कार्तिक माह माहात्म्य पच्चीसवाँ अध्याय | Chapter -25 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 25

kartik mass chapter 25

कार्तिक माह के माहात्म्य का पच्चीसवाँ अध्याय

Chapter – 25

 

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सुना प्रश्न ऋषियों का और बोले सूतजी ज्ञानी।
पच्चीसवाँ अध्याय में सुनो, श्री हरि की वाणी।।

तीर्थ में दान और व्रत आदि सत्कर्म करने से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं परन्तु तू तो प्रेत के शरीर में है, अत: उन कर्मों को करने की अधिकारिणी नहीं है। इसलिए मैंने जन्म से लेकर अब तक जो कार्तिक का व्रत किया है उसके पुण्य का आधा भाग मैं तुझे देता हूँ, तू उसी से सदगति को प्राप्त हो जा।

इस प्रकार कहकर धर्मदत्त ने द्वादशाक्षर मन्त्र का श्रवण कराते हुए तुलसी मिश्रित जल से ज्यों ही उसका अभिषेक किया त्यों ही वह प्रेत योनि से मुक्त हो प्रज्वलित अग्निशिखा के समान तेजस्विनी एवं दिव्य रूप धारिणी देवी हो गई और सौन्दर्य में लक्ष्मी जी की समानता करने लगी। तदन्तर उसने भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर ब्राह्मण देवता को प्रणाम किया और हर्षित होकर गदगद वाणी में कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! आपके प्रसाद से आज मैं इस नरक से छुटकारा पा गई। मैं तो पाप के समुद्र में डूब रही थी और आप मेरे लिए नौका के समान हो गये।

वह इस प्रकार ब्राह्मण से कह रही थी कि आकाश से एक दिव्य विमान उतरता दिखाई दिया। वह अत्यन्त प्रकाशमान एवं विष्णुरूपधारी पार्षदों से युक्त था। विमान के द्वार पर खड़े हुए पुण्यशील और सुशील ने उस देवी को उठाकर श्रेष्ठ विमान पर चढ़ा लिया तब धर्मदत्त ने बड़े आश्चर्य के साथ उस विमान को देखा और विष्णुरुपधारी पार्षदों को देखकर साष्टांग प्रणाम किया। पुण्यशील और सुशील ने प्रणाम करने वाले ब्राह्मण को उठाया और उसकी सराहना करते हुए कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें साधुवाद है, क्योंकि तुम सदैव भगवान विष्णु के भजन में तत्पर रहते हो, दीनों पर दया करते हो, सर्वज्ञ हो तथा भगवान विष्णु के व्रत का पालन करते हो । तुमने बचपन से लेकर अब तक जो कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उसके आधे भाग का दान देने से तुम्हें दूना पुण्य प्राप्त हुआ है और सैकड़ो जन्मों के पाप नष्ट हो गये हैं । अब यह वैकुण्ठधाम में ले जाई जा रही है। तुम भी इस जन्म के अन्त में अपनी दोनों स्त्रियों के साथ भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में जाओगे और मुक्ति प्राप्त करोगे।

धर्मदत्त! जिन्होंने तुम्हारे समान भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु की आराधना की है वे धन्य और कृतकृत्य हैं। इस संसार में उन्हीं का जन्म सफल है। भली-भांति आराधना करने पर भगवान विष्णु देहधारी प्राणियों को क्या नहीं देते हैं? उन्होंने ही उत्तानपाद के पुत्र को पूर्वकाल में ध्रुवपद पर स्थापित किया था। उनके नामों का स्मरण करने मात्र से समस्त जीव सदगति को प्राप्त होते हैं। पूर्वकाल में ग्राहग्रस्त गजराज उन्हीं के नामों का स्मरण करने से मुक्त हुआ था । तुमने जन्म से लेकर जो भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उससे बढ़कर न यज्ञ है, न दान और न ही तीर्थ है। विप्रवर! तुम धन्य हो क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला कार्तिक व्रत किया है, जिसके आधे भाग के फल को पाकर यह स्त्री हमारे साथ भगवान लोक में जा रही है।

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कार्तिक माह माहात्म्य चौबीसवाँ अध्याय | Chapter -24 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 24

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कार्तिक माह के माहात्म्य का चौबीसवाँ अध्याय

Chapter – 24

 

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लिखवाओ से निज दया से, सुन्दर भाव बताकर।
कार्तिक मास चौबीसवाँ अध्याय सुनो सुधाकर।।

राजा पृथु बोले – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने तुलसी के इतिहास, व्रत, माहात्म्य के विषय में कहा । अब आप कृपाकर मुझे यह बताइए कि कार्तिक मास (Kartik Maas) में क्या और भी देवताओं का पूजन होता है? यह भी विस्तारपूर्वक बताइए। नारद जी बोले – पूर्व काल की बात है । सह्य पर्वत पर करवीकर में धर्मदत्त नामक विख्यात कोई धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे। एक दिन कार्तिक मास (Kartik Maas) में भगवान विष्णु के समीप जागरण करने के लिए वे भगवान के मन्दिर की ओर चले । उस समय एक पहर रात बाकी थी । भगवान के पूजन की सामग्री साथ लिये जाते हुए ब्राह्मण ने मार्ग में देखा कि एक भयंकर राक्षसी आ रही है ।

