कार्तिक माह माहात्म्य अठ्ठाईसवाँ अध्याय | Chapter -28 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 28

कार्तिक माह के माहात्म्य का अठ्ठाईसवाँ अध्याय

Chapter – 28

 

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पढ़े सुने जो प्रेम से, वह हो जाये शुद्ध स्वरुप।
यह अठ्ठाईसवाँ अध्याय कार्तिक कथा अनूप।।

धर्मदत्त ने पूछा – मैंने सुना है कि जय और विजय भी भगवान विष्णु के द्वारपाल हैं । उन्होंने पूर्वजन्म में ऐसा कौन सा पुण्य किया था जिससे वे भगवान के समान रूप धारण कर के वैकुण्ठधाम के द्वारपाल हुए?

दोनों पार्षदों ने कहा – ब्रह्मन! पूर्वकाल में तृणविन्दु की कन्या देवहूति के गर्भ से महर्षि कर्दम की दृष्टिमात्र से दो पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें से बड़े का नाम जय और छोटे का नाम विजय हुआ । पीछे उसी देवहूति के गर्भ से योगधर्म के जानने वाले भगवान कपिल उत्पन्न हुए । जय और विजय सदा भगवान की भक्ति में तत्पर रहते थे। वे नित्य अष्टाक्षर मन्त्र का जप और वैष्णव व्रतों का पालन करते थे । एक समय राजा मरुत्त ने उन दोनों को अपने यज्ञ में बुलाया । वहां जय ब्रह्मा बनाए गए और विजय आचार्य । उन्होंने यज्ञ की सम्पूर्ण विधि पूर्ण की । यज्ञ के अन्त में अवभृथस्थान के पश्चात राजा मरुत्त ने उन दोनों को बहुत धन दिया।

धन लेकर दोनों भाई अपने आश्रम पर गये । वहाँ उस धन का विभाग करते समय दोनों में परस्पर लाग-डाँट पैदा हो गई । जय ने कहा – इस धन को बराबर-बराबर बाँट लिया जाये । विजय का कहना था – नहीं, जिसको जो मिला है वह उसी के पास रहे तब जय ने क्रोध में आकर लोभी विजय को शाप दिया – तुम ग्रहण कर के देते नहीं हो इसलिए ग्राह अर्थात मगरमच्छ हो जाओ।

जय के शाप को सुनकर विजय ने भी शाप दिया – तुमने मद से भ्रान्त होकर शापो दिया है इसलिए तुम मातंग अर्थात हाथी की योनि में जाओ । तत्पश्चात उन्होंने भगवान से शाप निवृति के लिए प्रार्थना की । श्री भगवान ने कहा – तुम मेरे भक्त हो तुम्हारा वचन कभी असत्य नहीं होगा । तुम दोनों अपने ही दिये हुए इन शापों को भोगकर फिर से मेरे धाम को प्राप्त होगे।

ऐसा कहकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर वे दोनों गण्ड नदी के तट पर ग्राह और गज हो गये । उस योनि में भी उन्हें पूर्वजन्म का स्मरण बना रहा और वे भगवान विष्णु के व्रत में तत्पर रहे । किसी समय वह गजराज कार्तिक मास में स्नान के लिए गण्ड नदी गया तो उस समय ग्राह ने शाप के हेतु को स्मरण करते हुए उस गज को पकड़ लिया । ग्राह से पकड़े जाने पर गजराज ने भगवान रमानाथ का स्मरण किया तभी भगवान विष्णु शंख, चक्र और गदा धारण किये वहां प्रकट हो गये उन्होंने चक्र चलाकर ग्राह और गजराज का उद्धार किया और उन्हें अपने ही जैसा रूप देकर वैकुण्ठधाम को ले गये तब से वह स्थान हरिक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है । वे ही दोनों विश्वविख्यात जय और विजय हैं जो भगवान विष्णु के द्वारपाल हुए हैं।

धर्मदत्त! तुम भी ईर्ष्या और द्वेष का त्याग करके सदैव भगवान विष्णु के व्रत में स्थिर रहो, समदर्शी बनो, कार्तिक, माघ और वैशाख के महीनों में सदैव प्रात:काल स्नान करो । एकादशी व्रत के पालन में स्थिर रहो । तुलसी के बगीचे की रक्षा करते रहो । ऐसा करने से तुम भी शरीर का अन्त होने पर भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होवोगे । भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले तुम्हारे इस व्रत से बढ़कर न यज्ञ हैं न दान है और न तीर्थ ही हैं । विप्रवर! तुम धन्य हो, जिसके व्रत के आधे भाग का फल पाकर यह स्त्री हमारे द्वारा वैकुण्ठधाम में ले जायी जा रही है।

नारद जी बोले – हे राजन! धर्मदत्त को इस प्रकार उपदेश देकर वे दोनों विमानचारी पार्षद उस कलहा के साथ वैकुण्ठधाम को चले गये । धर्मदत्त जीवन-भर भगवान के व्रत में स्थिर रहे और देहावसान के बाद उन्होंने अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वैकुण्ठधाम प्राप्त कर लिया । इस प्राचीन इतिहास को जो सुनता है और सुनाता है वह जगद्गुरु भगवान की कृपा से उनका सान्निध्य प्राप्त कराने वाली उत्तम गति को प्राप्त करता है ।

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