‘गुरु’
‘गु’ माने अंधकार और रू माने प्रकाश । जो अज्ञान रुपी अंधकार को हटाकर ज्ञानरुपी प्रकाश प्रकट कर दे उन्हें गुरु कहा जाता है । हमारे शास्त्रों में गुरु पद की बहुत महिमा है । भगवान शंकर ने कहा है ।
‘गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई, जो बिरंचि संकर सम होई । अर्थात गुरु के बिना कोई भी संसार सागर को पार नहीं कर सकता फिर भले ही वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही क्यों ना हो ?
शास्त्रों में गुरु महिमा भगवान से भी बढ़कर बताई गई है। स्वयं भगवान राम, भगवान श्री कृष्ण अवतार लेकर जब – जब धरती पर आए, उन्होंने भी गुरुओं की सेवा की, गुरुओं के चरणों में मत्था टेककर ज्ञान प्राप्त किया। वह तो साक्षात परमात्मा है फिर भी उन्होंने मनुष्य रूप लेकर संसार को समझाने के मकसद से स्वयम गुरुओं की सेवा की।
वैसे तो मनुष्य जन्म से ही किसी ने किसी को गुरु बनाता है। सबसे पहले गुरु माता-पिता होते हैं, जो व्यक्ति का लालन-पालन करके संसार की डगर में आगे बढ़ाते हैं। इसके बाद शिक्षा गुरु होते हैं जो व्यक्ति को तमाम सांसारिक ज्ञान का उपदेश करके उसे निखारते हैं। इसके बाद और अंत में आध्यात्मिक गुरु होते हैं जो व्यक्ति को इस संसार के दुख – सुख, हानि – लाभ तथा कर्मों के तूफान से बाहर निकालकर सुख – शांति – संतोष तथा अपने आत्मा में स्थित होना सिखाते हैं और दुनियावी कुचक्र से मुक्त कर देते हैं। हिसाब से देखें तो संसार में कोई भी काम करने से पहले उसे सीखना जरुरी होता है।
उदाहरण के तौर पर जिस प्रकार एक कन्या को रोटी बनाना सीखना होता है तो उसे मां का आश्रय लेना पड़ता है। मां उसे अपने सानिध्य में रखती है और रोटी बनाने व बेलने आदि की कला सिखाती है। तो जब संसार का छोटे से छोटा कार्य भी बिना गुरु के नहीं संभव के करना संभव नहीं हो पाता तो इस संसार के कुचक्र से निकलना कैसे संभव है ?
इस धरती पर जितने भी महान महापुरुष हुए हैं। उन सब ने किसी ने किसी गुरु का सानिध्य प्राप्त किया है, उनकी सेवा की है और उनकी कृपा को पचा कर संसार में अपना नाम रोशन किया है। सदा के लिए अमर हो गया है।
जिस बालक ध्रुव को उसके पिता की गोद नसीब नहीं होती थी। उसी बालक ध्रुव को जब नारद जी जैसे गुरु मिले और गुरु मंत्र का जाप किया तो उन्हें एक सांसारिक पिता की तो बात ही बहुत दूर है स्वयं परमात्मा की गोद में बैठना नसीब हुआ। स्वामी विवेकानंद जिनका बचपन का नाम नरेंद्र था। वह कई संस्थाओं में गए, कई व्यक्तियों से, कई अध्यात्मिक व्यक्तियों से मिले परंतु जब वह स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्य बने तभी वह नरेंद्र से ‘स्वामी विवेकानंद’ बन पाए।
आज कौन नहीं जानता स्वामी विवेकानंद को ?
ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गांवही वेद पुराण।
अर्थात भगवान की कृपा के बिना गुरू नहीं मिलते और गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता। ज्ञान के बिना अपने वास्तविक स्वरूप अमर आत्मा का पता नहीं चलता ऐसा हमारे वेद और पुराण बताते हैं। धन्य हैं ऐसे गुरु जिनके चरणों की सेवा करके अनेक सज्जनों का उद्धार हो गया। वास्तविकता देखी जाए तो जब – जब धरती पर भार बढ़ता है, पाप बढ़ता है, अनाचार और अत्याचार बढ़ता है, तभी कोई समर्थ सद्गुरु के रूप में भगवान स्वयं अवतरित होते हैं।
संत की आत्मा और भगवान की आत्मा एक ही है। संत श्री तुकाराम जी, श्री एकनाथ जी, ज्ञानेश्वर महाराज, राजा जनक, सुकदेव जी, दत्तात्रेय भगवान तथा शंकराचार्य आदि अनेक ऐसे महान आत्मा समर्थ सद्गुरु इस धरती पर आए और मनुष्य को जीवन जीने का सही तरीका सिखाया और जन्म-मरण रूपी कष्टों का नाश किया। जो सच्चा शिष्य अपने गुरु की शरण में रहकर उनकी आज्ञा का पालन करता है। उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता। गुरु ऐसी कला देते हैं की व्यक्ति की जन्म कुंडली के ग्रह व कर्मों का लेखा – जोखा बदलते हुए देर नहीं लगती। सच्चे गुरु की सेवा करने वाले व्यक्ति की तो रोज दिवाली होती है।
सिख समाज में तो गुरु को भगवान से भी बढ़कर दर्जा दिया गया है।
गुरु गोविंद दोनों खड़े काको लागे पाय,
बलिहारी गुरु गोविंद की जिसने प्रभु दियो मिलाय।
सिक्खों की गुरु भक्ति को मेरा प्रणाम है। ऐसे शिष्य जो गुरु को ही सर्वोपरि मानता है। गुरु के कहने में चलता है, गुरु के फेरे फिरता है, गुरु की वाणी का आदर करता है। धन्य है ऐसी गुरु भक्ति ।
व्यक्ति को सीखना चाहिए, अपने गुरुओं का सम्मान करना चाहिए, अपने गुरु के कहने में चलना चाहिए। आज के समय में बहुत लोग हैं जो बहुत सारे गुरु बनाते हैं। हर किसी को गुरु जी, गुरु जी कहते रहते हैं। यह अच्छा नहीं है। वैसे तो गुरु की कोई पहचान नहीं, पर फिर भी आज कलयुग के समय को देखते हुए कुछ विचार किया जा सकता है।
मां-बाप तो देह में जन्म देते हैं। लेकिन सच्चा गुरु उस देह में रह रहे परब्रह्म परमात्मा का दीदार करवाकर परमात्मा में ही प्रतिष्ठित कर देते हैं। व्यक्ति को अंतर आत्मा की जागृति कर देते हैं। गुरु की महिमा अकथनीय है। बड़े-बड़े पाप का फल गुरु चुटकियों में निपटा देते हैं। जिस प्रकार एक शिष्य एक सच्चे सद्गुरु की तलाश करता है। उसी प्रकार एक सद्गुरु भी एक सत् शिष्य की तलाश करता है । उस पर अपनी पूर्ण कृपा उड़ेलना चाहता है, उसको भी गुरुपद में प्रतिष्ठित करना चाहता है। परंतु आज कलयुग के समय में ऐसा सच्चा सद्गुरु तो भले मिल जाए, पर सत् शिष्य नहीं मिलता। अधिकतर शिष्य सिर्फ दुनियावी मोह, माया प्राप्त करना चाहते हैं। गुरुजी मुझे मकान मिल जाए, गुरुजी मुझे दुकान मिल जाए, गुरुजी मुझे पत्नी मिल जाए यही चाहते हैं। धन-संपत्ति चाहते हैं। पर गुरु जो देना चाहते हैं वह शिक्षा लेना ही नहीं चाहता।