उसका शरीर नंगा और मांस रहित था । उसके बड़े-बड़े दाँत, लपकती हुई जीभ और लाल नेत्र देखकर ब्राह्मण भय से थर्रा उठे । उनका सारा शरीर कांपने लगा । उन्होंने साहस कर के पूजा की सामग्री तथा जल से ही उस राक्षसी के ऊपर प्रहार किया । उन्होंने हरिनाम का स्मरण कर के तुलसीदल मिश्रित जल से उसको मारा था इसलिए उसका सारा पातक नष्ट हो गया । अब उसे अपने पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुई दुर्दशा का स्मरण हो आया । उसने ब्राह्मण को दण्डवत प्रणाम कर के इस प्रकार कहा – ब्रह्मन्! मैं पूर्व जन्म के कर्मों के फल से इस दशा को पहुंची हूँ । अब मुझे किस प्रकार उत्तम गति प्राप्त होगी?

धर्मदत्त ने उसे इस प्रकार प्रणाम करते देखकर आश्चर्यचकित होते हुए पूछा – किस कर्म के फल से तुम इस दशा को पहुंची हो? कहां की रहने वाली हो? तुम्हारा नाम क्या है और आचार-व्यवहार कैसा है? ये सारी बातें मुझे बताओ।

उस राक्षसी का नाम कलहा था, कलहा बोली – ब्रह्मन! मेरे पूर्व जन्म की बात है, सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नामक एक ब्राह्मण रहते थे, मैं उनकी पत्नी थी । मेरा नाम कलहा था और मैं बड़े क्रूर स्वभाव की स्त्री थी। मैंने वचन से भी कभी अपने पति का भला नहीं किया, उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा । सदा अपने स्वामी को धोखा ही देती रही । मुझे कलह विशेष प्रिय था इसलिए मेरे पति का मन मुझसे सदा उद्विग्न रहा करता था । अन्ततोगत्वा उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करने का निश्चय कर लिया तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिये, फिर यमराज के दूत आये और मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोक में ले गये । वहाँ यमराज ने मुझे देखकर चित्रगुप्त से पूछा – चित्रगुप्त! देखो तो सही इसने कैसा कर्म किया है? जैसा इसका कर्म हो, उसके अनुसार यह शुभ या अशुभ प्राप्त करे।

चित्रगुप्त ने कहा – इसका किया हुआ कोई भी शुभ कर्म नहीं है । यह स्वयं मिठाईयाँ उड़ाती थी और अपने स्वामी को उसमें से कुछ भी नही देती थी । इसने सदा अपने स्वामी से द्वेष किया है इसलिए यह चमगादुरी होकर रहे तथा सदा कलह में ही इसकी प्रवृति रही है इसलिए यह विष्ठाभोजी सूकरी की योनि में रहे । जिस बर्तन में भोजन बनाया जाता है उसी में यह सदा अकेली खाया करती थी । अत: उसके दोष से यह अपनी ही सन्तान का भ़ाण करने वाली बिल्ली हो । इसने अपने पति को निमित्त बनाकर आत्मघात किया है इसलिए यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री प्रेत के शरीर में भी कुछ काल तक अकेली ही रहे । इसे यमदूतों द्वारा निर्जल प्रदेश में भेज देना चाहिए, वहाँ दीर्घकाल तक यह प्रेत के शरीर में निवास करे । उसके बाद यह पापिनी शेष तीन योनियों का भी उपभोग करेगी।

कलहा ने कहा – विप्रवर! मैं वही पापिनी कलहा हूँ । इस प्रेत शरीर में आये मुझे पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं । मैं सदैव भूख-प्यास से पीड़ित रहा करती हूँ । एक बनिये के शरीर में प्रवेश कर के मैं इस दक्षिण देश में कृष्णा और वेणी के संगम तक आयी हूँ । ज्यों ही संगम तट पर पहुंची त्यों ही भगवान शिव और विष्णु के पार्षदों ने मुझे बलपूर्वक बनिये के शरीर से दूर भगा दिया तब से मैं भूख का कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही हूँ । इतने में ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ गई । आपके हाथ से तुलसी मिश्रित जल का संसर्ग पाकर मेरे सब पाप नष्ट हो गये हैं । द्विजश्रेष्ठ! अब आप ही कोई उपाय कीजिए । बताइए मेरे इस शरीर से और भविष्य में होने वाली भयंकर तीन योनियों से किस प्रकार मुक्त होऊँगी?

