श्री स्कन्द मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा मुहूर्त | Lord Ayyappa Murti Sthapana Shubh Muhurat

Lord Skand

Lord Skand

श्री स्कन्द मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा विशेष मुहूर्त | Lord Skanda Murti Sthapana Shubh Muhurat

देवों की प्रतिष्ठा इनकी अपनी-अपनी तिथियों, नक्षत्रों, वारों के अनुसार भी की जाती है। कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं, जिनमें किसी भी देवता की प्रतिष्ठा की जा सकती है। देवों की प्रतिष्ठा मुहूर्त कालो की तरह ही युति, वेध, क्रान्तिसाम्य, गुरु-शुक्रास्त, भद्रा आदि सभी दोषों से सर्वथा मुक्त होने चाहिए। देवताओं की प्रतिष्ठा पूर्वाहण (दिन के पूर्वार्ध) में ही की जाती हैं।

देव सेनापते स्कंद कार्तिकेय भवोद्भव।
कुमार गुह गांगेय शक्तिहस्त नमोस्तु ते॥

भगवान स्कन्द जी की तिथि शुक्ल पक्ष षष्ठी को पड़ती है।

श्री स्कन्द प्रतिष्ठा मुहूर्त 2024

प्रारंभ काल-तारीखमुहूर्त का समय-घं.मि.
14 अप्रैलपूरा दिन
15 अप्रैलसूर्योदय से दोपहर 12:12 तक, अभिजित्, 
11 जुलाईदोपहर 01:04 के बाद
12 जुलाईसुबह 07:09 के बाद,
विशेष:- सुबह 07:13 से सुबह 10:33 तक, अभिजित्
07 नवंबर

सूर्योदय से सुबह 09:51 तक, सुबह 09:51 के बाद शूल दोष

07 दिसंबरसुबह 07:50 से सुबह 11:36 तक, अभिजित्
 सन् 2025
प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
15 जनवरीसुबह 09:01 से सुबह 10:28 तक
19 जनवरीसुबह 08:46 से सुबह 10:11 तक,
सुबह 11:33 से दोपहर 01:06 तक, अभिजित्, केतुयुति परिहार
22 जनवरीपूरा दिन
24 जनवरीसुबह 08:26 से सुबह 09:51 तक,
सुबह 11:14 से दोपहर 12:46 तक, अभिजित्, मृत्युबाण एवं भद्रा परिहार
31 जनवरीपूरा दिन
07 फरवरीपूरा दिन
10 फरवरीसुबह 07:19 से सुबह 08:44 तक,
सुबह 10:07 से सुबह 11:39 तक, अभिजित्, भौमयुति परिहार
15 फरवरीसूर्योदय से सुबह 10:52 तक, केतुयुति परिहार
19 फरवरीसूर्योदय से सुबह 10:40 तक 
21 फरवरीपूरा दिन
23 फरवरीसुबह 09:16 से दोपहर 12:43 तक, अभिजित्
26 फरवरीसूर्योदय से सुबह 11:09 तक
06 मार्चसूर्योदय से सुबह 10:59 तक
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Lord Ayyappa
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Lord Ayyappa Murti Sthapana Shubh Muhurat 
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श्री नागदेवता मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा मुहूर्त | Shri Nag Devta Murti Sthapana Muhurat

Nag Devta

Nag Devta

श्री नागदेवता मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा विशेष मुहूर्त | Lord Nag Devta Murti Sthapana Shubh Muhurat

देवों की प्रतिष्ठा इनकी अपनी-अपनी तिथियों, नक्षत्रों, वारों के अनुसार भी की जाती है। कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं, जिनमें किसी भी देवता की प्रतिष्ठा की जा सकती है। देवों की प्रतिष्ठा मुहूर्त कालो की तरह ही युति, वेध, क्रान्तिसाम्य, गुरु-शुक्रास्त, भद्रा आदि सभी दोषों से सर्वथा मुक्त होने चाहिए। देवताओं की प्रतिष्ठा पूर्वाहण (दिन के पूर्वार्ध) में ही की जाती हैं। ॐ भुजंगेशाय विद्महे, सर्पराजाय धीमहि, तन्नो नाग: प्रचोदयात्।। भगवान नागदेवता जी की तिथि शुक्ल पंचमी को पड़ती है।

श्री नागदेवता प्रतिष्ठा मुहूर्त 2024

प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
15 अप्रैल सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक, अभिजित्, 
11 जुलाई पूरा दिन
12 जुलाई सुबह 07:09 के बाद,
विशेष:- सुबह 08:13 से सुबह 10:33 तक, अभिजित्
06 दिसंबर सूर्योदय से सुबह 10:42 तक
सन् 2025
प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
15 जनवरी सुबह 09:01 से सुबह 10:28 तक
19 जनवरी सुबह 08:46 से सुबह 10:11 तक, 
सुबह 11:33 से दोपहर 01:06 तक, अभिजित्, केतुयुति परिहार
22 जनवरी पूरा दिन
24 जनवरी सुबह 08:26 से सुबह 09:51 तक, 
सुबह 11:14 से दोपहर 12:46 तक, अभिजित्, मृत्युबाण एवं भद्रा परिहार
31 जनवरी पूरा दिन
07 फरवरी पूरा दिन
10 फरवरी सुबह 07:19 से सुबह 08:44 तक,
सुबह 10:07 से सुबह 11:39 तक, अभिजित्, भौमयुति परिहार
15 फरवरी सूर्योदय से सुबह 10:52 तक, केतुयुति परिहार 
19 फरवरी सूर्योदय से सुबह 10:40 तक 
21 फरवरी पूरा दिन
23 फरवरी सुबह 09:16 से दोपहर 12:43 तक, अभिजित्
26 फरवरी सूर्योदय से सुबह 11:09 तक
04 मार्च पूरा दिन
06 मार्च सूर्योदय से सुबह 10:59 तक
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Shri Nag Devta
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Shri Nag Devta Murti Sthapana Shubh Muhurat
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श्री भैरव मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा मुहूर्त | Lord Bhairava Murti Sthapana Shubh Muhurat

Lord Bhairava

Lord Bhairava

श्री भैरव मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा विशेष मुहूर्त | Lord Bhairava Murti Sthapana Shubh Muhurat