कलयुग का प्रभाव अधिक बढ़ता जा रहा है इसलिए सावधान रहना चाहिए
कपटी गुरु, लालची चेला,
दोनों नरक में ठेलम ठेला।
आजकल के गुरु चाहते हैं कि शिष्य की जेब काट ली जाए और शिष्य चाहता है की गुरु को ही ठग लिया जाए। गुरु और शिष्य का नाता तो पिता पुत्र के नाते से भी बढ़कर है। शास्त्रों में किस प्रकार गुरु अपने शिष्य के कर्म को चुटकियों में निपटा देते हैं। इसके कई उदाहरण है।
एक बार गुरु नानक देव जी घूमते-घूमते एक सेठ साहूकार के यहां पहुंचे। उस सेठ साहूकार ने नानक देव जी की बहुत सेवा की। अपने हाथों से गुरु जी के पैरों की चरण चंपी की। बड़े प्रेम से भोजन करवाया, पंखे से हवा की और बड़ा उत्साहित और प्रसन्न हुआ कि मेरे ऊपर भगवान की कितनी बड़ी कृपा है कि आज गुरु मेरे घर पर पधारे हैं। रात्रि होने पर सब विश्राम करने लगे। रात्रि में स्वपन के दौरान उसने अपने आप को बड़ा पीड़ित, असहाय और रोगी के रूप में देखा। वह सारी रात इस सपने को देखते हुए परेशानी में रहा। सुबह उठकर वह बड़ा विस्मित हुआ कि इतने बड़े ज्ञानी के दर्शन हुए इसके बावजूद भी मुझे ऐसा स्वप्न क्यों दिखा?
मेरी सारी रात काली बीती है। इस बात में भी कोई न कोई रहस्य होगा? उन्होंने नानक देव जी से इसके बारे में पूछा कि गुरु जी आप जैसे महान आत्मा का दर्शन करने के बाद तो व्यक्ति का चित् प्रसन्न रहना चाहिए, व्यक्ति को शुभ स्वप्न देखने चाहिए। परंतु मेरे साथ तो उल्टा हुआ।
गुरु नानक देव जी ने कहा बेटा संतो की महिमा को पूरा कोई नहीं समझ सकता। तुमने स्वप्न में जो रोग, असहाय और पीड़ा देखी है। वह तुम्हारे कर्मों के कारण तुमने भोगनी थी। परंतु साधु की सेवा करने मात्र से तुम्हारे रोग के कई साल सिर्फ एक रात में कट गए और वह भी सिर्फ स्वप्न में ही दूर हो गए।
ईश्वर अपना अपमान तो सह लेते हैं, परंतु गुरु का अपमान कदापि नहीं सहते। एक बार देवर्षि नारद ने वैकुंठ में प्रवेश किया भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी उनका खूब आदर करने लगे। आदिनारायण ने नारद जी का हाथ पकड़ा और आराम करने को कहा। एक तरफ भगवान विष्णु नारद जी की चरण चंपी कर रहे हैं और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी पंखा हांक रही हैं। नारद जी कहते हैं भगवान अब छोड़ो, यह लीला किस बात की? हे नाथ, यह क्या राज है, समझाने की युक्ति है, आप मेरी चरण चंपी कर रहे हैं और माता जी पंखा झेल रही हैं। भगवान बोले नारद तू गुरुओं के लोक से आया है। महापुरुषों के लोक से आया है। यमपुरी में पाप भोगे जाते हैं, बैकुंठ में पुण्य का फल भोगा जाता है लेकिन मृत्यु लोक में सद्गुरु की प्राप्ति होती है और जीव सदा के लिए मुक्त हो जाता है। ऐसा लगता है तू किसी न किसी गुरु की शरण ग्रहण करके आया है। नारद जी को अपनी भूल महसूस कराने के लिए भगवान यह सब लीलाएं कर रहे थे। नारद जी ने कहा हे प्रभु मैं भक्त हूं लेकिन निगुरा हूं।