कलहा का यह वचन सुनकर धर्मदत्त उसके पिछले कर्मों और वर्तमान अवस्था को देखकर बहुत दुखी हुआ, फिर उसने बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा –

(धर्मदत्त ने जो भी कहा उसका वर्णन पच्चीसवाँ अध्याय में किया गया है)

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कार्तिक माह माहात्म्य तेईसवाँ अध्याय | Chapter -23 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 23

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कार्तिक माह के माहात्म्य का तेईसवाँ अध्याय

Chapter – 23

 

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तेईसवाँ अध्याय वर्णन आँवला तुलसी जान।
पढ़ने-सुनने से ‘कमल’ हो जाता कल्यान।।

नारद जी बोले – हे राजन! यही कारण है कि कार्तिक मास (Kartik Maas) के व्रत उद्यापन में तुलसी की जड़ में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। तुलसी भगवान विष्णु को अधिक प्रीति प्रदान करने वाली मानी गई है। राजन! जिसके घर में तुलसी वन है वह घर तीर्थ स्वरुप है वहाँ यमराज के दूत नहीं आते । तुलसी का पौधा सदैव सभी पापों का नाश करने वाला तथा अभीष्ट कामनाओं को देने वाला है । जो श्रेष्ठ मनुष्य तुलसी का पौधा लगाते हैं वे यमराज को नहीं देखते । नर्मदा का दर्शन, गंगा का स्नान और तुलसी वन का संसर्ग – ये तीनों एक समान कहे गये हैं । जो तुलसी की मंजरी से संयुक्त होकर प्राण त्याग करता है वह सैकड़ो पापों से युक्त ही क्यों न हो तो भी यमराज उसकी ओर नहीं देख सकते। तुलसी को छूने से कामिक, वाचिक, मानसिक आदि सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ।

जो मनुष्य तुलसी दल से भगवान का पूजन करते हैं वह पुन: गर्भ में नहीं आते अर्थात जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं । तुलसी दल में पुष्कर आदि समस्त तीर्थ, गंगा आदि नदियाँ और विष्णु प्रभृति सभी देवता निवास करते हैं । हे राजन! जो मनुष्य तुलसी के काष्ठ का चन्दन लगाते हैं उन्हें सहज ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है और उन द्वारा किये गये पाप उनके शरीर को छू भी नहीं पाते । जहाँ तुलसी के पौधे की छाया होती है, वहीं पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । जिसके मुख में, कान में और मस्तक पर तुलसी का पत्ता दिखाई देता है उसके ऊपर यमराज भी दृष्टि नहीं डाल सकते फिर दूतों की तो बात ही क्या है । जो प्रतिदिन आदर पूर्वक तुलसी की महिमा सुनता है वह सब पापों से मुक्त हो ब्रह्मलोक को जाता है।

इसी प्रकार आंवले का महान वृक्ष सभी पापों का नाश करने वाला है। आँवले का वृक्ष भगवान विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरण मात्र से ही मनुष्य गोदान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य कार्तिक में आंवले के वन में भगवान विष्णु की पूजा ततह आँवले की छाया में भोजन करता है उसके भी पाप नष्ट हो जाते हैं । आंवले की छाया में मनुष्य जो भी पुण्य करता है वह कोटि गुना हो जाता है । जो मनुष्य आंवले की छाया के नीचे कार्तिक में ब्राह्मण दम्पत्ति को एक बार भी भोजन देकर स्वयं भोजन करता है वह अन्न दोष से मुक्त हो जाता है । लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को सदैव आंवले से स्नान करना चाहिए । नवमी, अमावस्या, सप्तमी, संक्रान्ति, रविवार, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण के दिन आंवले से स्नान नही करना चाहिए ।

जो मनुष्य आंवले की छाया में बैठकर पिण्डदान करता है उसके पितर भगवान विष्णु के प्रसाद से मोक्ष को प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य आंवले के फल और तुलसी दल को पानी में मिलाकर स्नान करता है उसे गंगा स्नान का फल मिलता है । जो मनुष्य आंवले के पत्तों और फलों से देवताओं का पूजन करता है उसे स्वर्ण मणि और मोतियों द्वारा पूजन का फल प्राप्त होता है । कार्तिक मास (Kartik Maas) में जब सूर्य तुला राशि में होता है तब सभी तीर्थ, ऋषि, देवता और सभी यज्ञ आंवले के वृक्ष में वास करते हैं । जो मनुष्य द्वादशी तिथि को तुलसी दल और कार्तिक में आंवले की छाया में बैठकर भोजन करता है उसके एक वर्ष तक अन्न-संसर्ग से उत्पन्न हुए पापों का नाश हो जाता है ।

जो मनुष्य कार्तिक में आंवले की जड़ में विष्णु जी का पूजन करता है उसे श्री विष्णु क्षेत्रों के पूजन का फल प्राप्त होता है । आंवले और तुलसी की महत्ता का वर्णन करने में श्री ब्रह्मा जी भी समर्थ नहीम है इसलिए धात्री और तुलसी जी की जन्म कथा सुनने से मनुष्य अपने वंश सहित भक्ति को पाता है ।

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कार्तिक माह माहात्म्य बाईसवाँ अध्याय | Chapter -22 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 22

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कार्तिक माह माहात्म्य बाईसवाँ अध्याय

Chapter – 22

 

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बाईसवें अध्याय की, जब लिखने लगा हूँ बात।
श्री प्रभु प्रेरणा प्राप्त कर, कलम आ गई हाथ।।

राजा पृथु ने नारद जी से पूछा – हे देवर्षि! कृपया आप अब मुझे यह बताइए कि वृन्दा को मोहित करके विष्णु जी ने क्या किया और फिर वह कहाँ गये?

जब देवता स्तुति कर मौन हो गये तब शंकर जी ने सब देवताओ से कहा – हे ब्रह्मादि देवताओं! जलन्धर तो मेरा ही अंश था । उसे मैंने तुम्हारे लिए नहीं मारा है, यह मेरी सांसारिक लीला थी, फिर भी आप लोग सत्य कहिए कि इससे आप सुखी हुए या नहीँ?