देवों की प्रतिष्ठा इनकी अपनी-अपनी तिथियों, नक्षत्रों, वारों के अनुसार भी की जाती है। कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं, जिनमें किसी भी देवता की प्रतिष्ठा की जा सकती है। देवों की प्रतिष्ठा मुहूर्त कालो की तरह ही युति, वेध, क्रान्तिसाम्य, गुरु-शुक्रास्त, भद्रा आदि सभी दोषों से सर्वथा मुक्त होने चाहिए। देवताओं की प्रतिष्ठा पूर्वाहण (दिन के पूर्वार्ध) में ही की जाती हैं।

ॐ कालभैरवाय नम:। ॐ भयहरणं च भैरव:। ॐ ह्रीं बं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं। ॐ भ्रं कालभैरवाय फट्।

भगवान भैरव जी की तिथि कृष्ण अष्टमी को पड़ती है।

श्री भैरव प्रतिष्ठा मुहूर्त- 2024

प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
17 जुलाईसुबह 07:43 से सुबह 10:13 तक, 
दोपहर 12:31 से दोपहर 02:52 तक, भद्रा परिहार
21 जुलाईसुबह 07:37 से सुबह 09:57 तक, 
दोपहर 12:15 से दोपहर 02:37 तक,अभिजित्
22 जुलाईसुबह 07:33 से सुबह 09:53 तक, 
दोपहर 12:11 से दोपहर 02:33 तक, अभिजित्
27 जुलाईसुबह 10:26 से दोपहर 01:00 तक, 
सूर्योदय से सुबह 11:22 तक, मृत्युबाण परिहार
28 जुलाईसूर्योदय से सुबह 11:48 तक
31 जुलाईसुबह 06:48 से सुबह 09:28 तक, 
सुबह 11:36 से दोपहर 01:57 तक,
सूर्योदय से दोपहर 02:00 तक, रोहिण्यां भौमयुति परिहार
01 अगस्तसूर्योदय से सुबह 10:24 तक
11 अगस्तसूर्योदय से सुबह 10:12 तक
12 अगस्तसूर्योदय से सुबह 08:33 तक
14 अगस्तसुबह 10:24 के बाद
19 अगस्तसुबह 08:10 के बाद, भद्रा परिहार
24 अगस्तसुबह 10:01 से दोपहर 02:43 तक, अभिजित्
28 अगस्तसुबह 09:46 से दोपहर 02:27 तक, अभिजित्, भौमयुति परिहार
04 सितंबरसुबह 09:28 से दोपहर 02:00 तक
08 सितंबरसुबह 09:02 से दोपहर 01:44 तक, अभिजित्
11 सितंबरसुबह 08:49 से दोपहर 01:32 तक
14 सितंबरसुबह 08:39 से दोपहर 01:21 तक, अभिजित्
07 अक्टूबरसुबह 09:48 के बाद
11 अक्टूबरसुबह 06:56 से दोपहर 01:39 तक, अभिजित्
12 अक्टूबरसुबह 10:59 के बाद
18 अक्टूबरदोपहर 02:00 तक, मृत्युबाण परिहार
21 अक्टूबरसूर्योदय से सुबह 11:11 तक, 
सुबह 11:11 से दोपहर 02:11 तक, परिघ दोष
23 अक्टूबरसुबह 08:27 से दोपहर 12:52 तक, अभिजित्, भद्रा परिहार, भौमयुति परिहार
24 अक्टूबरसुबह 08:23 से दोपहर 12:48 तक, अभिजित्
03 नवंबरसुबह 07:44 से दोपहर 12:09 तक, अभिजित्
04 नवंबरसूर्योदय से सुबह 08:04 तक
06 नवंबरसूर्योदय से सुबह 11:00 तक
08 नवंबरदोपहर 12:03 के बाद
09 नवंबरसुबह 07:20 से सुबह 11:45 तक, अभिजित्, भद्रा परिहार
14 नवंबरसूर्योदय से सुबह 09:43 तक
17 नवंबरसुबह 09:09 से सुबह 11:13 तक, अभिजित्, मृत्यु परिहार
18 नवंबरसूर्योदय से सुबह 08:01 तक,  
सुबह 09:05 से दोपहर 12:50 तक, अभिजित्, भद्रा परिहार, 
20 नवंबरसुबह 08:57 से दोपहर 12:43 तक
21 नवंबरपूरा दिन (भौमयुति परिहार)
23 नवंबर  सूर्योदय से सुबह 11:41 तक, (श्री भैरवाष्टमी)
25 नवंबरसूर्योदय से सुबह 11:41 तक, केतुयुति परिहार
विशेष:- :सुबह 08:37 से दोपहर 12:23 तक, अभिजित्, 
27 नवंबरसुबह 08:30 से दोपहर 12:15 तक
28 नवंबरसूर्योदय से सुबह 07:35 तक
06 दिसंबरसूर्योदय से सुबह 10:42 तक, 
सुबह 10:43 से दोपहर 02:19 तक, व्याघात दोष
07 दिसंबरसुबह 07:50 से सुबह 11:36 तक, अभिजित्
11 दिसंबरसुबह 11:48 से दोपहर 02:27 तक
12 दिसंबरसूर्योदय से सुबह 09:52 तक,
विशेष:- सुबह 07:31 से सुबह 11:16 तक, अभिजित्
 सन् 2025
प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
22 जनवरीपूरा दिन
21 फरवरीपूरा दिन
Frame
Lord Bhairava
Frame
Lord Bhairava Murti Sthapana Shubh Muhurat
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श्री परशुराम मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा मुहूर्त | Lord Parshuram Murti Sthapana Muhurat

Lord Parshuram

Lord Parshuram

 

श्री परशुराम मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा विशेष मुहूर्त | Lord Parshuram Murti Sthapana Shubh Muhurat

देवों की प्रतिष्ठा इनकी अपनी-अपनी तिथियों, नक्षत्रों, वारों के अनुसार भी की जाती है। कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं, जिनमें किसी भी देवता की प्रतिष्ठा की जा सकती है। देवों की प्रतिष्ठा मुहूर्त कालो की तरह ही युति, वेध, क्रान्तिसाम्य, गुरु-शुक्रास्त, भद्रा आदि सभी दोषों से सर्वथा मुक्त होने चाहिए। देवताओं की प्रतिष्ठा पूर्वाहण (दिन के पूर्वार्ध) में ही की जाती हैं।

‘ॐ ब्रह्मक्षत्राय विद्महे क्षत्रियान्ताय धीमहि तन्नो राम: प्रचोदयात्।। ‘ ‘ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात्।। ‘

