नहीं है। और ऐसे समय पर महिलाओं को उनके मायके से लाना अच्छा नहीं होता है। लेकिन, उसने अपने पिता और माँ की बात नहीं मानी और अपनी पत्नी के घर पहुँच गया। उसकी पत्नि के घरवालों ने भी, उसे यह बात समझाने की कोशिश की, लेकिन उसने उनकी बात भी नहीं मानी। अतः, उन्होंने दुल्हन की विदाई की व्यवस्था कर दी और धनिक पुत्र को घर ले जाने के लिए एक बैलगाड़ी आई।

वापस आते समय बैलगाड़ी का पहिया टूट गया, जिससे बैल का पैर टूट गया। इससे दूल्हा और दुल्हन दोनों परेशान थे, हालाँकि वे चलते रहे। थोड़ा और चलने के बाद, डकैतों ने उनका रास्ता रोक लिया और उनके सभी आभूषणों और उनके पास मौजूद धन को लूट लिया। अंत में, जब वे घर पहुँचे तों वहाँ, धनिक पुत्र को साँप ने काट लिया। उसके पिता ने एक वैद्य (आयुर्वेद चिकित्सक) को बुलाया जिन्होंने उन्हें बताया कि वह अगले तीन दिनों में मर जाएगा।

जब ब्राह्मण कुमार ने धनिक पुत्र के बारे में सुना, तो उसने धनिक पुत्र के माता-पिता से शुक्र प्रदोष व्रत करने के लिए कहा और उन दोनों पत्नी और पति को वापस उसके घर भेजने के लिए कहा। धनिक पुत्र उसके घर वापस चला गया और धीरे-धीरे, शुक्र प्रदोष व्रत की मदद से उसकी हालत में सुधार होने लगा और उसके सिर पर मंडरा रहे सभी खतरे धीरे-धीरे खत्म हो गए।

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रवि | भानु प्रदोष व्रत कथा | Ravi Pradosh Vrat Katha Vidhi Mahatmya Sunday

रवि (भानु) प्रदोष व्रत | Ravi Pradosh Vrat

जिस प्रकार एकादशी व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है । उसी प्रकार त्रयोदशी का व्रत यानी प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है । यदि त्रयोदशी का व्रत रविवार के दिन आ जाए तो इस प्रदोष व्रत को रवि प्रदोष व्रत (Ravi Pradosh Vrat) कहते हैं। रवि प्रदोष व्रत को भानु प्रदोष व्रत भी कहते हैं। इस व्रत को करने से भगवान सूर्य तथा भगवान शिव पार्वती का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है।

जिन जातकों की कुंडली में सूर्य ग्रह खराब अवस्था का बैठा हुआ हो।, उन्हें रवि प्रदोष व्रत (Ravi Pradosh Vrat) करना चाहिए, इस व्रत के करने से उन्हें भगवान सूर्य तथा भगवान शिव पार्वती का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस व्रत का पारण अगले दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने से होता है।

सूर्य ग्रह के लिए लाल रंग का विशेष महत्व है। अतः उनकी पूजा के लिए लाल रंग के फल, फूल, मिठाई, वस्त्र आदि का उपयोग किया जाता है। यह व्रत अच्छे स्वास्थ्य और लंबी आयु की प्राप्ति कराता है। यह व्रत अकाल मृत्यु से रक्षा करता है।

इस दिन पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” तथा सूर्य के बीज मंत्र “ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः ” का जाप करना चाहिए। यदि संभव हो सके तो इन मंत्रों से अपनी क्षमता के अनुसार हवन में आहुतियां भी डालनी चाहिए।

रवि प्रदोष व्रत कथा (भानु प्रदोष कथा)

एक बार भागीरथी नदी के तट पर ऋषि एक विशाल समूह में एकत्र हुए। अचानक, वहां वेद व्यास के सबसे बड़े भक्त, पुराणवेत्ता जी भी इस सभा में आए।

उन्हें देखकर शौनकादि के 88000 ऋषि और मुनि खड़े हो गए और जमीन पर लेट गए और उनके बैठ जाने के बाद, सभी ऋषि और मुनी भी उनके चारों ओर बैठ गए।