तब ब्रह्मादि देवताओं के नेत्र हर्ष से खिल गये और उन्होंने शिवजी को प्रणाम कर विष्णु जी का वह सब वृत्तान्त कह सुनाया जो उन्होंने बड़े प्रयत्न से वृन्दा को मोहित किया था तथा वह अग्नि में प्रवेश कर परमगति को प्राप्त हुई थी । देवताओं ने यह भी कहा कि तभी से वृन्दा की सुन्दरता पर मोहित हुए विष्णु उनकी चिता की राख लपेट इधर-उधर घूमते हैं । अतएव आप उन्हें समझाइए क्योंकि यह सारा चराचर आपके आधीन है ।

देवताओं से यह सारा वृत्तान्त सुन शंकर जी ने उन्हें अपनी माया समझाई और कहा कि उसी से मोहित विष्णु भी काम के वश में हो गये हैं । परन्तु महादेवी उमा, त्रिदेवों की जननी सबसे परे वह मूल प्रकृति, परम मनोहर और वही गिरिजा भी कहलाती है । अतएव विष्णु का मोह दूर करने के लिए आप सब उनकी शरण में जाइए । शंकर जी की आज्ञा से सब देवता मूल-प्रकृति को प्रसन्न करने चले । उनके स्थान पर पहुंचकर उनकी बड़ी स्तुति की तब यह आकाशवाणी हुई कि हे देवताओं! मैं ही तीन प्रकार से तीनों गुणों से पृथक होकर स्थित सत्य गुण से गौरा, रजोगुण से लक्ष्मी और तमोगुण से ज्योति रूप हूँ । अतएव अब आप लोग मेरी रक्षा के लिए उन देवियों के पास जाओ तो वे तुम्हारे मनोरथों को पूर्ण कर देगीं।

यह सब सुनकर देवता भगवती के वाक्यों का आदर करते हुए गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को प्रणाम करने लगे । सब देवताओं ने भक्ति पूर्वक उन सब देवियों की प्रार्थना की । उस स्तुति से तीनों देवियाँ प्रकट हो गई। सभी देवताओं ने खुश होकर निवेदन किया तब उन देवियों ने कुछ बीज देकर कहा -इसे ले जाकर बो दो तो तुम्हारे सब कार्य सिद्ध हो जाएंगे । ब्रह्मादि देवता उन बीजों को लेकर विष्णु जी के पास गये । वृन्दा की चिता-भूमि में डाल दिया । उससे धात्री, मालती और तुलसी प्रकट हुई ।

विधात्री के बीज से धात्री, लक्ष्मी के बीज से मालती और गौरी के बीज से तुलसी प्रकट हुई । विष्णु जी ने ज्योंही उन स्त्री रूपवाली वनस्पतियों को देखा तो वे उठ बैठे । कामासक्त चित्त से मोहित हो उनसे याचना करने लगे । धात्री और तुलसी ने उनसे प्रीति की । विष्णु जी सारा दुख भूल देवताओं से नमस्कृत हो अपने लोक बैकुण्ठ में चले । वह पहले की तरह सुखी होकर शंकर जी का स्मरण करने लगे । यह आख्यात शिवजी की भक्ति देने वाला है ।

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कार्तिक माह माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय | Chapter -21 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 21

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कार्तिक माह माहात्म्य इक्कीसवाँ अध्याय

Chapter – 21

 

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लिखने लगा हूँ श्रीहरि के, चरणों में शीश नवाय।
कार्तिक माहात्म का बने, यह इक्कीसवाँ अध्याय।।

अब ब्रह्मा आदि देवता नतमस्तक होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले – हे देवाधिदेव! आप प्रकृति से परे पारब्रह्म और परमेश्वर हैं, आप निर्गुण, निर्विकार व सबके ईश्वर होकर भी नित्य अनेक प्रकार के कर्मों को करते हैं । हे प्रभु! हम ब्रह्मा आदि समस्त देवता आपके दास हैं । हे शंकर जी! हे देवेश! आप प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिए । हे शिवजी! हम आपकी प्रजा हैं तथा हम सदैव आपकी शरण में रहते हैं ।

नारद जी राजा पृथु से बोले – जब इस प्रकार ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं एवं मुनियों ने भगवान शंकर जी की अनेक प्रकार से स्तुति कर के उनके चरण कमलों का ध्यान किया तब भगवान शिव देवताओं को वरदान देकर वहीं अन्तर्ध्यान हो गये । उसके बाद शिवजी का यशोगान करते हुए सभी देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने लोक को चले गये ।

भगवान शंकर के साथ सागर पुत्र जलन्धर का युद्ध चरित्र पुण्य प्रदान करने वाला तथा समस्त पापों को नष्ट करने वाला है । यह सभी सुखदायक और शिव को भी आनन्ददायक है । इन दोनों आख्यानों को पढ़ने एवं सुनने वाला सुखों को भोगकर अन्त में अमर पद को प्राप्त करता है ।

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कार्तिक माह माहात्म्य बीसवाँ अध्याय | Chapter -20 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 20