भगवान परशुराम जी की तिथि शुक्ल तृतीया है।

श्री परशुराम प्रतिष्ठा मुहूर्त 2024

प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
15 अप्रैलसूर्योदय से दोपहर 12:12 तक, अभिजित्, 
11 जुलाईदोपहर 01:04 के बाद
12 जुलाईसुबह 07:09 के बाद,
विशेष:- सुबह 08:13 से सुबह 10:33 तक, अभिजित्
 सन् 2025
प्रारंभ काल-तारीख मुहूर्त का समय-घं.मि.
15 जनवरीसुबह 09:01 से सुबह 10:28 तक
19 जनवरीसुबह 08:46 से सुबह 10:11 तक,
सुबह 11:33 से दोपहर 01:06 तक, अभिजित्, केतुयुति परिहार
22 जनवरीपूरा दिन
24 जनवरीसुबह 08:26 से सुबह 09:51 तक, 
सुबह 11:14 से दोपहर 12:46 तक, अभिजित्, मृत्युबाण एवं भद्रा परिहार
31 जनवरीपूरा दिन
07 फरवरीपूरा दिन
10 फरवरीसुबह 07:19 से सुबह 08:44 तक,
सुबह 10:07 से सुबह 11:39 तक, अभिजित्, भौमयुति परिहार
15 फरवरीसूर्योदय से सुबह 10:52 तक, केतुयुति परिहार 
19 फरवरीसूर्योदय से सुबह 10:40 तक 
21 फरवरीपूरा दिन
23 फरवरीसुबह 09:16 से दोपहर 12:43 तक, अभिजित्
26 फरवरीसूर्योदय से सुबह 11:09 तक
06 मार्चसूर्योदय से सुबह 10:59 तक
Frame
Lord Parshuram
Frame
Lord Parshuram Murti Sthapana Shubh Muhurat
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श्री गौरी देवी मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा मुहूर्त | Maa Gauri Murti Sthapana Shubh Muhurat

 

श्री गौरी देवी मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा विशेष मुहूर्त | Maa Gauri ji Murti Sthapana Shubh Muhurat

देवों की प्रतिष्ठा इनकी अपनी-अपनी तिथियों, नक्षत्रों, वारों के अनुसार भी की जाती है। कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं, जिनमें किसी भी देवता की प्रतिष्ठा की जा सकती है। देवों की प्रतिष्ठा मुहूर्त कालो की तरह ही युति, वेध, क्रान्तिसाम्य, गुरु-शुक्रास्त, भद्रा आदि सभी दोषों से सर्वथा मुक्त होने चाहिए। देवताओं की प्रतिष्ठा पूर्वाहण (दिन के पूर्वार्ध) में ही की जाती हैं।

हे गौरी शंकरार्धांगी। यथा त्वं शंकर प्रिया।
तथा मां कुरु कल्याणी, कान्त कान्तां सुदुर्लभाम्।।

गौरी जी की तिथि शुक्ल तृतीया है।

श्री गौरी देवी प्रतिष्ठा मुहूर्त 2024

प्रारंभ काल-तारीखमुहूर्त का समय-घं.मि.
15 अप्रैलसूर्योदय से दोपहर 12:12 तक, अभिजित्
12 जुलाईसुबह 07:09 के बाद,
सुबह 08:13 से सुबह 10:33 तक, अभिजित्
14 जुलाईसुबह 08:05 से सुबह 10:25 तक, अभिजित्
17 जुलाईसुबह 07:56 से सुबह 10:13 तक 
22 जुलाईसुबह 07:33 से सुबह 09:53 तक,
दोपहर 12:11 से दोपहर 02:33 तक, अभिजित्
29 जुलाईसुबह 10:55 के बाद
31 जुलाईसुबह 06:58 से सुबह 09:18 तक,
सुबह 11:36 से दोपहर 02:14 तक, रोहिण्यां भौमयुति परिहार
01 अगस्तसूर्योदय से सुबह 10:24 तक
11 अगस्तसूर्योदय से सुबह 10:12 तक,
सुबह 10:12 के बाद क्रान्तिसाम्य दोष
12 अगस्तसूर्योदय से सुबह 08:33 तक, भद्रा परिहार
14 अगस्तसूर्योदय से शाम 04:06 तक
19 अगस्तसुबह 08:10 के बाद, भद्रा परिहार
26 अगस्तसुबह 09:54 से दोपहर 02:35 तक, अभिजित्
28 अगस्तसुबह 09:46 से दोपहर 02:27 तक, भौमयुति परिहार
08 सितंबरसुबह 09:02 से दोपहर 01:44 तक, अभिजित्
11 सितंबरसुबह 08:51 से दोपहर 01:32 तक, भद्रा परिहार
12 सितंबरसुबह 08:47 से दोपहर 01:28 तक, अभिजित्
07 अक्टूबरसुबह 09:30 से सुबह 11:50 तक, अभिजित्
12 अक्टूबरसुबह 06:59 से सुबह 11:30 तक अभिजित्
21 अक्टूबरसूर्योदय से सुबह 11:11 तक,
सुबह 11:11 से दोपहर 02:11 तक, परिघ-दोष
24 अक्टूबरसुबह 08:23 से दोपहर 12:48 तक, अभिजित्
25 अक्टूबरसूर्योदय से सुबह 07:40 तक
03 नवंबरसुबह 07:44 से दोपहर 12:09 तक, अभिजित्
04 नवंबरसूर्योदय से सुबह 08:04 तक
06 नवंबरसुबह 07:32 से सुबह 11:57 तक 
09 नवंबरसुबह 07:20 से सुबह 11:45 तक  अभिजित्, भद्रा परिहार
17 नवंबरसुबह 09:09 से सुबह 11:13 तक, अभिजित्, मृत्यु परिहार
18 नवंबरसुबह 09:05 से दोपहर 12:50 तक, अभिजित्, भद्रा परिहार
27 नवंबरसुबह 08:30 से दोपहर 12:15 तक
06 दिसंबरसूर्योदय से सुबह 10:43 तक
13 दिसंबरसुबह 07:27 से सुबह 11:12 तक, अभिजित्
 सन् 2025
प्रारंभ काल-तारीखमुहूर्त का समय-घं.मि.
15 जनवरीसुबह 09:01 से सुबह 10:28 तक
22 जनवरीसुबह 08:34 से सुबह 09:59 तक,
सुबह 11:21 से दोपहर 12:54 तक
24 जनवरीसुबह 08:26 से सुबह 09:51 तक,
सुबह 11:14 से दोपहर 12:46 तक, अभिजित्, मृत्युबाण एवं भद्रा परिहार
25 जनवरीसुबह 08:22 से सुबह 09:47 तक,
सुबह 11:10 से दोपहर 12:42 तक, अभिजित्
26 जनवरीसूर्योदय से सुबह 08:26 तक
06 फरवरीसुबह 10:22 से सुबह 11:55 तक, अभिजित्
07 फरवरीसुबह 07:31 से सुबह 08:56 तक,
सुबह 10:19 से सुबह 11:51 तक, अभिजित्
19 फरवरीसूर्योदय से सुबह 10:40 तक
21 फरवरीसुबह 09:23 से दोपहर 12:51 तक, अभिजित्
22 फरवरीसुबह 09:20 से दोपहर 12:47 तक, अभिजित्
06 मार्चसूर्योदय से सुबह 11:09 तक, अभिजित्
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Maa Gauri
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Maa Gauri Murti Sthapana Shubh Muhurat
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Goddess Gauri Maa Pratishta muhrat | Gauri Maa pratishtha muhurat | Auspicious Time for Gauri Maa sthapana | Maa Gauri Sthapana Shubh Muhurat | मंदिर में गौरी दुर्गा प्रतिमा (मूर्ति) स्थापना मुहूर्त | देवी गौरी स्थापना पूजा | देवप्रतिष्‍ठा मुहूर्त | प्राण प्रतिष्ठा मुहूर्त | Maa Gauri pran patishtha muhurat April 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat May 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat June 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat July 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat August 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat September 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat October 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat November 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat December 2024 | Maa Gauri pran patishtha muhurat January 2025 | Maa Gauri pran patishtha muhurat February 2025 | Maa Gauri pran patishtha muhurat March 2025