शौनकादि ऋषियों ने उन्हें रवि प्रदोष व्रत का महत्व सुनाने को कहा। तब उन्होंने कथा सुनाना आरंभ किया।

एक ब्राह्मण, जो अपनी बहुत ही निष्ठावान पत्नी के साथ एक गाँव में रहता था, जो हर रविवार को रवि प्रदोष व्रत करता था। उनके साथ उनका एक बेटा भी था । एक समय, जब वह गंगा स्नान के लिए गया था, तो दुर्भाग्यवश रास्ते में उसे चोरों ने पकड़ लिया, और उससे कहा कि यदि वह उन्हें उस स्थान के बारे में बता दे जहाँ उसके पिता अपने घर में गुप्त खजाना रखते हैं, तो वे उसे नहीं मारेंगे।

अतः, बेटा काफी चकित हुआ और उसने बहुत विनम्रता के साथ, उन्हें बताया कि वे बहुत गरीब हैं और ऐसी कोई जगह नहीं है, और उनके पास बहुत सा धन नहीं हैं।

उसकी पीठ पर एक बड़ा सा झोला था, अतः चोरों ने यह जानना चाहा कि उसके पास उस बैग में क्या है?

अतः बिना कुछ सोचे ही, उसने जवाब दिया कि उसकी माँ ने रास्ते के लिए कुछ रोटियाँ दी हैं।

तो, चोरों को यकीन हो गया कि यह लड़का वास्तव में गरीब है और उन्होंने फैसला किया कि वे इस लड़के के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को लूटेंगे। इसलिए चोरों ने उसे जाने दिया।

अब, वहाँ से उस लड़के को शहर तक पहुँचने के लिए लंबी दूरी तय करनी थी। शहर के पास एक वट वृक्ष था और वह बच्चा उस वट वृक्ष की छाया में सो गया। उसी समय, उस शहर की रखवाली करने वाले सैनिकों का समूह चोरों की तलाश में वट वृक्ष तक पहुँच गया।

जब उन्हें कोई नहीं मिला, तो उन्होनें उस लड़के को चोर मानते हुए अपनी हिरासत में ले लिया। राजा ने उसकी दलीलों को नहीं सुना और उसे जेल में बंद करवा दिया।

जब बेटा समय निर्धारित अवधि में वापस नहीं आया, तो माँ और पिता बहुत चिंतित हो गए। अगले दिन, रवि प्रदोष व्रत था और हमेशा की तरह उस महिला ने व्रत रखा। उसने अपने बेटे की सुरक्षा के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की और उसकी देखभाल करने के लिए भी कहा। भगवान शिव ने उसकी प्रार्थना सुनकर, राजा को सपने में बताया कि वह लड़का चोर नहीं है। भगवान शिव ने राजा को चेतावनी दी कि यदि अगली सुबह, उसे रिहा नहीं किया गया, तो उसका पूरा राज्य नष्ट हो जाएगा और पूरे राज्य में लूट-पाट मच जाएगी।

अगले दिन, राजा ने बच्चे को जेल से रिहा कर दिया और बच्चे ने राजा को अपनी पूरी कहानी बताई। अगले दिन राजा के सैनिक उसे उसके घर ले गए और माता-पिता को भी पूरी कहानी बताई। शुरू में वे अपने बेटे के साथ सैनिकों को देखकर डर गए थे, लेकिन जब सैनिकों ने पुष्टि की और माता – पिता को पूरी कहानी बताई, तो उन्हें पूरी तरह से राहत मिली।

कुछ दिनों बाद राजा ने उस परिवार को उपहार के रूप में पाँच गाँव दिए। ब्राह्मण और उसकी पत्नि बहुत खुश हुए और उसके बाद उन्होनें शांति और खुशीयों भरा जीवन बिताया।

अतः जो कोई भी यह व्रत रखता है, वह भगवान शिव के अनुसार एक सुखी, स्वस्थ और निश्छल जीवन जीता है।

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