गुरु क्या देते हैं ? गुरु का महत्व में क्या होता है ? यह बताने की कृपा करो। भगवान बोले गुरु क्या देते हैं ? गुरु का क्या महत्व होता है ? अगर यह जानना हो तो जाओ। गुरु के पास जाओ। यह वैकुंठ है, खबरदार जैसे पुलिस अपराधियों को पकड़ती है। न्यायधीश उन्हें नहीं पकड़ पाते। ऐसे ही वह गुरु लोग हमारे दिल से हमारे मन के मैल, कुकर्मों के संस्कार, हमारे दिल के अपराध, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को निकाल-निकालकर निर्विकार चैतन्य स्वरूप प्रभु परमात्मा की प्राप्ति में सहयोग देते हैं और शिष्य जब तक गुरु पद को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उस पर हर जन्म में निगरानी रखते रखते जीव को परब्रह्म की यात्रा कर आते रहते हैं।
हे नारद, जा तू किसी गुरू की शरण ले, बाद में इधर आना। देवर्षि नारद गुरु की खोज करने मृत्युलोक में आए सोचा कि मुझे प्रभात काल में जो सर्वप्रथम मिलेगा उसी को मैं अपना गुरु बना लूंगा। प्रातः काल में सरिता के तीर पर गए देखा तो एक आदमी शायद स्नान करके आ रहा था। हाथ में जलती अगरबत्ती है। नारदजी ने मन ही मन उनको गुरु मान लिया। नजदीक पहुंचे तो पता चला कि वह मच्छीमार है, हिंसक है, हालांकि आदिनारायण विष्णु ही वह रूप धारण करके आए थे। नारद जी ने अपना संकल्प बता दिया कि हमने तुमको गुरू मान लिया है।
नारद जी ने पैर पकड़ लिए, मल्लाह बोला छोड़ो मुझे। मल्लाह ने जान छुड़ाने के लिए कहा अच्छा स्वीकार है जा। नारदजी आए वैकुंठ में भगवान ने कहा नारद अब निगुरा तो नहीं है। नहीं भगवान में गुरु बना कर आया हूं । कैसे हैं तेरे गुरू ?
नारद जी बोले मैं जरा धोखा खा गया। वह कमबख्त तो मल्लाह मिल गया। अब क्या करें ? आपकी आज्ञा मानकर उसी को गुरु बना लिया। भगवान नाराज हो गए। तूने गुरु शब्द का अपमान किया है। न्यायधीश न्यायालय में कुर्सी पर तो बैठ सकता है, न्यायालय का उपयोग कर सकता है लेकिन न्यायालय का अपमान तो न्यायधीश भी नहीं कर सकता। सरकार भी न्यायालय का अपमान नहीं कर सकती। भगवान बोले तूने गुरु पद का अपमान किया है। जा तुझे 8400000 जन्मों तक माता के गर्भ में नरक भोगना पड़ेगाजा नारदजी बड़ा रोए, छटपटाए, भगवान ने कहा इसका इलाज यहां नहीं है। यह तो पुण्य का फल भोगने की जगह है, नरक पाप का फल भोगने की जगह है, कर्मों से छूटने की जगह तो धरती लोक है, मनुष्य लोक है। तू जा, उन गुरुओं के पास मृत्युलोक में वही तेरा उद्धार हो सकता है।
नारदजी वापस धरती लोक में आए। उस मल्लाह के पैर पकड़े और हाथ जोड़कर आंसू बहाते हुए कहा हे गुरुदेव उपाय बताओ मैं तो बड़ा फस गया हूं। चौरासी के चक्कर से छूटने का कोई उपाय बताओ। गुरूजी ने पहले पूरी बात समझी और फिर कुछ संकेत बता दिए। नारदजी फिर बैकुंठ में पहुंचे। भगवान को कहा मैं 84 लाख योनियां तो भोग लूंगा लेकिन कृपा करके उसका नक्शा तो बना दो जरा। दिखा तो दो नाथ कैसी होती है 84 लाख योनियां। भगवान ने तुरंत नक्शा बना दिया। नारद उसी नक्शे में लौटने लगे। अरे, यह क्या करते हो नारद। हे भगवान वह 84 भी आप की बनाई हुई है और यह 84 भी आपकी ही बनाई हुई है। मैं इसी में चक्कर लगाकर