विद्यारम्भ-मुहूर्त्त | Shubh Muhurat To Start New Subject (Higher Studies)

Vidyarambh

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बच्चे को वर्णमाला का ज्ञान करवाने के लिए अक्षरारम्भ के और संस्कृत, अंग्रेजी, गणित, रसायन आदि विषयों का अध्ययन प्रारम्भ करने के लिए विद्यारम्भ के मुहूर्तों का प्रयोग करना चाहिए।

विद्यारम्भ संस्कार-मृगात्कराच्छ्रुतेस्त्रयेऽश्विमूलपूर्विकात्रये।
गुरुद्वयेऽर्कजीववित्सितेऽह्नि षट्शरत्रिके॥
शिवार्कदिग्द्विके तिथौ ध्रवान्त्यमित्रभे परैः।
शुभैरधीतिरूत्तमा त्रिकोणकेन्द्रगैः स्मृता॥

अर्थ- मृगशिरा, हस्त और श्रवण से तीन- तीन नक्षत्र अर्थात् मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी, मूल, तीनों पूर्वा, पुष्य से दो अर्थात् पुष्य आश्लेषा नक्षत्रों में, रवि, गुरु, बुध और शुक्र वासरों में, षष्ठी, पंचमी, तृतीया, एकादशी, द्वादशी, दशमी एवं द्वितीया तिथियों में शुभग्रहों के केंद्र व त्रिकोण 1, 4, 7, 10, 5, 9 भावों में स्थित रहने पर कुछ विद्वानों के मतानुसार ध्रुवसंज्ञक तीनों उत्तरा, रोहिणी, रेवती और अनुराधा नक्षत्रों में भी विद्याध्ययन का आरंभ करना शुभ होता है।

वर्णमाला गणितादि में बालक परिपक्व हो जाने पर भविष्यत् आजीविका प्रदात्री कोई विशेष या सर्वसामान्य विद्या का शुभारंभ करना चाहिये।

ज्योतिष गणितारंभ मुहूर्त्त | Starts Learning Jyotish Ganit Muhurat

वार- बुधवार एवं गुरुवार।

नक्षत्र- रोहिणी, आर्द्रा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, शतभिषा, पू०भा० एवं रेवती।

व्याकरणारम्भ मुहूर्त | Starts Learning Grammar Muhurat

वार- बुधवार, गुरुवार एवं शुक्रवार

नक्षत्र- अश्विनी, रोहिणी, मृगऋ पुन० ह० चि० स्वा० वि० अनु०।

न्यायशास्त्रारम्भ मुहूर्त्त | Starts Learning Nayay Shastra Muhurat

वार- बुधवार, गुरुवार एवं शुक्रवार

नक्षत्र- अश्विनी, रो०, पुन०,पु०, तीनों उत्तरा, स्वाती, श्र० श०।

धर्मशास्त्रारम्भ मुहूर्त्त | Starts Learning Dharmshastra Muhurat

वार- बुधवार, गुरुवार एवं शुक्रवार

नक्षत्र- अश्विनी, मृ० पु०, ह०, चि०, स्वा० अनु०, श्र० ध० श० रे०।

संगीतारम्भ मुहूर्त्त | Starts Learning Sangeet (Music) Muhurat

वार-चंद्रवार, बुधवार, गुरुवार एवं शुक्रवार। वाद्यारंभ में रविवार भी

नक्षत्र- रोहिणी, मृ० पु० तीनों उत्तरा, हस्त्र, अनु० ज्ये० ध० शत० रे०।

वेदमंत्रारंभ मुहूर्त्त | Starts Learning Vedas Muhurat

मास- अश्विन

तिथि- 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 शु०

नक्षत्र- अश्विनी, मृ०, आ०, पुन०, श्ले, तीनों पूर्वा, ह० चि० स्वा० श्र० ध० श०।

चित्रकलारंभ मुहूर्त्त | Starts Learning Arts Muhurat

वार- चन्द्रवार, बुध, गुरु एवं शुक्रवार

नक्षत्र-अश्विनी, आ०, पुन०, ह०, चि०, स्वा० अनु०, श्र० रेवती।

 विद्यारम्भ-मुहूर्त्त -2024

प्रारंभ काल – तारीख

प्रारंभ काल – घं.मि.

समाप्ति काल – घं.मि.

14 अप्रैल 

सूर्योदय से

सुबह 11:44 तक

17 अप्रैल

दोपहर 03:14 से

सूर्यास्त तक

18 अप्रैल

सूर्योदय से

सुबह 07:56 तक

 

सन्- 2025

 

प्रारंभ काल – तारीख

प्रारंभ काल – घं.मि.

समाप्ति काल – घं.मि.