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कार्तिक माह माहात्म्य बीसवाँ अध्याय

Chapter – 20

 

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माँ शारदा की प्रेरणा, स्वयं सहाय।
कार्तिक माहात्म का लिखूं, यह बीसवाँ अध्याय।।

अब राजा पृथु ने पूछा – हे देवर्षि नारद! इसके बाद युद्ध में क्या हुआ तथा वह दैत्य जलन्धर किस प्रकार मारा गया, कृपया मुझे वह कथा सुनाइए । नारद जी बोले – जब गिरिजा वहां से अदृश्य हो गईं और गन्धर्वी माया भी विलीन हो गई तब भगवान वृषभध्वज चैतन्य हो गये । उन्होंने लौकिकता व्यक्त करते हुए बड़ा क्रोध किया और विस्मितमना जलन्धर से युद्ध करने लगे । जलन्धर शंकर के बाणों को काटने लगा परन्तु जब काट न सका तब उसने उन्हें मोहित करने के लिए माया की पार्वती का निर्माण कर अपने रथ पर बाँध लिया तब अपनी प्रिया पार्वती को इस प्रकार कष्ट में पड़ा देख लौकिक-लीला दिखाते हुए शंकर जी व्याकुल हो गये।

शंकर जी ने भयंकर रौद्र रूप धारण कर लिया । अब उनके रौद्र रूप को देख कोई भी दैत्य उनके सामने खड़ा होने में समर्थ न हो सका और सब भागने-छिपने लगे । यहाँ तक कि शुम्भ-निशुम्भ भी समर्थ न हो सके । शिवजी ने उन शुम्भ-निशुम्भ को शाप देकर बड़ा धिक्कारा और कहा – तुम दोनो ने मेरा बड़ा अपराध किया है । तुम युद्ध से भागते हो, भागते को मारना पाप है । इससे मैं तुम्हें अब नहीं मारूंगा परन्तु गौरी तुमको अवश्य मारेगी।

शिवजी के ऐसा कहने पर सागर पुत्र जलन्धर क्रोध से अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा । उसने शिवजी पर घोर बाण बरसाकर धरती पर अन्धकार कर दिया तब उस दैत्य की ऎसी चेष्टा देखकर शंकर जी बड़े क्रोधित हुए तथा उन्होंने अपने चरणांगुष्ठ से बनाये हुए सुदर्शन चक्र को चलाकर उसका सिर काट लिया । एक प्रचण्ड शब्द के साथ उसका सिर पृथ्वी पर गिर पड़ा और अंजन पर्वत के समान उसके शरीर के दो खण्ड हो गये । उसके रुधिर से संग्राम-भूमि व्याप्त हो गई।

शिवाज्ञा से उसका रक्त और मांस महारौरव में जाकर रक्त का कुण्ड हो गया तथा उसके शरीर का तेज निकलकर शंकर जी में वैसे ही प्रवेश कर गया जैसे वृन्दा का तेज गौरी के शरीर में प्रविष्ट हुआ था । जलन्धर को मरा देख देवता और सब गन्धर्व प्रसन्न हो गये।

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कार्तिक माह माहात्म्य उन्नीसवाँ अध्याय | Chapter -19 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 19

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कार्तिक माह माहात्म्य उन्नीसवाँ अध्याय

Chapter – 19

 

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श्री विष्णु मम् हृदय में, प्रेरणा करने वाले नाथ।
लिखूँ माहात्म कार्तिक, राखो सिर पर हाथ।।

राजा पृथु ने पूछा – हे नारद जी! अब आप यह कहिए कि भगवान विष्णु ने वहाँ जाकर क्या किया तथा जलन्धर की पत्नी का पतिव्रत किस प्रकार भ्रष्ट हुआ?

नारद जी बोले – जलन्धर के नगर में जाकर विष्णु जी ने उसकी पतिव्रता स्त्री वृन्दा का पतिव्रत भंग करने का विचार किया। वे उसके नगर के उद्यान में जाकर ठहर गये और रात में उसको स्वप्न दिया।

वह भगवान विष्णु की माया और विचित्र कार्यपद्धति थी और उसकी माया द्वारा जब वृन्दा ने रात में वह स्वप्न देखा कि उसका पति नग्न होकर सिर पर तेल लगाये महिष पर चढ़ा है। वह काले रंग के फूलों की माला पहने हुए है तथा उसके चारों हिंसक जीव हैं। वह सिर मुड़ाए हुए अन्धकार में दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है। उसने नगर को अपने साथ समुद्र में डूबा हुआ इत्यादि बहुत से स्वप्न देखे। तत्काल ही वह स्वप्न का विचार करने लगी। इतने में उसने सूर्यदेव को उदय होते हुए देखा तो सूर्य में उसे एक छिद्र दिखाई दिया तथा वह कान्तिहीन था।

इसे उसने अनिष्ट जाना और वह भयभीत हो रोती हुई छज्जे, अटारी तथा भूमि कहीं भी शान्ति को प्राप्त न हुई फिर अपनी दो सखियों के साथ उपवन में गई वहाँ भी उसे शान्ति नहीं मिली। फिर वह जंगल में में निकल गई वहाँ उसने सिंह के समान दो भयंकर राक्षसों को देखा, जिससे वह भयभीत हो भागने लगी। उसी क्षण उसके समक्ष अपने शिष्यों सहित शान्त मौनी तपस्वी वहाँ आ गया। भयभीत वृन्द उसके गले में अपना हाथ डाल उससे रक्षा की याचना करने लगी। मुनि ने अपनी एक ही हुंकार से उन राक्षसों को भगा दिया।