अपनी 84 पूरी कर रहा हूं। भगवान ने कहा, देखा नारद महापुरुषों के नुस्खे लाजवाब होते हैं। यह युक्ति भी तुझे उन्हीं गुरुजी से मिली है। नारद महापुरुषों के नुस्खे लेकर जीव अपने अतृप्त हृदय में तृप्ति पाता है। अशांत हृदय में परमात्मा शांति पाता है, अज्ञान से घिरे हुए हृदय में आत्मा का प्रकाश पाता है, जिन – जिन महापुरुषों के जीवन में गुरुओं का सच्चा प्रसाद आ गया। ऊंचे अनुभव को उचित शांति को प्राप्त हुए हैं। हमारी क्या शक्ति है कि उन महापुरुषों, उन गुरुओं का बयान करें। वह ज्ञानवान महापुरुष जिसके जीवन में निहार लेते हैं, जिसके जीवन पर जरा सी मीठी नजर डाल देते हैं, उसके जीवन में मधुरता का संचार हो जाता है।
राजा परीक्षित को जब पता चला कि 7 दिन में ही उनकी मृत्यु हो जाएगी तो सुकदेव महाराज जैसे सदगुरु ने ही उनको मृत्यु रूपी अजगर से बचाया। राजा परीक्षित जब अपने सद्गुरु सुकदेव जी महाराज की शरण में गए तभी उनके जीवन से मृत्यु का भय दूर हो पाया। वैसे तो व्यक्ति अपनी जन्म कुंडली को सुधारने के लिए अनेक उपाय करता रहता है, अनेक प्रकार के मंत्रों का जाप तथा अनेक विधि अपनाता है, परंतु जिस व्यक्ति ने सद्गुरु से दीक्षा ली है सद्गुरु के अनुसार जीवन जीता है, उनकी आज्ञा में चलता है, ऐसा व्यक्ति सहज ही कर्मों तथा ग्रहों की चाल से निकल जाता है।
दुखी व्यक्ति जब मंदिर में जाकर भगवान से अपने दुख, अपनी पीड़ा को बताता है तो भगवान उसे उस दुख और पीड़ा से निकलने का रास्ता नहीं बताते। परंतु गुरु तो साक्षात ऐसे व्यक्ति की दुख, पीड़ा सुनता भी है और उसे दूर करने का निवारण और उपाय भी बताता है और कई बार तो अपनी साधना के द्वारा उस व्यक्ति के पाप को भस्म भी कर देते हैं। आप सभी साधकों को, सत शिष्यों को, गुरु पूर्णिमा की लाख-लाख बधाई। मैंने भी मेरे जीवन में, जो जितनी भी ऊंचाई पाई है, जो कुछ भी सीखा है और जो भी आज के समय में आप लोगों को बांट रहा हूं। वह सिर्फ और सिर्फ मेरे गुरुदेव के आशीर्वाद के कारण ही बांट पा रहा हूं। अगर मैं सही शब्दों में कहूं तो मेरी कोई औकात नहीं कि मैं किसी के कष्ट दूर कर पाता, किसी के दर्द दुख को सुन पाता, किसी के जीवन में खुशियां ला पाता। यह जो भी प्रसाद, जो भी प्रसन्नता, जो मधुरता आप लोगों के जीवन में मेरी वाणी सुनकर, उपाय अथवा मंत्र जाप आदि करके आ रहा है। उसका सारा श्रेय मेरे गुरुदेव को जाता है। अंत में मैं हाथ जोड़कर गुरु महाराज के चरणों में प्रणाम करके, उनके नाम का जयकारा लगाकर प्रार्थना करता हूं कि हे गुरुदेव जो भी आपकी शरण में आया है अथवा आएगा ? आप कृपया उन सबके कष्टों का निवारण करें, उनको जीवन में वह सब मिले जिसके वह हकदार हैं, उनके पाप कर्म कट जाएं और उनके पुण्यों में अभिवृद्धि हो जाए।
सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग भवेत।।
ओम नमः शिवाय, शिव सदा सहाय।
बाबा महाराज आपका कल्याण करें। आपकी रक्षा करें।
पंडित सुनील वत्स
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