15 जनवरी

सूर्योदय से

सुबह 10:28 तक

15 जनवरी

सुबह 10:28 से

सूर्यास्त तक

16 जनवरी

सूर्योदय से

सुबह 11:16 तक

19 जनवरी 

सूर्योदय से

शाम 05:30 तक, केतुयुति परिहार

31 जनवरी

सूर्योदय से

दोपहर 03:32 तक

07 फरवरी

सूर्योदय से

शाम 04:16 तक

09 फरवरी

सूर्योदय से

सूर्यास्त तक

14 फरवरी  

सूर्योदय से

सूर्यास्त तक

19 फरवरी

सूर्योदय से

सुबह 07:32 तक

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अक्षरारम्भ मुहूर्त्त | Shubh Muhurat to Start School For The First Time

Akshra Arambh

Akshra Arambh

अक्षरारम्भ-मुहूर्त्त | Akshra Arambh Muhurat

बच्चे को वर्णमाला का ज्ञान करवाने के लिए अक्षरारम्भ के और संस्कृत, अंग्रेजी, गणित, रसायन आदि विषयों का अध्ययन प्रारम्भ करने के लिए विद्यारम्भ के मुहूर्तों का प्रयोग करना चाहिए।

हिंदू धर्म में 16 संस्कारों में एक विद्यारंभ संस्कार भी है। यह संस्कार बच्चे के 4 से 5 वर्ष के उम्र में किया जाता है। क्योंकि इस उम्र में बच्चे अच्छी तरह से बोलना और समझना सीख जाते हैं। इसलिए उन बच्चों का विद्यालय में नाम दाखिल किया जाता है। बच्चों का नाम विद्यालय में दाखिल करने लिए शुभ मुहूर्त का भी होना अति आवश्यक है। क्योंकि जो भी कार्य शुभ मुहूर्त में किया जाता है। उसका परिणाम अति सुख प्राप्त होता है।

गणेश विष्णु वाग्रमाः प्रपूज्य पंचमाब्दके।
तिथौ शिवार्कदिकद्विषटशरत्रिके रवावुदक्॥
लघुश्रवोऽनिलान्त्यभादितीशतक्षमित्रभे।
चरोनसत्तनौ शिशोर्लिपिग्रहः सतां दिने॥

अर्थ- गणेश, विष्णु, सरस्वती और लक्ष्मी का विधिवत् पूजन कर पाँचवें वर्ष में, एकादशी, द्वादशी, दशमी, द्वितीया, षष्ठी, पंचमी एवं तृतीया तिथियों में सूर्य के उत्तरायण रहने पर लघुसंज्ञक (हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजीत् श्रवण, स्वाती, रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चित्रा तथा अनुराधा) नक्षत्रों में चर लग्नों (1, 4, 7, 10) को छोड़कर शुभग्रहों के लग्नों (2, 3, 4, 6, 7, 9, 12) में शुभग्रहों के (चंद्रवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार) वारों में बालकों को अक्षरारम्भ कराना चाहिये।

बालकों को पाँच वर्ष की अवस्था में सम्प्राप्त हो जाने पर अधोवर्णित विशुद्ध दिन को विघ्नविनायक, शारदा, लक्ष्मी नारायण, गुरु एवं कुल देवता की पूजा के साथ उसे लिखने पढ़ने का श्रीगणेश करवाना चाहिये।

विशेष- उपर्युक्त देवताओं के नाम से घृत हवन करे तथा ब्राह्मणों को दक्षिणादि देकर संतुष्ट करना चाहिये। बालक का चंद्र-बुध बल अपेक्षित है।

अक्षरारम्भ-मुहूर्त्त- 2025

प्रारंभ काल – तारीख

प्रारंभ काल – घं.मि.

समाप्ति काल – घं.मि.

19 फरवरी

सूर्योदय से

सुबह 07:32 तक

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मुंडन (चूड़ाकर्म ) संस्कार शुभ मुहूर्त | Mundan Ceremony Vidhi Shubh Muhurat

Chudakarm Mundan Sanskar

Chudakarm Mundan Sanskar

सनातन धर्म के सोलह संस्कारों में से आठवां संस्कार (चूड़ाकर्म/ मुंडन संस्कार)

सनातन संस्कृति में मनुष्य जीवन के कुल सोलह संस्कार होते हैं, जिनमें से मुंडन संस्कार अथवा चूड़ाकर्म संस्कार आठवां संस्कार होता है। इस संस्कार में शिशु को जन्म के दोषों से संपूर्ण रूप से मुक्ति मिल जाती है तथा अब वह पूरी तरह से पवित्र हो जाता है। मुंडन (चूड़ाकर्म) संस्कार में शिशु को जन्म के समय मिले केश/ सिर के बाल काट दिए जाते है जिससे उसकी बौद्धिक क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

मुंडन संस्कार क्या होता है? (Mundan Sanskar Kya Hai)

मुंडन का अर्थ होता है सिर के बालों को पूरी तरह से काटना। यह वे बाल होते हैं जो शिशु अपनी माँ के गर्भ से लेकर आता है। मुंडन संस्कार करके माँ के गर्भ से मिले बालों को उतार दिया जाता हैं जिससे वह सभी प्रकार के मलिन दोषों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है।

शिखा की व्यवस्था

शिखा छिन्दन्ति ये मोहात् द्वेषादज्ञानतोऽपि वा।
तप्तकृच्च्रेण शुध्यन्ति त्रायो वर्णा द्विजातयः- लघुहारित

चूड़ाकरण का शास्त्रीय आधार था दीर्घायुष्य की प्राप्ति।

सुश्रुत ने (जो विश्व के प्रथम शीर्षशल्य चिकित्सक थे) इस सम्बन्ध में बताया है कि-

मस्तक के भीतर ऊपर की ओर शिरा तथा संधि का सन्निपात है वहीं रोमवर्त में अधिपति है। यहां पर तीव्र प्रहार होने पर तत्काल मृत्यु संभावित है। शिखा रखने से इस कोमलांग की रक्षा होती है। इससे मस्तिष्ट का ज्ञान वहां पर केन्द्रित होता है तथा उसे ठंडा रखने में भी सहायता मिलती है।

बच्चों के केश कटवाने के पश्चात सिर पर दही, शहद, मक्खन इत्यादि का लेप किया जाता है जिससे उसे ठंडक प्राप्त हो। इसके पश्चात उसे स्नान करवाया जाता है। उसके बालों को धार्मिक स्थल, नदी इत्यादि में छोड़ दिया जाता है।