वृन्दा को आश्चर्य हुआ तथा वह भय से मुक्त हो मुनिनाथ को हाथ जोड़ प्रणाम करने लगी। फिर उसने मुनि से अपने पति के संबंध में उसकी कुशल क्षेम का प्रश्न किया। उसी समय दो वानर मुनि के समक्ष आकर हाथ जोड़ खड़े हो गये और ज्योंही मुनि ने भृकुटि संकेत किया त्योंही वे उड़कर आकाश मार्ग से चले गये। फिर जलन्धर का सिर और धड़ लिये मुनि के आगे आ गये तब अपने पति को मृत हुआ जान वृन्दा मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी और अनेक प्रकार से दारुण विलाप करने लगी। पश्चात उस मुनि से कहा – हे कृपानिधे! आप मेरे इस पति को जीवित कर दीजिए। पतिव्रता दैत्य पत्नी ऐसा कहकर दुखी श्वासों को छोड़कर मुनीश्वर के चरणों पर गिर पड़ी।

तब मुनीश्वर ने कहा – यह शिवजी द्वारा युद्ध में मारा गया है, जीवित नहीं हो सकता क्योंकि जिसे भगवान शिव मार देते हैं वह कभी जीवित नहीं हो सकता परन्तु शरणागत की रक्षा करना सनतन धर्म है, इसी कारण कृपाकर मैं इसे जिलाए देता हूँ।

नारद जी ने आगे कहा – वह मुनि साक्षात विष्णु ही थे जिन्होंने यह सब माया फैला रखी थी। वह वृन्दा के पति को जीवित कर के अन्तर्ध्यान हो गये। जलन्धर ने उठकर वृन्दा को आलिंगन किया और मुख चूमा। वृन्दा भी पति को जीवित हुआ देख अत्यन्त हर्षित हुई और अब तक हुई बातों को स्वप्न समझा। तत्पश्चात वृन्दा सकाम हो बहुत दिनों तक अपने पति के साथ विहार करती रही। एक बार सुरत एवं सम्भोग काल के अन्त में उन्हीं विष्णु को देखकर उन्हें ताड़ित करती हुई बोली – हे पराई स्त्री से गमन करने वाले विष्णु! तुम्हारे शील को धिक्कार है। मैंने जान लिया है कि मायावी तपस्वी तुम्हीं थे।

इस प्रकार कहकर कुपित पतिव्रता वृन्दा ने अपने तेज को प्रकट करते हुए भगवान विष्णु को शाप दिया – तुमने माया से दो राक्षस मुझे दिखाए थे वही दोनों राक्षस किसी समय तुम्हारी स्त्री ला हरण करेगें। सर्पेश्वर जो तुम्हारा शिष्य बना है, यह भी तुम्हारा साथी रहेगा जब तुम अपनी स्त्री के विरह में दुखी होकर विचरोगे उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेगें।

ऐसा कहती हुई पतिव्रता वृन्दा अग्नि में प्रवेश कर गई। ब्रह्मा आदि देवता आकाश से उसका प्रवेश देखते रहे। वृन्दा के शरीर का तेज पार्वती जी के शरीर में चला गया। पतिव्रत के प्रभाव से वृन्दा ने मुक्ति प्राप्त की।

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कार्तिक माह माहात्म्य अठारहवां अध्याय | Chapter -18 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 18

kartik mass chapter 18

कार्तिक माह माहात्म्य अठारहवां अध्याय

Chapter – 18

 

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लिखता हूँ मॉ पुराण की, सीधी सच्ची बात ।
अठारहवां अध्याय कार्तिक, मुक्ति का वरदात।।

अब रौद्र रूप महाप्रभु शंकर नन्दी पर चढ़कर युद्धभूमि में आये। उनको आया देख कर उनके पराजित गण फिर लौट आये और सिंहनाद करते हुए आयुद्धों से दैत्यों पर प्रहार करने लगे। भीषण रूपधारी रूद्र को देख दैत्य भागने लगे तब जलन्धर हजारों बाण छोड़ता हुआ शंकर की ओर दौडा़। उसके शुम्भ निशुम्भ आदि वीर भी शंकर जी की ओर दौड़े। इतने में शंकर जी ने जलन्धर के सब बाण जालों को काट अपने अन्य बाणों की आंधी से दैत्यों को अपने फरसे से मार डाला।

खड़गोरमा नामक दैत्य को अपने फरसे से मार डाला और बलाहक का भी सिर काट दिया। घस्मर भी मारा गया और शिवगण चिशि ने प्रचण्ड नामक दैत्य का सिर काट डाला। किसी को शिवजी के बैल ने मारा और कई उनके बाणों द्वारा मारे गये। यह देख जलन्धर अपने शुम्भादि दैत्यों को धिक्कारने और भयभीतों को धैर्य देने लगा। पर किसी प्रकार भी उसके भय ग्रस्त दैत्य युद्ध को न आते थे जब दैत्य सेना पलायन आरंभ कर दिया, तब महा क्रुद्ध जलन्धर ने शिवजी को ललकारा और सत्तर बाण मारकर शिवजी को दग्ध कर दिया।