मुण्डन मुहूर्त

गर्भाधान काल से या जन्म काल से विषम अर्थात 1, 3,5,7 वर्ष में चैत्र को छोड़कर; उत्तरायण सूर्य में चंद्र, बुध, गुरु और शुक्रवार, लग्न तथा नवांशक में; जन्म राशि या जन्मलग्न से अष्टम लग्न को छोड़कर 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तिथियों में संक्रांति दिन को छोड़कर; जब लग्न से आठवां स्थान शुद्ध (ग्रह रहित) हो, 3, 6, 11 स्थानों में पाप ग्रह हों; ज्येष्ठ, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित नक्षत्रों में मुण्डन शुभ है।

निषिद्ध काल-गर्भिण्यां मातरि शिशोः क्षौर कर्म न कारयेत्-

लड़के की माता को पांच मास का गर्भ हो तो मुण्डन निषिद्ध है, परंतु 5 वर्ष से अधिक अवस्था के बालक के लिए निषेध नहीं है। जेठे लड़के का मुण्डन ज्येष्ट मास में नहीं करना चाहिए।

इसके अतिरिक्त भी मुहूर्त निर्णय के समय-निषिद्ध काल को त्यागना चाहिए।

मुण्डन कर्म में विशेष- स्वकुल-शिष्टाचारानुसार उपरोक्त नक्षत्र, तिथ्यादि, शुभ समय में अपने-अपने इष्ट देव के स्थानों में मुंडन संस्कार करना चाहिए। किसी देवस्थल / तीर्थ पर बिना मुहूर्त के भी मुंडन करवाना शुभ माना गया है। नवरात्रों के दिनों में भी शक्तिपीठों (देवी-मंदिरों) के समीप मुंडन करवाने की पंजाब, हिमाचल आदि प्रदेशों में पुरानी परंपरा है।

Mundan Shubh Muhurat

 मुण्डन-मुहूर्त्त (सन् 2024)

प्रारंभ काल-तारीखमुहूर्त का समय-घं.मि.
15 अप्रैलसूर्योदय से दोपहर 12:12 तक, अभिजित्, 
16 अप्रैलसुबह 07:24 से सुबह 11:33 तक, अभिजित्, क्षत्रियाणां केवल
03 अक्टूबरदोपहर 03:32 के बाद
08 अक्टूबरसुबह 11:46 से दोपहर 01:51 तक, अभिजित्, क्षत्रियाणां केवल
12 अक्टूबरसुबह 10:59 के बाद, 
विशेष:- सुबह 11:30 से दोपहर 01:35 तक, अभिजित्, वैश्यानां केवल
 

सन् 2025

प्रारंभ काल-तारीख

मुहूर्त का समय-घं.मि.

15 जनवरीसूर्योदय से सुबह 10:28 तक
22 जनवरीसुबह 11:21 से दोपहर 02:49 तक, शूल-दोष परिहार
25 जनवरीसुबह 11:10 से दोपहर 12:42 तक, अभिजित्, वैश्यानां केवल
26 जनवरीसूर्योदय से सुबह 08:26 तक, ब्राह्मणों के लिए
31 जनवरीदोपहर 03:32 तक, अभिजित्
04 फरवरीसुबह 10:30 से दोपहर 01:58 तक, अभिजित्, क्षत्रियाणां केवल
10 फरवरीपूरा दिन (भौमयुति परिहार)
18 फरवरीसुबह 07:36 के बाद, 
विशेष:- सुबह 09:35 से दोपहर 01:03 तक, अभिजित्, क्षत्रियाणां केवल
19 फरवरीसूर्योदय से सुबह 10:28 तक, भद्रा पातालगते
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Mundan Ceremony
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Mudan Cermony Shubh Muhurat
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संपूर्ण श्रावण मास का माहात्म्य | Complete Importance of Shravan Maas

Shravan Maas

Shravan Maas

श्रावण मास का आध्यात्मिक महत्त्व | Spiritual Importance of Shravan Maas

श्रावण (Shravan Maas) अथवा सावन हिंदु पंचांग के अनुसार वर्ष का पाँचवा महीना पड़ता है। इसे वर्षा ऋतु का महीना या ‘पावस ऋतु’ भी कहा जाता है, क्योंकि इस समय बहुत वर्षा होती है। इस माह में अनेक महत्त्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं, जिसमें ‘हरियाली तीज’ (Hariyali Teej), ‘रक्षाबन्धन’ (Rakshabdhan), ‘नागपंचमी’ (Nag Pachami) आदि प्रमुख हैं। ‘श्रावण पूर्णिमा’ (Sawan Purnima) को दक्षिण भारत में ‘नारियली पूर्णिमा’ (Nariyali Purnima) व ‘अवनी अवित्तम’, मध्य भारत में ‘कजरी पूनम’, उत्तर भारत में ‘रक्षाबंधन’ (Rakshabdhan) और गुजरात में ‘पवित्रोपना’ के रूप में मनाया जाता है। त्योहारों की विविधता ही तो भारत की विशिष्टता की पहचान है। ‘श्रावण’ (Shravan Maas) यानी सावन माह (Sawan Maas) में भगवान शिव की अराधना का विशेष महत्त्व है। इस माह में पड़ने वाले सोमवार “सावन के सोमवार” (Sawan Somvar) कहे जाते हैं, जिनमें स्त्रियाँ तथा विशेषतौर से कुंवारी युवतियाँ भगवान शिव (Lord Shiv) के निमित्त व्रत आदि रखती हैं।

सावन माह की पौराणिक कथा | A Pauranik Katha

जब सनत कुमारों ने भगवान शिव (Lord Shiva) से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ (Bhagwan Bholenath) ने बताया कि जब देवी सती (Devi Sati) ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती (Devi Sati) ने महादेव (MahaDev) को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती (Maa Paravti) के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती (Devi Paravati) ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिव (Lord Shiv) को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव (Mahadev) के लिए यह विशेष हो गया।

एक अन्य कथा | One Story

मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे।

भगवान शिव (Lord Shiv) को सावन का महीना (Shravan Month) प्रिय होने का अन्य कारण यह भी है कि भगवान शिव सावन के महीने (Sawan Maas) में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह (Shravan Month) में भगवान शिव (Lord Shiva) अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।

पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावन मास (Sawan Maas) में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर (Bhagwan Shakar) ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की; लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम ‘नीलकंठ महादेव’ (Nilkanth MahaDev) पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग (Shivling) पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास (Shrawan Maas) में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। ‘शिवपुराण’ (Shiv Puran) में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।

शास्त्रों में वर्णित है कि सावन महीने में भगवान विष्णु (Lord Vishnu) योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे ‘चौमासा’ भी कहा जाता है; तत्पश्चात सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।

शिव की पूजा | Puja of Lord Shiva

सावन मास (Sawan Maas) में भगवान शंकर (Lord Shiva) की पूजा उनके परिवार के सदस्यों संग करनी चाहिए। इस माह में भगवान शिव (Lord Shiv) bके ‘रुद्राभिषेक’ का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस मास में प्रत्येक दिन ‘रुद्राभिषेक’ किया जा सकता है, जबकि अन्य माह में शिववास का मुहूर्त देखना पड़ता है। भगवान शिव (Lord Shiva) के रुद्राभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी, गंगाजल तथा गन्ने के रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, शमीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं। अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रूप में चढा़या जाता है।

शिवलिंग (Shivling) पर बेलपत्र तथा शमीपत्र चढा़ने का वर्णन पुराणों में भी किया गया है। बेलपत्र भोलेनाथ को प्रसन्न करने के शिवलिंग पर चढा़या जाता है।

‘आक’ का एक फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सोने के दान के बराबर फल मिलता है। हज़ार आक के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों को चढ़ाने की अपेक्षा एक बिल्व पत्र से दान का पुण्य मिल जाता है। हज़ार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी होते हैं। हज़ार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हज़ार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हज़ार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हज़ार शमी के पत्तों के बराकर एक नीलकमल, हज़ार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हज़ार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

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अठारहवाँ अध्याय – मोक्षसंन्यासयोग | Shrimad Bhagwat Gita Download Free PDF

Moksha Sannyasa Yoga

Moksha Sannyasa Yoga

अठारहवाँ अध्याय – मोक्षसंन्यासयोग

Chapter 18 – Moksha Sannyasa Yoga

 

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अठारहवाँ अध्याय का माहात्म्य

Chapter 18 – Mahatmya

श्रीपार्वतीजी ने कहाः- भगवन् ! आपने सत्रहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया। अब अठारहवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन कीजिए।

श्रीमहादेवजी न कहाः- गिरिनन्दिनी ! चिन्मय आनन्द की धारा बहाने वाले अठारहवें अध्याय के पावन माहात्म्य को जो वेद से भी उत्तम है, श्रवण करो। वह सम्पूर्ण शास्त्रों का सर्वस्व, कानों में पड़ा हुआ रसायन के समान तथा संसार के यातना-जाल को छिन्न-भिन्न करने वाला है। सिद्ध पुरुषों के लिए यह परम रहस्य की वस्तु है। इसमें अविद्या का नाश करने की पूर्ण क्षमता है। यह भगवान विष्णु की चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परम पद है। इतना ही नहीं, यह विवेकमयी लता का मूल, काम-क्रोध और मद को नष्ट करने वाला, इन्द्र आदि देवताओं के चित्त का विश्राम-मन्दिर तथा सनक-सनन्दन आदि महायोगियों का मनोरंजन करने वाला है। इसके पाठमात्र से यमदूतों की गर्जना बन्द हो जाती है। पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है, जो संतप्त मानवों के त्रिविध ताप को हरने वाला और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला हो। अठारहवें अध्याय का लोकोत्तर माहात्म्य है। इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्तिपूर्वक सुनो। उसके श्रवणमात्र से जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था। उस पुरी में देवताओं द्वारा सेवित इन्द्र शची के साथ निवास करते थे। एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के दूतों से सेवित एक अन्य पुरुष वहाँ आ रहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुष के तेज से तिरस्कृत होकर तुरन्त ही अपने मणिमय सिंहासन से मण्डप में गिर पड़े। तब इन्द्र के सेवकों ने देवलोक के साम्राज्य का मुकुट इस नूतन इन्द्र के मस्तक पर रख दिया। फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवांगनाओं के साथ सब देवता उनकी आरती उतारने लगे। ऋषियों ने वेदमंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। गन्धर्वों का ललित स्वर में मंगलमय गान होने लगा।

इस प्रकार इस नवीन इन्द्र का सौ यज्ञों का अनुष्ठान किये बिना ही नाना प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पुराने इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगेः ‘इसने तो मार्ग में न कभी पौंसले (प्याऊ) बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये है और न पथिकों को विश्राम देने वाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़ने पर अन्न दान के द्वारा इसने प्राणियों का सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थों में सत्र और गाँवों में यज्ञ का अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्य की दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की हैं? इस चिन्ता से व्याकुल होकर इन्द्र भगवान विष्णु से पूछने के लिए प्रेमपूर्वक क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से भ्रष्ट होने का दुःख निवेदन करते हुए बोलेः
‘लक्ष्मीकान्त ! मैंने पूर्वकाल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उसी के पुण्य से मुझे इन्द्रपद की प्राप्ति हुई थी, किन्तु इस समय स्वर्ग में कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्म का अनुष्ठान किया है न यज्ञों का फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासन पर कैसे अधिकार जमाया है?’

श्रीभगवान बोलेः- इन्द्र ! वह गीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ करता है। उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्य को प्राप्त कर लिया है। गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ सब पुण्यों का शिरोमणि है। उसी का आश्रय लेकर तुम भी पद पर स्थिर हो सकते हो।

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर और उस उत्तम उपाय को जानकर इन्द्र ब्राह्मण का वेष बनाये गोदावरी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने कालिकाग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं। वही गोदावर तट पर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे। वे अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का स्वाध्याय किया करते थे। उन्हें देखकर इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके दोनों चरणों में मस्तक झुकाया और उन्हीं अठारहवें अध्याय को पढ़ा। फिर उसी के पुण्य से उन्होंने श्री विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया। इन्द्र आदि देवताओं का पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम हर्ष के साथ उत्तम वैकुण्ठधाम को गये। अतः यह अध्याय मुनियों के लिए श्रेष्ठ परम तत्त्व है। पार्वती ! अठारहवे अध्याय के इस दिव्य माहात्म्य का वर्णन समाप्त हुआ। इसके श्रवण मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गीता का पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया। महाभागे ! जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है, वह समस्त यज्ञों का फल पाकर अन्त में श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

।। अथाष्टादशोऽध्यायः ।। | Chapter 18

॥ अर्जुन उवाच ॥

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।1।।

अर्जुन बोलेः हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक-पृथक जानना चाहता हूँ।

॥ श्रीभगवानुवाच ॥

काम्यानां कर्मणां न्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।2।।

श्री भगवान बोलेः कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।(2)

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।3।।

कुछेक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।(3)

निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः।।4।।

हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्त्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है।(4)