शिवजी उसके बाणों को काटते रहे। यहां तक कि उन्होंने जलन्धर की ध्वजा, छत्र और धनुष को काट दिया। फिर सात बाण से उसके शरीर में भी तीव्र आघात पहुंचाया। धनुष के कट जाने से जलन्धर ने गदा उठायी। शिवजी ने उसकी गदा के टुकड़े कर दिये तब उसने समझा कि शंकर मुझसे अधिक बलवान हैं। अतएव उसने गन्धर्व माया उत्पन्न कर दी अनेक गन्धर्व अप्सराओं के गण पैदा हो गये, वीणा और मृदंग आदि बाजों के साथ नृत्य व गान होने लगा। इससे अपने गणों सहित रूद्र भी मोहित हो एकाग्र हो गये। उन्होंने युद्ध बंद कर दिया।

फिर तो काम मोहित जलन्धर बडी़ शीघ्रता से शंकर का रूप धारण कर वृषभ पर बैठकर पार्वती के पास पहुंचा उधर जब पार्वती ने अपने पति को आते देखा, तो अपनी सखियों का साथ छोड़ दिया और आगे आयी। उन्हें देख कामातुर जलन्धर का वीर्यपात हो गया और उसके पवन से वह जड़ भी हो गया। गौरी ने उसे दानव समझा वह अन्तर्धान हो उत्तर की मानस पर चली गयीं तब पार्वती ने विष्णु जी को बुलाकर दैत्यधन का वह कृत्य कहा और यह प्रश्न किया कि क्या आप इससे अवगत हैं।

भगवान विष्णु ने उत्तर दिया – आपकी कृपा से मुझे सब ज्ञात है। हे माता! आप जो भी आज्ञा करेंगी, मै उसका पालन करूंगा।

जगतमाता ने विष्णु जी से कहा – उस दैत्य ने जो मार्ग खोला है उसका अनुसरण उचित है, मै तुम्हें आज्ञा देती हूं कि उसकी पत्नी का पतिव्रत भ्रष्ट करो, वह दैत्य तभी मरेगा।

पार्वती जी की आज्ञा पाते ही विष्णु जी उसको शिरोधार्य कर छल करने के लिए जलन्धर के नगर की ओर गये।

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कार्तिक माह माहात्म्य सत्रहवां अध्याय | Chapter -17 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 17

kartik mass chapter 17

कार्तिक माह माहात्म्य सत्रहवां अध्याय

Chapter – 17

 

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भक्ति से भरे भाव हे हरि मेरे मन उपजाओ।
सत्रहवां अध्याय कार्तिक, कृपा दृष्टि कर जाओ।।

उस समय शिवजी के गण प्रबल थे और उन्होंने जलन्धर के शुम्भ-निशुम्भ और महासुर कालनेमि आदि को पराजित कर दिया। यह देख कर सागर पुत्र जलंधर एक विशाल रथ पर चढ़कर – जिस पर लम्बी पताका लगी हुई थी – युद्धभूमि में आया । इधर जय और शील नामक शंकर जी के गण भी युद्ध में तत्पर होकर गर्जने लगे। इस प्रकार दोनो सेनाओं के हाथी, घोड़े, शंख, भेरी और दोनों ओर के सिंहनाद से धरती त्रस्त हो गयी।

जलंधर ने कुहरे के समान असंख्य बाणों को फेंक कर पृथ्वी से आकाश तक व्याप्त कर दिया और नंदी को पांच, गणेश को पांच, वीरभद्र को एक साथ ही बीस बाण मारकर उनके शरीर को छेद दिया और मेघ के समान गर्जना करने लगा। यह देख कार्तिकेय ने भी दैत्य जलन्धर को अपनी शक्ति उठाकर मारी और घोर गर्जन किया, जिसके आघात से वह मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। परन्तु वह शीघ्र ही उठा पडा़ और क्रोधा विष्ट हो कार्तिकेय पर अपनी गदा से प्रहार करने लगा।

ब्रह्मा जी के वरदान की सफलता के लिए शंकर पुत्र कार्तिकेय पृथ्वी पर सो गये। गणेश जी भी गदा के प्रहार से व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। नंदी व्याकुल हो गदा प्रहार से पृथ्वी पर गिर गये। फिर दैत्य ने हाथ में परिध ले शीघ्र ही वीरभद्र को पृथ्वी पर गिरा देख शंकर जी गण चिल्लाते हुए संग्राम भूमि छोड़ बड़े वेग से भाग चले। वे भागे हुए गण शीघ्र ही शिवजी के पास आ गये और व्याकुलता से युद्ध का सब समाचार कह सुनाया। लीलाधारी भगवान ने उन्हें अभय दे सबका सन्तोषवर्द्धन किया।

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कार्तिक माह माहात्म्य सोलहवां अध्याय | Chapter -16 Kartik Puran ki Katha

kartik mass chapter 16

kartik mass chapter 16

कार्तिक माह माहात्म्य सोलहवां अध्याय

Chapter – 16

 

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सुनो लगाकर मन सभी, संकट सब मिट जायें ।

कार्तिक माहात्म का “कमल” पढो़ सोलहवां अध्याय ।।

राजा पृथु ने कहा – हे नारद जी! ये तो आपने भगवान शिव की बडी़ विचित्र कथा सुनाई है । अब कृपा करके आप यह बताइये कि उस समय राहु उस पुरूष से छूटकर कहां गया ?

नारद जी बोले उससे छूटने पर वह दूत बर्बर नाम से विख्यात हो गया और अपना नया जन्म पाकर वह धीरे-धीरे जलन्धर के पास गया। वहां जाकर उसने शंकर की सब चेष्टा कही। उसे सुनकर दैत्यराज ने सब दैत्यों को सेना द्वारा आज्ञा दी।

लनेमि और शुम्भ-निशुम्भ आदि सभी महाबली दैत्य तैयार होने लगे। एक से एक महाबली दैत्य करोडों – करोडों की संख्या में निकल युद्ध के लिए जुट पड़े। महा प्रतापी सिन्धु पुत्र शिवजी से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा। आकाश में मेघ छा गये और बहुत अपशकुन होने लगे। शुक्राचार्य और कटे सिर वाला राहु सामने आ गये। उसी समय जलंधर का मुकुट खिसक गया, परंतु वह नहीं रूका।

उधर इन्द्रादि सब देवताओं ने कैलाश पर शिवजी के पास पहुंच कर सब वृतांत सुनाया और यह भी कहा कि आपने जलंधर से युद्ध करने के लिए भगवान विष्णु को भेजा था। वह उसके वशवर्ती हो गये हैं और विष्णु जी लक्ष्मी सहित जलंधर के अधीन हो उनके घर में निवास करते हैं। अब देवताओं को भी वहीं रहना पड़ता है। अब वह बली सागर पुत्र आपसे युद्ध करने आ रहा है। अतएव आप उसे मारकर हम सबकी रक्षा कीजिये।

यह सुनकर शंकरजी ने विष्णु जी को बुलाकर पूछा हे ऋषिकेश! युद्ध में आपने जलंधर का संहार क्यों नहीं किया और बैकुण्ठ छोड़ आप उसके घर में कैसे चले गये?

यह सुन कर विष्णु जी ने हाथ जोड़ कर नम्रतापूर्वक भगवान शंकर से कहा – उसे आपका अंशी ओर लक्ष्मी का भ्राता होने के कारण ही मैने नहीं मारा है। यह बड़ा वीर और देवताओं से अजय है। इसी पर मुग्ध होकर मैं उसके घर में निवास करने लगा हूं।

विष्णु जी के इन वचनों को सुनकर शंकर जी हंस पड़े उन्होंने कहा – हे विष्णु! आप यह क्या कहते हैं! मैं उस दैत्य जलंधर को अवश्य मारूंगा अब आप सभी देवता जलंधर को मेरे द्वारा ही मारा गया जान अपने स्थान को जाइये।

जब शंकर जी ने ऐसा कहा तो सब देवता सन्देह रहित होकर अपने स्थान को चले गये। इसी समय पराक्रमी जलंधर अपनी विशाल सेना के साथ पर्वत के समीप आ कैलाश को घोर सिंहनाद करने लगा। दैत्यों के नाद और कोलाहल को सुनकर शिवजी ने नंदी आदि गणों को उससे युद्ध करने की आज्ञा प्रदान की, कैलाश के समीप भीषण युद्ध होने लगा। दैत्य अनेकों प्रकार के अस्त्र शस्त्र बरसाने लगे, भेरि, मृदंग, शंख और वीरों तथा हाथी, घोडों और रथों के शब्दों से शाब्दित हो पृथ्वी कांपने लगी। युद्ध में कटकर मरे हुए हाथी, घोड़े और पैदलों का पहाड़ लग गया। रक्त-मांस का कीचड़ उत्पन्न हो गया। दैत्यों के आचार्य शुक्रजी अपनी मृत संजीवनी विद्या से सब दैत्यों को जिलाने लगे। यह देखकर शिव जी के गण व्याकुल हो गये और उनके पास जाकर सारा वृतांत सुनाया, उसे सुनकर भगवान रूद्र के क्रोध की सीमा न रही। फिर तो उस समय उनके मुख से एक बड़ी भयंकर कृत्या उत्पन्न हुई, जिसकी दोनों जंघाएं तालवृक्ष के समान थीं । वह युद्ध भूमि में जा सब असुरों का चवर्ण करने लग गयी और फिर वह शुक्राचार्य के समीप पहुंची और शीघ्र ही अपनी योनी में गुप्त कर लिया फिर स्वयं भी अन्तर्धान हो गयी।

शुक्राचार्य के गुप्त हो जाने से दैत्यों का मुख मलिन पड़ गया और वे युद्धभूमि को छोड़ भागे इस पर शुम्भ निशुम्भ और कालनेमि आदि सेनापतियों ने अपने भागते हुए वीरों को रोका। शिवजी के नन्दी आदि गणों ने भी – जिसमें गणेश और स्वामी कार्तिकेयजी भी थे – दैत्यों से भीष्ण युद्ध करना आरंभ कर दिया।

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