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।5।।

यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं हैं, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं।(5)

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चतं मतमुत्तमम्।।6।।

इसलिए हे पार्थ ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए; यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।(6)

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।7।।

(निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है।) परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।(7)

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।8।।

जो कुछ कर्म है, वह सब दुःखरूप ही है, ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता।(8)

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गत्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।9।।

हे अर्जुन ! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है – इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है वही सात्त्विक त्याग माना गया है।(9)

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।10।।

जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता – वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।(10)

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।11।।

क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है – यह कहा जाता है।(11)

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।12।।

कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ – ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।(12)

पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।13।।

हे महाबाहो ! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अन्त करने के लिए उपाय बतलाने वाले साख्यशास्त्र में कहे गये हैं, उनको तू मुझसे भली भाँति जान।(13)

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।।14।।

इस विषय में अर्थात् कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण और नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव है।(14)

शरीरवाङ् मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतवः।।15।।

मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है – उसके ये पाँचों कारण हैं।(15)

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।16।।

परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलिन बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।(16)

यस्य नांहकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।17।।

जिस पुरुष के अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लेपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है।(17)

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मकंग्रहः।।18।।

ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय – ये तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता, करण तथा क्रिया ये तीन प्रकार का कर्म संग्रह है।(18)

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।19।।

गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भली भाँति सुन।(19)

सर्वभूतेष येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।20।।

जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान।(20)

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।21।।

किन्तु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान।(21)

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।22।।

परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है – वह तामस कहा गया है।(22)

नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।23।।

जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो – वह सात्त्विक कहा जाता है। (23)

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्रजासमुदाहृतम्।।24।।

परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है।(24)

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।25।।

जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।(25)

मुक्तंसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।26।।

जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है – वह सात्त्विक कहा जाता है।(26)

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।27।।

जो कर्ता आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है – वह राजस कहा गया है।(27)

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।28।।

जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है – वह तामस कहा जाता है।(28)

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय।।29।।

हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन।(29)

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30।।

हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है – वह बुद्धि सात्त्विकी है।(30)

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31।।

हे पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32।।

हे अर्जुन ! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है।(32)

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।33।।

हे पार्थ ! जिस अव्यभिचारिणी धारणशक्ति से मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है।(33)

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसंगेन फलाकांक्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।34।।

परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन ! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारणशक्ति राजसी है। (34)

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।35।।

हे पार्थ ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात् धारण किये रहता है – वह धारणशक्ति तामसी है।(35)

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यसाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।36।।
यत्तदग्रे विषमिद परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।37।।

हे भरतश्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है – जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है। इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।(36, 37)

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।38।।

जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है, इसलिए वह सुख राजस कहा गया है।(38)

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।39।।

जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है – वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।(39)

न तदस्ति पृथिव्यां व दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः।।40।।

पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी वह ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।(40)

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।41।।

हे परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं।(41)

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।42।।

अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद,-शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना – ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।(42)

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।43।।

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामीभाव – ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।(43)

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।44।।

खेती, गौपालन और क्रय-विक्रयरूप सत्य व्यवहार – ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।(44)

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।45।।

अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता, उस विधि को तू सुन।(45)

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।46।।

जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।(46)

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥47॥

अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता।(47)

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।48।।

अतएव हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धुएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।(48)

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।49।।

सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है।(49)

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।50।।

जो कि ज्ञानयोग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार हे कुन्तीपुत्र ! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ।(50)

बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥51॥

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।52।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।53।।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममता रहित और शान्तियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है।(51, 52, 53)

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।54।।

फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभावना वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।(54)

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।55।।

उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।(55)

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद् व्यापाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।56।।

मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।(56)

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।।57।।

सब कर्मों का मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धिरूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो।(57)

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।58।।

उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायेगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायेगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायेगा।(58)

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।59।।

जो तू अहंकार का आश्रय न लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करुँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा।(59)

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।60।।

हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा।(60)

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानिं यंत्रारूढानि मायया।।61।।

हे अर्जुन ! शरीररूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।(61)

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।62।।

हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।(62)

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यद् गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।63।।

इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचारकर, जैसे चाहता है वैसे ही कर।(63)

सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।64।।

सम्पूर्ण गोपनियों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा।(64)

मन्मना भव मद् भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।65।।

हे अर्जुन ! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।(65)

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।66।।

सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।(66)

इदं ते नातपस्काय नाभाक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।67।।

तुझे यह गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति रहित से और न बिना सुनने की इच्छावाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है उससे तो कभी नहीं कहना चाहिए।(67)

य इमं परमं गुह्यं मद् भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय़ः।।68।।

जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों से कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा – इसमें कोई सन्देह नहीं।(68)

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।69।।

उससे बढ़कर मेरा कोई प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।(69)

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।70।।

जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा – ऐसा मेरा मत है।(70)

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तःशुर्भौल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।71।।

जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र को श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।(71)

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय।।72।।

हे पार्थ ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?(72)

॥ अर्जुन उवाच ॥

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रासादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।73।।

अर्जुन बोलेः हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।(73)

॥ संजय उवाच ॥

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।74।।

संजय बोलेः इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना।(74)

व्यासप्रासादाच्छ्रुतवानेतद् गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।75।।

श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है।(75)

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद् भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।76।।

हे राजन ! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त कल्याणकारक और अदभुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।(76)

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः।।77।।

हे राजन ! श्री हरि के उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।(77)

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।78।।

हे राजन ! जहाँ योगेवश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है।(78)

ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ।।18।।

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।

Sampuran Bhagwat Gita

पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग | दूसरा अध्याय – सांख्ययोग | तीसरा अध्याय – कर्मयोग | चौथा अध्याय – ज्ञानकर्मसन्यासयोग | पाँचवाँ अध्याय – कर्मसंन्यासयोग | छठा अध्याय – आत्मसंयमयोग | सातवाँ अध्याय – ज्ञानविज्ञानयोग | आठवाँ अध्याय – अक्षरब्रह्मयोग | नौवाँ अध्याय – राजविद्याराजगुह्ययोग | दसवाँ अध्याय – विभूतियोग | ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोग | बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग | तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग | चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रयविभागयोग | पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तमयोग | सोलहवाँ अध्याय – दैवासुरसंपद्विभागयोग | सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग | अठारहवाँ अध्याय- मोक्षसंन्यासयोग

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